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नेता जी सुभाष चन्द्र बोस एवं महात्मा गांधी के मतभेद और मतांतर

त्रिपुरी अधिवेशन 1939 में कांग्रेस के वार्षिक अध्यक्ष पद हेतु गांधीयुगीन कांग्रेस में पहली बार चुनाव हुये थे, इस सनसनी खेज तथा आर-पार वाले चुनाव में सुभाष बाबू ने गांधी जी के समर्थित और प्रिय उम्मीदवार को परास्त किया। त्रिपुरी अधिवेशन के पहले कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सभी सदस्यों (जवाहर लाल नेहरू के सिवा) ने इस्तीफा दे दिया। यह पूर्णतः गतिरोध था। नेहरू चाह कर भी सुभाष बाबू के पक्ष में सहयोग नही कर सकते थे क्योंकि अन्य सारे सदस्य सुभाष बाबू के खिलाफ हो गये थे।

त्रिपुरी अधिवेशन (जबलपुर) हेतु अकलतरा बिलासपुर के बैरिस्टर छेदीलाल स्वागत समिति के अध्यक्ष एंव जी.ओ.सी. थे। उनके नेतृत्व में पंचकौड प्रसाद उर्फ बाजा मास्टर ने स्वागत गीत तैयार किया था। बैरिस्टर साहब ने अपने संपर्क के आधार पर सरगुजा राज परिवार से अध्यक्ष की शोभा यात्रा हेतु हाथियों का दल भी प्राप्त किया था, इस समय तक कांग्रेस की आठ प्रांतीय सरकारें सफलता से काम कर रही थी। सत्ता से लड़ते-लड़ते कांग्रेस स्वयं में सत्ता बन चुकी थी। गत वर्ष के हरिपुरा अधिवेशन में भी सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष रहे थे। उस अधिवेशन का आयोजन अत्यंत ही सफल हुआ था, पट्टाभि सीतारमैया की हार पर गांधी जी ने कहा था कि “पट्टाभि की हार मेरी हार है” ऐसा बताते है।

यह तो रिकार्ड में दर्ज है कि गांधी जी ने कहा था “वे सुभाष बाबू की जीत से अवश्य खुश है, क्यांकि कुछ भी हो सुभाष बाबू देश के दुश्मन नही है”। ऐसा बताते है कि इस वाक्य का आखरी हिस्सा सुभाष बाबू के मन में गहरे धंस गया था। उन्हें लगता था कि इस तरह के नकारात्मक वाक्य की क्या जरूरत थी? सुभाष देश के दुश्मन नही है। क्या इसी के लिए उन्होने (आय.सी.एस) का शानदार पद छोडा था। शारीरिक और मानसिक तनाव के बीच वे बीमार हो गये । कांग्रेस के आम सदस्यों में हताशा फैल गयी थी। समझ में नही आ रहा था कि देश का क्या होगा ? तुरंत – तुंरत चुने गये अध्यक्ष को महात्मा जी ने नापसंद कर दिया था। खुले तौर पर कांग्रेस के सामने दोराहा आ गया था। देश को किसी एक के साथ होना था।

नेता जी बीमार हो गये थे। तेज बुखार में ही वे जबलपुर पहुचें । मध्य भारत के इसी विख्यात नगर की परिधि पर त्रिपुरी में अधिवेशन हेतु अस्थायी तौर पर शिविर ग्राम बसाया गया था। बुखार और कमजोरी के कारण सुभाष बाबू हाथी पर नही चढ़ाये जा सके । उनकी जगह उनका चित्र हाथी पर होदे में रखा गया । इस तरह जैसे तैसे शोभा यात्रा निकल पायी। झण्डोत्तोलन के समय भी गड़बड़ी हुई, रस्सी खीचने पर झंडा खुल नही रहा था।

बताते है कि इस पर नेहरू जी नाराज हुए और कुछ कुछ बोले। बैरिस्टर साहब तक बात पहुँची। ऐसा बताते हैं कि बैरिस्टर साहब ने नेहरू जी पर तंज करते कहा कि अगर वे इंग्लैण्ड से बैरिस्टरी पढे़ हैं तो मै भी वही से पढ़ा हूँ। जलन और ईर्ष्या भरपूर हो रही थी कांग्रेस में।

महात्मा जी स्वयं उपस्थित नही थे। उनकी अनुपस्थिति में गोविंद वल्लभ पंत ने एक प्रस्ताव रखा कि नयी वर्किंग कमेटी महात्मा गांधी जी की अनुशंसा से गठित की जाये। यह प्रस्ताव पास हो गया क्योंकि समाजवादी सदस्य वोटिंग के समय तटस्थ रह गये। यह प्रस्ताव इतिहास में पंत प्रस्ताव के नाम से विख्यात हुआ। पंत प्रस्ताव के अनुसार नेता जी को वर्किंग कमेटी का गठन महात्मा जी की मर्जी से करना था और महात्मा जी ने कहा कि सुभाष चन्द्र बोस पर वे अपनी इच्छा थोपना नही चाहते, अब विकट स्थिति हो गई। सुभाष चन्द्र बोस वर्किंग कमेटी नही बना सकते थे । अगर बनाते तो सूरत अधिवेशन के समय की तरह का नरम दल-गरम दल वाला विभाजन हो जाता। दोनों खेमे में गरमा-गर्मी थी।

