17 सितम्बर भगवान विश्वकर्मा पूजा विशेष आलेख
आज 17 सितम्बर भगवान विश्वकर्मा को स्मरण करने का दिन है, शासकीय तौर पर उनकी पूजा के लिए नियत तिथि है। इस दिन संसार के सभी निर्माण के कर्मी भगवान विश्वकर्मा की पूजा अर्चना करके अपने निर्माण कार्य में कुशलता की कामना करते हैं। भारत में यह पर्व धूम धाम से मनाया जाता है।
भारत में समस्त तकनीकि ज्ञान एवं शिल्पज्ञान का प्रवर्तक भगवान विश्वकर्मा को माना गया है। भगवान विश्वकर्मा के अविष्कारों का बखान करते हुए वेद एवं पुराण नहीं थकते। ॠग्वेद के मंत्र दृष्टा ॠषि भगवान विश्वकर्मा भी हैं। कहते हैं – यो विश्वजगतं करोत्य: स: विश्वकर्मा अर्थात वह समस्त जड़ चेतन, पशु पक्षी, सभी के परमपिता है, रचनाकार हैं।
महर्षि दयानंद कहते हैं – विश्वं सर्वकर्म क्रियामाणस्य स: विश्वकर्मा, सम्यक सृष्टि का सृजन कर्म जिसकी क्रिया है, वह विश्वकर्मा है। प्राचीन काल से ही सृष्टि के कर्ता भगवान विश्वकर्मा के अनुयायी विश्वकर्मावंशी अपने तकनीकि कौशल के बल पर सम्पूर्ण सृष्टि को रचाने-बसाने में लगे हैं। मानव सभ्यता को नया आयाम देने का कार्य परम्परागत शिल्पकारों ने ही किया, इसमें कोई संदेह नहीं है।
विश्व सर्व क्रियामाणस्य यस्य स: विश्वकर्मा, ॠग्वेद कहता है कि विश्व में जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है। उसके निर्माता विश्वकर्मा हैं। महर्षि दयानंद कहते हैं, ईश्वर एक है जब वह निर्माण के कार्य को करता है तो विश्वकर्मा कहलाता है। यजुर्वेद कहता है कि “शिल्पौ वै श्रेष्ठम कर्म:।” हमारी प्राचीन धरोहरें भारतीय शिल्पकला की उत्कृष्टता का अनुपम उदाहरण हैं।
जिसे हम आज इंडस्ट्री कहते हैं किसी जमाने उसे शिल्पशास्त्र कहा जाता था। वायुयान, महल, दुर्गा, वायु देने वाले पंखे, थर्मामीटर, बैरोमीटर, चुम्बकीय सुई (कम्पास) बारुद, शतघ्नी (तोप) भुसुंडि (बंदुक) एवं एश्वर्य की अन्य भौतिक वस्तुओं का वर्णन संक्षेप में न करुं तो पुन: कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। परम्परागत शिल्पकारों ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इतिहास की छाती पर अपने खून पसीने से जो कालजयी इबारतें लिखी हैं वे वर्तमान में भी अमिट हैं। काल का प्रहार भी उन्हे धराशायी नहीं कर पाया।
परम्परागत शिल्पकारों की रचनाओ एवं कृतियों के वर्णन से वैदिक एवं पौराणिक ग्रंथ भरे पड़े हैं तथा वर्तमान में भी परम्परागत शिल्पकारों द्वारा रची गयी आर्यावर्त के कोने कोने में गर्व से भाल उन्नत किए आसमान से होड़ लगा रही हैं। जिसे देख कर आज का मानव स्मृति खो देता है, उन कृतियों को बनाने वाले शिल्पकारों के प्रति नतमस्तक होकर सोचता है कि हजारों साल पूर्व मानव ने मशीनों के बगैर अद्भुत निर्माण कैसे किए होगें?
