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संसार को अहिंसा का मार्ग दिखाने वाले भगवान महावीर

जैन ग्रन्थों के अनुसार समय समय पर धर्म तीर्थ के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है, जो सभी जीवों को आत्मिक सुख प्राप्ति का उपाय बताते है। तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही कही गयी है। भगवान महावीर 24वें तीर्थंकर हुए हैं।

उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है– अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) ,ब्रह्मचर्य। उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धान्त दिए। महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएँ नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसन्द हो। यही महावीर का ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धान्त है।

भगवन महावीर का जन्म ईसा से 599 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के कुण्डग्राम में इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के यहाँ चैत्र शुक्ल तेरस को हुआ था। ग्रंथों के अनुसार उनके जन्म के बाद राज्य में उन्नति होने से उनका नाम वर्धमान रखा गया था। जैन ग्रंथ उत्तरपुराण में वर्धमान, वीर, अतिवीर, महावीर और सन्मति ऐसे पांच नामों का उल्लेख है।

दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर बाल ब्रह्मचारी थे। भगवान महावीर शादी नहीं करना चाहते थे क्योंकि ब्रह्मचर्य उनका प्रिय विषय था। भोगों में उनकी रूचि नहीं थी। परन्तु इनके माता-पिता शादी करवाना चाहते थे। दिगम्बर परम्परा के अनुसार उन्होंने इसके लिए मना कर दिया था। श्वेतांबर परम्परा के अनुसार इनका विवाह यशोदा नामक सुकन्या के साथ सम्पन्न हुआ था और कालांतर में प्रियदर्शिनी नाम की कन्या उत्पन्न हुई जिसका युवा होने पर राजकुमार जमाली के साथ विवाह हुआ।

भगवान महावीर ने अपने प्रवचनों में धर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, क्षमा पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। भगवान महावीर ने ईसापूर्व 527, 72 वर्ष की आयु में बिहार के पावापुरी (राजगीर) में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया। पावापुरी में एक जल मंदिर स्थित है जिसके बारे में कहा जाता है कि यही वह स्थान है जहाँ से महावीर स्वामी की देह का अग्निसंस्कार किया गया।

24वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का चिह्न सिंह (वनराज) है। सिंह अपने बल पर जंगल का राजा होता है, अपने क्षेत्र में निर्भय होकर विचरण करता है। वह पराक्रम और शौर्य का प्रतीक है। भगवान महावीर स्वामी ने कहा है कि तुम भी सिंह के समान पराक्रमी, साहसी और निर्भयी बनो। कायर, दुर्बल और भयभीत रहने वाला भूतों का भोजन बन जाता है। कमजोर को सभी खा जाना चाहते हैं, कोई उसकी मदद करने नहीं आता।

सिंह के इसी गुण से हम यह शिक्षा ले सकते हैं कि अपने स्वभाव के विपरीत कोई काम न करें। समय में भी कोई बुरा काम न करें। भगवान महावीर के चिह्न लोक मंगल के प्रतीक हैं। 24 तीर्थंकरों के अलग-अलग चिह्नों में ज्ञान, शिक्षा और प्रेरणा का भंडार है, उनसे सीख लेकर हम आध्यात्मिक बनकर जीवन के सभी पापों से दूर रह सकते हैं।

अहिंसा के बारे में महावीर स्वामी के उपदेश-

भगवान महावीर स्वामी के उपदेश आज भी दुनिया के लिए बहुत जरूरी है। अहिंसा का मार्ग अपना कर दुनिया को बचाया जा सकता है। वर्तमान में परिस्थितियां बहुत बिगड़ गई है। लोग हिंसा का मार्ग अपना कर अपना ही अहित करने लगे है।भगवान महावीर समस्त जीवों के बारे में क्या संदेश दे रहे हैं और किस तरह अहिंसा के मार्ग को अपना कर जीवन को जीने की कल्पना को साकार किया जा सकता है।

जावन्ति लोए पाणा तसा अदुव थावरा ।
ते जाणमजाणं वा न हणे नो विघायए॥
हिंसा के बारे में भगवान महावीर ने कहा है इस लोक में जितने भी त्रस जीव (दो, तीन, चार और पांच इंद्रिय वाले जीव अपनी इच्छा से चल-फिर सकते हैं, डरते हैं, भागते हैं, खाना ढूंढते हैं)।

स्थावर जीव (एक इंद्रिय वाले, स्पर्श इंद्रिय वाले जीव । ये पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, मरते हैं, पर अपने आप चल-फिर नहीं सकते। जैसे, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति आदि) हैं, उनकी न तो जानकर हिंसा करो, न अनजान में। दूसरों से भी किसी की हिंसा न कराओ।

दो इंद्रिय वाले जीवों के दो इंद्रियां होती हैं, एक स्पर्शन, दूसरी रसना । जैसे, केंचुआ, घोंघा, जोंक आदि।

