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भारत की नाथ सन्यास परम्परा एवं योगी आदित्यनाथ

भारत में नाथ परम्परा प्राचीन काल से ही विद्यमान है,  नाथ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है स्वामी तथा जगत के नाथ आदिनाथ (भगवान शंकर) को प्रथम नाथ माना जाता है, इन्हीं से नाथ संप्रदाय का प्रारंभ होता है। इसके पश्चात अन्य नाथ प्रकाशित होते हैं, जिनमें भगवान दत्तात्रेय एवं इन्हीं से आगे चलकर नौनाथ एवं 84 नाथ सिद्धों की परम्परा प्रारंभ हुई। इनमें से मत्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ, गहिनीनाथ, जालन्धर नाथ, कानिफनाथ, भर्तरीनाथ, रेवणनाथ, नागनाथ, चर्पटनाथ हुए। गोरखनाथ की प्रसिद्धि अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ से अधिक हुई और लोक प्रसिद्ध हुई। इसी नाथ परम्परा से जब योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब यह सम्प्रदाय चर्चा में आ गया। इस लेख के माध्यम से हम नाथ परम्परा एवं योगी आदित्यनाथ की जीवन यात्रा पर प्रकाश डालेंगे।

योगी जी का बचपन और परिवार
1971 का वर्ष भारत और विश्व की राजनीति में एक महत्वपूर्ण पड़ाव हैं। बैंको के राष्ट्रीयकरण प्रिवीपर्स की समाप्ति तथा गरीबी हटाओ, की तिकड़ी बिन्दुओं पर इंदिरा गांधी को लोकसभा चुनावों में बडी सफलता मिली। चुनाव के बाद बांग्ला देश निर्माण के संघर्ष में मिली सफलता ने उन्हें कालजयी प्रतिष्ठा दी। दिसंबर तक यह कार्य पूर्ण हो चुका था। 1972 के वर्ष से उनके लिये मंहगाई, मानसून वर्षा की किसी न किसी भारतीय क्षेत्र में हुई असफलता तथा जीडीपी की धीमी दर ने उनके लिये लगातार राजनैतिक मुश्किलें खड़ी की। चिन्ता की लकीरें बनने लगी थीं।

चिन्ता की लकीरें वन अधिकारी श्री आनन्द सिंह बिष्ट के माथे पर भी थीं। उनकी पत्नी गर्भवती थीं और अपनी पोस्टिंग के कारण गांव से दूर थे। रहने वाले वे यमकेश्वर तहसील के पंचुर गांव के थे परन्तु पदस्थापना उत्तरकाशी के मशाल गांव में थी। उनकी पत्नी सावित्री पांचवीं बार गर्भ से थी। अब तक तीन पुत्री और एक पुत्र का जन्म हो चुका था। इस बार समस्या यह थी कि वे घर से दूर थे। आस पास अस्पताल नहीं था।

5 जून 1972 को घर के अंदर दाई ने ही प्रसव कराया। जच्चा और बच्चा दोनों सुरक्षित और स्वस्थ थे। बच्चे का नाम आनंद सिंह बिस्ट जी ने अजय रखा। अजय के दो और छोटे भाई हुए- शैलेन्द्र और महेन्द्र। सात संतानो में अजय सबसे अलग लगता था।

आठवीं तक की पढ़ाई गांव के पास ठांगर के प्राथमिक स्कूल में हुई। आनंद सिंह जी का ट्रांसफर टिहरी गढ़वाल हुआ तो अजय उनके साथ रहने आ गये। दिहरी से उन्होंने दसवीं पास की। इंटर की पढ़ायी के लिए अजय और उनके भाई दोनों ही गांव से 75 किलोमीटर की दूरी पर विख्यात शहर ऋषिकेश गए। इसी धर्मनगरी में भरत मंदिर कालेज की स्थापना महंत परशुरामदास जी ने 1942-43 में की थी। इसके पहले महंत जी ने 1920 में भरत संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की थी। इसी संस्कृत कालेज से महंत अवैद्यनाथ ने पढ़ायी की थी। महंत अवैद्यनाथ आनंद सिंह विष्ट जी के गाव पंचुर के निकट स्थित गांव काण्डी से थे। दोनों गांव यमकेश्वर ब्लाक में थे। 1931 के वर्ष में यहां शिल्पकारों ने एक कांफ्रेंस किया था जिसके बाद छुआछूत खत्म करने के लिये आंदोलन किया गया।

1989 में अजय मोहन बिस्ट ने बारहवीं की परीक्षा पास कर ली थी। इस समय तक गणित में रुचि बनने लगी थी। इसके उपरांत उनका प्रवेश कोटद्वार के डा. पी.डी. बड़थ्वाल हिमालयन राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में बी.एस-सी. में कराया गया। डा. बड़थ्वाल ने गुरु गोरखनाथ के साहित्य का संपादन किया था। उनके संपादन में गुरु गोरखनाथ पर अनेक पुस्तके भी प्रकाशित हुई हैं।

कोटद्वार में ही अजय बिस्ट की बड़ी बहन कौशल्या की शादी हुई थी और उनके जीजाजी वामपंथी संगठन ‘स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया‘ से जुड़े थे। जीजा ने अजय बिस्ट को वामपंथी संगठन की राजनीति से जोड़ना चाहा परंतु यह हो न सका। अजय बिस्ट के अचेतन पर नाथपंथी विचारधारा का प्रभाव था। वे एबीवीपी के सदस्य बने और आरएसएस की शाखा में जाने लगे।

1992 में अजय बिस्ट अपने कालेज में छात्रसंघ सचिव का चुनाव एबीवीपी से लड़ना चाहते थे। एबीवीपी से एक और छात्र भी चुनाव लड़ना चाहते थे। दोनों की प्रतिद्वंदिता में नेताओं ने तीसरे छात्र दीपक प्रकाश भट्ट को उम्मीदवार बनाया। अजय बिस्ट जी ने तै किया कि वे स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव का सामना करेंगे। चाहे जो हो। अपने सत्य पर अडिग रहना उन्होंने खास तौर पर सीखा। इस चुनाव में अजय बिस्ट भी हारे और परिषद का उम्मीदवार भी हारा। जीते अरूण तिवारी। हालिया तौर पर वे सपा की राजनीति में सक्रिय हैं।

1992 की जनवरी में अजय बिस्ट जी के कमरे में चोरी हो गयी। नोट्स और दस्तावेज चोरी हो गये। अगले दिन कालेज को मित्र टूर पर जा रहे थे। अजय बिस्ट नहीं जा पाये। चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराने पहुंचे पर रिपोर्ट दर्ज नहीं हो पायी। इस संकट में उन्होंने थर्ड इयर की परीक्षा पास की। एमएससी फिजिक्स में प्रवेश के लिये गोरखपुर विश्वविद्यालय पहुंचे। दस्तावेजों के बिना प्रवेश में दिक्कत हो रही थी। इस समय उन्हें महंत अवैद्यनाथ की याद आई। 1990 में राम जन्मभूमि आंदोलन जोरों पर था। तब अजय बिस्ट उनसे मिले थे। परिवारिक परिचय भी था।

अजय बिस्ट जी के पिता आनंद सिंह बिस्ट 1969 में सरकारी काम से गोरखपुर गए थे। महंत अवैद्यनाथ जी उनके गांव पंचूर के निकटस्थ गांव काण्डी से थे। दोनों ही क्षत्रिय बिस्ट समुदाय से थे। स्वाभाविक तौर पर वे मिलने पहुंचे। महंत जी से मुलाकात हुई। तब अजय बिस्ट जी का जन्म नहीं हुआ था। उनके जन्म के पहले से ही परिवार के अचेतन मानस पर नाथपंथी प्रभाव पड़ना शुरू हो चुका था। इस परिस्थिति में अजय बिस्ट जी महंत अवैद्यनाथ से मिले तो ऐसा लगा कि उन्होंने पहचान लिया- रहस्यपूर्ण ढंग से उन्होंने कहा, तुम पूर्वजन्म के योगी हो तुम्हें तो यही आना था …

