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छत्तीसगढ़ में रामानंद सम्प्रदाय के मठ एवं महंत

शिवरीनारायण में चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों और मंदिरों की अधिकता के कारण यह क्षेत्र प्राचीन काल से श्री पुरूषोत्तम और श्री नारायण क्षेत्र के रूप में विख्यात था। जगन्नाथ पुरी के भगवान जगन्नाथ को शिवरीनारायण से ही पुरी ले जाने का उल्लेख उड़िया कवि सरलादास ने चौदहवीं शताब्दी में किया था। उस काल का अवशेष आज भी यहां दे्खे जा सकते है। यहां नाथ सम्प्रदाय के गुरू कनफड़ा और नागफड़ा बाबा की मूर्ति एक गुफा मंदिर में तथा बस्ती के बाहर एक नाथ गुफा आज भी सुरक्षित है। प्राचीन काल में जगन्नाथ पुरी जाने का मार्ग शिवरीनारायण होकर जाता था। प्राचीन काल में तीर्थयात्री पैदल जाते थे।

ऐसी किंवदंती है कि उन पैदल तीर्थ यात्रियों को ये डरा धमकाकर लूट लेते थे। चूंकि नाथ सम्प्रदाय के लोग तांत्रिक होते थे अत: ये तंत्र मंत्र का उपयोग भी इस कार्य में करते थे। आज भी इस क्षेत्र में तंत्र मंत्र का प्रभाव है। उड़िया साहित्य के अनुसार सम्पूर्ण उड़ीसा तंत्र मंत्र के प्रभाव में प्राचीन काल से आज तक रहा है। ऐसी मान्यता है कि पुरी का जगन्नाथ मंदिर भी इन्हीं तांत्रिकों के कब्जे में था जिनसे आदि शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ करके मुक्त कराया था। शिवरीनारायण के मठ और मंदिर भी तांत्रिकों के कब्जे में होने की किंवदंती है। रामानंद सम्प्रदाय के स्वामी दयाराम दास ग्वालियर से तीर्थाटन करते छत्‍तीसगढ़ के रत्नपुर आये। उनके ज्ञान और विद्वता से प्रभावित होकर रत्नपुर के राजा ने उन्हें अपना गुरू बनाया और उन्हें शिवरीनारायण में मठ बनवाकर दिया।

मठ की व्यवस्था के लिये कुछ माफी गांव भी दिये। जब वे शिवरीनारायण में आये तो उन्हें भी नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों ने डराने धमकाने का प्रयास किया मगर स्वामी जी के साथ वे सफल नहीं हो सके। स्वामी दयारामदास ने उनके गुरूओं के साथ शास्त्रार्थ किया और उन्हें यहां से जाने को बाध्य किया। उनके जाने के बाद यहां उन्होंने ”श्री वैष्णव मठ” की स्थापना की और वे इस मठ के प्रथम महंत बने। स्वामी दयारामदास के यहां आने का काल और रत्नपुर में किस राजा ने अपना गुरू बनाकर उन्हें शिवरीनारायण में मठ बनवाकर महंत बनाया, इसकी जानकारी नहीं मिलती।

रामानुजाचार्य का कार्यकाल सन् 1027 से 1137 ईस्वीं था। स्वामी दयारामदास जी इनके अनुयायी थे। इसका अर्थ यह हुआ कि वे यहां इसी काल में आये होंगे? कहीं कहीं इस मठ को रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय का माना गया है। रामानंद जी का जन्म सन् 1299 ईसवीं में प्रयाग में हुआ था। श्री सम्प्रदाय की दीक्षा उन्होंने काशी में स्वामी राघवानंद से ली थी जो रामानुज परंपरा की चौथी पीढ़ी के थे।

