Home / इतिहास / जहाँ श्रीराम जानकी मंदिर में रावण का पहरा है

जहाँ श्रीराम जानकी मंदिर में रावण का पहरा है

छत्तीसगढ़ के नवगठित मुंगेली जिले की पश्चिमी सीमा पर टेसुवा नाला के तट पर स्थित सेतगंगा में एक अद्वितीय श्रीराम जानकी मंदिर है, जिसकी तीन विशेषताएं हैं। पहला, यहां नर्मदा कुंड है। दूसरा, यहां के मंदिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियां हैं और तीसरा, मंदिर के द्वार पर रावण की पद्मासन मुद्रा में मूर्ति है।

इस नर्मदा कुंड को पंडरिया के जमींदार ने बनवाया था। इसे अमरकंटक के नर्मदा कुंड की तरह पवित्र और पुण्यदायी माना जाता है। खजुराहो के समान यहां के मंदिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियां और गर्भगृह में श्रीराम लक्ष्मण और जानकी जी की मूर्तियां हैं। यहां अनेक देवताओं की मूर्तियां खम्भों में बनी हुई है। इसे देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यहां देवताओं की सभा लगी है और द्वार पर दशानन रावण पहरा दे रहे हैं।

श्रीराम जानकी एवं दशानन विग्रह

बिलासपुर जिला मुख्यालय से लगभग 80 कि.मी. की दूरी पर स्थित पंडरिया पहले एक जमींदारी थी। तब छत्तीसगढ़ की राजधानी रत्नपुर में थी और यहां कलचुरि हैहयवंशी राजाओं का शासन था। लेकिन पंडरिया उनके चौरासी या परगना में कभी नहीं रहा। छत्तीसगढ़ के गढ़ों में भी यह जमींदारी कभी नहीं थी। इस जमींदारी की स्वतंत्रता कलचुरि राजाओं के लिए एक समस्या बनी हुई थी।

हैहयवंशियों की जमाबंदी पुस्तक से ज्ञात होता है कि पंडरिया जमींदारी का पुराना नाम ‘‘प्रतापगढ़‘‘ था। कप्तान ब्लंट (सन् 1795) लिखते हैं कि ‘‘प्रतापगढ़ के गोंड़ और रतनपुर के मराठों के बीच हमेशा लड़ाई हुआ करती थी। सन् 1818 में नागपुर के अप्पा साहब भाग निकले जिससे चारों ओर उपद्रव होने लगा। उस समय यहां के जमींदार के उपर उपद्रव कराने का आरोप लगाया गया था। यही कारण है कि जब करद राज्यों के हकों का बटवारा किया गया तब पंडरिया जमींदारी को रियासत न बनाकर जमींदारी ही रहने दिया गया।

पहले एक लोधी गढ़ा मंडला के राजा की आज्ञा से पंडरिया जमींदारी का उपभोग करता था। परन्तु सन् 1546 में उसने अपने राजा के विरूद्ध बगावत कर दी। उनकी इस बगावत को रामसिंह के पूर्वजों ने कुचल दिया। उनके इस पराक्रम और स्वामी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें इस जमींदारी का जमींदार बना दिया।

तब इस जमींदारी का नाम ‘‘मुकुतपुर प्रतापगढ़‘‘ था और इसका सदर मुकाम पहले ‘‘कामठी‘‘ में था जो आज पंडरिया के जंगलों के बीच एक गांव है। इस गांव में आज भी प्राचीन बस्ती के अवशेष दिखाई देते हैं। श्री श्यामसिंह इस जमींदारी का प्रतापी जमींदार हुआ। उनके प्रताप से ‘‘मुकुतपुर‘‘ का लोप हो गया और ‘‘प्रतापगढ़‘‘ नाम प्रचलित हो गया।

बाद में इस वंश की सातवीं पीढ़ी के दलसाय ने जमींदारी का नाम प्रतापगढ़ से बदलकर ‘‘पंडरिया‘‘ रखा। सन् 1760 ईसवीं के आसपास उनके छोटे भाई महाबली को सैन्य सेवा के बदले गढ़ा मंडला के राजा ने कवर्धा का राजा बना दिया। पंडरिया जमींदारी के वर्तमान वंशज बताते हैं कि यह जमींदारी उनके कब्जे में 16 पीढ़ी से चली आ रही है।

ये मकड़ाई नरेश से अपना रक्त का सम्बंध स्वीकार करते हैं। इनका वैवाहिक सम्बंध सारंगढ़, फुलझर और कंतेली के राजपरिवार में हुआ है। सन् 1732 ईसवीं में रतनपुर की गद्दी पर राजा तख्तसिंह के तृतीय पुत्र रघुनाथ सिंह को अपने अपने मंझले भाई सिदारसिंह की मृत्यु के पश्चात् यहां की गद्दी मिली, तब उनकी उम्र 60 वर्ष थी।

वृद्धावस्था के कारण वे प्रशासन में अक्षम सिद्ध हुए। तब उनके अधिनस्थ गढ़ाधिपति और राजा अपने को स्वतंत्र राजा अथवा जमींदार घोषित कर शासन करने लगे। पंडरिया जमींदारी पहले से ही स्वतंत्र थी और रतनपुर के राजाओं के लिए सिरदर्द बनी हुई थी। सन् 1740 ईसवीं के अंतिम चरण में रतनपुर राज में भोंसलें मराठों का अधिपत्य हो गया।