अजय बिस्ट सहमत नहीं हुए। रुकने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था। विज्ञान का छात्र इस तरह की बात पर कैसे भरोसा कर लेता। महंत जी भी समझ रहे थे। ऐसा लगा कि वे भविष्य को देख रहे हैं। अपनी गंभीर वाणी में अवैद्यनाथ जी ने कहा- एक दिन तुम वापस आओगे, आना ही पड़ेगा …

1993 में अजय बिस्ट फिर गोरखपुर आए। एम.एस-सी. में प्रवेश हो गया। पढ़ाई में वे सहज नहीं महसूस कर रहे थे। घर में भी मन नहीं लगता। महंत जी उन्हें अपना शिष्य और उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। सांसारिकता और अध्यात्म का दोराहा आ चुका था। दिशा तय करनी थी।

महंत जी एम्स दिल्ली में भर्ती थे। अजय बिस्ट उधेड़बुन में थे लेकिन मिलने पहुंचे। उनका हालचाल पूछा। प्रश्न का उत्तर देने की जगह महंत जी ने कहा मेरी हालत देख रहे हो? अगर मेरा अंत आ गया तो पंथ और समाज क्या कहेगा? मैंने अपना शिष्य अभी तक नहीं बनाया है। अब तो मेरी बात मान लो और शिष्य बन जाओ। दिशा तय हो चुकी थी, युवा अजय बिस्ट जी ने कहा आप स्वस्थ होकर गोरखपुर पहुंचिये … मैं आ जाउंगा।

नाथ पंथ के गुरु को शिष्य और उत्तराधिकारी मिलने ही वाला था। युवा और संभावित संन्यासी ने इस अवसर पर गुरु से पूछा क्या संन्यास पलायन नहीं है? यदि यह पलायन है तो यह मार्ग फिर श्रेष्ठ कैसे है?

गुरु ने उत्तर दिया कि पंथ जिस तरह के काम और अभियान से जुड़ा है वह पीठ में रह कर ही समझा जा सकता है। जब नाथपंथ का संन्यास समझ जाना तभी संन्यासी बनना। युवा संभावित संन्यासी को विचार करने के लिये 6 माह का समय दिया गया।

अंततः युवा ने गृह त्याग का निर्णय लिया। बिना किसी को कुछ बताए घर से निकल पड़े। घर में दुख का माहौल रहा। पता नहीं चला कि अजय बिस्ट कहां चले गये? लगभग 6 महिने बाद पता चला कि वे गोरखपुर में नाथपंथ के बड़े महंत जी के पास चले गये हैं, संन्यासी बनने।

नाथपंथ और संन्यास की परंपरा
योगी आदित्यनाथ जी के व्यक्तित्व की दृढ़ता को समझने के लिए नाथ पंथी परपरा को समझना आवश्यक है। इस पंथ का उदय माध्यकालीन धार्मिक बोध के लिहाज से अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है। नाथ पंथ में बौद्ध धर्म के वज्रयान सहित अन्य पंथों, शैवमत तथा योग की परपराओं का समन्वय दिखाई देता है। भारत में नाथ संप्रदाय को योगी, जोगी, संन्यासी, नाथ, अवधूत, कौल, कालबेलिया, उपाध्याय आदि नामों से जाना जाता है। इस संप्रदाय के कुछ गुरुओं के शिष्य मुसलमान, जैन, सिख और बौद्ध धर्म के भी थे। इस संप्रदाय में स्त्रियां भी योगिनी के तौर पर शामिल की जाती थी।

प्रारंभिक दस नाथ और उनके बारह शिष्यों में से आदिनाथ, चर्पटनाथ, जलंधरनाथ पर ही अधिक जानकारी उपलब्ध है। सिद्ध धर्म में वज्रयान शाखा के साथ साथ नाथ पंथ वाले भी शामिल हैं। इन सिद्धों में 64 अत्यंत प्रसिद्ध हैं जिनमें सरहपा को प्रथम स्थान प्राप्त है। उनका एक अन्य नाम राहुलभद्र भी था। वे पाल शासक धर्मपाल के समकालीन थे। सरहपा ब्रह्मपुत्र थे। वैदिक ज्ञान परंपरा से बौद्ध धर्म की परंपरा में ज्ञानार्जन के लिये नालंदा आए। वहीं शिक्षक हो गए। बाण बनाने वाली कन्या के निम्नवर्गीय प्रसंग को विस्मृत करते हुए संग साथ स्वीकार किया। एक समय इन्हें मूली का साग खाने का मन हुआ। मिल नहीं पाया। ध्यान का समय हुआ। समाधि लगायी। परंपरा के अनुसार बारह वर्ष बीत गये। फिर समाधि टूटी। मूली के साग की अभिलाषा याद रही। खाने के लिये साग फिर से मांगा।

वाचाल और प्रगल्मा संगिनी ने तंज करते कहा कि यह कैसी समाधि थी कि मूली की साग नहीं भूल पाये। बात चुभने वाली थी पर इन्हें बहुत चुभी नहीं। या तो संगिनी बहुत प्रिय थी या ये स्वयं तुनुकमिजाज नहीं थे। वज्रयान की सख्त जीवन शैली को छोड़ कर जीवन को सहज रूप में जीने के दर्शन का विकास किया। सहजयान का पंथ विकसित होने लगा।

नाथ संप्रदाय के सर्वाधिक प्रमुख गुरु के रूप में मछन्दरनाथ तथा गोरखनाथ प्रसिद्ध हैं। नाथ संप्रदाय के साथ साथ उस समय वज्रयान परंपरा, कापालिक समूह, वामाचारी पंथों में पंच-मकारी (मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा एवं मैथुन का सेवन) प्रवृति जोरों पर थी।

अनेक रहस्यमूलक दंतकथाओं से पता चलता हैं कि गुरु मछंदरनाथ कदलीवन की रानी के संपर्क में आ गये थे। गोरखनाथ को ताना दिया गया कि तुम्हारा गुरु पथभ्रष्ट हो चुका है। पहले उसकी मुक्ति का उपाय तो करो। अनेक प्रसंगों के बाद ‘जाग मछन्दर गोरख आया‘ सुनते हुए गुरु उस अधिक सुख-संग के मोह से उबर पाए। शायद यह पहला और आखरी दृष्टांत होगा जब शिष्य ने गुरु का उद्धार किया था। गोरखनाथ ने भारतवर्ष के अधिकांश भाग की यात्रा की। सिद्ध साहित्य की प्रकिया और कथ्य को शुद्ध करने के लिए संपादन एव मानकीकरण किया। अपनी रचना भी तैयार की। नाथ परंपरा में उन्हें शीर्ष स्थान प्राप्त है तथा वे शिव के अवतार समझे जाते हैं। मत्सेन्द्रनाथ के द्वारा रचित ‘कौल ज्ञान निर्णय‘ ग्रंथ उपलब्ध है। इसे कलकत्ता संस्कृत सीरीज में डा. प्रबोधचंद्र बागची के संपादन में 1934 में प्रकाशित किया गया। गोरखनाथ की पुस्तकों की खोज में 40 पुस्तकंे उनके नाम से प्रचलन में पायी गयी। इन 40 मे से 14 ग्रंथों को प्राचीन माना जाता है तथा शेष को बाद का।