महात्मा गांधी कलकत्ता अधिवेशन में शामिल होने जा रहे थे तो उनकी बोगी में बाहर से चप्पल फेंका गया। महात्मा जी ने अपने साथ चल रहे कार्यकर्ताओं को कहा कि यह चप्पल अपने पास रख लो। मिलने पर सुभाष को दिखाना कि उनके साथ के लोग किस प्रकार के है।

कलकत्ते में समझौते की सारी कोशिशें व्यर्थ हो गयी। अंततः सुभाष चन्द्र बोस ने गरिमापूर्ण ढंग से कांग्रेस अध्यक्षता से त्याग पत्र दे दिया। डॉ राजेन्द्र प्रसाद को शेष बची हुई अवधि के लिए अध्यक्ष नियुक्त किया गया। रात में राजेन्द्र प्रसाद कलकत्ते की एक गली से गुजर रहे थे तभी उन्हे और साथ चल रहे लोगो को युवकों ने घेर लिया और धक्का मुक्की की गयी। यह दुखद इसलिये भी था क्योंकि राजेन्द्र प्रसाद सौम्य और अहिंसक नीति वाले तो थे ही वे सुभाष चन्द्र बोस के प्रिय अग्रज शरत चन्द्र बोस के मित्र और सहपाठी भी थे। नेता से अधिक उत्साह में उनके समर्थक हो जाते है जैसा पंत प्रस्ताव के निर्माण में भी हुआ था।

उपरोक्त घटनाओं का कालक्रम इस तरह था। 29 जनवरी 1939 को सुभाष चन्द्र बोस अध्यक्ष पद हेतु विजयी घोषित हुए। उन्हे 1580 मत प्राप्त हुये थे तथा पट्टाभि सीतारमैया को 1375 मत मिले थे । महाकोसल में नेता जी को 67 मत मिले थे तो पट्टाभि को 68 मत।

10 मार्च 1939 को त्रिपुरी अधिवेशन हुआ था। 29 अप्रेल 1939 को कलकत्ते में आयोजित आल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठक इसी विषय पर बुलाई गयी थी। नेहरू ने बहुत कोशिश की खाई को पाटने की परंतु कामयाबी नही मिली। अंततः नेताजी ने त्याग पत्र दे दिया । नेता जी के त्यापत्र के बाद राजेन्द्र प्रसाद जी अध्यक्ष चुने गये तो उनकी वर्किंग कमेटी में शामिल होने से नेहरू और बोस दोनो ने असहमति जाहिर की। इन दोनो की जगह डॉ बी.सी राय तथा प्रफुल्ल घोष लाये गये। इस समय ये दोनों ही सुभाष चन्द्र बोस के करीबी नही थे। डॉ बी.सी. राय कुछ समय पहले तक सुभाष बाबू के खासे करीबी थे, लेकिन संकट के समय वे उनके विरोधी गुट में शामिल हो गये थे। इस बैठक के दौरान नेहरू शरत बोस के वुडबर्न पार्क वाले आवास में रूके थे। राजनैतिक तनाव को दोस्ताना संबधो से दुर रखने की कोशिश थी।

आम आदमी इस तरह की स्थिति से अनभिज्ञ था। जब ए.आई.सी.सी़ की बैठक से नेहरू,पंत तथा कृपलानी निकल रहे थे तो उस समय भी लोकल लोगो ने अशोभनीय कोशिशे की तथा इन्हे वालंटियरों के सुरक्षा घेरे में ही बाहर निकाला जा सका ।

बंगाल में इस समय तक सारे कैदी जेल से रिहा नहीं किये गये थे। इन कैदियों ने जेल में अपनी भूख हड़ताल की थी। सुभाष चन्द्र बोस तथा उनके अग्रज शरत बोस ने अपने विश्वास में लेकर उनकी हड़ताल तुड़वाई थी। बोस बंधुओं की कोशिश थी कि सभी कैदी रिहा हो जाये।

बंगाल के गृह मंत्री तथा नजीमुद्यीन तथा ब्रिटिश राज की कोशिश थी कि जिन कैदियों से खतरे की संभावना थी उन्हे रिहा नही किया जायें। गांधी जी की इच्छा थी कि जो भी कैदी अहिंसा के लिए वचन दे उन्हे छोड दिया जाये। गतिरोध की स्थिति बनी हुई थी। इस बीच नेता जी को अध्यक्ष पर से इस्तीफा देने पडा । यह उनके तथा उनसे जुडे लोगो के लिए झटका था।

