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जैव जगत एवं पुरातत्व का सजीव संग्रहालय : बार नवापारा अभयारण्य

छत्तीसगढ़ के अन्यान्य वनांचलों की ही भांति बारनवापारा को भी एक रहस्यपूर्ण, अलग-थलग, सजीव व सतत् सृजनशील तथा बेदाग हरापन लिए बीहड़ वन क्षेत्र के रूप में सहृदय दर्शक सहज अनुभव करता है। जिस वन्य परिवेश के प्रत्यक्षानुभव प्राप्त करने हेतु छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर से बारनवापारा की यात्रा के लिए कोई पर्यटक संकल्पपूर्वक उद्यत होता है, ऐसे संकल्पवान हर एक व्यक्ति के लिए यह यात्रा वन्य परिवेश से प्रत्यक्ष साक्षात्कार स्थापित करने का सुनहरा अवसर सुलभ कराता है।

स्थिति, विस्तार, पहुँच मार्ग:-

रायपुर के उत्तर-पूर्व की दिशा में लगभग 100 कि.मी. की दूरी पर 250 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में विस्तृत है बारनवापारा अभयारण्य। महानदी की सहायक बालमदेई और जोंक नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश में परिव्याप्त है यह अभयारण्य। बारनवापारा रायपुर अथवा बिलासपुर से पृथक-पृथक सड़क मार्गों द्वारा सम्बद्ध है।

पर्यटक रायपुर से राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. 06 पर स्थित तुमगांव अथवा पटेवा होकर बारनवापारा पहुंच सकता है। पहला मार्ग तुमगांव-सिरपुर-औंराई-बरबसपुर से बारनवापारा पहुंचता है। दूसरा मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. 06 पर स्थित पटेवा से वन मार्ग द्वारा रवान होकर बारनवापारा पहुंचता है। बिलासपुर से शिवरीनारायण-कसडोल-देवपुर-पकरीद-बरबसपुर होते हुए यात्री बारनवापारा में प्रवेश करता है।

नागरिक परिवेश को पार कर जैसे ही हम आगे बढ़ते हैं, चारों ओर पूरा-क्षेत्र हरा-भरा नजर आने लगता है। सड़क के दोनों ओर लहलहाते खेत, उसमें काम कर रहे नर-नारी, हरे-हरे घास चरते गोधन के रेण, सिर पर फुंदेदार खुरमी ओढ़े ग्वाला, रेण के दायें-बायें होती गोबरहिन, बांसुरी की धुन में स्वयं को भुला ग्वाला, हरे-भरे खेतों के बीच कहीं-कहीं छोटे-छोटे जंगल-डोंगर, जंगली सुअरों से अपने खेतों की रखवाली करते मचान पर बैठा रखवाला, यह सब कुछ आल्हादकारी, मनोरम लगता है। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की दिनचर्या का जीता-जागता स्वरूप यात्रा अवधि में ही अनुभव करता आगे बढ़ाता है-यात्री दल।

पर्यटनार्थ उपयुक्त समय:-

बारनवापारा भ्रमण की इच्छा रखने वाले सभी श्रेणियों के भ्रमणार्थियों के लिए रायपुर निकटतम और उपयुक्ततम पड़ाव है। निर्बाध ताजगी और सदा हरे-भरे परिवेश से समृद्ध बारनवापारा अभयारण्य के प्राणवन्त छोटे-बड़े वृक्षों, लता-वल्लरियों, क्षुभों, जंगली घासों से अटे भूमियों में बारहवों माह एक समान ताजगी और नयापन बना रहता है। परिणामस्वरूप एक साहसी और जोखिम उठाने की क्षमता से युक्त दर्शक हर एक क्षण को न केवल जीने की कामना रखता है, अपितु उन्हें अपने कैमरे में कैद करना चाहता है। परन्तु सुविधा एवं सुरक्षागत कारणों से प्रशासन तन्त्र द्वारा वर्ष पर्यन्त निर्बाध यात्रा की अनुमति प्रदान कर पाना सम्भव नहीं है। वर्ष में आठ माह नवम्बर से जून पर्यन्त अभयारण्य में भ्रमण की अनुमति दी जाती है। यात्री दल को इसके लिए सम्बन्धित विभागों से अनुमति लेनी होती है।