इस मध्यकालीन धार्मिक एवं रहस्यात्मक विद्या का गोरखपुर महत्वपूर्ण केन्द्र बना। विधर्मियों द्वारा मठ को तोड़ा गया लेकिन भक्तों द्वारा फिर बनाया गया। राम जन्मभूमि स्थान की तरह गोरख मठ भी आक्रमण और ध्वंस का शिकार हुआ।

गोरखपुर के बाहर नाथ पंथ के विस्तार के प्रमुख चरण इस प्रकार रहे। पंजाब में से जलंधरनाथ ने बारहवीं सदी में लोकप्रिय किया। कानीफनाथ नें बंगाल में इसकी थोड़ी अन्य प्रकार की परंपरा शुरू की। बंगाल के शासक देवपाल के पुत्र चौरंगीनाथ ने सियालकोट (पाकिस्तान) क्षेत्र में प्रचलित किया। चर्पटीनाथ ने हिमाचल के चंबा क्षेत्र में थोड़े भिन्न प्रकार के पंथ का प्रचार किया। इस मत के मूल में अवधूत सिद्धांत था जिसके अनुसार आन्तरिक शक्तियों को मजबूत करना था।

राजा भरथरी उज्जैन के शासक थे। पत्नी द्वारा प्रेम में छल की श्रृंखला से मोहभंग हुआ तो फिर योग मार्ग में आये और अपने ज्ञान से नायकत्व प्राप्त किया। भरथरी पर वैकल्पिक कथा भी उपलब्ध है जिसमें रानी पिंगला उनसे असीम प्यार करती है तथा इसी कारण मृत्यु को प्राप्त होती है। कथा के कुछ पाठ में गुरु गोरखनाथ रानी को जीवित कर देते हैं। ज्ञान प्राप्त करने के लिये राजा भरथरी गोरखनाथ के शिष्य हो गये।

गोरखनाथ को नाथपंथ में चारों युग में अवतार लेने वाला माना जाता है। त्रेतायुग में गोरखनाथ ज्वालादेवी स्थान से चल कर खिचड़ी की भिक्षा मांगते गोरखपुर आये। एक बड़े तालाब के पास उन्होंने अपनी धुनी जमायी। काफी समय तक रहे। खिचड़ी की परंपरा भी विकसित हुई। आज भी खिचड़ी मेला लगता है। गोरखनाथ का प्रभाव निर्गुण संतों कबीर, दादू, सूफी कवियों, मुल्ला दाउद और जायसी पर भी माना जाता है। गोरख का महत्व रजनीश पूरी तरह स्वीकार करते हैं। कहते हैं कि अगर गोरख न होते तो न नानक होते न कबीर। न दादू न वाजिद, न फरीद न मीरा। भारत की सारी परंपराएं गोरख की कर्जदार है। गोरख के बिना ये हो न सकेंगे क्योंकि इन सबके आधार में गोरख ही है।

धीरे धीरे इस पंथ का मंदिर उंचा उठा। मंदिर पर बड़े बड़े स्वर्ण कलश चढ़े। मंदिर का स्वरूप जाति और धर्म वाला नहीं था। पूर्वी उतरप्रदेश के कुशीनगर, देवरिया, संतकबीर नगर, आजमगढ़, बलरामपुर जिलों में मुसलमान जोगियों के दर्जनों गांव है। ये मुसलमान जोगी भी गेरुए वस्त्र पहनते हैं तथा राजा भरथरी के कथानक को गीतो में गाते हैं। हालाकि इनकी संख्या अब उतार पर है। जार्ज वेस्टन ब्रिग्स ने ‘गोरखनाथ एंड द कनफटा योगीज‘ में लिखा है कि 1891 की जनगणना के अनुसार भारत में योगियों की संख्या 214516 है। आगरा और अवध प्रांत में 5319 औघड़, 28216 गोरखनाथी और 78387 योगी हैं। इनमें बड़ी संख्या मुसलमान योगियों की भी है। नाथ संप्रदाय के मठ देश के कई राज्यों उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, उड़ीसा, गुजरात और बंगाल में है। इन सब में गोरखपुर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ब्रिग्स ने लिखा है कि गोरखनाथ मठ को अलाउद्दीन खिलजी के समय तोड़ा गया था लेकिन श्रद्धालुओं ने फिर से निर्माण कराया। औरंगजेब ने इसे फिर से तुड़वाकर गस्जिद बनवा दिया। फिर बुद्धिनाथ ने मंदिर का निर्माण करवाया। ब्रिग्स ने लिखा है कि 1914 में उन्होंने जो मंदिर देखा था वह सन 1800 के आसपास का बना हुआ था।

1935 में महंत दिग्विजयनाथ मंदिर के महंत बने। इस समय से मंदिर हिन्दुत्व की राजनीति का केन्द्र बनने लगा। उनके काल में गोरखनाथ पीठ मठ का निर्माण 52 एकड़ में फैले परिसर में किया गया। महंत दिग्विजयनाथ ने गोरक्षा के लिये समय देकर संगठन बनाया। आगरा और संयुक्त प्रांत में उन्हें हिन्दू महासभा का मंत्री बनाया गया। फिर अध्यक्ष भी बनाया गया। 1939 में उन्होंने सभी पंथों, मंदिरों, मठों और साधु संन्यासियों को एकजुट करने के लिये ‘अखिल भारतीय अवधूत भेष बारहपंथी योगी महासमा‘ का गठन किया तथा आजीवन इसके अध्यक्ष रहे। महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय हुए तथा उन पर वारंट भी जारी हुआ। महंत जी ने 1944 में हिन्दू महासभा का आयोजन गोरखपुर में किया। डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी आए थे। 1948 में उन्होंने भारत विभाजन का विरोध किया तथा अंतरिम सरकार के लिये होने वाला चुनाव लड़ना चाहते थे पर उनका नामांकन रद्द हो गया।

महात्मा गांधी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे ने इसकी पूरी जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली थी लेकिन आरोप महंत दिग्विजयनाथ पर भी लगा। उन पर आरोप था कि हत्या में प्रयुक्त पिस्तौल उन्हीं की थी। औरों के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। 19 महीने तक जेल में रहे। आरोप सिद्ध नहीं हो सका। वे रिहा कर दिये गये। इस तरह वे निर्दोष सिद्ध हुए।

महंत दिग्विजयनाथ जी ने नेहरू सरकार के हिन्दू कोड बिल का विरोध किया था। 1960 में उन्हें हिन्दू महासभा का अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने 1965 में अखिल विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन किया जिसे शंकराचार्यों के अतिरिक्त तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने भी संबोधित किया। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा मैं कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में कैद किया गया था। मैं कांग्रेस के साथ था। लेकिन पूना समझौता के बाद लगा कि हिन्दू हितों की रक्षा के लिये हिन्दू महासभा में शामिल होना चाहिए जिसका नेतृत्व वीर सावरकर कर रहे थे।

वे 1967 में गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से कांग्रेसी उम्मीदवार को पराजित कर लोकसभा पहुंचे। हिन्दू महासभा के वे अकेले सांसद थे। उन्होंने नाथपंथी मन्दिरों और मठों को संगठित करने का प्रयास किया। गौरक्षा आंदोलन का भी नेतृत्व किया। महंत जी की संघ परिवार और जनसंघ से पटरी ठीक से कभी नहीं बैठी। कहा जाता है कि वे वोट भी सिर्फ उन्हीं से मांगते थे जिनकी आस्था हिन्दू संस्कृति और हिन्दुत्व में हो। महंत जी कहते थे कि उन्हें हार पसंद होगी लेकिन हिन्दुत्व में आस्था और विश्वास न रखने वालों का वोट वे नही पसंद करेंगे। एक सांसद के तौर पर उनका कार्यकाल छोटा रहा। 20 सितंबर 1989 को उनका देहावसान हो गया।