इस्तीफा देने के बाद सप्ताह बीतने से पहले ही तीन मई को सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस के अंदर अग्रगामी दल (फारवर्ड ब्लॉक) के नाम से अपने दल का गठन कर लिया । फारवर्ड ब्लॉक में अखिल भारतीय स्तर का कोई भी नेता नही था। असहयोग आंदोलन के बाद जब गांधीवादी नेतृत्व के खिलाफ सी.आर दास ने बगावत की तथा स्वराज पार्टी का गठन किया तो उन्हें मोतीलाल नेहरू का सक्रिय एवं सीधा सहयोग मिला था। इस लिहाज से सुभाष चन्द्र बोस के फारवर्ड ब्लॉक का असर कम दिखता है। नए दल का इतना कम असर भी स्वीकार्य नही था, न कांग्रेस को न सरकार को ।

जून 1939 में कांग्रेस ने इस समय सत्याग्रह करने के लिए अधिकार को सीमित करने हेतु प्रस्ताव पास किये। सुभाष चन्द्र बोस ने इस प्रस्ताव का विरोध किया तथा 09 जुलाई को अखिल भारतीय विरोध दिवस मनाने का निष्चय किया । कांग्रेस ने इसे रोकने के लिए निर्देष दिये जिनका पालन नेता जी ने नही किया। उनसे स्पष्टीकरण मांगा गया। नेताजी के उत्तर को संतोषजनक नही माना गया।

कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने अपना फैसला दिया कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष तथा बंगाल प्रांतीय कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष रहने के बाद भी सुभाष बाबू ने अनुशासनहीनता का नेतृत्व किया।

अगर प्रत्येक सदस्य इसी तरह का आचरण करने लगे तो दल में पूरी तरह अराजकता आ जायेगी। अतः इसको रोकने के लिए सुभाष बाबू पर कांग्रेस में किसी भी पद को धारण करने से तीन वर्षो तक के लिए प्रतिबंध लगाया जाता है, जो अगस्त 1939 ये लागू होना प्रारंभ होगा।

यह माना जाता है कि इस प्रस्ताव का लेखन स्वयं महात्मा गांधी ने किया था। इसको पढ़कर कृपलानी जी ने कहा था कि इतना सुंदर प्रस्ताव तो वे भी नही लिख सकते थे। एक बात और भी सीधे तौर पर समझ आती है कि पद धारण करने पर प्रतिबंध लगाना और वह भी तीन वर्षो के लिए तो परोक्ष रूप से सुभाष चन्द्र बोस का निष्कासन ही था। प्रसंग पूरी तरह व्यक्तिगत विरोध का हो गया था।

कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सुभाष चन्द्र बोस ने अपने मत और दल का प्रचार करने के लिए भारत भर में यात्रायें की। उनकी सभाओं में भारी भीड आती। समर्थन मिलता तो विरोध भी होता। पटना में आयोजित उनकी सभा में भीड़ ने जुते और पत्थर मारे। ऐसा करने वाले गांधीवाद जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे।

जाहिर है कि उपर के वर्णित प्रसंग नेता जी और महात्मा गांधी के बीच सीधी भिडंत का दर्शन कराते है लेकिन यह समझ पूरी तरह सतही है। इस स्तर पर काफी लेखन हुआ है। हमारे समय के एक बडे़ लेखक ने इसे सुभाष चन्द्र बोस का अहिंसात्मक सफाया (ननवायलेंट लिक्विडेशन) कहा है। एक दूसरे ने रोचक मेटाफर उपयोग करते कहा कि महात्मा गांधी कुम्हार की तरह थे तथा नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस दोनो ही गीली मिट्टी के लोंदे थे। महात्मा गांधी जी ने सुभाष चन्द्र बोस के लांदे को दबाये रखा, बढने नही दिया, जबकि नेहरू की मिट्टी के लांदे को अपने हाथ से उभार दिया। नेहरू का कद बडा होता गया। एक और समरूप देखा जा सकता है। वामपंथी राजनीति में ट्राट्स्की को सोवियत रूस से निकाल कर समाप्त कर दिया गया ।

सुभाष चन्द्र बोस के उपर श्रध्दा रखने वालों में एक धारा होती है कि उनके मतभेद महात्मा गांधी जी से थे। वैचारिक मतांतर था। दूसरी धारा होती है कि उनके मतभेद नेहरू के साथ थे। दोनो के बीच नेतृत्व के लिए प्रतिद्वंद्विता थी। नेहरू के नाम से बयान भी दर्ज है कि अगर सुभाष चन्द्र बोस जापानियों के सहयोग से भारत आये तो उनको आक्रमणकारी मानते हुऐ वें स्वयं गोली बंदुक से उनका सामना करेंगे। इसी तरह के भद्वे और अशिष्ट विचार कम्युनिष्टों के भी थे।

लेकिन यह ध्यान देना होगा कि इस समय तक नेहरू और कम्युनिष्ट दोनो ही शक्तिशाली नही थे। इन दोनो से कई गुना महत्वपूर्ण तथा संगठन में क्षमतावान थे महात्मा गांधी एवं सरदार पटेल।

मौलाना आजाद और नेहरू के नही चाहने के बाद भी भारत छोंडो आंदोलन प्रारंभ हुआ था एवं उन्हे पार्टी की नीति से सहमत होना पड़ा था। इस समय पार्टी की मूल शक्ति महात्मा गांधी तथा सरदार पटेल थे। दोनो का एक-दुसरे पर विश्वास बेजोड़ था। दोनो ही पद को कम महत्वपूर्ण मानते थे तथा वास्तविक परिवर्तन लाने की कोशिश करते थे ।