भक्ति आन्दोलन में रामानंद जी बड़े महत्वपूर्ण आचार्य हुए। श्री सम्प्रदाय विष्णु और उनकी शक्ति लक्ष्मी की पूजा में विश्वास करता था, किंतु विष्णु के रामावतार की पूजा का प्रचलन उस सम्प्रदाय में नहीं था। रामोपासना का वास्तविक प्रवर्तन रामानंद ने ही किया है। रामानंद का सम्प्रदाय इसीलिए ”रामावत् सम्प्रदाय” कहलाता है जो विशिष्ट द्वैतवादी तो है ही, किंतु वह विष्णु के बदले राम की उपासना करता है। रामानंद जी पूरे देश का भ्रमण किये। दक्षिण में वे वर्षो रहे और दक्षिण की भक्ति की धारा को उत्तर में लाने वाले वे ही थे।
भक्ती द्राविड़ उपजी, लाये रामानंद,
परगट कियो कबीर ने सात द्वीप नौ खंड।

खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर में स्थित कलचुरि संवत् ९३३ के शिलालेख में २४ वें श्लोक में देवालय के दक्षिण में तपस्वियों के निवासार्थ एक मठ निर्माण कराने का उल्लेख है :-

मठ कठोर काष्ठौ घ्रैरत्रैवाकारि धीमता।
देव दक्षिण दिग्भागे निवासार्थ तपस्विनां।।
अर्थात् शिवरीनारायण में मठ का निर्माण संवत् 933 में हुआ होगा। शिवरीनारायण में चंद्रचूड़ महादेव मंदिर के चेदि संवत् 919 के शिलालेख में और नारायण मंदिर के दक्षिण भाग में स्थित एक छोटे मंदिर में स्थित राजा संग्रामसिंह की मूर्ति के नीचे कलचुरि संवत् 998 में रत्नपुर के राजाओं की जानकारी है। इसी प्रकार पंडित रामचंद्र भोगहा के पास संवत् 878 के रत्नदेव द्वितीय का ताम्रपत्र में भी इसी प्रकार का उल्लेख है।

बहरहाल, शिवरीनारायण के मठ के पहले महंत स्वामी दयारामदास जी थे। उसके बाद निम्नलिखित महंत हो चुके हैं :- १. स्वामी दयारामदास २. स्वामी कल्याणदास ३. स्वामी हरीदास ४. स्वामी बालकदास ५. स्वामी महादास ६. स्वामी मोहनदास ७. स्वामी सूरतदास ८. स्वामी मथुरादास ९. स्वामी प्रेमदास १०. स्वामी तुलसीदास ११. स्वामी अर्जुनदास १२. स्वामी गौतमदास १३. स्वामी लालदास १४. राजेश्री महंत वैष्णवदास और वर्तमान में राजेश्री महंत रामसुन्दरदास जी हैं। शिवरीनारायण मठ के ११ वें महंत श्री अर्जुनदास से आज तक की जानकारी मिलती है, उसके पूर्व की जानकारी नहीं मिलती।

महंत अर्जुनदास जी :

स्वामी अर्जुनदास जी शिवरीनारायण मठ के ग्यारहवीं पीढ़ी के महंत थे। वे शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट थे। बिलासपुर जिलान्तर्गत (वर्तमान रायपुर) ग्राम बलौदा में संवत् १८६७ में उनका जन्म हुआ। १८ वर्ष की आयु तक विद्याध्ययन किया और फिर वे मठ मंदिर में पुजारी नियुक्त होकर २३ वर्ष की आयु तक कार्य करते रहे। तत्पश्चात् इस मठ के महंत बने।

सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने ‘शिवरीनारायण माहात्म्य’ में उनके बारे में लिखा है:- ”स्वामी अर्जुनदास जी बड़े आस्तिक थे। बालपन से ही मूर्ति पूजा करते थे। नदी से कंकड़, पत्थर लाकर उनकी पूजा किया करते थे। इसमें वे अपनी तृप्ति मानते थे। आगे चलकर आपको हनुमान जी की बड़ी कृपा मिली।” वे श्रीराम की उपासना में सदा दृढ़ रहे। अपनी दिनचर्या में रामायणादि और भगवत्कथा के श्रवण में कुछ समय अवश्य निकालते थे। उन्हें ‘वाक् सिद्धि’ थी। उनके मुख से निकली हुई हर बात सत्य होती थी।