इसके उपरांत उनके शिष्य और उतराधिकारी महंत अवैद्यनाथ गोरखनाथ मंदिर के पीठाधीश्वर बने। महंत अवैद्यनाथ जी का जन्म भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उथल पुथल वाले वर्ष 1919 में 18 मई को हुआ था। बाल्यावस्था में उनका नाम कृपाल सिंह बिस्ट था। उन्होंने निवृत्तिनाथ से योग विद्या सीखी। जब वे 20 वर्ष के युवा ही थे तो अपने योगगुरु के साथ महंत दिग्विजय नाथ से मिले। महंत जी उन्हें अपना शिष्य बनाना चाहते थे पर एक बार में बात जमी नही। योग गुरु के साथ वे बंगाल की यात्रा पर निकले। नाथपंथ के जानकार अक्षय कुमार बनर्जी से मुलाकात में नाथपंथ के साहित्यक और दार्शनिक पक्ष से अवगत हुए। भ्रमण का सिलसिला जारी रहा। करांची में योगी शान्तिनाथ से मुलाकात हुई। शान्तिनाथ जी ने संपर्क के दौरान कहा कि तुम्हारी योग्यता महंत दिग्विजयनाथ के शिष्य बनने की है। योगी निवृत्तिनाथ, कृपाल सिंह बिस्ट को लेकर गोरखपुर पहुंचे। बात बन गयी। 8 फरवरी 1942 को उन्हें नाथपंथ में दीक्षित किया गया तथा दिग्विजयनाथ ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। जब महंत दिग्विजयनाथ को गांधी हत्याकांड में अभियुक्त बनाया गया तो शिष्य अवैद्यनाथ अपनी सुरक्षा के लिये नेपाल चले गये। इस गोपनीय प्रवास से ही उन्होंने अपने गुरु को निर्दोष साबित करने की अदालती कार्यवाही संचालित की।

महंत अवैद्यनाथ पंथ में दीक्षित होने के 20 वर्षों बाद 43 वर्ष की उम्र में मनीराम क्षेत्र से विधायक चुने गये। 1967, 1989, 1974 और फिर 1977 में भी विधायक चुने गये। अपने गुरु महंत दिग्विजयनाथ के निधन से खाली हुए गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से होने वाले उपचुनाव में संसद पहुंचे। गुरु की तुलना में उनकी राजनीतिक चमक अधिक रही। 1980 में मीनाक्षीपुरम में बड़ी संख्या में हिन्दू धर्मांतरित हुये थे। इससे दुखी होकर उनकी गतिविधयां राजनीतिक क्षेत्र से सामाजिक क्षेत्र में आ गयी। सभी जातियों के साथ सहभोज की परंपरा शुरु की गयी। जातिवाद को अस्वीकार करना नाथपंथ की दार्शनिक विरासत के अनुकूल था। एक तरह से यह देशी पंरपरा से निकला सामाजिक समरसता आधारित समाजवाद था। अपने शिष्यों के साथ सार्वजनिक तौर पर काशी के अछूत राजा सुधीर चौधरी के घर पहुंचे और उनकी मां के हाथ से बना भोजन ग्रहण किया। राम मंदिर आंदोलन के शिलान्यास की पहली ईंट भी अछूत समझे जाने वाले समाज के नेता कामेश्वर प्रसाद चौपाल के हाथ से रखी गयी। इस तरह सामाजिक आंदोलन के बाद महंत अवैद्यनाथ जी ने राजनीति में वापसी की। 1991 और 1995 में फिर से सांसद चुने गये।

योगी जी के व्यक्तित्व को समझने के लिए जरूरी था कि सामाजिक तौर पर सक्रिय उनके धार्मिक राजनैतिक व्यक्तित्व को समझा जाये। इस शिष्य उत्तराधिकारी की चयन प्रतिस्पर्धा में हमारे दक्षिण कोसल के हिन्दूवादी नेता दिलीप सिंह जूदेव के पुत्र युद्धवीर सिंह जूदेव भी थे। उन्हें साधना के लिये 2 वर्ष तक गोरखपुर में रहना था पर यह नहीं हो पाया।

आदित्यनाथ जी की दीक्षा
नवंबर 1993 में पूरे मन से तैयार होकर अजय सिंह बिस्ट गोरखपुर मठ पहुंचे तो उनका प्रशिक्षण प्रारंभ हुआ। 90 के दशक में महंत अवैधनाथ जी के पास शिष्य बनने के लिये बारी-बारी से चार-पांच युवक पहुंचे थे। प्रशिक्षण की कठिनता से परेशान होकर वे सब एक दो चरण के बाद ही वापस हो गये थे। महंत अवैधनाथ साठ की आयु पार कर चुके थे और इस उम्र के आसपास उन्हें अपना उत्तराधिकारी शिष्य परंपरानुसार तै कर देना था। सिर्फ शिष्य ही नहीं चुनना था बल्कि योग्य शिष्य चुनना था क्योंकि अयोग्य शिष्य चयन का पाप दोष गुरु को ही लगता था।

नाथपंथ में पांच प्रकार के गुरु होते हैं- चोटी गुरु, विभूति गुरु, चीरा गुरु, उपदेश गुरु और शिक्षा गुरु। यज्ञोपवीत संस्कार के समय पंरपरानुसार चोटी गुरु ने स्वयं से आदित्यनाथ जी की चोटी काटी। शबदी ने निर्गुण शबद गाये। धूनी की विभूति से स्नान कराया गया। आदेश दिया गया कि जिस तरह सारी लकड़ियों ने अग्निसंपर्क में आने के बाद अपने सारे गुण धर्म छोड़ दिये उसी तरह तुम अपनी सांसारिक भावनाओं को भस्मीभूत कर दो। विभूति स्नान के बाद जल स्नान करा कर शिष्य को समझाया गया कि जल गर्म किया जाता है लेकिन कुछ ही समय में फिर वह अपने मूल गुण में वापस आ जाता है, शीतल हो जाता है। इसी तरह अपने मूल गुण न्यायोचित आत्मबल को मत छोड़ना।

यज्ञोपवीत संस्कार में नादि-जनेउ दी जाती है। जनेउ काले भेड़ की ऊन से कुंवारी कन्या द्वारा बनायी जाती है। नादि का निर्माण काले हिरण की सींग या बारहसिंगे की सींग से होती है और पूजा के समय इसे बजाना होता है। नादि के साथ रूद्राक्ष भी बंधा होता है।

इन सबके बाद योग साधना के आठ अंगों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा तथा समाधि का प्रशिक्षण भी अजय सिंह जी को दिया गया। प्रशिक्षण का परीक्षण किया गया तथा सफल होने बाद कुण्डल धारण कराया गया जिसे कर्णभेदन संस्कार भी कहा जाता है। नाथ संप्रदाय में जो अनुयायी कर्णभेदन नहीं कराते तथा सीधे जनेउ नादि का प्रयोग करते हैं वे औघड़ साधु कहलाते हैं।

कर्णभेदन संस्कार में कान के निचले हिस्से में चीरा लगा कर छिद्र में नीम की लकड़ी डाली जाती है। इसके बाद मिट्टी के कुंडल पहनाए जाते हैं। इस समय तक शिष्य का नाम नयानाथ हो जाता है। नयानाथ को 40 दिन तक लेट कर नहीं सोना होता है। बैठे-बैठे सोना होता है। 21 दिनों तक कमरे में बंद रखा जाता है, ताकि वह अकेले रहना सीख जाए। इस काल में नयानाथ को पतला हलवा दिया जाता है खाने के लिये। तीन महीने तक बिना नमक के भोजन करना होता है। इस तरह की तपस्या और एकाकीपन से उसकी सांसारिकता समाप्त हो जाती है। संसार की निस्सारता समझ में आती है तथा व्यक्ति अद्वैत का अनुभव करता है।