महात्मा गांधी जी और नेता जी के संबंधों की सीधी शुरूआत होती है 1921 से जब ICS से त्यागपत्र देने के बाद लंदन से मुंबई लौटे तो सीधे सीधे महात्मा गांधी जी से मिलने के लिए मणी भवन पहुँचे। गांधी जी और बैठक में उपस्थित सारे लोग खादी कपडे में थे। नया भारत था। सुभाष बाबू को लगा कि वे अपने पश्चिमी कपड़ों में मिसफिट हो रहे है। इसके लिए खेद जताया।

महात्मा जी ने चिर परिचित और विख्यात मुस्कान से माहौल को सामान्य कर दिया बातचीत शुरू हुई। सुभाष बाबू ने पूछा कि असहयोग आंदोलन से भारत को आजादी किस प्रकार मिल सकती है भला । वे बापू के उत्तरों से संतुष्ट नही हुये। उन्हें लगता था कि आजादी में समय लगना है। एक साल में नही हो पायेगा । कार्यक्रम लंबे समय का बनाना पडेगा । महात्मा जी ने कहा कि कलकत्ता पहुँचने पर सी.आर दास ( चितरंजन दास) से अवश्य मिलना । तुम्हें उन्हीं के साथ काम करना है। यह तो ऐसे भी होना था ।

नेता जी की महात्मा जी से दूसरी महत्वपूर्ण मुलाकात हुई कलकत्ते में। महात्मा जी अहिंसक साधनों पर अटूट आस्था रखते थे। वे असहयोग आंदोलन के दौरान क्रांतिकारी आंदोलन की हिंसक घटनाये नही चाहते थे। उन्होने ने इस बाबत् देशबंधु दास से बात की। दास ने सुभाष चन्द्र बोस को कहा कि क्रांतिकारी आंदोलन वालों को संपर्क करके एक मीटिंग की व्यवस्था कर दिजिये। सुभाष ने कोशिश की बंद दरवाजों के अंदर बैठक में क्रांतिकारी आंदोलन के लगभग तीन सौ कार्यकर्ता जमा हुये थे। क्रांतिकारी नेता/कार्यकर्ता गांधी जी से सहमत नही हुये कि हिंसक घटनाओं से असहयोग आंदोलन को नुकसान पहुँचेंगा। गांधी ने कहा कि आप अभी तक अपनी विचारधारा से चलते रहे है। एक बार असहयोग आंदोलन को भी मौका दीजिये। इस दौरान शांति बनाये रखिये इस पर सहमति बन गयी। असहयेग आंदोलन के दौरान हिंसक घटनाये बंद हो गयी। क्रांतिकारी नेताओं ने अपना वादा पूरा किया ।

1919 के अधिनियम के तहत् कलकत्ता नगर निगम के चुनाव हुये। देशबंधु दास मेयर चुने गये। उन्होने सुभाष चन्द्र बोस को नगर निगम का सी.ईओ़. (मुख्यकार्यपालन अधिकारी) नियुक्त किया। इस पद पर रहते सुभाष चन्द्र बोस ने क्रांतिकारियों को याद रखा। क्रांतिकारियों की आर्थिक स्थिति खराब थी । पुलिस भी परेषान करती रहती थी। सुभाष चन्द्र बोस ने नगर निगम के स्कूलो में क्रांतिकारियां की नियुक्ति शिक्षक के पद पर शुरू की। आर्थिक स्थिति सुधरी। राष्ट्रवाद को बड़ा सामाजिक आधार मिला लेकिन ब्रिटिश सरकार सशंकित हो गयी। सुभाष चन्द्र बोस गिरफ्तार कर लिये गये। उन्हें मॉडले जेल भेज दिया गया सजा के मामले में वे लोकमान्य तिलक के अनुगामी हो गये ।

उनको रिहा कराने के लिए देशबंधु दास ने आंदोलन किया तो महात्मा जी भी सभा को संबोधित करने पहुँचे। देशबंधु दास की मृत्यू 1925 में हो गयी। सुभाष अनाथ हो गये। बिना किसी आरोप व सुनवाई के उन्हें जेल में रखा जा रहा था ।

नेता जी की गिरफ्तारी 25 अक्टूबर 1924 की रात में नींद से जगाकर रेगुलेशन iii के तहत की गयी थी। घर की तलाशी भी ली गयी। कोई हथियार बरामद नही हुआ गिरफ्तारी के तीसरे वर्ष 1927 में उन्हे बिना कुछ बताये गवर्नर के आदेश से रिहा कर दिया गया। सरकार ने उन्हे मॉडले से लाकर कलकत्ता छोड़ा। छोडे़ जाने का कारण शायद पुख्ता सबूत नही मिलना तथा सायमन कमीशन के लिए उपयुक्त माहौल बनाना था ।