नामकरण:-

इस वन क्षेत्र की विस्तार सीमा अन्तर्गत छोटे-बड़े तेईस (23) वन ग्राम अवस्थित हैं। इनमें से एक ग्राम का नाम ‘बार’ है तो दूसरे पड़ोसी ग्राम को लोग ‘नवापारा’ नाम से सम्बोधित करते हैं। इन्हीं दो ग्राम नामों के आधार पर यह सम्पूर्ण वनाचंल बारनवापारा के नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान में ये दोनों गांव शेष ग्रामों की तुलना में कतिपय अपवाद के साथ संकेन्द्रिय महत्व के हो चले हैं। नैसर्गिक रूप से उगे वन तुलसी के पौधे सम्पूर्ण वन क्षेत्र में पाये जाते हैं। इनकी सुंगध से समूचा वनांचल सराबोर रहता है।

वन्य सुषमा:-

सदाबहार वन की सम्पूर्ण सुषमा को अपने वितान में समेटा यह वनांचल अपनी नई पहचान, नई परिभाषा की बाट देश रहा जान पड़ता है। कोई पर्यटक जैसे ही थोड़ा आगे बढ़ता है, वह स्वयं को चारों तरफ ऊॅंचे-ऊॅंचे पेड़ों से घिरा पाता है, वृक्षों का झुरमुट इतना संकुचित हो जाता है कि वह यह अनुभव करने लगता है मानो सर से पैर, पर्यन्त हरा लबादा ओढ़े कभी न अन्त होने वाले गहरे गव्हर से गुजर रहा हो।

यहाँ जंगल में अक्षय जीवन का अजस्र स्पन्दन है। ऊपर निर्मल निलाभवर्णीय आसमान, अन्तरिक्ष को हरित वर्ण के चादर से ढके ऊॅंचे-ऊॅंचे वृक्षों के छत्राकार छत छोटे-छोटे झाड़, क्षुभ, झाड़-झंखाड़, ऊॅंचे-लम्बे हरे वर्ण के जंगली घास, शेष रिक्त क्षेत्र में हरे-हरे ग्रास और इनमें छोटी-छोटी वनस्पतियाॅं आदि। अत्यन्त उल्लास दायी परिवेश का सृजन कर रहे हैं। सम्पूर्ण वन प्रान्तर विभिन्न प्रजाति के वृक्षों, पादपों से भरे हुए हैं। इनमें इमारती श्रेणि में आगणित वृक्षों की भरमार है। वन प्रान्तर के बहुलांश को आवृत्त करते बांस के भीरे। जंगल के भूस्तर पर जड़ी-बूटियों, नाना प्रकार के घासों का प्राचुर्य है।

बारनवापारा में जंगल के वन में प्रमुख रूप से सागौन के वृक्ष पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य इमारती वर्ग के लकड़ियों के वृक्षों में साजा, बीजा, लेण्डिया, सरई, साल, हल्दू के वृक्ष बहुतायत से प्राप्त होते हैं। अन्य उल्लेखनीय वृक्षों में खैर, तेंदू, महुआ, आम, इमली, आंवला, अमलतास, पलाश, पीपल, वट आदि आते हैं। वैज्ञानिक वर्गीकरण में बारनवापारा जंगल को भले ही सागौन वन के अन्तर्गत रखा जाता है, परन्तु इसकी मौलिक प्रकृति मिश्रित वन की है। यहाँ के मूल्यवान पादपों में बांस की गणना प्रमुख उत्पादों में की जाती है।

पादप जगत एवं जैव जगत के जीवन तन्त्र की निरन्तरता, प्रवाहमयता को गतिमान बनाये रखने के लिए जल तत्त्व की उपलब्धता अनिवार्य आवश्यकता है। महानदी की सहायक जोंक तथा बालमदेई नदियों में जल प्रवाह वर्ष पर्यन्त बना रहता है। शेष छोटी-छोटी नदियों एवं नालों में जल की धारा टूट जाती है। परन्तु गढ्ढों में किसी न किसी मात्रा में जल भरा रहता है। बारनवापारा परिक्षेत्र में जल संसाधन का प्रमुख माध्यम शताधिक संख्या में छोटे-बड़े तालाबों की उपलब्धता है। यहाँ के आदिवासियों में मत्स्याखेट की जीवन्तता बनाये रखने में इनका महत्वपूर्ण योगदान है।