इस कठोर साधना को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के बाद 15 फरवरी 1997 को बसंतपचमी के दिन दीक्षा समारोह का आयोजन किया गया। विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष रहे अशोक सिंघल के साथ-साथ नाथपंथ के सभी मंदिर-मठ, अन्य अखाड़ों तथा परांपराओं के संत भी साक्ष्य के तौर पर उपस्थित रहे। इस दीक्षा के बाद अजय सिंह बिस्ट का नया नाम रखा गया योगी आदित्यनाथ। पिछली जिन्दगी और समाज से नाता पूरी तरह टूट गया। भिक्षा मांगने की आदत डाली गयी और दो साल पूरा होते-होते इसी भेष में उन्हें अपनी मां से भिक्षा लेने जाना पड़ा। हृदय विदारक पल-मां और पुत्र दोनों के लिए।

1994 से 1998 में बीच चार वर्षों में महंत अवैद्यनाथ जी ने क्षेत्र में जनसंपर्क के लिये भी भेजा। योगी आदित्यनाथ जी ने साधना पूर्णता की अभिव्यक्ति तथा नये जागरूकों के मार्गदर्शन हेतु 1. यौगिक षटकर्म 2 हठयोग साधना एवं स्वरूप 3 राजयोग स्वरूप एवं साधना, नाम से तीन पुस्तकें लिखी। एक और पुस्तक ‘हिन्दू राष्ट्र नेपाल‘ के नाम से लिखी। वे गोरखनाथ मंदिर के वार्षिक प्रकाशन योगवाणी के प्रधान संपादक भी हैं। बौद्धिक पक्ष के साथ यह भी समझना जरूरी है कि हिन्दुओं में नाथपंथी साधु स्वाभाविक तौर उग्र होते हैं। जिन्होंने नागा साधुओं को देखा है वे इस उग्रता को समझ सकते हैं।

योगी आदित्यानाथ के पहले महंत अवैद्यनाथ के एक अतिप्रिय चेले हुआ करते थे- ओमप्रकाश पासवान। गोरखनाथ मंदिर में प्रथम मंजिल पर स्थित महंत जी के आवास तक जाने के लिये उन्हें खुली छूट थी। बिना किसी सूचना और अनुमति के वे बेधड़क जाया करते थे। 1989 में जब लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए महंत जी ने मनिराम विधान सभा क्षेत्र खाली किया तो उन्होंने यह सीट ओमप्रकाश पासवान को दे दी। दोनों हिन्दू महासभा के टिकट पर जीते। 1991 में ओमप्रकाश पासवान बीजेपी में शामिल हो गये लेकिन जल्दी ही उनकी बीजेपी के साथ ठन गयी।

अनुशासनात्मक कार्रवाई की गयी तथा वे छह वर्षों के लिये निष्कासित कर दिये गये। इसके बाद वे महंत जी के आशीर्वाद से निर्दलीय चुनाव जीत गये। इसी दौरान योगी जी महंत जी के शिष्य बने। ओमप्रकाश जी को लगा कि महंत जी के स्नेह में उनका एकाधिकार समाप्त हो रहा है। क्रोध में वे दोनों के खिलाफ हो गये। दुष्प्रचार होने लगा। इस दौरान वे गोरखपुर के बाहुबली ठाकुर वीरेन्द्र प्रताप शाही से जुड़ गये। 1995 आते आते यह विरोध बढ़ गया। ओमप्रकाश का विरोध करने के लिये योगी जी ने लिपीगंज रेलवे स्टेशन क्षेत्र में रैली करने का ऐलान किया। इसी दिन ओमप्रकाश जी ने भी उसी स्थान पर अपनी रैली की घोषणा कर दी। महंत अवैद्यनाथ जी उस समय मुंबई में थे। उन्होंने फोन पर योगी जी से अपनी रैली स्थगित करने के लिये कहा। योगी जी ने कहा कि इनकी ताकत खत्म करने के लिये रैली जरूरी है। योगी जी को स्थानीय व्यापारी तथा अन्य गुटों का समर्थन था। यह देखते हुए ओमप्रकाश जी ने अपनी रैली स्थगित कर दी। बाहुबली प्रभाव पर योगी जी की साफ बढ़त बन गयी। इसके बाद पूर्वांचल के परेशान लोग उनके पास समाधान के लिये आने लगे। गोरखनाथ मंदिर नियमित तौर पर जनता दरबार लगने लगा।

महंत अवैद्यनाथ जी ने 1998 में लोकसभा चुनाव के पहले राजनीति छोड़ने का निश्चय किया। उनकी जगह योगी जी चुनाव में उतरे और 26 हजार मतों से जीते। 1999 में फिर चुनाव हुआ तो मतों का यह अंतर घट कर सात हजार पर आ गया। ऐसा लगा कि योगी जी की पकड़ ढीली हो रही है लेकिन योगी जी की उग्रता ने उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनीति की मुख्य धारा में केन्द्रीय स्थान दे दिया। योगी जी ने अपनी विचारधारा के विस्तार हेतु हिन्दूवाहिनी का गठन किया।

हिन्दू युवावाहिनी के गठन से योगी जी मुस्लिम सांप्रदायिकता की तुष्टीकरण का विरोध करना चाहते थे। गोरखपीठ के सिद्धांत अनुसार समाज में व्याप्त छुआछूत को भी समाप्त करना चाहते थे। संगठन के लिए हिंदू होने का अर्थ था- हिन्दू दर्शन में आस्था रखता हो, गौवध का विरोध करता हो, हिन्दुस्तान को मातृभूमि तथा पुनर्जन्म को मानता हो। इस संगठन का स्वरूप निजी सेना जैसा ही है। समय के साथ-साथ इसका विस्तार होता गया। गोरखपुर में उनकी जीत का अंतर बढ़ता गया। 2014 में उन्हें तीन लाख मतों से जीत मिली। शुरू में नारे लगते थे- गोरखपुर में रहना है तो योगी योगी कहना होगा। योगी जी जब मुख्यमंत्री बने तो नारा हो गया यू.पी. में रहना है तो योगी योगी कहना होगा।

1999 में तब स्व. कल्याण सिंह जी मुख्यमंत्री थे। महाराजगंज के पंचरूखिया गांव में सांप्रदायिक तनाव फैला। योगी जी ने पुलिस अधीक्षक से बात की। शांति स्थापित हुई। लेकिन जल्दी ही फिर तनाव फैला। इस बार योगी जी समर्थकों के साथ पहुंच गये। दूसरा पक्ष भी आ गया। पत्थर चले। आरोप है कि गोली भी चली। योगी जी को गिरफ्तार करने के आदेश जारी कर दिये गए। योगी जी लौट रहे थे तो बैरिकेडिंग पर खड़े पुलिस वाले उधेड़बुन में उन्हें नहीं पकड़ पाये। अंत में पुलिस ने गोरखनाथ मंदिर को घेर लिया। इस समय महंत अवैद्यनाथ जी ने दिल्ली में गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवानी तथा बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाउ ठाकरे से फोन पर बात की। पुलिस का घेरा उठाया गया। दबाव बना रहा तो अंततः पुलिस के शीर्ष अधिकारी डीआईजी का स्थानांतरण कर दिया गया। कल्याण सिंह सरकार में पूर्वांचल के बाहुबली हरिशंकर तिवारी तथा गोरखपुर के शिवप्रताप शुक्ल मंत्री थे। ऐसा समझा जाता है कि दोनों के इशारे पर योगी जी की गिरफ्तारी का प्रयास किया गया था।