अकलतरा के जमींदार श्री सिदारसिंह का कोई पुत्र नहीं था। उन्होंने स्वामी जी से पुत्र निमित्त प्रार्थना की। स्वामी जी ने हनुमान जी का ध्यान धरकर पुत्रोत्पत्ति की बात कही। ईश्वर इच्छा से उनका पुत्र हुआ। उन्होंने अपने पुत्र का नाम अमरसिंह रखा। स्वामी जी की प्रेरणा पाकर सिदारसिंह ने अपने भाई श्री गरूड़सिंह की सहायता से संवत् 1927 में एक मंदिर बनवाकर उसमें श्रीराम लक्ष्मण और जानकी जी की प्रतिमा स्थापित करायी। इसी प्रकार लवन निवासी सुधाराम नामक ब्राह्मण को भी पुत्रोत्पत्ति का वरदान दिया था। यथाकाल उनके घर भी पुत्र की प्राप्ति हुई। स्वामी जी की प्रेरणा से उन्होंने मठ परिसर में संवत् 1927 में एक हनुमान जी का मंदिर बनवाया।

इसी प्रकार स्वामी जी की आज्ञा पाकर श्री रामनाथ साव ने चंद्रचूड़ महादेव मंदिर के बगल में संवत् 1927 में एक महादेव जी का मंदिर बनवाया। इस मंदिर में भगवान विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति भी है। आज उनके वंशज श्री मंगलप्रसाद, श्री तीजराम और श्री जगन्नाथ प्रसाद केशरवानी इस मंदिर की देखरेख और पूजा-अर्चना कर रहे हैं।

स्वामी जी की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार श्री राजसिंह ने मठ प्रांगण में जगन्नाथ मंदिर की नींव संवत् 1927 में डाली, जिसे उनके पुत्र श्री चंदनसिंह ने पूरा कराया और राग भोगादि की व्यवस्था की। इसी समय भटगांव के जमींदार ने योगी साधु-संतों के निवासार्थ जोगीडीपा में एक भवन का निर्माण कराया जिसे आज जनकपुर के नाम से जाना जाता है। रथयात्रा में आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी के साथ एक सप्ताह यहां विश्राम करते हैं।

संवत् 1926 में यहां श्री बैजनाथ साव, चक्रधर, बोधराम और अभयराम ने एक हनुमान जी का भव्य मंदिर बनवाया था। आज यह उजाड़ जरूर हो गया है लेकिन महंत अर्जुनदास जी यहां एक सुंदर बगीचा लगवाया था। वे यहां प्रतिदिन आया करते थे। द्वार पर एक शिलालेख है जिसमें हनुमान मंदिर बनाने का उल्लेख है।

संवत् 1923 से 1927 तक नारायण मंदिर के चारों ओर पत्थर से पोख्तगी कराकर मंदिर को मजबूती प्रदान कराया। यही नहीं बल्कि इधर उधर बिखरी मूर्तियों को दीवारों में जड़वाकर सुरक्षित करवा दिया। आज यहां का मंदिर परिसर जीवित म्यूजियम जैसा प्रतीत होता है। संवत् 1929 में मठ परिसर में पूर्व महंतों की समाधि में छतरी बनवायी।

फाल्गुन शुक्ल पंचमी, संवत् 1944 को रायपुर के छोगमल मोतीचंद ने मठ परिसर में द्वार से लगा एक सूर्य मंदिर का निर्माण कराया। स्वामी अर्जुनदास ने रायपुर के डिप्टी कमिश्नर श्री इलियट साहब से मंदिर के खर्चे का वर्णन किया, तब उन्होंने 12 गांव की माफी मालगुजारी संवत् 1915 में यह कहकर दिया-‘… अब आपके ठाकुर जी का खर्च ठीक चलेगा।’ संवत् 1920 में डिप्टी कमिश्नर चीजम साहब की अनुमति से उन्होंने यहां एक पाठशाला खुलवाया। यह पाठशाला महानदी के तट पर स्थित माखनसाव के कुलदेव महेश्वर महादेव मंदिर के पास स्थित थी।