पंडरिया के जमींदार बहुत दयालु और शांतिप्रिय थे। उनकी लोकप्रियता के कारण रतनपुर के राजा उनसे नाराज अवश्य थे लेकिन उनकी प्रजाप्रियता और अनुशासन से प्रजा बहुत खुश थी। वे नर्मदा मैया के अनन्य भक्त थे। पर्व आदि में वे हमेशा अमरकंटक जाकर नर्मदा कुंड में अवश्य स्नान-ध्यान किया करते थे।

लेकिन वृद्धावस्था के कारण अमरकंटक जाने में वे असमर्थ हो गये। इससे उनका मन व्यथित हो गया। नर्मदा स्नान की उत्कट इच्छा ने उन्हें नर्मदा मैया के शरण में ले गया। वे खान पान छोड़कर नर्मदा मैया की स्तुति में मग्न हो गये। रात्रि में उन्हें स्वप्नादेश हुआ-‘‘हे राजन् ! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर तुम्हारे राज्य की सीमा के पूर्वी छोर पर उद्गमित हुई हूँ। आप वहां स्नान कर अपनी इच्छा की पूर्ति कर सकते हैं।‘‘

प्रातः वे अपनी जमींदारी की पूर्वी सीमा में आकर नर्मदा उद्गम की खोज कराये। थोड़ी देर में उन्हें नर्मदा उद्गम का पता चल गया। गंगा समान पवित्र जल के बुलबुले के रूप में अवतरित हुई नर्मदा को एक कुंड में सुरक्षित कराकर उसकी पवित्रता को प्रचारित कराया। श्वेत गंगा के समान पवित्र जलधारा वहां पर जन जीवन को आकर्षित किया और वहां एक बस्ती बस गयी और उस बस्ती का नाम ‘‘सेतगंगा‘‘ रखा गया।

सेतगंगा मुंगेली से 16 कि.मी. और पंडरिया से 18 कि.मी. दूर है। यहां आज भी नर्मदा कुंड है। टेसुवा नाला के तट पर बसे इस छोटे से नगर में जल का बहुत अच्छा स्रोत है जो नर्मदा उद्गम की पुष्टि करता है। इस कुंड के जल की महत्ता अमरकंटक के नर्मदा कुंड के जल के समान है।

सेतगंगा में पंडरिया के जमींदारों ने श्रीराम जानकी जी का एक भव्य मंदिर बनवाया। मंदिर सत्रहवीं शताब्दी का है। द्वार पर गरूण की हाथ जोड़े प्रतिमा है। मंदिर के ध्वस्त होने पुनर्निर्माण कराये जाने का पता चलता है। पुनर्निर्माण के समय बिखरी मूर्तियों को यथा स्थान जड़ दिया गया है।

पश्चिमी द्वार पर पद्मासन में बैठे दसानन रावण की मूर्ति स्थित है जिसे बाद में जड़ दिया गया है। बहुत संभव है रावण का कोई मंदिर भी रहा हो ? क्योंकि रावण के बगल में एक शक्ति को प्रदर्शित करने वाला देवी की मूर्ति स्थित है। मंदिर के भीतर अन्यान्य देवताओं जैसे श्रीगणेश, ब्रह्मा, और श्रीराम आदि की मूर्तियां खंभों में बनी हैं।

मंदिर की बाहरी दीवारों पर अनेक मिथुन मूर्तियां हैं। कुछ लोग इन्हें कामशास्त्र में बताये गये आसनों का मूर्त रूप मानते हैं, तो कुछ लोग तत्कालीन समाज की प्रवृत्ति के नमूने के रूप में देखते हैं। कुछ लोगों का यह भी मत है कि खजुराहो के समान यहां भी मिथुन मूर्तियां दृश्य सम्प्रदाय की मान्यताओं का प्रदर्शन है जो यह विश्वास दिलाता है कि योग और भोग दोनों से ही आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।

भारतीय परंपरा में काम को भी प्रधानता प्राप्त है। इसके बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि मिथुन मूर्तियों का निर्माण करना आगमों के अनुसार अमांगलिक नहीं बल्कि मांगलिक माना जाता है और विश्वास किया जाता है कि इन मूर्तियों के कारण मंदिर को किसी की नजर नहीं लगती, न ही उसके उपर कोई प्राकृतिक विपदा ही आती है। भारतीय चिंतन में आत्मा और परमात्मा का मेल को ही मोक्ष माना गया है, जहां दो प्राणी भेद त्यागकर एक हो जाते हैं।

यह जन मान्यता है कि इस मंदिर में रावण द्वारपाल के रुप में उपस्थित है। दर्शनार्थी नर्मदा कुंड के जल का आचमन कर, भगवान श्रीरामजानकी का दर्शन-पूजन करके मन्नत मांगते हैं और पूरा होने पर पुनः दर्शन करने के लिए आने की बात करते लौट जाते हैं।

आलेख

प्रो (डॉ) अश्विनी केसरवानी, चांपा, छत्तीसगढ़


About hukum

Check Also

अस्सी वर्ष की आयु में क्रांति की कमान संभालने वाले बाबू कुंअर सिंह

26 अप्रैल 1858 : सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी बाबू कुँअर सिंह का बलिदान भारतीय स्वाधीनता संग्राम में …

One comment

  1. Braj Kishor P. Singh

    पंडरिया के पास भी मंदिर में इस तरह की मूर्ति है यह जानकर बहुत अच्छा लगा क्योंकि खजुराहो लोक और परलोक के बीच संतुलन साधने की कोशिश के रूप में प्रख्यात फिल्म डायरेक्टर डेविड लेने के द्वारा देखा जाता रहा है.
    वह बार-बार आते रहे
    इस जानकारी के लिए केसरवानी जी को धन्यवाद