जाहिर है कि 2002 के विधानसभा चुनाव में गोरखपुर से योगी जी शिवप्रताप शुक्ल की जगह अपने पक्ष का उम्मीदवार चाहते थे। पार्टी नहीं सहमत हुई। शिवप्रताप शुक्ल जी को ही टिकट दिया गया। योगी जी ने इस कैबिनेट मंत्री के खिलाफ अपने उम्मीदवार राधामोहनदास अग्रवाल को हिन्दू महासभा की टिकट पर उतारा और उनकी जीत भी करा दी। कैबिनेट मंत्री हार गये। बाद में बीजेपी ने शुक्ल जी को राज्य सभा भेजा और मंत्री भी बनाया।

योगी जी के हठयोग ने उन्हें फिर राजनीति के केन्द्र में बनाये रखा। 2006 दिसंबर में सद्दाम हुसैन को फांसी दी गयी थी। इसके विरोध में प्रदर्शन हुये जो हिंसक हो गये। मुलायम सिंह सरकार की तरफ से कार्यवाही नहीं की गई। गोरखपुर में भी प्रदर्शन हुए, हिंसा भी हुई। इस हिंसा को रोकने हेतु प्रशासन पर दबाव बनाना आवश्यक था। योगी जी ने मुलायम सिंह सरकार को बर्खास्त करने के लिये गोरखपुर में प्रदर्शन आयोजित किया। पूर्वांचल में भी हुए। हिंसा भी हुई। प्रशासन ने योगी जी की गिरफ्तारी के आदेश दिये। जिलाधीश ने कहा कि योगी जी को गिरफ्तार करके जेल नहीं ले जाया जायेगा बल्कि मंदिर में ही नजरबंद किया जाएगा। योगी जी जिद पर अड़ गये कि गिरफ्तार ही करना है तो जेल ले जाएं। गिरफ्तारी हुई और जेल ले जाया गया। पूरी सड़क योगी जी के समर्थकों से भरी पड़ी थी। दो किलोमीटर की दूरी तय करने में आठ घंटे लग गये। पूर्वांचल में भी बंद आयोजित हुआ तथा हिंसा हुई। बड़े पैमाने पर योगी जी के समर्थक गिरफ्तार हुये। पूर्वांचल में योगी जी का समर्थन बढ़ता जा रहा था। बीजेपी से नाराजगी के कारण एक बार योगी जी आडवाणी जी की जनसभा में नहीं पहुंचे तो आडवाणी जी स्वयं उनसे मिलने गोरखनाथ मंदिर पहुंचे। 23 जनवरी 2014 की नरेन्द्र मोदी लोकसभा चुनाव के प्रचार में गोरखपुर पहुंचे तो एयरपोर्ट से सीधे गोरखनाथ मदिर पहुंचे। बड़े महराज महंत से अवैद्यनाथ जी से मिले। और योगी जी के साथ सभा स्थल पहुंचे। इस बड़ी सभा का प्रभाव 13 संसदीय क्षेत्रों पर पड़ना था। लाखों की तादाद में भीड़ देख कर मोदी जी को योगी जी की ताकत का अंदाजा हो गया। योगी जी ने इस सभा में मोदी जी को भविष्य का प्रधानमंत्री कह कर संबोधित किया। इस चुनाव में बीजेपी को पूर्वांचल की सभी 13 सीटें मिलीं। यूपी की अस्सी सीटों में से बीजेपी 71 तथा सहयोगी अपना दल को 2 सीटें मिलीं। सपा को पांच और कांग्रेस को दो। बीएसपी का खाता नहीं खुला। मोदी जी प्रधानमंत्री बने, 28 मई 2014 को।

13 अगस्त 2014 को लोकसभा में सेकुलरिज्म पर बोलते हुए योगी जी ने कहा कि कांग्रेस सरकार अल्पसंख्यको के तुष्टीकरण का काम कर रही थी। इस देश में 12 लाख संत और पुजारी हैं लेकिन सरकार ने केवल इमामों के लिए वेतन की घोषणा की है। महाराष्ट्र और दिल्ली की सरकार ने ऐसा किया था। उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार ने कब्रिस्तान की चारदीवारी के लिये 300 करोड़ दिए। इस तरह की नीतियों से हिन्दू समाज में असंतोष और क्रोध बढ़ता है। भाजपा में योगी जी का महत्व निरंतर बढ़ता जा रहा था। इसी के साथ भाजपा में योगी जी से असहमत विरोधी भी थे जिनकी नजर में उग्र हिन्दुत्ववादी नीति से पार्टी को नुकसान होता था।

उन विरोधियों की परवाह किये बिना योगी जी ने मोदी जी और अमित शाह की राजनैतिक शैली के अनुसार अपनी राजनैतिक सक्रियता ढाल ली। इस तरह के रिश्तों की खूबसूरती प्रकट होने पर ही दिखती है। पार्टी में अधिकांश नेता इस स्नेहिल संबंध से अन्जान थे।

लोकसभा चुनाव के बाद योगी जी ने लवजिहाद के खिलाफ के आंदोलन चलाया तो पार्टी के कई बड़े नेताओं ने कहा कि यह योगी जी की निजी राय है। राज्य में होने वाले उपचुनाव में नुकसान होने पर पार्टी के बड़े नेताओं ने कहा कि यह योगी जी की उग्र हिन्दूवादी नीति का परिणाम है। बाहर से ऐसा लग रहा था कि योगी जी भाजपा की राजनीति में हाशिये पर जा रहे हैं।

28 जनवरी 2017 को लखनउ में अमित शाह राज्य के विधानसभा चुनाव हेतु घोषणा पत्र जारी करने वाले थे। पत्रकारों की भीड़ लगी थी आडिटोरियम में। मंच पर अमित शाह के साथ केन्द्रीय मंत्री कलराज मिश्र एवं मनोज सिन्हा थे। बसपा से भाजपा में शामिल हुये स्वामी प्रसाद मौर्य भी थे। इस कार्यकम में घोषणा पत्र को, लोक संकल्प पत्र के नाम से जारी किया जाना था। इस मंच पर राजनाथ सिह नहीं थे जब कि अपेक्षा की जा रही थी कि वे भी होंगे। इसी कार्यक्रम हेतु गोरखपुर से योगी जी को चार्टर्ड प्लेन से बुलाया गया था। यह आश्चर्य की बात थी क्योंकि आम तौर पर योगी जी पार्टी के कार्यकमों में रुचि नहीं दिखाते थे। संकल्प पत्र जारी किये जाने के बाद समझ में आ गया कि योगी जी को हाशिये पर समझने वाले गलती कर रहे थे। हिन्दूवाहिनी और योगी जी के आंदोलन वाले विषय लोक संकल्प पत्र में शामिल कर लिये गये। गौरक्षा के लिये अवैध बूचडखाने बंद करने तथा लवजिहाद के खिलाफ एंटी रोमियो स्क्वाड बनाने का ऐलान किया गया।

बीजेपी में नेता भले ही योगी जी की उपेक्षा करते आ रहे थे परन्तु संगठन के शीर्ष स्तर पर उनको लगातार सुना जा रहा था। योगी जी को आश्वस्त कर दिया गया था कि पूर्वांचल में टिकट उनकी मंशा से ही दिये जाएंगे। टिकट वितरण के दौरान कुछ शीर्ष नेताओं का मत था कि मुस्लिम उम्मीदवार भी कुछ सीटों पर उतारे जाये। हो सकता है कि ये सारी सीटें पार्टी हार जाए। ऐसे भी पार्टी सारी सीटें नहीं जीत रही है। योगी जी ने कहा कि पार्टी के पास ऐसे उम्मीदवार है क्या? जो चुनाव जीत सकते हों। जब इस तरह की क्षमता वाले उम्मीदवार नहीं है तो टिकट नहीं दिया जाना चाहिये। पार्टी सहमत हो गई। किसी भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया गया। इस बाबत चुनाव प्रचार के दौरान राजनाथ सिंह जी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि पार्टी जीत की संभावना के आधार पर टिकट देती है। अमित शाह जी से जब इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने पलटकर पत्रकार से पूछा कि क्या पार्टी उनसे पूछ कर टिकट देगी। योगी जी के मत पर पार्टी खुले तौर से खड़ी थी। योगी जी के भाषण की माँग पार्टी के उम्मीदवार अपने क्षेत्र में कर रहे थे। यह मांग पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक से आ रही थी। पार्टी की तरफ से योगी जी को प्रचार में जाने के लिये हेलीकाप्टर तथा चार्टर्ड विमान भी दिए गए।

