भारतीय अस्मिता के जागरण एवं राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में अनेकानेक विभूतियों का महती योगदान रहा है। यदि भारत के प्राचीन काल के इतिहास को खंगाला जाय तो अनेक ऐसे अमर हुआत्माओं के नाम समक्ष आते है जिन्होने अपना सारा जीवन खपा दिया।
हुतात्मा मात्र वह नही होता जो राष्ट्र की रक्षार्थ सीमा पर या युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त करता हो वरन् व्यापक और वास्तविक अर्थ में वह प्रत्येक आत्मा जो स्वयं की कारा से मुक्त होकर किसी लोकोपकारी अथवा भले कार्य में स्वयं को समर्पित कर दे, अपनासर्वस्व बलिदान कर दे और राष्ट्र निर्माण में योगदान दे, वह सभी हुतात्मा है।
भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक शिवर पुरुष हुए है जिन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र निर्माण के हेतु न्यौछावर कर दिया। ऐसे शिखर पुरुषों में एक नाम जो स्वर्णाक्षरों में भारतीय इतिहास में युगो से दैदिप्यपान नक्षत्र की भांति जगमगाता रहा है, जिसकी अमर गाथा आने वाली पीढ़ियां भी कभी न भूला सकेगी वह नाम है – अमर हुतात्मा भगीरथ।
भारतीय इतिहास निर्माण में वेदों और पुराणों का महान योगदान है। ऐतिहासिक स्त्रोतो के रुप में पुरातात्विक पुष्टि करते हुए हम प्रायः इतिहास रचना करते है और जो समझ से परे है उसे मिथक मान लेते है। वास्तव में किसी भी देश की मायथोलोजी को समझने के लिए उस देश की मूलवृति, चरित्र व दर्शन को समझना नितांत जरुरी है।
भारत मूलतः एक अध्यात्म प्रधान देश है, तप और त्याग इसके प्राणाधार है अतः यहां अमर हुतात्माओं की भी कतारें दृष्टव्य होती है। वस्तुतः वेदों और पुराणों में से अमर हुतात्माओं की अंनत पुराकथाएं भरी पड़ी है, जिनमें गूढ़ रहस्य और शाश्वत सत्य छूपे पड़े है परंतु हम प्रायः उन्हे समझ नही पाते और कपोल कल्पित मान लेते है क्योकि हमारा समस्त वाड़मय रुपकमय और अलंकृत काव्यमयी प्रतिकात्मक भाषा में है।
परंतु अवबोध के स्तर पर जा कर यदि हम ज्ञान विवेक दृष्टि से इन घटनाओं का क्रमिक एवं सिलसिलेवार समग्र अध्ययन करे तो संदेह के तमाम खरपतवार हट कर सार संक्षेप सम्मुख आने लगता है, रामायण, महाभारत और पुराणों में वर्णित भगीरथ द्वारा स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा अवतरण की पौराणिक कथा भी ऐसी ही एक रुपक कथा है जिसे शोधात्मक दृष्टिकोण से देखने, पढ़ने व समझने पर इसमें निहित वैज्ञानिक रहस्यों से पर्दा उठने लगता है परंतु इस कथा के विश्लेषणात्मक अध्ययन पर पहुंचने से पूर्व संक्षेप में अलग-अलग दर्ज पतित-पावनी मां गंगा के अवतरण के इतिहास की कड़ियां जोड़ कर उन पर दृष्टिपात करना नितांत आवश्यक है।
वाल्मीकि कृत रामायण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि गंगा को धरती पर लाने का श्रेय इक्ष्वाकु वंश के राजा भगीरथ को जाता है परंतु यह प्रयास एकांगी नही था वरन् अयोध्या के इक्ष्वाकु राजवंश की दस पीढ़ियों के सतत् निरन्तर प्रयास का परिणाम था जिसमें निर्णायक सफलता राजा भगीरथ को मिली।