पंडित हीराराम त्रिपाठी श्री शिवरीनारायण माहात्म्य में महंत अर्जुनदास जी के बारे में लिखते हैं-‘स्वामी जी का शील स्वभाव और ईश्वरोपासना में दृढ़ भक्ति और मिलनसारिता के कारण उनके सब हाकमान सदा प्रसन्न रहते थे।’ संवत् 1933 (जनवरी सन् 1877 ई.) में राज राजेश्वरी को महारानी की उपाधि मिलने पर उन्होंने स्वामी जी को एक प्रशंसा पत्र देकर सम्मानित किया था। इस प्रकार 44 वर्ष इस मठ के महंत रहकर 75 वर्ष की आयु में मठ प्रबंधन का सारा भार अपने शिष्य श्री गौतमदास को सौंपकर वे पौष कृष्ण अष्टमी दिन मंगलवार संवत् 1942 को स्वर्गवासी हुए।

पंडित मालिकराम भोगहा ने महंत अर्जुनदास जी की दिनचर्या और रात्रिचर्या का वर्णन इस प्रकार किया है- ”…प्रात:काल चार बजे प्रत्येक ऋतुओं में स्नानकर हनुमान जी की पूजा करना, अनंतर आठ बजे दिन तक राम स्तवराज का पाठ और श्रीविष्णुमहामंत्र के अनुष्ठान में पगे रहकर शुभकामना और वासना का संस्कार किया करते थे। तदनंतर शबरीनारायण के दर्शन को आते और अपने हाथ से सुंदर सामयिक पत्र, पुष्प और फल आदि अर्पण कर चरणामृत ले श्रीरामचंद्र जी के मंदिर आते थे। उसी प्रकार वहां भी दर्शन-पर्शन और साधुओं को दंडवत् प्रणाम कर जगन्नाथ जी के मंदिर की शोभा बढ़ाते थे।

इधर उनको मठ का काम यह देखना पड़ता था कि शबरीनारायण मंदिर, श्रीरामचंद्रजी के मंदिर और मठ के भंडार में क्या क्या सामान गया। जब जब जिस जिस ऋतुओं में नई वस्तु कहीं से आती, बिना भगवान के भोग लगाये अपने मुख में डालना उन्हें शपथ था।तदनंतर 10 बजे के भीतर जोगीडीपा जिसे जनकपुर और सिंदूरगिरि भी कहते हैं, जाया करते। वहां हनुमान जी का दर्शन और वहां का उद्यान निरीक्षण कर 12 बजे लौटकर पंगत में शामिल हुआ करते थे।

दो घंटा आराम कर राम नाम जपते रामायण की कथा सुनाते और चार बजे फिर जोगीडीपा आ शौच-स्नान कर संध्या के पहिले मठ में आ जाते थे। लंबी तुलसी की माला हाथ में लिये वासुदेव मंत्र का जाप करते शबरीनारायण की प्रदक्षिणा कर भीतर दर्शन करने आते और-”जय राम रमा रमन शमन भवताप भयाकुल पाहि जनम” यह छंद पढ़ते पढ़ते चंवर डुलाते और चरणामृत पानकर रामचंद्रजी के मंदिर में आते। उसी तरह प्रणाम-अभिवादन के अनंतर मठ में आ जगन्नाथ जी के तथा अन्य मूर्तियों के दर्शन कर अपने नित्य कर्म में प्रवृत्त होते थे। यह चरित्र प्राय: उनके जीवन भर मैं देखता रहा। अब कहिये इन्हें सिद्ध कहें या देवता..?”