जैव विविधताओं की दृष्टि से बारनवापारा छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण एवं विलक्षणताओं से परिपूर्ण स्थान रहा है। यहाँ के जैव वैविध्य का बहु-आयामी स्वरूप गहन अनुशीलन की अपेक्षा रखता है। चींटी, माटा से आरम्भ कर मक्खियों, पक्षियों, वन्य पशुओं तथा सरिसृपों का विशाल संसार इस अध्ययन में समाविष्ट रहता है। यहाँ इनके सन्दर्भ में अत्यन्त इनके सन्दर्भ में अत्सन्त संक्षिप्त उल्लेख किया जाना ही अभिष्ट है। यहाँ उपलब्ध वन्य पशुओं में व्याघ्र, तेंदुआ (चीता), गौर, नील गाय, सांभर, धब्बेदार हिरण, चिंकारा, काला चीता, चैसिंगा, कुरंग, लोमड़ी, चितल, कोटरी, आलसी रीछ, जंगली श्वान, अल्पज्ञात पिसूरी, जंगली बिल्ली, साही, सुअर, कक्कर आदि प्रमुख हैं। यह अभयारण्य लगभग 150 से भी अधिक प्रजातियों के पक्षियों की शरणस्थली है। इनमें तोता, सुग्गा, बुलबुल, कठफोड़वा, गिद्ध, मोर, खेरमुतिया, मुर्गा, चैती, बसन्ता, कौंआ आदि सम्मिलित हैं।

सरिसृप वर्ग के जीवों का इस अभयारण्य में महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें अजगर, कृष्णनाग, गेहुंआ नाग, लाल नाग एवं अन्य प्रकार के सर्प पाये जाते हैं। तालाबों में पाये जाने वाले सांपों का बाहुल्य है।

गिलहरी, साहि आदि की गणना इसी श्रेणी वर्ग में की जा सकती है। इनके अतिरिक्त चींटी, चींटे, माटा आदि की भी यहाँ उपस्थिति मिलती है। झाड़ियों और क्षुभों के बीच मिट्टी का गुम्बजाकार टीला देखने में आता है जिनका भौतिक अस्तित्व छोटी-छोटी चींटियों की देन होता है और इसके विवर में सहस्त्रों की संख्या में चींटियाँ निवास करती हैं। वृक्ष के तने और उसके चारों तरफ का भू-प्रदेश पर दीमकों का अपना डेरा रहता है। अभयारण्य का परिवेश मधुमक्खियों के लिए सर्वथा निरापद और अपेक्षानुरूप अनुकूल है। दैवयोग से ही वन्य जीवों-चीता आदि देखने आते हैं। ऐतिहासिक तथा पुरातत्त्वीक महत्व के स्थल भी बारनवापारा परिक्षेत्र में स्थित हैं।

बारनवापारा की विस्तार सीमा के अन्तर्गत सिरपुर जो प्राचीन श्रीपुर था अवस्थित है। परन्तु अभयारण्य के पर्यटकों को सिरपुर भ्रमण कराने की दिशा में अभी तक कोई प्रभावी प्रयास नहीं किया जा सका है। तुरतुरिया दूसरा सांस्कृतिक, पुरातात्त्विक महत्व का स्थल है जो अभयारण्य की सीमा के अन्तर्गत है। कसडोल की दिशा में नारायणपुर भी ऐतिहासिक पुरातात्त्विक महत्व का स्थान है। इन स्थानों के सम्बन्ध में पृथक-पृथक से प्रकाश डालना उचित होगा।