तीन इंद्रिय वाले जीवों के तीन इंद्रियां होती हैं- स्पर्शन, रसना और घ्राण। वे छू सकते हैं। स्वाद ले सकते हैं, सूंघ सकते हैं। जैसे, चींटी, खटमल, जूं, घुन, दीमक आदि।

चार इंद्रिय वाले जीवों के चार इंद्रियां होती हैं- स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु। जैसे, मक्खी, मच्छर, भौंरा, बर्रे, टिड्डी, बिच्छू आदि।

पांच इंद्रिय वाले जीवों के पांच इंद्रियां होती हैं- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण । जैसे स्त्री, पुरुष, बालक, गाय, बैल, घोड़ा, हाथी, मगरमच्छ, सांप, चिड़िया आदि।

जगनिस्सिएहिं भूएहि तसनामेहिं थावरेहिं च ।
नो तेसिमारभे दंडं मणसा वयसा कायसा चेव ॥
संसार में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं, उन्हें न तो शरीर से, न वचन से और न मन से दंड दो।

अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए ।
न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए ॥
सबके भीतर एक ही आत्मा है, हमारी ही तरह सबको अपने प्राण प्यारे हैं, ऐसा मानकर डर और वैर से छूटकर किसी प्राणी की हिंसा न करें।

स तिवाय पाणे अदुवाऽन्नेहिं घायए। हणन्तं वाऽणुजाणाइ वेरं वड्डूई अप्पणो ॥
जो परिग्रही आदमी खुद हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और दूसरों की हिंसा का अनुमोदन करता है, वह अपने लिए वैर ही बढ़ाता है।

खुनाणिण सारं जं न हिंसइ किंचण ।
अहिंसा समयं चेव एयावन्तं वियाणिया ॥
ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करो। अहिंसा का इतना ही ज्ञान काफी है। यही अहिंसा का विज्ञान है।

सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्ख पडिकूला ।
अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउकामा सव्वेसिं जीवियं पियं॥
सभी प्राणियों को अपने प्राण प्यारे हैं। सबको सुख अच्छा लगता है, दुःख अच्छा नहीं लगता। हिंसा सभी को बुरी लगती है। जीना सबको प्यारा लगता है। सभी जीव जीवित रहना पसंद करते हैं। सबको जीवन प्रिय है। किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो।

नाइवाइज्ज किंचण ।
आयातुले पयासु।
प्राणियों के प्रति वैसा ही भाव रखो, जैसा अपनी आत्मा के प्रति रखते हो।

तेसिं अच्छणजोंएण निच्चं होंयव्वयं सिया ।
मणसा कायवक्केण एवं हवइ संजए ॥
सभी जीवों के प्रति अहिंसक होकर रहना चाहिए। सच्चा संयमी वही है, जो मन, वचन और शरीर से किसी की हिंसा नहीं करता।

अजयं चरमाणो उ पाणभूयाइं हिंसा ।
बंधइ पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥
जो आदमी चलने में असावधानी बरतता है, बिना ठीक से देखे – भाले चलता है, वह त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। ऐसा आदमी कर्मबंधन में फंसता है। उसका फल कडुआ होता है।

अयं आसमाणो उ पाढभूयाइं हिंसइ । बंधइ पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥
जो आदमी बैठने में असावधानी बरतता है, ठीक से देखे -भाले बिना बैठता है, वह त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, ऐसा आदमी कर्मबंधन में फँसता है। उसका फल कडुआ होता है।

अजयं भुज्जमाणो उ पाणभूयाइं हिंसइ । बंधइ पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥
जो आदमी भोजन करने में असावधानी बरतता है, ठीक से देखे – भाले बिना भोजन करता है, वह स और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। ऐसा आदमी कर्मबंधन में फंसता है। उसका फल कडुआ होता है।

अजयं भासमाणो उ पाणभूयाइं हिंसा |
बंधइ पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ॥
जो आदमी बोलने में असावधानी बरतता है, वह त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। ऐसा आदमी कर्मबंधन में फंसता है। उसका फल कडुआ होता है।

सव्वे अक्कन्तदुक्खा य अओ सव्वे न हिंसया ॥
‘दुःख से सभी जीव घबराते हैं’- ऐसा मानकर किसी भी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए।

संदर्भ – बीबीसी हिन्दी, विकिपीडिया, वेबदुनिया आदि।

आलेख

आचार्य ललित मुनि, सम्पादक

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One comment

  1. सूर्यकान्त गुप्ता

    *चलकर इनके मार्ग पर, युग बदलें हम आज।*
    *किंतु इंद्रिय दास सब, कहाँ आ रहे बाज।*
    *कर्म अनुचित करने से*
    *अत्युत्तम आलेख ललित मुनि महराज का*🙏🙏🙏🌹🌹