भगीरथ द्वारा स्वर्ग से गंगा धरती पर लाने की कथा का विवरण वाल्मीकि रामायण के अलावा, महाभारत और विष्णु-पुराण में भी वर्णित है। विष्णु-पुराण का एक पुरा अध्याय (4.4) गंगा-अवतरण की इस ऐतिहासिक गाथा को समर्पित है जिसके एक श्लोक (सं. 35) में इक्ष्वाकु वंश के प्रयासों व भगीरथ की विपुल तप की गाथा को ‘‘दिलिपस्य भगीरथः सौ सो गंगा स्वर्गादिहानीय संज्ञा चकार…..।’’ कहकर अंकित किया गया है।
इस कथा प्रसंग का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड, सर्ग 42 श्लोक 25, सर्ग 43 व 44 व महाभारत के वनपर्व 108-109, द्रोणपर्व 60 आदि तथा शिवपुराण के 11/22 में भी वर्णित है। यदि इनका क्रमबद्ध सिलसिले वार अध्ययन करे तो ज्ञात होता है कि गंगा के स्वर्ग से धरती पर अवतरण की इस कथा मे अनेक रुपक कथाएं दर्ज है जिन्हे समझने पर ज्ञात होता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजाओं द्वारा गंगा को धरती पर लाने के प्रयास किये गये जिसमें अन्ततः निर्णायक सफलता राजा भगीरथ को अथक परिश्रम के बाद मिली। गंगा अवतरण की पौराणिक कथा की टूटी कडियां जोड़ने पर ज्ञात होता है कि गंगा लाने के प्रयासों का आरम्भ इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर से होता है।
रामायण के अनुसार महाराजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ किया जिसमें परम्परानुसार छोड़ा गया अश्वमेधयज्ञ का घोड़ा इन्द्र ने चुराकर पाताल स्थित कपिल-मुनि के आश्रम में बांध दिया। यादवराज अरिष्टनेमी की पुत्री प्रभा जो सगर की पत्नी थी, से प्राप्त अपने साठ हजार पुत्रो को सगर ने धरती छानकर अश्व ढूंढने का आदेश दिया। वे साठ हजार सगर पुत्र चहुं दिशाओं में गए। समुद्र के पास जा कर जमीन खोदी, उसे बड़ा कर दिया तब से ही ‘समुद्र’ का नामकर ‘सागर’ हो गया।
वाल्मीकि रामायण के बालकांड 40-24 के अनुसार ‘ततः प्रागुतारा गत्वा……….!’’ अर्थात तब वे पूर्वोत्तर दिशा में गए तब कपिल मुनि के आश्रम के पास घोड़ा मिला। यही बात महाभारत के वन पर्व 107.28 में भी ‘‘ततः पूर्वोत्तर देशे………।’’ श्लोक में वर्णित है अर्थात सगर पुत्र जब खोजते-खोजते पूर्वोत्तर में गए तब कपिल-आश्रम में अश्व बंधा नजर आया। क्रुद्ध सगर पुत्रो ने कपिल मुन से अभद्र-व्यवहार किया जिससे मुनि की समाधि भंग हुई और उनकी आग्नेय दृष्टि पड़ने ही योगाग्नि से साठ हजार पुत्र भस्म हो राख हो गए।
इसी सगर पुत्रों की ‘कपिल-शाप’ से उद्वार करने के पवित्र-संकल्प की वृहत गाथा है- गंगा अवतरण की कथा। सगर ने तमाम पुत्रों के काल कवलित होने पर भी हार न मानी और यह दायित्व अपने पौत्र अंशुमान को सौंप दिया। सगर के बाद अंशुमान राजा हुए। उन्होने अपना समस्त राज्य-भार अपने पुत्र दिलिप को सौंप दिया स्वयं गंगा को पृथ्वी पर लाने हेतु घोर तपस्या करते हुए शरीर त्याग दिया।