स्वास्थ्य लाभ के लिए सुभाष चन्द्र बोस कुछ समय शिलाँग प्रवास पर रहे। लौट कर कलकत्ता आये तो उन्होने युवा कार्यकर्ताओं को संगठित कर पूर्ण स्वराज आंदोलन प्रारंभ किया। इस आंदोलन में उन्हे जवाहर लाल नेहरू का भी सहयोग मिला। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेषन कलकत्ता में आयोजित होना था। मोतीलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बन रहे थे। सुभाष चन्द्र बोस ने उनके स्वागत और सलामी परेड के लिए अर्ध सैनिक बलां की तर्ज पर ‘बंगाल वालंटियर‘ नामक युवा संगठन का निर्माण किया। इस संगठन के निर्माण और संचालन में जतिन दास सीधे तौर पर जुडे़ थे।

जतिन दास बाद के दिनों में बम बनाने का प्रशिक्षण देने हेतु कलकत्ते से स्वयं भगतसिंह द्वारा ले जाये गये। आगे जतिन दास की गिरफ्तारी हुई और वे भी भगत सिंह के साथ जेल में रहे। जेल में कैदियों के साथ दुर्व्यवहार के विरोध में भूख हडताल हुई। औरों ने आश्वासन मिलने पर समझौता कर लिया पर जतिन दास ने भूख हडताल नही छोड़ा। 63वें दिन वे शहीद हो गये। जतिन दास की देह लाने के लिए सुभाष चन्द्र बोस कलकत्ते से स्वयं गये थे । लाहौर से आते समय ट्रेन पर जगह -जगह फूल बरसाये जाते तथा कलकत्ते में दाह संस्कार के लिए लंबा जुलूस निकला था। इतना लंबा जितना सी.आर दास की अंतिम यात्रा में निकला था। सुभाष बाबू जुलूस में खाली पाँव चले। उनके लिये यह मामला भावनात्मक स्तर पर जुड़ा था।

जतिन दास सुभाष बाबू के संपर्क में 1922 के बाढ़ आपदा राहत कार्य के दौरान आये थे। वे निरंतर घनिष्ठ संपर्क में बने रहे थे। 13 सितम्बर 1929 को हुई इस मौत ने अचानक से इस रिश्ते को तोड़ दिया। सुभाष चन्द्र बोस ने प्रकट तौर पर कुछ नही कहा लेकिन अनौपचारिक तौर पर उन्होने कहा कि इस समय बम का प्रयोग नही किया जाना चाहिये था ।

मोतीलाल जी का कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में बडा ही जोरदार स्वागत हुआ और बंगाल वांलटियर के कैडेटों ने फौजी ढंग से परेड किया। सुभाष चन्द्र बोस कमांडर की हैसियत से घोड़े पर सवार थे। कुछ लोगों ने इसे शक्ति का अनावश्यक प्रदर्शन माना । पूर्ण स्वराज के पक्ष में भी उनके ग्रुप ने जोरदार प्रदर्शन किया। इनके ग्रुप की शक्ति इतनी अधिक हो चुकी थी कि महात्मा गांधी का संशोधन प्रस्ताव छोटे बहुमत से ही पास हो सका। लेकिन इसी समय अवांछित घटना हुई। शायद संयोगवश।

सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस की वर्किंग कमेटी से बाहर रखा गया। इसी तरह तरह गांधी इर्विन पैक्ट की नेता जी ने आलोचना की थी । खुले तौर पर । गांधी के प्रति उनका विरोध व्यक्तिगत स्तर पर नही था। व्यक्तिगत स्तर पर वे सम्मान करते थे। सुभाष बाबू को लगता था कि इर्विन के साथ समाझौता करने के बाद महात्मा गांधी जी की लोकप्रियता में कमी आयेगी । वे महात्मा गांधी जी के साथ ट्रेन से यात्रा में साथ थे और उन्होने पाया कि हर स्टेशन पर गाड़ी रूकते ही उनके नाम का जैकारा लगता। नेता जी ने महसूस किया कि महात्मा जी की लोकप्रियता में अभूतपूर्व वृध्दि हुई है। ऐसा शायद इसलिए हो रहा था क्यांकि पहली बार ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस से बराबरी के स्तर पर संधि की थी। जनता की दृष्टि में महात्मा गांधी भी सरकार की बराबरी पर आ गये थे ।

सविनय अवज्ञा आंदोलन ढलान पर था। भारत में राजनीति धीमी पड़ रही थी, नेता जी का स्वास्थ्य भी खराब चल रहा था। उनको इलाज के लिए आस्ट्रिया जाना पड़ा। सरदार पटेल के अग्रज विट्ठल भाई पटेल भी वही स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। विट्ठल भाई, सुभाष चन्द्र बोस की देखभाल तथा राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रभावित हुए। उन्होंने अपनी संपति में से एक हिस्सा सुभाष बाबू के राष्ट्रवादी कार्यो के लिए वसीयत कर दिया। विट्ठल भाई की मृत्यू के बाद संपति के इस हिस्से के लिए सुभाष बाबू का पटेल साहब के वारिसैन से मुकदमा भी चला।