सिरपुरः-

छत्तीसगढ़ का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा पुरातात्त्विक दृष्टि से सर्वाधिक महत्व का स्थान सिरपुर बारनवापारा अभयारण्य की परिसीमा के अन्तर्गत जिला मुख्यालय रायपुर से उत्तर-पूर्व की दिशा में 84 कि.मी. की दूरी पर अवस्थित है। शरभपुरीय तथा पाण्डुवंशीय राजाओं की यह राजधानी तत्कालीन अभिलेखों में श्रीपुर नामाभिधान से सम्बोधित है। सातवीं शताब्दी ई.स. के लगभग भारत की यात्रा में आये चीनी यात्री हु-त्सांग ने अपने श्रीपुर भ्रमण का विवरण देते हुए द्वितीय शताब्दी ई.स. में हुए बौद्ध दार्शनिक एवं महायान मत अन्तर्गत शून्यवाद सिद्धान्त के प्रवर्तक नागार्जुन का सम्बन्ध श्रीपुर से स्थापित किया है।

पुरातत्वीय प्रमाणों से भी श्रीपुर की ऐतिहासिकता दूसरी शताब्दी ई.स. से प्रारम्भ होना प्रमाणित है। गुंजी पर्वत अभिलेख प्रथम शताब्दी ई.पू. से कोसल क्षेत्रान्तर्गत भागवत (वैष्णव) धर्म की ऐतिहासिकता प्रतिपादित करता है। श्रीपुर से भागवत धर्म सर्वजन मान्य धर्म के रूप में शरभपुरीय वंश के शासन काल से प्रतिष्ठित हो चला था, यह तत्कालीन ताम्रपत्रों के अन्तःसाक्ष्यों से अनुमानित है। इसी काल खण्ड के मध्य श्रीपुर के प्रभावक्षेत्र अन्तर्गत राजिम में भी पांचरात्र भागवत धर्म की लोकप्रियता में उल्लेखनीय विकास हुआ। शरभपुरीय राजवंश के अवसानोपरान्त पाण्डुवंश (सोमवंश) का शासन काल उदात्त धार्मिक सहिष्णुता का काल रहा। हु-एन-त्सांग के समकालीन श्रीपुर नरेश परम माहेश्वर महाशिव गुप्त स्वयं शैव था।

उसके पिता हर्ष गुप्त और माता वासटा दोनों ही परम वैष्णव थे। रामाता वासटा ने अपने स्वर्गीय पति की आत्मा की शान्ति के लिए अपने यशस्वी पुत्र महाशिव गुप्त बालार्जुन के राजत्व काल में हरिधाम अर्थात् लक्ष्मण देवल के नाम से विख्यात पक्व मृण इष्टिका निर्मित मन्दिर का निर्माण कराया। इसी समयावधि में महायान शाखा से सम्बन्धित विहारों का निर्माण किया गया। महाशिव गुप्त बालार्जुन द्वारा उदात्ततापूर्वक दिये गये सहयोग से प्रभावित चीनी यात्री हु-एन-त्सांग ने श्रीपुर के तत्कालीन नरेश को महायान धर्मावलम्बी बताने की चूक की है। उसके दिये विवरण से श्रीपुर के 100 विहार तथा 150 मन्दिरों की जानकारी अवश्य प्राप्त होती है। महाशिव गुप्त के उपरान्त उसके उत्तराधिकारियों ने कब तक राज्य किया?इस सम्बन्ध में इतिहास पूर्णतः मौन है। जहाँ तक श्रीपुर के इतिहास का प्रश्न है पुरातात्त्विक प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 9वीं शताब्दी की समाप्ति के साथ पाण्डु युगीन श्रीपुर का पूर्व वैभव विलुप्त हो गया अर्थात् स्थूल रूप से यह कहा जा सकता है कि पाँचवीं शताब्दी ई.स. से 9वीं शताब्दी ई.स. का मध्यवर्ती काल श्रीपुर की कला इतिहास का काल रहा। यहाँ की वैभवपूर्ण पहचान बनाई। यहाँ के प्रतिनिधि वास्तु रूपों और तद्युगीन मूर्तिकला का संक्षिप्त में परिचय देना उचित होगा।