कथा के इस क्रम में दिलिप राजा हुए और अपने जीवनकाल में गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रयास करते रहे परंतु उन्हे कोई मार्ग न मिला और अततः बीमार होकर उनका देहावसान हो गया। रामायण, महाभारत व पुराणों की कथाओं को मिला कर पढ़े तो उपर्युक्त वर्णित सभी राजाओं की गंगा हेतु भारी-तपस्या का लोमहर्षक वर्णन मिलता है। साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि इक्ष्वाकु वंश के यह सभी राजा कपिल-मुनि के शाप से भस्मीभूत हुए अपने पूर्वजों के उद्धार हेतु गंगा को भारत भूमि पर लाने का प्रयास लगभग दो-ढाई या तीन सदियों तक अनवरत करते रहे परंतु सफलता न मिली।
भगीरथ की तप की यशोगाथा तक पुहंचने से पूर्व हमें सगर की कथा में आए रुपकों को समझना नितांत जरुरी है ताकि इसके पार्श्व में छुपे वैज्ञानिक रहस्यों को समझा जा सके।
वस्तुतः सगर द्वारा किये गए अश्वमेघ यज्ञ का शाब्दिक अर्थ विन्यास देखने सगर द्वारा किये गए पर इस कथा का वास्तविक रुप सामने आता है। वेदो में ‘आपः’ अर्थात जल के एक पर्याय के रुप में प्रचलित शब्द ‘अश्व’ भी रहा है। अश्व अर्थात जल, मेध का शब्दिक अर्थ है-‘वर्धन करना’ और ‘यज्ञ’ से तात्पर्य है-‘अनुसंधान करना’।
इस प्रकार ‘अश्वमेध-यज्ञ’ का वास्तविक अर्थ हुआ जल-वर्धन-अनुसंधान। पुस्तक ‘‘प्राचीन भारती की वैज्ञानिक उपलब्धियों’’ के लेखक आर्चाय परमहंस ने भी अपने शोध के आधार पर गंगा अवतरण के इतिहास में इस तथ्य की व्याख्या करते हुए यही लिखा हैं। आचार्य परमहंस के अनुसार तब भारत की जनसंख्या निरन्तर बढती जा रही थी, इस कारण खाद्यान व जलाभाव होने लगा था। कृषि-उत्पाद में वृद्धि लाने का सगर के पास एक ही उपाय शेष था बंजर भूमि को ऊपजाउ बनाना।
इसके लिए आवश्यक था- अथाह जलराशि। अतः राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ अर्थात् जलसंर्वधन अनुसंधान करना शुरु किया। दूसरा रुपक शब्द प्रयुक्त हुआ ‘सगर के साठ हजार पुत्र’। वस्तुतः यह उनकी प्रजा थी क्योकि राजा वास्तव में समस्त प्रजा का पिता कहा गया है। यदि हम Historicity of Vedic and Ramayan Eras : Scientific Evidences from the Depths of Oceans to the Hights of Skies” के सदंर्भ में देखे तो सगर के साठ हजार पुत्र उसके वे सैनिक या कार्यकर्ता थे जो पानी की खोज में धरती खोदने गये थे।
इस रुपक कथा में एक अन्य शब्द ‘कपिल-मुनि’ आता है जो इस अनुसंधान में बाधा उत्पन्न करता है। ‘कपिल’ को दो अर्थो में देखा जा सकता है। एक अर्थ में ‘कपिल’ एक ‘नक्षत्र’ है। ऐसा कहा जाता है कि जब आकाश में ‘कपिल-नक्षत्र’ का उदय होता है तो वर्षा नही होती और अकाल पड़ता है। ऐसी स्थिति में प्रजाजनों को मरना स्वाभाविक जान पड़ता है। अर्थात अकाल से साठ हजार सगर पुत्रो की मृत्यु होना। दूसरे अर्थ में ‘कपिल’ से तात्पर्य है ‘काला’ अर्थात् ‘कोयला।’
संभव है कि धरती को खोदने में लगे साठ हजार कार्यकर्ताओं का सामना किसी कोयले की खान से हुआ हो। तप्त, दहकते लावे और उससे उठी जहरीली गैसो से वे सब जलकर भस्मीभूत हो गए हो। दोनों ही अर्थो में ‘कपिल मुनि का शाप’ अकाल-मृत्यु को इंगित करता है। इस भयानक हादसे के बाद सगर की खोज की दिशा में निर्णायक मोड़ आता है और उन्हे ज्ञात होता है कि अथाह जल राशि की इस कथा का वास्तविक रुप सामने आता है।