इस यूरोपीय प्रवास में सुभाष बाबू गांधीवादी विचारधारा और नेतृत्व के कटुतम आलोचक हो गये । जब महात्मा गांधी जी ने सनिवय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित किया तो नेता जी ने सीनियर पटेल के साथ मिलकर एक मैनिफेस्टों जारी किया। इसके अनुसार कांग्रेस के नेतृत्व और संगठन में आमूल चूल परिवर्तन किया जाना था। इसी प्रवास के दौरान उन्होने इंडियन स्ट्रगल नामक पुस्तक का लेखन भी किया जिसमें महात्मा जी की कटु समीक्षा की गयी थी। सरकार द्वारा इस पुस्तक को भारत में बैन किया गया था। इस कारण से नेता जी की गांधी विरोधी विचारधारा का भारत में प्रचार नही हो पाया था तथा लोग अवगत नही थे।

1935 का अधिनियम पारित हुआ तो कांग्रेस ने प्रांतीय चुनावों में भागीदारी निश्चित की। जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष बनाये गये थे। सुभाष चन्द्र बोस ने अप्रेल में तय किया कि वे भारत लौटेंगे तथा लौटते ही वे गिरफ्तार कर लिये गये। कांग्रेस की तरफ से उन्हे रिहा कराने की मांग पर जोर देने के लिए अखिल भारतीय स्तर पर 10 मई 1936 को ‘‘सुभाष दिवस‘‘ मनाया गया।

इसका परिणाम हुआ कि शासन ने उन्हे उनके अग्रज शरत बोस के कुर्सियांग के हिल स्टेशन वाले घर में हाउस अरेस्ट की स्थिति में डाल दिया। परिवार के सदस्य शासन से अनुमति प्राप्त कर उनसे मिल भी सकते थे। 1936 के वर्षान्त में उन्हें रिहा कर दिया गया तो वे वापस कलकत्ता पहुँचे। 1937 के अप्रेल में 6 तारीख को उनके स्वागत हेतु श्रध्दानंद पार्क में कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसमें 600 से अधिक संगठनों की तरफ से उन्हें माला पहनायी गयी।

इसके बाद सुभाष बाबू महात्मा जी से मिलने एवं पार्टी कार्यक्रम मे भागीदारी के लिए इलाहाबाद पहुँचे। अभी शारीरिक कमजोरी और दुर्बलता बनी हुई थी सो अपने छात्र जीवन के मित्र डॉ धर्मवीर के यंहा स्वास्थ्य लाभ के लिए हिमाचल प्रदेश के डलहौजी पहॅुचे।

1937 के अंत तक महात्मा जी ने तय कर लिया कि 1938 के वर्ष तथा हरिपुरा अधिवेशन हेतु सुभाष चन्द्र बोस को अध्यक्ष बनाना है। महात्मा जी कलकत्ते में बोस बंधुओं के यहा अतिथि थे। रात में उनकी तबीयत बिगड़ी। ब्लड प्रेसर की गडबडी से काफी परेशानी हुई । लेकिन अपनी उस हालत को नजरअंदाज करते हुए सुभाष को देखते ही गांधी जी ने कहा कि आप अभी भी पूरी तरह ठीक नही है, उन्होंने आगे जोर देकर कहा कि यूरोप में आप का स्वास्थ्य जल्दी ठीक होता है। अगले वर्ष आपका कार्यक्रम व्यस्त रहेगा इसलिए अभी ही घूम आईये।

महात्मा जी के जोर देने के कारण ही सुभाष चन्द्र बोस आस्ट्रिया के अपने प्रिय स्थान बैडगेस्टन गये। अपनी आत्मकथा जल्दी जल्दी में लिखी । इस दौरान सुश्री एमिली शैंकल भी उनके साथ थी। वे इंडियन स्ट्रगल लिखने के दौरान भी साथ रही थी। आने वाले दिनों में दोनों ने शादी कर ली। इस दंपति को एक पुत्री की प्राप्ति हुई नेताजी ने अपने आदर्श गैरीबाल्डी की पुत्री के नाम से मिलता नाम अनीता रखा । आज वे जर्मनी की राजनीति में सक्रिय है।

18 जनवरी 1938 को कांग्रेस की तरफ से अधिकारिक घोषणा की गयी कि इक्यावनवें अधिवेशन हेतु सुभाष चन्द्र बोस अध्यक्ष होंगे। इसके छः दिन बाद 24 जनवरी 1938 को नेताजी अपने दो महीने के यूरोपीय दौरे से कलकत्ता वापस लौटे।

इस समय तक कांग्रेस की प्रांतो में सरकार थी यह खुद सत्ता बन चुकी थी। विट्ठल नगर के नाम से अधिवेशन शिविर ग्राम बसाया गया। इसमें 51 द्वार लगे थे । शिविर में पोस्ट आफिस जल प्रदाय तथा सफाई जैसी शहरी सुविधा की व्यवस्था की गयी थी। महीनों में इस शिविर ग्राम का निर्माण हुआ था जिसमें 50000 लोगों के रात्रि विश्राम की व्यवस्था थी तथा फलोटिंग पापुलेशन के रूप में दिन को और दो लाख लोग आ सकते थे।

