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छत्तीसगढ़ की घुमन्तू जनजाति : नट

अनेकता में एकता ही भारतीय संस्कृति है और उस अनेकता के मूल में निश्चित रुप से भारत के विभिन्न प्रदेशों में स्थित जनजातीय है। भारत में घुमंतू जनजातियों के लोग हर क्षेत्र में निवास करते हैं इनकी जीवन पद्धति अन्य लोगों से भिन्न है। घुमंतू जनजातियों की वेशभूषा, खान पान, आभूषण, निवास व्यवस्था, सभ्य कहलाने वाले लोगों से कोसों दूर है। इनका निवास स्थान ज्यादातर अस्थायी रुप में होता है। ये लोग जंगल, पहाड़, पर्वत, नदी-नालों के आसपास अपना डेरा, घास एवं कपड़ों की झोपड़ियाँ बनाकर रहा करते हैं। विभिन्न विद्वानों में जनजाति शब्द के पर्याय के रुप में आदिम जाति, वन्य-जाति आदिवासी, वनवासी, निरक्षर, असभ्य जाति आदिनाम दिया है। परंतु इसमें से अधिकांश एक ही अर्थ को घोषित करने वाले है, परन्तु इन्हें असभ्य, निरक्षर करना आज पूर्णतया अनुचित और अव्यवहारिक है। यहाँ हमनें जनजाति कहना अनुपयुक्त माना है।

छत्तीसगढ़ जनजातियों में नट

नट वैसे छत्तीसगढ के अलावा अन्य राज्य में भी फैले हैं। छत्तीसगढ़ी में उन्हें डंगचघा कहा जाता है, जिसका अर्थ है, रस्सी पर चढ़ने वाला। यह घुमंतू जाति है। इनका काम गांव-गांव घूमकर करतब दिखाना था। (नट) घुमन्तू भ्रमणशील जाति है, जो प्रायः भारत के सभी क्षेत्रों में पाए जाते हैं। यहां हम छत्तीसगढ़ के नट समुदाय के जीवन-पद्धति के बारे में अध्ययन साझा करेंगे।
नट जनजाति छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक दृष्टिकोण से एक अत्यंत महत्वपूर्ण जनजाति है। कुछ वर्षों पहले नट घुमंतू जाति के रुप में पहिचाने जाने जाते थे, परंतु अब इसमें समय के साथ परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं। नट मुख्य रुप से छत्तीसगढ़ में रहने वाला एक यायावर जाति है। इनकी उत्पत्ति एवं इतिहास के बारे में कुछ ठी-ठाक ज्ञात नहीं पर ये एक गरीब परन्तु कलाप्रेमी के रुप में जाने जाते हैं। ये प्रायः गा कर एवं भीख मांगकर एक जगह से दूसरे जगह घूमते जीविकोपार्जन करते हैं। हालांकि अब घुमंतू समुदाय में विशेष परिवर्तन देखने को मिलता है। अब यह स्थायी निवास बनाकर रहते हैं। छत्तीसगढ़ में घुमंतू जनजातियों के लोक साहित्य को सहेजनें का कार्य हो रहा है एवं इस कला को इनकी जीविका साधन बनाने के प्रयास हो रहे हैं। इस प्रयासों के चलते नट समुदाय में आ रहे आर्थिक एवं सामाजिक बदलावों की पड़ताल ही इस लेख का मुख्य उद्देश्य हे।

यहाँ वहाँ यायावर नट जाति को अब छत्तीसगढ़ के विभिन्न नगरों और खुले मैदानों में अपने डेरे तानकर स्थाई तौर पर निवास करने लगी है। नट को ‘‘डंगचघा’’ भी कहा जाता है। घुमंतू जनजातियों के लिए सक्रियता दिखाने की जरुरत है। ब्रिटिश राज से पहले घुमंतू जनजातियों का जीवन बेहद सम्पन्न और सम्मानजनक हुआ करता था, बल्कि हमारा पूरा सामाजिक ताना-बाना ही इन समुदाय पर टिका था, मनोरंजन से सूचनाओं तक के लिए समाज इन जातियों पर निर्भर था, कालबेलिया, बंजारे, नट, लोहार, आदि सभी समाज का अभिन्न हिस्सा थे।

यायावर जाति के व्यवसाय के बारे में जो जनश्रुति मिलती है उसके अनुसार ‘‘बनजारे’’ पशुओं पर माल ढ़ोने का काम किया करते हैं। लोहार जगह-जगह जाकर औजार बनाते और बेचते थे, ‘कालबेलिया’ (सपेरा) सांपों का खेल दिखाकर मनोरंजन उदर पूर्ति करते थे। ‘‘नट’’ नृत्य और करतब दिखाते थे।

देश भर में कुल तीन सौ से अधिक घुमंतू जनजातियाँ हैं। जिनके लोगों की संख्या करीब पांच करोड़ है, इस लिहाज से देखें तो एक लाख लोगों को बसाने के बावजूद भी इनकी कुल आबादी के आधा प्रतिशत कम लोग को ही अब तक बसा पाए हैं। छत्तीसगढ़ के नट समुदाय अब करतब दिखाकर पैसे मांगना छोड़ रहे हैं। वे अब मेहनत करना चाहते हैं। नई पीढ़ी को करतब दिखाना रास नहीं आ रहा। वे रोजी, मजदूरी करने गांवों से नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

नट समुदाय वर्तमान समय में सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। बेलपान, फरहदा, मुंगेली जिलों में रहने वाले नट काम की तलाश एवं स्थायी निवास हेतु शहरों की तरफ आ रहे हैं। नट अपने पूर्वजों की भांति रस्सी पर करतब दिखाना और नाचना, गाना आपत्तिजनक लगता है। इसलिए वे मेहनत करना चाहते हैं। इस कार्य के लिए पूरा नट समुदाय एक दूसरे की मदद करने को तैयार है। नई पीढ़ी के इस फैसले से समूचा नट समुदाय एक दूसरे का हौसला बढ़ा रहा है। यदा कदा ही नट समुदाय करतब दिखाता नजर आता है।