महंत गौतमदास जी :

शिवरीनारायण मठ के 12 वें महंत स्वामी गौतमदास जी हुए जो स्वामी अर्जुनदास जी के परम शिष्य थे। वे शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट थे। गौतमदास जी का जन्म बिलासपुर (वर्तमान रायपुर) जिलान्तर्गत बलौदा ग्राम में श्री गंगादास और श्रीमती सूरर्या देवी के पुत्र रत्न के रूप में माघ शुक्ल द्वादशी संवत् 1892 रविवार को अच्युत गोत्रीय वैष्णव कुल में हुआ। बलौदा इनकी गौटियाई गांव था जहां अच्छी खेती होती थी। 9 वर्ष की आयु तक वे अपने माता पिता के पास रहे। उसके बाद दीक्षित होकर विद्याध्ययन करने के लिए शिवरीनारायण आ गये। उनके गुरू स्वामी अर्जुनदास जी ने उनकी शिक्षा की व्यवस्था मठ में ही करा दी। सात वर्ष तक उनको संस्कृत और नागरी भाषा में शिक्षा मिली। तत्पश्चात् गीतादि और कर्मकांड में शिक्षा ग्रहणकर निपुण हुए।

संवत् 1910 में महंत अर्जुनदास जी ने अपना सम्पूर्ण कार्यभार उन्हें सौंप दिया, यहां तक कि सरकार के दरबार में भी उन्हें जाने का अधिकार उन्होंने दिया। फिर वे मठ की देखरेख करने लगे। महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से बनने वाले सभी मंदिर उन्हीं की देखरेख में बने। उन्होंने अपने गुरू का 34 वर्ष तक साथ निभाया। उनके मृत्योपरांत 50 वर्ष की अवस्था में वे संवत् 1936 में इस मठ के महंत बने। उन्होंने शिवरीनारायण में रथयात्रा, श्रावणी, झूलोत्सव, और माघी मेला लगाने की दिशा में समुचित प्रयास किया जिसे उनके शिष्य महंत लालदास जी ने व्यवस्थित रूप प्रदान किया। उन्होंने टुन्ड्रा में एक तालाब खुदवाकर सुन्दर बगीचा लगवाया।

इसी प्रकार शिवरीनारायण में प्रमुख बाजार से लगा एक सुन्दर बगीचा लगवाया। इसे ”फुलवारी” के नाम से जाना जाता है। उनका सम्पूर्ण समय ईश्वरोपासना, श्रीराम के भजन और श्रीहरिकथा श्रवण में व्यतीत होता था। धर्म्म व्यवहार में उनकी इतनी दृढ़ता थी कि अस्वस्थ होने पर भी धर्मानुकूल व्यवहार करने में वे कभी नहीं चुकते थे। वे धर्माभिमानी और धर्मात्मा पुरूष थे। प्रयाग, काशी, गया, जगन्नाथपुरी और अयोध्या आदि तीर्थयात्रा उन्होंने की थी। वे सनातन धर्म के रक्षार्थ निरंतर कटिबद्ध रहे। शिवरीनारायण में सबसे पहले उन्होंने ही नाटकों के मंचन को प्रोत्साहित किया जिसे महंत लालदास जी ने प्रचारित कराया। उन्होंने अपने भाई श्री जयरामदास के पुत्र श्री लालदास जी को अपना शिष्य बनाकर मठ का महंत नियुक्त किया।

महंत लालदास जी :

शिवरीनारायण मठ के 13 वें महंत स्वामी लालदास जी हुए। बिलासपुर (वर्तमान रायपुर) जिलान्तर्गत ग्राम बलौदा के श्री जयरामदास जी के पुत्र के रूप में आषाढ़ शुक्ल 11, संवत् 1936 में उनका जन्म हुआ। वे महंत गौतमदास जी के भतीजे थे। माघ शुक्ल 5, संवत् 1940 को श्री लालदास का विद्याध्ययन आरंभ हुआ और चैत्र शुक्ल 8, संवत् 1945 को संस्कारित होकर विधिवत दीक्षित हुए।

महंत लालदास जी संत सेवी, भगवत भक्त और समाज के उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। यहां त्योहारों और पर्वो में विशेष धूम उन्हीं के कारण होने लगी थी। सावन में झूला उत्सव, रामनवमीं, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रथयात्रा, विजियादशमी यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता था जिसमें आस पास के गांवों के बड़ी संख्या में लोग सम्मिलित होते थे। यहां रामलीला, कृष्णलीला और नाटक का मंचन बहुत अच्छे ढंग से होता था जिसे देखने के लिए राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजार तक आते थे।

