इस वर्ष 18 जुलाई से अधिकमास आरंभ हो रहा है जो 16 अगस्त तक रहेगा। भारतीय पंचांग का यह पुरुषोत्तम मास का विधान विज्ञान के निष्कर्ष, और आध्यात्म की साधना और समाज समन्वित स्वरूप रचना का अद्भुत निष्कर्ष है। विज्ञान की दृष्टि से अधिकमास की यह अवधि जहाँ सूर्य और चंद्रमा की गति में समन्वय बनाती है तो आध्यात्म की दृष्टि से यह आत्मशक्ति जाग्रत करने का समय है और व्रत पूजा उपासना का विधान ऐसा कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति सहभागी बने।
जीवन के लिये विज्ञान और आध्यात्म एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों के संयुक्त निष्कर्ष से ही जीवन समृद्ध और सकारात्मक होता है। भारतीय परंपरा में विकसित हुई जीवन शैली का विकास ही नहीं तीज त्यौहार का निर्धारण भी विज्ञान और आध्यात्म के समन्वित निष्कर्ष पर निर्धारित हुये हैं और इन्हें समाज के व्यवहारिक स्वरूप से जोड़ा गया है। त्रिवेणी की यही विशेषता हमें अधिकमास के निर्धारण और पूजा विकास में दिखती है।
कहने के लिये अधिकमास का निर्धारण पंचांग के अनुसार होता है। पर यह केवल धार्मिक या केवल ज्योतिष के अनुसार नहीं है अपितु इसका निर्धारण अंतरिक्ष में सूर्य और चंद्र की गति में संतुलन बिठाने के लिये होता है। चंद्रमा की तुलना में सूर्य गति तेज है। यह अति आश्चर्यजनक है कि भारतीय पंचांग निर्माताओं को हजारों साल पहले दोनों की गति के अंतर की जानकारी थी और वह भी इतनी सटीक जितनी आधुनिक विज्ञान ने आँकी है।
इस सटीक आकलन के बाद न केवल अधिकमास के निर्धारण का प्रावधान हुआ अपितु यह नियम भी निश्चित किये गये कि यह कब आयेगा। अधिकमास प्रतिवर्ष नहीं आता। यह लगभग बत्तीस माह के अंतराल से आता है। समय का यह निर्धारण सूर्य और चंद्रमा की गति से होता है।
सूर्य और चंद्रमा की गति के अंतर के कारण वर्ष की कालावधि में अंतर आता है। यदि हम चन्द्रमा की गति के अनुसार वर्ष की गणना करें तो 354 दिन, 8 घंटे और 34.28 सेकंड का होगा। जबकि सूर्य की गति के अनुसार वर्ष की अवधि 365 दिन, छह घंटे, 9.54 सेकंड होती है। इस प्रकार इन दोनों में 10 दिन, 21 घंटे और 35.16 सेकंड का अंतर होता है। इस अंतर के समायोजन के लिये अधिक मास का प्रावधान है।
गणना करके यह सुनिश्चित किया गया कि जब अंतर 29 दिन 12 घंटे, 44 मिनट और 2.865 सेकंड से अधिक हो जाय तो अधिकमास आये। यह सामान्यतः 19 वर्ष में सात अतिरिक्त मास के रूप में होता है। यह कब जोड़ा जाय इसका भी विधान किया गया है। दो संक्रातियों के बीच अधिक मास की अवधि को जोड़ा जाता है।
जनवरी माह में आने वाली मकर संक्रांति को हम सब जाते हैं। पर ज्योतिष शास्त्र में वह अकेली संक्रान्ति नहीं होती है। संक्रान्ति प्रतिमाह आती है। सूर्य प्रत्येक ग्रह में लगभग एक माह रहते हैं। जब वे एक ग्रह को छोड़कर दूसरे ग्रह में प्रवेश करते हैं तो उस क्षण को संक्राति कहते हैं।
अधिकमास के निर्धारण में यह ध्यान रखा जाता है कि अधिक मास की अवधि के मध्य कोई संक्रान्ति न पड़े। इस वर्ष 17 जुलाई को सूर्य मिथुन राशि से कर्क राशि में प्रवेश कर रहे हैं और 17 अगस्त को कर्क से सिंह राशि में। इसीलिए अधिकमास का निर्धारण इन दोनों संक्रान्ति तिथियों के बीच 18 जुलाई से 16 अगस्त के बीच किया गया है।