11 फरवरी को सुभाष चन्द्र बोस अपने हिन्दी-उर्दु शिक्षक, परिवारजनों तथा समर्थकों के साथ हरिपुरा जाने के लिये कलकत्ते से यात्रा पर निकले। ट्रेन बारदोली पहुची तो स्वागत समिति के नायक सरदार पटेल स्वयं उपस्थित थे। कार से उन्हे हरिपुरा ले जाया गया। वहाँ से उन्हे प्राचीनकालीन रथ का आभास देने वाली गाड़ी में बिठाया गया। इस रथ को 51 बलिष्ठ बैल खींच रहे थे । भव्य यात्रा थी। दो मील की दूरी तय करने में दो घंटे से अधिक समय लगा। हर तरफ उत्साह से भरे कार्यकर्ताओं का हुजूम उमड रहा था। दर्शक भी उमंग से भरे थे। रथ की व्यवस्था एक स्थानीय शासक ने की थी । रथ चलाने का मौका उस किसान को दिया गया था जिसने पिछले आंदोलन में अपनी सारी संपति गंवा दी थी।

अधिवेशन में सुभाष चन्द्र बोस ने काफी लंबा भाषण दिया जिसके प्रिंट और विडियों कैसेट उपलब्ध है। शिविर में अनेक कार्यक्रम आयोजित किये गये। एक पंक्ति में कहा जा सकता है कि ब्रिटिश शासन द्वारा आयोजित दरबार की श्रृंखला में भारतीय प्रत्युत्तर था ।

महात्मा गांधी ने भी राजकुमारी अमृत कौर को अपने पत्र में लिखा कि सुभाष पूरी तरह स्वस्थ्य और प्रसन्न है। यह नया काम उसे पसंद आ रहा है। सारा कुछ अच्छा चल रहा था लेकिन जल्दी ही मतभेद और मतांतर सतह पर आने लगा।

सी.पी..एंड बरार में डॉ.एन.बी. खरे सरकार चला रहे थे। उनकी कार्यशैली में सामूहिक नेतृत्व का अभाव दिख रहा था वे गवर्नर पर अधिक आश्रित थे। उन्होंने अपने पुत्र की शासकीय सेवा में नियुक्ति भी कर दी थी। यह अच्छा नही था। संसदीय परम्पराओं के खिलाफ था। एक मुस्लिम मंत्री पर आरोप आ रहा था कि उसने अपने सहधर्मी शिक्षक को बचाने की कोशिश की थी। उस शिक्षक ने एक हरिजन बालिका का बलात्संग किया था । पंडित रविशंकर शुक्ल तथा डी.पी. मिश्र भी मंत्रिमंडल में उपेक्षित महसूस कर रहे थे। खरे की गडबडियों के कारण अंततः पंडित रविशंकर शुक्ल को सरकार का नेतृत्व दिया गया। बबई में नरीमन भी नेतृत्व के प्रश्न पर अपनी ही सरकार से नाराज थे। कांग्रेस की कमेटी समस्याओं को निपटाने में लगी थी।

एक और मामला सामने आया। सुभाष बाबू चाहते थे कि भारत में औद्योगिक विकास तेजी से हो और इसके लिए उन्हांने प्लानिंग कमीशन का गठन किया। अपने प्रयास से उन्होंने नेहरू को राजी कर लिया कि वे प्लानिंग कमीशन के चेयरमेन का पद स्वीकार करें। बैठक में प्रांतीय सरकारों के उद्योग मंत्रियों ने भागीदारी की। इस कदम के उठाये जाने से समस्या यह थी कि उद्योग का विकास महात्मा गांधी के कुटीर उद्योग वाली विचारधारा के समानांतर आगे बढ रहा था। तेज गति से आगे बढ रहा था। महात्मा गांधी के धुर समर्थक इससे नाराज थे।

1935 के अधिनियम के तहत प्रांतो में सरकार गठित की जा चुकी थी। सुभाष बाबू प्रांतीय सरकार बनाने के पक्ष में नही थे, पर उनके अध्यक्ष बनने के पहले यह हो चुका था। इसलिए उन्होने स्वीकार कर लिया था। ऐसा समझा जाता था कि बाद में वे स्वंय सरकार बनाने के पक्ष में हो गये थे। वे कोशिश कर रहे थे कि बंगाल तथा असम में कांग्रेस को मिली जुली सरकारें गठित करने की अनुमति मिल जाये। कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व नही तैयार हो रहा था।