महंत गौतमदास जी के समय यहां एक ”महानद थियेटिकल कम्पनी” नाम से नाटक मंडली बनी थी जिसके द्वारा धार्मिक नाटकों का मंचन किया जाता था। इस नाटक मंडली को आर्थिक सहायता मठ के द्वारा मिला था। मठ के मुख्तियार श्री कौशल प्रसाद तिवारी ने भी ”बाल महानद थियेटिकल कम्पनी” के नाम से एक नाटक मंडली बनायी थी। आगे चलकर महानद थियेटिकल कम्पनी और बाल महानद थियेटिकल कम्पनी को एक करके ”महानद थियेटिकल कम्पनी” बनी। इस कम्पनी के मैनेजर श्री कौशल प्रसाद तिवारी थे।

यहां मनोरंजन के यही साधन थे। समय समय पर यहां संत समागम, यज्ञ आदि भी होते थे। कदाचित् इन्हीं सब कारणों से महंत लालदास जी सबके आदरणीय और पूज्य थे। वे आयुर्वेद के अच्छे ज्ञाता थे। औषधियों का निर्माण वे स्वयं कराते थे और जरूरत मंद लोगों को नि:शुल्क देते थे। उन्होंने शिवरीनारायण को ”व्यावसायिक मुख्यालय” बनाने के लिए बड़ा यत्न किया। दूर दराज के व्यावसायियों को आमंत्रित कर यहां बसाया और सुविधाएं दी, उन्हें व्यापार हेतु प्रोत्साहित किया।

प्रमुख बाजार स्थित दुकानें उनकी दूर दृष्टि का ही परिणाम है। यहां के माघी मेला जो पूरी तरह व्यवस्थित होती है, इसे व्यवस्थित रूप प्रदान करने का सारा श्रेय महंत लालदास को ही जाता है। मठ के मुख्तियार श्री कौशलप्रसाद तिवारी महंत जी की आज्ञा से महंतपारा की अमराई में मेला के लिए सीमेंट की दुकानें बनवायी जो आज टूटती जा रही है। उन्होंने महानदी के तट पर संत-महात्माओं के स्नान-ध्यान के लिए अलग ”बावाघाट” का निर्माण कराया। नि:संदेह ऐसे परम ज्ञानी, संत, कुशल प्रशासक और दूर दृष्टा महंत का यह क्षेत्र सदैव ऋणी रहेगा।

महंत लालदास ने अपने भतीजे दामोदरदास को अपना शिष्य बनाया। लेकिन 29 जून सन 1957 को असमय उनकी मृत्यु हो जाने के कारण दूधाधारी मठ रायपुर के महंत श्री वैष्णवदास जी को अपना शिष्य बनाकर इस मठ का महंत नियुक्त किया जो उनके 24 अगस्त सन् 1958 को मृत्योपरांत मठ का कार्यभार सम्हाला। इस प्रकार शिवरीनारायण मठ और रायपुर के दूधाधारी मठ के बीच एक नया संबंध स्थापित हुआ।

राजेश्री महंत वैष्णवदास जी :

शिवरीनारायण मठ के राजेश्री महंत वैष्णवदास जी 14 वें महंत थे। वे ऐसे पहले महंत थे जो शिवरीनारायण मठ के अलावा रायपुर के दूधाधारी मठ के भी महंत थे। दूधाधारी मठ के अंतर्गत निम्नलिखित मठ-मंदिर संचालित होते हैं :-
१. दूधाधारी मठ, रायपुर
२. श्री जगन्नाथ मंदिर हटरी पारा, पुरानी बस्ती, रायपुर
३. श्री जगन्नाथ मंदिर राजिम
४. श्रीराम मंदिर, पवनी, महाराष्ट्र