चुनाव का पहला और दूसरा चरण पूर्ण हो चुका था। परिणाम भाजपा के अनुसार सकारात्मक नही लग रहा था। अमित शाह जी ने योगी जी को कहा कि पूर्वांचल से चालीस सीटें चाहिए ताकि भरपाई हो सके। चुनाव परिणाम आया तो पूर्वांचल में पार्टी को 40 की जगह 46 सीटें मिली। मुस्लिमों को टिकट नहीं देने के मुद्दे पर भी योगी जी सही साबित हुए। उत्तर प्रदेश में 82 ऐसे विधानसभा क्षेत्र है जहां मुस्लिम मतदाताओं की आबादी लगभग 30 प्रतिशत है। इनमें से 62 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली। इसका सरल अर्थ यही निकल सकता है कि मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारे जाने का कोई नुकसान नहीं हुआ। कुछ व्याख्याकार यह भी कहते हैं कि उनको टिकट नहीं देने के कारण हिन्दू बैकलैस की स्थिति बनने में सुविधा हो गई। हिन्दू वोट एकजुट होकर बीजेपी को मिले। इसका कारण यह भी था कि मुलायम सिंह जी, मायावती जी तथा अखिलेश यादव जी के समय मुस्लिम तुष्टीकरण की गतिविधयां स्पष्ट तौर पर दिखती थीं। माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने भी कहा था कि इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुस्लिमों का है। बीजेपी को विश्वास था कि चुनाव में उनकी सरकार बनने ही वाली है। चुनाव प्रचार के सभी चरण पूर्ण होने के बाद योगी जी विदेश यात्रा पर जाना चाहते थे लेकिन पीएमओ ने उन्हें जाने की अनुमति नहीं दी। सुषमा स्वराज जी ने फोन पर कहा कि चुनाव परिणाम तक उन्हें विदेश नहीं जाना है।

इस चुनाव में बीजेपी को 403 सीटों में से 312 पर जीत मिली। तीन-चौथाई बहुमत। मुख्यमंत्री का चयन होना था। रेल राज्यमंत्री दौड़ में आगे चल रहे थे। वरुण गांधी का दावा कर फुस्स हो चुका था। उन्हें लगता था कि बीजेपी को कांग्रेस और राहुल गांधी से मुकाबले के लिये उनकी तरह का तेज-तर्रार और युवा नेता कोई और नहीं मिलेगा। अपने मित्रों को शेयर करते रहे कि सीएम बनने पर वे राजनीति को पूरी तरह बदल देंगे। 2014 के चुनाव के पहले वरुण गांधी ने आगरा के फतेहपुर सीकरी में आडवाणी जी के लिये विशाल कार्यकम आयोजित किया था। इसके बाद गोवा में हुई बैठक में आडवाणी जी पीछे छूट गये। मोदी जी आगे बढ़ गये। चेंज आफ लीडरशिप के बाद वरुण की गाड़ी आउटर पर खड़ी हो गयी। इस बैठक के बाद मोदी जी दिल्ली आये और पार्टी के नेताओं के साथ मुलाकातें जारी रहीं। बैठकें भी हुई। वरुण गांधी को मोदी जी ने मिलने का समय नहीं दिया।
इलाहाबाद में राष्ट्रीय कार्य समिति की बैठक हो रही थी। वरुण गांधी की तरफ से हवाई अड्डे से समारोह स्थल तक होर्डिंग्स लगवाये गये। इन सबका एक ही अर्थ था कि वे यूपी के सीएम पद के लिये पूरी तरह योग्य उम्मीदवार हैं। प्रधानमंत्री मोदी जी एवं पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को यह हरकत सख्त नापसंद हुई। दोनों ही होर्डिग्स हटवाना चाहते थे। फिर यह कहा गया कि इस से असंतोष और क्षोभ का सार्वजनिक प्रदर्शन हो जायेगा सो यह छोड़ दिया जाये। इस सम्मेलन में वरुण गांधी को मंच से संबोधित करने का मौका भी नहीं दिया गया। भाजपा में नये सत्ता केन्द्र की अपनी आवश्यकताएं हैं। पद पर नियुक्त होने में परंपरा ओर विरासत को कम महत्व दिया जाता है तथा जमीनी स्तर पर काम करते रहने के साथ-साथ भविष्य में उपयोगी बने रहने की संभावना को अधिक महत्व दिया जाता है। योगी आदित्यनाथ को मिला महत्व तो यही साबित करता है।

मुख्यमंत्री से करने के लिये बीजेपी ने सर्वे कराया। इस सर्वे में 47 प्रतिशत से अधिक उत्तरदाताओं ने योगी आदित्यनाथ जी को पसंद किया था। 36 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने केशव मौर्य को पसंद किया था। राजनाथ सिंह को 11 प्रतिशत तथा मनोज सिन्हा को 4 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने पसंद किया था। राजनाथ जी को पसंद करने वालों में नौकरशाही तथा मीडिया वाले अधिक थे तथा आम वर्ग के नागरिक कम। ऐसा समझा जाता है कि योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की रेस से प्रारंभिक दौड में ही बाहर हो चुके थे लेकिन इस सर्वे कार्ड के आधार पर उनकी दमदार वापसी हुई तथा उनका मुख्यमंत्री बनना संभव हो गया।

योगी आदित्यनाथ का मुख्यमंत्री दायित्व का सफ़र

भारत की नाथ परम्परा से आए हुए योगी आदित्यनाथ जी के मुख्यमंत्री बनने को एवं नाथ परम्परा को आरंभ से अद्यतन तक इस आलेख में समझने का प्रयास किया गया है। मुख्यमंत्री का पद तो कांग्रेसी नेताओं के लिए भी महत्वपूर्ण है लेकिन गैर कांग्रेसी नेताओं के लिए अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि उनके लिए प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी तक का मार्ग खुल जाता है। श्री मोरारजी देसाई, श्री वी.पी. सिंह, श्री एच.डी. देवेगौड़ा, श्री चौधरी चरण सिंह तथा वर्तमान प्रधानमंत्री के उदाहरण से इसे सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।

सत्ता की राजनीति का आने वाला कल आइसबर्ग की तरह होता है। थोड़ा सा दिखता है, अधिक हिस्सा जलाच्छदित होता है। 2012 के उत्तर प्रदेश चुनाव में समाजवादी पार्टी को विधान सभा के 403 सीटों में 224 स्थान पर विजय के साथ स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ था। 2017 के चुनाव में भाजपा को 325 सीटों पर विजय के साथ तीन चौथाई से अधिक बहुमत प्राप्त हुआ। मुख्यमंत्री का निर्णय किया जाना था। उस समय मनोज सिन्हा, केन्द्रीय मंत्री, का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए जोरों से चल रहा था। उनके समर्थको को पक्का लग रहा था। मंत्री जी ने अपने करीबी और खास भविष्यवक्ता ज्योतिषी को फोन पर पूछा कि उनके सितारे इस वक्त क्या कह रहे हैं? गणना करने के बाद ज्योतिषी ने फोन करके बताया कि इस समय आपके सितारे ठीक नहीं चल रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने की संभावना नहीं दिख रही है।