लक्ष्मणदेवल:-

मृणमय पक्व ईष्टिका निर्मित लक्ष्मणदेवल की गणना देश के ईंटों से निर्मित सर्वोत्तम मन्दिरों में की जाती है। वास्तु और शिल्प का परस्पर अनुपूरक समाहार जो इस उदाहरण में प्राप्त होता है वह अन्यत्र देखने में नहीं आता। वास्तु की मौलिक शैली, उत्कृष्ट नक्काशी, अंग-अंग में आश्चर्यजनक प्रतिसाम्य, सर्वांग सन्तुलित विन्यास-इस कलापीठिका में सबका संयोजन अपने आप में विलक्षण है-एकाकी है। भू-विन्यास में इस मन्दिर में स्पष्टतः तीन अंगों के निर्देश प्राप्त होते हैं-मण्डप, अन्तराल, गभगृह। उत्सेध विन्यास में महामण्डप की भौतिक सत्ता पूर्णतः विलुप्त हो चुकी है। शेष है मण्डप के स्तम्भों, कुड्य स्तम्भों की वर्गाकार बैठकी अन्तराल भी विनष्ट हो चला है। बहुलांश में ढह चुकी पाश्र्वभित्तियों के कुछ संकेत मात्र आज विद्यमान हैं। पंचरथ प्रकार का पंचांग वाडयुक्त विमान संरक्षित दशा में उपलब्ध है। पूर्वाभिमुख गर्भगृह वाले विमान की वास्तुयोजना अत्यन्त संश्लिष्ट है। विमान पूर्णघटाकृत अधिष्ठान, स्तम्भाकृत जंघा तथा सम परिमाप में उध्र्वगामी शिखराग इस वस्तु को नयनाभिराम बना रहे हैं। विमान की उभय पाश्र्ववर्ती भित्तियों तथा पृष्ठभित्ति थम्भों को वातायन, चैत्य गवाक्ष, भारवाहकगण, अज, कीर्तिकुख एवं कर्ण आमलक से मण्डित किया गया है। मध्यवर्ती भाग के मध्य में छदम द्वार बन्दद्वारपट का बड़ा ही सुन्दर उत्कीर्णन है। शिखरांग पांच उध्र्वगामी अंगों में विभक्त है। उभयदिकवर्ती अन्तिम पाग को क्रमशः चार-चार भूमि आमलकों में विभक्त किया गया है। मध्य पाग पर उध्र्वक्रम में चैत्यगवाक्ष अलंकरण मिलता है। गर्भगृह का अलंकुत प्रवेशद्वार दर्शनीय है। द्वार के ललाट पट्ट पर शेष नाग के कुण्डलित अंग पर विष्णु की आकृति है। वाम पाश्र्व के द्वारपट पर दशावतारों का मूर्तांकन है। दशिण पट पर कृष्ण कथा पर आधारित मूर्तियाँ हैं। द्वार के उभय पाश्र्व में क्रमशः जय-विजय की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह में कुण्डलित नाग पर आसीन दैवी विग्रह है जिसे शेषावतार लक्ष्मण का श्री विग्रह मानते हैं। यह सम्पूर्ण मन्दिर 23.5 मीटर लम्बे, 12मीटर चैड़े और 2.1 मीटर ऊॅंचे चबूतरे पर निर्मित है। पूर्वी छोर में उत्तर तथा दक्षिण की ओर सोपान मार्ग है।

राम मन्दिर:-

लक्ष्मणदेवल से थोड़ी ही दूरी पर लगभग 9वीं शताब्दी की ताराकृति वास्तु योजना में निर्मित ईंटों का बना दूसरा देवालय है जिसे राम मन्दिर कहा जाता है। इस भग्नप्राय मन्दिर को केन्दीय पुरातत्त्व विभाग द्वारा संरक्षित कर दिया गया है। संरक्षण कार्य के परिणामस्वरूप अब इसका मूल वास्तु रूप स्पष्ट हो चला है। इसे देखकर यह कहा जा सकता है कि अपनी पूर्णावस्था में यह निःसन्देह दर्शनीय स्मारक रहा होगा।