सेन्ट्रल युनिवर्सिटी सुरक्षा के लिए बाउंड्रीवाल बनवा रही है। इसके निर्माण में नट जाति के दो दर्जन परिवार जुटे हैं। पंचायतों की बागडोर संभाल रहे विजयपुर में सरपंच रह चुके छेदी का कार्यकाल सराहनीय था। इससे इनका सामाजिक विकास हुआ। इसके बाद इन्हें सम्मान मिलना शुरू हुआ।
फूलबाई भी सरपंच बनने के पहले माँगकर गुजारा करती थी, लेकिन उसने यह छोड़ दिया। युवाओं की सोच की प्रशंसा करते बताया कि यह अच्छा प्रयास है। उनका मानना है कि मेहनत करने की वजह से अब लोग उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।

शिक्षा से आई जागरुकता की वजह से नट समुदाय की युवा पीढ़ी में बदलाव आया है। यह एक अच्छी पहल है। स्कालरशिप, आवासीय विद्यालयों, महाविद्यालयों, चिकित्सा संबंधी प्रोत्साहन योजनाओं जैसे सरकारी प्रयासों की जरूरत है।

धार्मिक व सांस्कृतिक जीवन

करतब दिखाकर जीविकोपार्जन करने वाली नट जाति की सभ्यता और सामजिक नियम अपने आप में न केवल ढेढ हैं बल्कि अनोखें हैं। नट का ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास है। राम ठाकुरदेव, बूढ़ा देव आदि देवी देवताओं को मानते हैं। नटों का विश्वास है कि समुदाय की रक्षा अपदा से रक्षा के लिए देवताओं की पूजा जरुरी है। नटों के देवता इनके घरों में ही रहते हैं।

विवाह की प्रथा भी सामान्यतः होती है बहु विवाह प्रचलित है। लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को महत्व दिया जाता है। इन जनजाति को सबसे आनंद से भर देने वाला संस्कार ‘‘विवाह संस्कार’’ माना जाता है।

टोना-टोटका

टोना-टोटका पर नटों का अटूट विश्वास होता है, बैगा मंत्र आदि द्वारा झाड़ फूंक करता है। मोहनी, जड़ी, किसी महिला पर फेंक देने से वह सम्मोहित हो जाती है। किन्तु सभ्य व आधुनिक नट इस पर विश्वास अपेक्षाकृत कम करते हैं।

नट के मृतक संस्कार

इस जनजाति के लोग ‘मृत्यु संस्कार’ दुखद रुप में मनाते हैं कई मृतक आत्मा को शराब की बूंद पिलाते है। कुछ नट मृतक को अग्नि देते हैं, तो कई दफनाते हैं। समुदाय के सभी मृतक आत्मा के गुणों को याद करते-करते शोकगीत गाते हैं। इस जनजाति की नारियाँ चूल्हा तब तक नहीं जलाती तब तक मृतक की अंतिम विधि पूरी नहीं होती है। यह लोगा मानते हैं कि मृतक आत्मा किसी न किसी रुप में जन्म लेते हैं।

नटों में नामकरण

नामकरण के लिहाज से नट अब आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं। महिलाओं के नाम अनोखे होते हैं जैसे घसनिन, दुकालिन, हलवाईन आदि समय परिवर्तन के साथ अब नूतन नाम भी शामिल रखे गए हैं। जैसे भारती, पद्मा, रेखा आदि।

छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले के घुरू अमेरी में मैंने स्वयं जानकारी ली तो कुछ तथ्य सामने आए जैसे – घुमंतू जनजातियों में नट समुदाय के बीच में पहुंची जिनमें अधिकांशतः तो ऐसे हैं जो जीवन भर घुमते रहते हैं अपनी रोजी रोटी की तलाश में, हमारी संस्कृति, समृद्ध परंपराओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाने तथा लोगों का मनोरंजन करने के लिए इन जातियों के लोग परिवार समेत अलग अलग स्थानों पर घूमते रहते हैं।

घुमंतू जनजातियां तो मूलतः लोक कलाओं की समृद्ध परम्पराओं की पोषक रही हैं। अगर लोक कला के संरक्षण के साथ-साथ इनके संरक्षण और संवर्धन पर खर्च किया जाए तो आज घुमंतू जनजातियां जो हमारी समृद्ध परम्परा को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित कर रहे हैं। हाशिए का शिकार होने से बच जायेंगे।

घुमंतू समुदाय के पास सृजित ज्ञान की अथाह पूंजी है, जो धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रही है क्योंकि इनका ज्ञान उनके जीवन का हिस्सा है यदि उनका जीवन बचेगा तो ही ज्ञान बचेगा।

संदर्भ सूची
(1) डॉ. सुरेश गौत्म भारतीय साहित्य कोश खण्ड -01 पृ.60।
(2) डॉ. इन्दु यादव भारतीय लोक साहित्य का अध्ययन – पृ. 16।
(3) दैनिक भास्कर -बिलासपुर
(4) पत्र-पत्रिकायें
(5) डॉ. भिराव पिंगले : आदिवासी एवं अपेक्षित जन – पृ.188.
(6)www.sahapedia.org/

आलेख

डॉ अलका यतीन्द्र यादव सहायक प्राध्यापक (हिन्दी) पी.एन.एस. महाविद्यालय बिलासपुर (छ.ग.)

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One comment

  1. विवेक तिवारी

    सुग्घर आलेख 👌👌👌

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