आर्ष ग्रन्थ समवेत स्वर में कहते है कि पतित पावनी उर्मिल रश्मियों की स्वामिनी गंगा धरती के भीतर नही अपितु स्वर्ग में थी। ‘स्वर्ग’ शब्द भी एक रुपक के रुप में प्रयुक्त हुआ है। कहा गया कि गंगा पहले स्वर्ग में बहती थी। स्वर्ग के पर्याय के रुप में संस्कृत में यहां एक अन्य शब्द भी प्रयुक्त होता है- ‘त्रिविष्टप’, और प्राचीन वाड़मय में ‘त्रिविष्टिप’ एक क्षेत्र ‘तिब्बत’ को कहा गया है जो पूरी तरह हिमालय से सुसज्जीत क्षेत्र है।
अतः बहुत संभव है कि तब गंगा हिमालय के तिब्बत क्षेत्र में स्थित हो। ‘घोर-तप’ से तात्पर्य है-भारी परिश्रम या अथक उद्यमशिलता। सगर के सभी उत्तराधिकारियों ने हिमालय की उपत्यकाओं से गंगासागर तक गंगा का प्रवाह-क्षेत्र बनाने का अथक प्रयास किया होगा परंतु अंतिम सफलता केवल भागीरथ को ही मिली।
आगे की कथा के अनुसार गंगा अवतरण की कथा में नवीन मोड़ आता है भगीरथ के राजा बनने पर। उनके समक्ष अनेक चुनौतियां थी। पितामह को दिया वचन था, अपने पिता और दादा, परदादा के तप की विफलता के उदाहरण थे और गंगा को पृथ्वी पर लाने की चुनौती थी। राजा भगीरथ पुत्रहीन थे और गंगा के अवतरण हेतु कृत संकल्प भी। अतः समस्त राज्य भार राज्य मंत्री को सौप कर गौकर्ण-तीर्थ में जा कर उन्होने घोर तपस्या की तथा सर्वप्रथम ब्रह्मा को प्रसन्न किया।
उन्होने बह्मा को दो वरदान प्राप्त किये प्रथम वे गंगा जल में प्रवाहित कर अपने भस्मीभूत पितरों को मोक्ष प्राप्त करा सके व द्वितीय उन्हे कुल की सुरक्षा करने वाला पुत्र प्र्राप्त हो। साथ ही ब्रह्मा ने उन्हे आगाह भी किया कि देवी गंगा का वेग इतना अधिक है कि पृथ्वी उसे संभाल नही सकती अतः भगीरथ को अपने तप से गंगा के साथ-साथ शिव को भी प्रसन्न करना होगा इसलिए उन्होने पुनश्च कई वर्षो तक घोर तपस्या कर शिव व देवी गंगा दोनों को प्रसन्न किया।
भगीरथ ने घोर तपस्या कर शिव और गंगा दोनो को प्रसन्न किया। इस ऐतिहासिक कथा से विद्वानों ने संक्षेपरुप में जो शोध सार दिया उसके अनुसार भगीरथ ने जब हिमालय की दुर्गम घाटीयों को देखा तो उन्हे आभास हो गया कि गंगा के उन दुर्गम उपत्यकाओं से निकालकर समतल मैदान में ले जाना अत्यन्त दुष्कर कार्य है।
अतः वे महामनीषी और वैज्ञानिक भगवान शंकर की सहायता प्राप्त करने गये। इस तथ्य की व्याख्या करते हुए आचार्य परमहंस लिखते है -‘‘चूकि जटाएं सिर पर होती है और गंगा के अवतरण का एक्शन-प्लान शिव की बुद्धि से निकला था अतः कहा गया कि शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में धारण कर पृथ्वी पर उतारा।’’
कुछ शोधकर्ता विद्वानों का मानना है कि जब हिमालय की शिवालीक पर्वत श्रेणी से गंगा मैदान में लायी जा रही थी तो वह गंगोत्री ग्लेशियर के धुमावों में फंस गयी। ये धुमाव शंकर की जटाओं के समान ही उलझे हुए थे, इस प्रकार बहुत मुश्किल से हिमालय से गंगा को भगीरथ द्वारा धरती पर लाया गया। कई नालिकाओं और नहरों के माध्यम से जो भगीरथ के पुरखो ने बनायी थी यदि यह न बनायी गयी होती तो गंगा जल इधर-उधर फैल कर तबाही फैला देता।