अधिकमास का “पुरुषोत्तम” नामकरण
अधिकमास और इसके नामकरण का विवरण श्रीमद्भागवत में है। वर्ष के सभी बारह माह के अपने नाम हैं और ग्रहों से संबंध है। जब पृथ्वी के मौसम संतुलन और होने वाले परिवर्तन का अध्ययन करने पर सूर्य और चंद्र की गति के अंतर का पता चला और अधिकमास की कालावधि का निर्धारण हुआ तब प्रश्न आया कि इसका नाम क्या हो और इस माह का स्वामी कौन होगा चूँकि राशियाँ केवल बारह होतीं हैं और सूर्य की यात्रा निर्धारित है तब इसे “मलमास” कहा जाने लगा।
इस नाम से यह मास दुःखी हुआ और समुद्र के पास पहुँचा। समुद्र उसे लेकर नारायण के पास पहुँचे। तब उन्होंने स्वयं को इस मास का स्वामी घोषित किया और अपना नाम देकर “पुरुषोत्तम मास” निर्धारित किया। श्रीमन्ननारायण का ही नाम “पुरुषोत्तम” है इसका उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता के पन्द्रह अध्याय के अंतिम दो श्लोकों में है। तब से अधिकमास का नाम “पुरुषोत्तम मास” हुआ और इसके स्वामी श्रीमन्ननारायण माने गये। इसलिये इस माह में किये जाने वाले पूजन भजन से नारायण प्रसन्न होते हैं और वे पुण्य लाभ देते हैं।
आरोग्य, आध्यात्मिक जागरण और सामाजिक स्वरूप
अधिकमास का निर्धारण विज्ञान के अनुसंधान के अनुसार सूर्य और चंद्र की गति के अंतर को समायोजित करने के लिये होता है तो वहीं उसकी पूजा उपासना विधि में आध्यात्म जागरण और सामाजिक सहभागिता से जोड़ा गया है। व्यक्ति के अस्तित्व में कुल पाँच आयाम होते हैं एक अन्नमय कोष अर्थात शरीर, दूसरा प्राणमय कोष यनि प्राण शक्ति, तीसरा मनोमय कोष यनि मन, चौथा ज्ञानमय कोष यनि बुद्धि, और पाँचवा आत्ममय कोष यनि आत्मा।
हमारे आत्म जागरण और आरोग्य में इन पाँचों कोषों में ऊर्जा का समन्वय होना चाहिए। यदि किसी में अधिक ऊर्जा हुई तो दूसरे की कमजोर होगी। आरोग्य और आत्म चेतना जागरण के लिये इन पाँचों कोषों में संतुलन आवश्यक है। अधिकमास में पूजन विधि और भोजन का निर्धारण कुछ ऐसा किया गया है जिससे शरीर के इन पाँचों आयामों में ऊर्जा का संतुलन हो और समाज के सभी वर्गों का समन्वय भी बने। इसकी झलक हमें अधिकमास के दौरान भोजन सामग्री और पूजन सामग्री में मिलती है।
पुरुषोत्तम मास में जिस खाद्य सामग्री का विवरण है उनमें गेहूं, चावल, सफेद धान, मूंग, जौ, तिल, मटर, बथुआ, ककड़ी, केला, घी, कटहल, आम, पीपल, जीरा, सोंठ, इमली, सुपारी, आंवला, सेंधा नमक आदि का सेवन करने और पूरे माह एक समय भोजन करने को कहा गया है। अधिकमास में शहद, चौलाई, उड़द की दाल, राई, प्याज, लहसुन, गोभी, गाजर, मूली और तिल का तेल का सेवन करने को मना किया गया है। इस भोजन निषेध और उपयुक्त भोजन सामग्री को पाप पुण्य से जोड़ा गया है।
इसी प्रकार पूजन सामग्री ऐसी है जो समाज के हर वर्ग से आती है। जैसे रुई, तेल, दिया, अगरबत्ती, फूल, प्रसाद, शुद्ध जल, फल आदि सब ऐसे जो समाज के अलग-अलग वर्ग से आते हैं। ताकि सबको रोजगार मिल सके। इस प्रकार धिकमास के निर्धारण एक त्रिवेणी है। विज्ञान का अनुसंधान है, आरोग्य एवं आध्यात्म जागरण है और सामाजिक सहभागिता भी है।
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