परम्परागत शिल्पकारों द्वारा एक चक्रवर्ती राजा से लेकर साधारण मजदूर किसान तक के लिए उपकरणों का विकास किया गया। यज्ञों के लिए यज्ञपात्रों (जो मिट्टी, काष्ठ, तांबा, कांसा, सोना एवं चांदी के हुआ करते थे) से लेकर यज्ञ मंडप का निर्माण, राजाओं के लिए अस्त्र-शस्त्र, शकट, रथों का निर्माण, किसान मजदूरों के लिए हल, फ़ाल, कुदाल, कुटने, पीसने, काटने के उपकरण बनाए गए।
किसी चित्रकार ने भगवान विश्वकर्मा का चित्र बनाया है जब मैं उसे देखता हूं तो उनके सिंहासन के पीछे समस्त 16 कलाओं के औजारों को दर्शाया गया। जिसमें एक चित्रकार की तुलिका से लेकर अभियन्ता तक का पैमाना है। औजारों के बिना निर्माण का कार्य सम्पन्न नहीं होता। व्यक्ति के मस्तिष्क कौशल से औजार काम करते हैं तथा धरा की सुंदरतम रचना को जन्म दे देते हैं। आदि काल से निरंतर शिल्पी इस कार्य को अंजाम देते आए हैं। आज तक उनकी साधना अहर्निश जारी है।
पता नहीं क्यों ललित कलाएं मुझे सदा से आकर्षित करती रही हैं। जहां भी मैने प्राचीन एवं नवीन निर्माण कार्य देखे, उनका निरीक्षण जी भर के किया। उसके तकनीकि पक्ष पर विशेष ध्यान दिया। हजारों वर्ष पुराने निर्माण आज भी दर्शक के मन में कौतुक जगाते हैं कि इसे किस तरह निर्मित किया गया होगा जब निर्माण के संसाधन इतने सीमित थे। अजंता-एलोरा की गुफ़ाओं से लेकर दक्षिण के विशाल मंदिरों तक शिल्पियों द्वारा किए गए अद्भुत निर्माण कार्य आश्चर्य चकित कर देते हैं।
महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि “राजा भोज के काल में शिल्पियों ने एक काठ के घोड़े का निर्माण किया था। यह घोड़ा एक घटी में साढे 27 कोष चलता था। इसकी यह विशेषता थी कि यह जल थल आकाश में एक जैसा ही चलता था।” वर्तमान में वैज्ञानिकों ने इसकी नकल करने की कोशिश की है “हावर क्राफ़्ट” बनाकर। लेकिन “हावर क्राफ़्ट” सिर्फ़ जल और थल में चलता है, आकाश में उड़ नहीं सकता। लेकिन आधुनिक मानव का प्रयास जारी है। प्राचीन निर्माणों की तकनीक समय चक्र में खो गई।
मानव सृष्टि जब से उत्पन्न हुई तब से भारतीय शिल्प ज्ञान प्रकाशित होने लगा। इसकी जानकारी तिब्बत में मिलती है, जिसे त्रिविष्टप प्रदेश कहा जाता था। बताते हैं कि ल्हासा के पुस्तकालय में अनेक प्राचीन ग्रंथ और पुस्तकें हैं जिनसे भारतीय शिल्प विज्ञान का पता चलता है। इन ग्रंथो में चित्र भी बनाए गए हैं जिससे तकनीक को समझने में आसानी हो।
स्वामी सत्यदेव कैलाश मंदिर एलोरा पर लिखते हैं कि “ऐसा मंदिर मैने पृथ्वी पर कहीं नहीं देखा जिस शिल्पी ने इसे बनाया होगा,उसके हृदय में इसकी रचना अवश्य रही होगी। यह कैलाश मंदिर सचमुच ईश्वरीय विभूति है।
डॉक्टर फ़र्गुशन लिखते है कि “हिन्दू लोग प्राचीन काल में लोहे के इतने बड़े-बड़े खम्बे बनाते थे, जो यूरोप में अब तक बहुत कम देखने में आते हैं।” कनिष्क के मंदिर और दिल्ली के यमुना स्तंभ के विषय में लिखते हैं कि “1400 वर्षों तक हवा पानी और मौसम की मार झेलते हुए भी अभी तक जंग नहीं लगा है। यह बड़े आश्चर्य की बात है।”
सर जॉन मार्शल लिखते हैं “अजन्ता की चित्रकारी आँखों को चकाचौंध करती है। इससे मालूम होता है कि भारतीय शिल्पकारी में दैवी शक्ति थी।”
ई पी हैवेल कृत “द इंडियन आर्ट” में वर्णन है कि “मथुरा के अजायबघर में बुद्ध की मूर्ति में जो सौंदर्य है उससे बौद्धकालीन शिल्प कला कौशल का ज्ञान होता है। मूर्ति का सौंदर्य बताता है कि भारतीय शिल्पकार कितने उच्च कोटि के विद्वान थे।”
रींवा स्टेट विन्ध्य प्रदेश के घोघर में अजायबघर के सामने शिव पार्वती की मूर्ति स्थापित है, यह रींवा के जंगल से लाई गई है, कुछ मूर्तियां आद्य शंकराचार्य के समय की जमीन से खोद कर निकाली गयी हैं, इनमें महावीर और महात्मा गौतम बुद्ध की मूर्तियाँ शिल्प कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। शिव पार्वती की 12 फ़ुट ऊंची मूर्ति बड़ी ही सुंदर है।
छत्तीसगढ़ में भी परम्परागत शिल्पकारों की शिल्पकारी के अनुपम उदाहरण प्रत्येक जिले में प्राचीन स्मारकों के रुप में मिलते हैं। मल्हार, सिरपुर, भोरमदेव, रामगढ़, महेशपुर, बारसूर, दंतेवाड़ा, रायगढ़, नारायणपाल, तुरतुरिया, नगपुरा, रतनपुर, पाली, चैतुरगढ़, कुदूरगढ़, गढ़वतिया पर्वत, शिवरीनारायण, जांजगीर, राजिम, आरंग, डमरु, नारायणपुर, सरगाँव, फ़िंगेश्वर इत्यादि स्थानों के प्राचीन स्मारक शिल्पकारों के जीवंत हस्ताक्षर हैं।
आज विश्वकर्मा पूजा दिवस होने के कारण हम शिल्पकारों को याद कर रहे हैं जिन्होने हमारे विश्व को सुंदर बनाने के लिए अपना खून पसीना एक किया और विश्व को अपने जमाने की श्रेष्ठतम कला कृतियाँ दी। शिल्प के देवता भगवान विश्वकर्मा को हमारा शत शत नमन।
सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्र पात्।
सभूमि विश्वतो स्पृत्वात्यतिष्टद्दशांङूलम्॥
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