अनके विद्वानों के शोधों से ज्ञात होता है कि गंगा को राजा भगीरथ द्वारा अपने राज्य की सीमा तक पहुंचने में पुनः एक विकट समस्या आती है। क्योकि वाराणसी आकर गंगा की गति कम हो गयी। वाराणसी से दक्षिण का रास्ता विध्य पर्वत से मिलने के कारण भूमि के उपर उठने पर चढ़ाई का है, अतः भगीरथ को गंगा के पानी को विध्यपर्वत पार कराकर ऊंचाई पर चढ़ाने जैसा दुष्कर कार्य करना पड़ा। राजा भगीरथ ने हार नही मानी।
आचार्य परमहंस के अनुसार भगीरथ ने सिवील इंजीनीयरिंग का नायाब उदाहरण रखते हुए वाराणसी से गंगा को उत्तर की आरे मोड़कर बिहार तक ले गये जहां उसने पुनः प्रवाह का पकड़ा और तब बिहार से दुबारा गंगा की दिशा दक्षिण की ओर मोड़कर भगीरथ ने गंगा को तीव्र गति से गन्तव्य तक पहुंचाया।
‘घोर-तप’ अर्थात् अथक परिश्रम और उद्यमशीलता से उत्तम सिविल इन्जिनीयरींग का कार्य करते हुए साठ हजार कार्यकत्ताओं की राख गंगा जल में तर्पण कर उद्धार किया अर्थात अकाल और सूखे से बंजर हुई जमीन को उपजाऊ बनाकर राज्य की समृद्धि लौटाई। इस हेतु भगीरथ ने सौ अश्वमेघ यज्ञो का अनुष्ठाान किया और गंगा के किनारे दो स्वर्ण घाट बनवाये थे अर्थात जलवर्धन अनुसंधान की कई योजनाओं का क्रियान्वयन उनके द्वारा किया गया होगा।
वास्तव में भगीरथ भारत के प्रथम सिविल इंजीनीयर थे जिनके अथक परिश्रम और प्रयासों से भारत को पतित पावनी गंगा जैसी नदी मिली जो आज तक हमारा जीवन रस बनी हुई है। अमर हुतात्मा भगीरथ ने अपना सम्पूर्ण जीवन गंगा अवतरण में होम कर दिया। इसीलिए गंगा को अवतरण का एक्शन-प्लान शिव की बुद्धि से निकला था अतः कहा गया कि शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में धारण कर पृथ्वी पर उतारा।’’
भगीरथी की तुलना यूनानी राज्य कुमार हरक्यूलस से की जा सकती है जिस प्रकार दुष्कर कार्य को सम्पादित करना ‘हरक्युलस-टास्क’ कहा जाता है उसी प्रकार सफलता पाने हेतु किया गया कठोरतम परिश्रम भारत में ‘भगीरथ-प्रयास’ कहा जाता है। भगीरथ संकल्प शक्ति और कठोर उद्यम का प्रतीक बनकर भारतीय जन मानसे में पीढ़ी दर पीढ़ी गंगा की भांति बहते रहे है और बहते रहेगें।
अमर हुतात्मा भगीरथ भारत के प्रथम सिविल इंजीनियर थे जिनकी अथक प्रयासों से गंगा का भारत की धरती पर जनहित में अवतरण हुआ इसलिए हमें हमारे धार्मिक ग्रंथों के प्रतीकात्मक अर्थो के वैज्ञानिक रहस्यों को समझने का प्रयास करना चाहिए न कि उन्हे कपोल कल्पित समझ कर हंसी उड़ाई।
तभी हमारे आर्ष ग्रंथो में वर्णित भारत के प्रथम सिविल इंजीनियर: अमर हुतात्मा भगीरथ से हमारे आने वाली पीढ़ीया प्रेरणा सिचंन पाती रही है और पाती रहेगी और हमें गंगा अवतरण की कथा के वैज्ञानिक पहलुओं की समझ आएगी और यही भगीरथ को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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