गन्धेश्वर महादेव मन्दिर:-

वर्तमान गन्धेश्वर महादेव मन्दिर महानदी के तट पर अवस्थित है। यह मंदिर प्राचीन स्थापत्य अवशेषों से बनाया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से मन्दिर का अपना कोई महत्व नहीं है, परन्तु संग्रहित स्थापत्य अवशेषों, मूर्तियों, स्तम्भों, शिलालेखों आदि के कारण यह महत्वपूर्ण हो चला है तथा प्रत्येक पर्यटक इसका भ्रमण अवश्य करता है। सिरपुर की शिल्प कला के कतिपय महत्वपूर्ण उदाहरण यहाँ संरक्षित हैं। इनमें प्रमुख हैं-भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध, नटराज शिव, वराह, गरूण नारायण, महिषासुर मर्दिनी आदि।

बौद्ध विहारः-

सिरपुर के ऐतिहासिक स्मारकों में चैत्य विहारों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। डॉ एम.जी. दीक्षित द्वारा कराये गये उत्खनन कार्य के परिणामस्वरूप आनन्द प्रभ कुटी विहार और स्वास्तिक विहार की ऐतिहासिक सत्ता का अभिज्ञान प्राप्त हुआ है। उत्खनन से प्राप्त शिलालेखों में इन विहारों का विवरण प्राप्त होता है। एक शिलालेख में उल्लेखित है कि आनन्द प्रभ नामक भिक्खु ने महाशिव गुप्त बालार्जुन के राजत्व काल में आनन्द्र प्रभू कुटी विहार का निर्माण कराया। दोनों ही विहारों में 6 फीट ऊॅंची भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध की मूर्ति स्थापित है। इनमें आवासीय कक्ष, ध्यान कक्ष, अध्ययन कक्ष पृथक-पृथक बनाये गये है। यहाँ अवलोकितेश्वर और मकरवाहिनी गंगा की मूर्तियाँ हैं। आनन्द प्रभू कुटी विहार में कुल चौदह कक्ष, स्वागत द्वार, द्वार के उभय पाश्वों में द्वारपाल की मूर्तियां हैं। दूसरे विहार से कांस्य निर्मित आठ छोटी-छोटी मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। सिरपुर के कांस्य मूर्ति शिल्प के ये प्रतिनिधि उदाहरण हैं।

छत्तीसगढ़ राज्य शासन द्वारा कराये जा रहे उत्खनन कार्यों के परिणामस्वरूप यहाँ से शैव, वैष्णव, तांत्रिक तथा जैन मन्दिरों की ऐतिहासिकता प्रकाश में आयी है। मन्दिर वास्तु अवशेषों के अतिरिक्त विहार राजमहल, राजप्रमुख का अधिवास भवन, पुरोहित का अधिवास आदि स्मारकों का भी अभिज्ञान हो सका है। इन उत्खननों के परिणामस्वरूप आज सातवीं शताब्दी को सिरपुर का स्वर्णकाल माना जा रहा है।

तुरतुरियाः-

बारनवापारा अभयारण्य के पश्चिमी छोर पर स्थित तुरतुरिया बलौदाबाजार का प्रमुख प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक तथा धार्मिक महत्व का स्थल है। यहाँ एक पाताल फोड़ कुआँ की पतली क्षीण धारा को तुरतुरिया नाम से सम्बोधित किया जाता है जो कुछ ही दुरी पश्चात् बालमदेई में मिल गई है। यहाँ 7वीं-8वीं शताब्दी ई.स. के बौद्ध अवशेष प्राप्त होते हैं। एक बुद्ध की मूर्ति को स्थानीय जन बाल्मीकि की मूर्ति मानते हैं। अब बाल्मीकि की एक स्वतंत्र मूर्ति भी स्थापित कर ली गई है। जनमान्यता के अनुसार श्रीराम द्वारा परित्यक्ता सीता यहाँ ऋषि बाल्मीकि के निकट की पहाड़ी पर 10वीं-11वीं शताब्दी ई.स. की देवी-देवताओं की मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं।

नारायणपुर का विष्णु मन्दिर:-

कसडोल से सिरपुर मार्ग पर स्थित है नारायणपुर। यहाँ कलचुरि युगीन नारायणपुर विष्णु का मन्दिर है। सपाट छत युक्त मण्डप से संलग्न विमान नागर शैली का है। इस मंदिर में मिथुन प्रतिमाओं का अंकन भी दिखाई देता है।

आलेख

स्व: डॉ विष्णु सिंह ठाकुर

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