1935 के अधिनियम के तहत् केन्द्र में चुने गये प्रतिनिधियों तथा ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों के बीच मंत्री मंडल का बँटवारा होना था, जिन्हे आरक्षित तथा हस्तांतरित विषय कहा जाता। प्रांतीय स्तर पर यह योजना 1919 के अधिनियम में लागू हो गई थी। लेकिन असफल हो गई थी।
ऐसा समझा जा रहा था कि कांग्रेस नेतृत्व और ब्रिटिश सरकार के बीच गोपनीय वार्ता चल रही थी जिसे आज की भाषा में टै्रक टू डिप्लोमैसी कहा जाता है। इसको आकार देने के लिए नेहरू जी को इंग्लैण्ड भेजा गया था। दक्षिण के विख्यात नेता श्री सत्यमूर्ति ने तंज करते हुए कहा था कि यह होकर रहेगा तथा सुभाष बोस को इसे स्वीकार करना पडे़गा। नेताजी ने कहा कि वे मंत्री मंडल बनाने को स्वीकर नही करेंगे, तथा अध्यक्षता से त्यागपत्र दे देंगे। यद्यपि सुभाष बाबू और बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के सबंध घनिष्ठ नही थे लेकिन गोखले इंस्टीट्यूट के लंबे व्याख्यान में बाबा साहब ने सिध्द किया था कि फेडरल योजना का लागू किया जाना घातक होगा।

यूरोप में हिटलर के कारण संकट बढता जा रहा था। द्वितीय विश्व युध्द की आशंका बढती जा रही थी। सुभाष बाबू की योजना थी कि क्रांतिकारी संगठन का निर्माण किया जाए तथा इसको प्रशिक्षण दिया जाये । उन्हें पूरी तरह तैयार रखा जाये। ब्रिटिश शासन से कांग्रेस द्वारा संविधान सभा बनाने की मांग की जाय। एक समय सीमा निर्धारित की जाये । अगर सरकार समय सीमा में मांग पूरी नही करे तो फिर संघर्ष प्रारंभ किया जाए।

अर्न्तराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करने के लिए उन्होने बंबई में जर्मन कांसुल से वेश बदलकर मुलाकात की थी। ऐसा कहा जाता है कि बंबई प्रांत के गृहमंत्री के.एम. मुंशी ने इस मुलाकात की तस्वीरे महात्मा जी तक पहुँचा दी थी।

होम पोलिटिकल फाइल में सूचनाएं है कि कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेता जी जिस क्षेत्र में जाते वहाँ क्रांतिकारी संगठन खड़ा करने का प्रयास करते। नेता जी इस हालत में अपनी योजना स्वंय ही लागू कर सकते थे। कोई दूसरा नही । द्वितीय विश्व युध्द के रूप में भारत को अपनी आजादी पाने का मौका मिलने वाला था जो किसी देश को सदियों में एक बार मिलता है। महात्मा जी नेता जी के इस तर्क से सहमत नही थे।

महात्मा गांधी को लगता था कि 1939 में आंदोलन चलाने के लिए देश और कांग्रेस किसी में तैयारी नही थी। महात्मा गांधी नेता जी के बाद मौलाना आजाद को अध्यक्ष बनाना चाहते थे ताकि बढती साम्प्रदायिकता के माहौल में मुस्लिम लीग से वार्ता की जा सके। मौलाना आजाद तैयार भी थे अध्यक्ष बनने के लिए। इस हालत में जिन्ना का सामना मौलाना आजाद करते।

यह हो नही पाया क्यांकि अपनी योजना को लागू करने के आधार पर सुभाष बाबू दुबारे अध्यक्ष बनने के लिए चुनाव कराने पर उतर गये। मौलाना आजाद चुनाव में नेता जी का सामना नही करना चाहते थे। उम्मीदवार की खोज शुरू हुई। डॉ पट्टाभि सीतारमैया ही तैयार किये जा सके। चुनाव में गांधी जी के समर्थकों ने पूरा जोर लगाया लेकिन सफलता नही मिली। ऐसा समझा जाना चाहिए कि नेताजी और महात्मा गांधी में वास्तविक मतभेद और मतांतर थे। दोनो की योजनाएं एक दूसरे के लिए विकल्प थी। लागू कोई एक ही योजना हो सकती थी। दोनो में कटू रिश्ते बने लेकिन गांठ नही बनी ।

1940 में नेताजी फारवर्ड ब्लॉक की सभा में शामिल होने नागपुर गये तो वंहा से वे वर्धा भी गये महात्मा जी से मिलने। मुलाकात हुई भी। लुका-छिपी का खेल किसी ने नही खेला। नेता जी ने फिर से अनुरोध किया कि राष्ट्रीय आंदोलन चलाने का मौका जो आया है वह सदियों में एक बार आता है। महात्मा जी ने कहा कि अभी और बेहतर अवसर आयेगा। अगर तुम्हें लगता है कि यह मौका सही है तो प्रयास करो। सफलता मिलने पर बधाई का टेलीग्राम सबसे पहले मेरा ही पहुँचेगा। नेताजी निकल पडे़ आजाद हिन्द फौज निर्माण की राह पर। फौज भी बनी। देश भी आजाद हुआ पर नेता जी भारत वापस नही आ पाये.. बस रह गई उनकी यादें …आज 125 वें जन्म वर्ष पर …..

आलेख

प्रो. डॉ ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह, प्राचार्य शासकीय महाविद्यालय, मैनपुर जिला गरियाबंद

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One comment

  1. Anshul Kumar Dobhal

    बहुत ही बढ़िया, तथ्यात्मक, सारगर्भित आलेख।
    साधुवाद !
    👍👍👍👍👍💐💐

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