मंत्रीजी को भविष्यवाणी सुनकर तैश आ गया, नाराजगी से बोले कि आप को ज्योतिष की कुछ भी समझ है या नहीं, मैं मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाला हूं। फिर उन्होंने क्रोध से फोन पटक दिया।

मंत्रीजी अगले दिन सबेरे वाराणसी पहुंच गए। काशी विश्वनाथ का दर्शन किया। गृह ग्राम गये। कुल देवता की पूजा अर्चना की। उन्हें बताया गया कि वाराणसी में ही इंतजार करें। लखनऊ ले जाने के लिये प्लेन आयेगा। फिर उन्हें कहा गया कि अपनी गतिविधियां कम करें। मीडिया से दूरी रखें। उनके ज्योतिष सही सिद्ध होने लगे थे।

इन्दिरा गांधी इन्टरनेशनल एयरपोर्ट पर गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ जी को लेकर एक चार्टर्ड प्लेन आया हुआ था। वे बी.जे.पी. अध्यक्ष अमित शाह के लिए बुलाए गए थे। मुलाकात में अध्यक्ष जी ने उन्हें लखनऊ पहुंच कर मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभालने के लिए कहा। यह भी कहा कि अभी इस खबर को अपने तक रखें। कारण शायद यह भी था कि योगी जी को जब भी पार्टी में कोई जिम्मेदारी दी जाती थी तो दल के अन्दर से ही उनका विरोध होने लगता था।

अपने नेता का आदेश मिलने के बाद योगी जी अपने निवास 19 गुरुद्वारा रकाबंगज रोड गये। भोजन किया। अपने स्टाफ को लखनऊ के लिये रवाना किया। खुद एयरपोर्ट पहुंचे। वहां यू.पी. बी.जे.पी. के प्रभारी ओमप्रकाश माथुर, अध्यक्ष केशव मौर्य तथा संगठन सचिव सुनील बसंल लखनऊ जाने वाली फ्लाइट की प्रतीक्षा कर रहे थे। योगी जी ने उन सभी को अपनी चार्टर्ड प्लेन में यात्रा के लिये आमंत्रित कर लिया। ये तीनों भी विधायक दल की बैठक के लिये ही जा रहे थे। इनमें से किसी को पता नहीं था कि कौन बनेगा मुख्यमंत्री?

लखनऊ एयरपोर्ट पर भाजपा कार्यकर्ताओं की भीड थी। ज्यादातर लोग मौर्य के पक्ष मे नारे लगा रहे थे- पूरा यूपी डोला था। केशव केशव बोला था। एक और नारा था- जन जन की आवाज है। केशव के सिर पर ताज है।

योगी जी के स्वागत के लिये पांच सात कार्यकर्ता जमा थे। केशव मौर्य का स्वागत मुख्यमंत्री के तौर पर भाजपा कार्यकर्ता कर रहे थे। योगी आदित्यनाथ भीड़ के एक किनारे से निकले और वीवीआइपी गेस्ट हाउस पहुंच गए। शाम को लोक भवन के बाहर मेले जैसा जमावड़ा लगा था। अन्दर विधायक दल की बैठक हो रही थी। टीवी चैनलों पर विशेषज्ञ अपना अनुमान और संस्मरण वाला ज्ञान दिखा रहे थे। एंकर और एंकराइन विशेषज्ञों के पैनल को अपनी मुस्कान और तीखी आवाज से संभालने में लगे पड़े थे। दर्शक भी उत्तेजना में चैनल बदलने का प्रयोग कर रहे थे कि कहां क्या चल रहा है। इस समय तक योगी जी का नाम मीडिया में नहीं आया था।

विधायकों की बैठक में लोक भवन के आडिटोरियम में सनसनी बनी हुई थी। कांग्रेस से बीजेपी में शामिल हुई रीता बहुगुणा जोशी, बीएसपी से आए स्वामी प्रसाद मौर्य, हृदय नारायण दीक्षित जैसे पुराने विधायकों को निर्देश था कि आठ बार के विधायक और सीनियर नेता सुरेश खन्ना जिसका नाम प्रस्तावित करेंगे उसका समर्थन करना है। शायद पहली बार हो रहा था कि प्रस्ताव के पेश करने वाले तथा समर्थन करने वाले को भी नाम नहीं पता था। इस मीटिंग में पार्टी के दोनों पर्यवेक्षक श्री वेंकैया नायडू और भूपेन्द्र यादव, अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य, दिनेश शर्मा, सुनील बंसल आडिटोरियम पहुंचे। विधायकों ने देखा कि सभागार में योगी आदित्यनाथ भी आए। कई विधायकों को तो पता भी नहीं था कि योगी जी लखनऊ में हैं। एक दिन पहले उनके गोरखपुर में होने की खबर थी। वे पार्टी की ज्यादातर बैठकों में शामिल भी नहीं होते थे।

अध्यक्ष केशव मौर्य ने विधायकों के अतिरिक्त अन्य को सभागार से बाहर जाने के लिये कहा। सुरक्षा कर्मियों को भी बाहर जाना पड़ा। मौर्य साहब ने इस अभूतपूर्व विजय के लिये बधाई दी। फिर बारी आयी सुरेश खन्ना की। उनके बोलने के कुछ मिनट पहले उन्हें नाम बता दिया गया। उनका तीन मिनट का स्वागत भाषण भी लंबा लगा। अंतिम पंक्ति के तौर पर उन्होंने कहा ‘‘मैं बी.जे.पी. के विधायक दल के नेता के तौर पर योगी आदित्यनाथ के नाम का प्रस्ताव करता हूँ।‘‘

प्रचंड बहुमत वाले दल के मुख्यमंत्री के लिये उत्साह और उमंग से भरपूर हंगामा तो होना ही था। इसी के साथ केशव प्रसाद मौर्य तथा दिनेश शर्मा के उप मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा हो गयी। पूछा गया कि किसी को आपत्ति तो नहीं है? पर प्रश्न उत्साह के शोर में गुम गया। तीनों को माला पहनाने के बाद बाहर प्रतीक्षा कर रहे पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के समक्ष घोषणा कर दी गयी। पूरे देश में खबर फैल गयी। टी.वी. चैनलों पर विशेषज्ञ योगी जी के चुने जाने की व्याख्या करने लगे। मुख्यमंत्री के तौर पर विजयी घोषित योगी जी ने भाजपा नेताओं के साथ राजभवन जाकर अपना दावा पेश कर दिया। अगले दिन 19 मार्च 2017 को शपथ ग्रहण होना था। अब नारे लगने लगे – ‘‘यू पी में रहना हैं तो, योगी योगी कहना है।‘‘

एक आम निम्नमध्यवर्गीय परिवार की गैरराजनीतिक पृष्ठभूमि से निकले हुए योगी आदित्यनाथ जी अपनी अंतरात्मा की गवेषणा को सुलझाते-सुलझाते अपनी जिजीविषा तथा समग्र समर्पण के कारण प्रत्येक संकट से निबटते हुये प्रांतीय प्रशासन के शीर्ष पद पर पहुंच गए। उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता ने उनको संगठन में निरंतर शक्तिशाली बनाया और पार्टी हटाना भी चाहे तो यह संभव नहीं। योगी जी का पचासवां वर्ष सबके लिये स्वर्णिम वर्ष सिद्ध हो।

शोध आलेख

प्रो. डॉ ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह, प्राचार्य शासकीय महाविद्यालय, मैनपुर जिला गरियाबंद

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