श्री वैष्णवदास बिहार प्रांत के छपरा जिलान्तर्गत परसा थाना में पंचरूखी अथवा पंचरूखिया के निवासी थे। वे एक रामलीला मंडली के साथ बिहार से मध्यप्रदेश के छत्‍तीसगढ़में आये थे। उस समय उनकी आयु 16 वर्ष थी। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर दूधाधारी मठ के महंत श्री बजरंगदास ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया। श्री वैष्णवदास 31.7.1934 को उनके मृत्योपारांत इस मठ के आठवें महंत बने। इस समय मठ में 20 गांव की मालगुजारी थी, वैष्णवदास ने पांच गांव खरीदकर गांवों की संख्या 25 कर ली थी।

छत्‍तीसगढ़ की राजनीति में पंडित रविशंकर शुक्ल के अलावा जैतूसाव मठ के महंत लक्ष्मीनारायण दास और दूधाधारी मठ के महंत वैष्णवदास की अच्छी पूछ परख थी। महंत लक्ष्मीनारायण दास तो रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के अलावा दो बार विधायक और एक बार राज्यसभा के सांसद बने थे। रायपुर जिला की राजनीति में उनकी भूमिका निर्णायक होती थी। इसी प्रकार महंत वैष्णवदास ने भी एक बार भाटापारा-सीतापुर निर्वाचन क्षेत्र से किसान मजदूर प्रजापार्टी से चुनाव लड़े थे जिसमें कांग्रेस के श्री चक्रपाणि शुक्ल से मात्र 1523 वोट से हार गये थे।

महंत जी के राजनीतिक मित्रों में पंडित रामदयाल तिवारी, श्री बृजलाल वर्मा, श्री खूबचंद बघेल, और ठाकुर प्यारेलाल सिंह प्रमुख थे। ठाकुर प्यारेलाल सिंह जब तक कांग्रेस में रहे तब तक वैष्णवदास जी भी कांग्रेस में थे। सन् 1937 में महंत जी कांग्रेस से जुड़े। सन् 1942 में वे जेल तो नहीं गये मगर तीन बार सत्याग्रह किये और जुर्माना दिये थे। ठाकुर प्यारेलाल सिंह के साथ महंत वैष्णवदास ”किसान मजदूर प्रजापार्टी” में चले गये। एक ओर महंत लक्ष्मीनारायणदास पं. रविशंकर शुक्ल के साथ थे, तो दूसरी ओर महंत वैष्णवदास ठाकुर प्यारेलाल सिंह के साथ थे। लेकिन राजनीति में जितना लाभ महंत लक्ष्मीनारायण दास को मिला उतना महंत वैष्णवदास को नहीं मिला। राजनीति से वे हमेशा धोखा खाते रहे।

सन् 1970 में जैन मुनि आचार्य तुलसी चतुर्मास बिताने रायपुर आये थे। उन्होंने अपनी पुस्तक ”सीता की अग्नि परीक्षा” को यहां प्रचारित किया। इस पुस्तक में श्रीराम को ”कायर” जैसे शब्दों से संबोधित किया गया था। महंत वैष्णवदास रामानंदी सम्प्रदाय के होने के कारण श्रीराम का अपमान वे कैसे सहन कर सकते थे ? उन्होंने उनका विरोध ही नहीं किया बल्कि विरोध का ऐसा अभियान चलाया जिसमें श्री हजारीलाल वर्मा को जेल हो गयी थी। उस समय स>शी बाजार स्थित अम्बादेवी मंदिर में अयोध्या के रामायणी श्री सीतारामशरण जी का प्रवचन कराया गया था। उस समय धार्मिक प्रतिस्पर्धा देखने लायक थी। स्वामी करपात्री महाराज भी उस समय प्रवचन देने यहां आये थे।

महंत वैष्णवदास जी संस्कृत शिक्षा के बड़े प्रेमी थे। शिक्षा के प्रसार-प्रचार के लिए उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया। सन् 1955 में रायपुर में ”श्री दूधाधारी वैष्णव संस्कृत महाविद्यालय” खुलवाने के लिए 3.5 लाख रूपये नगद और 100 एकड़ जमीन दान में दिया। आगे चलकर अमरदीप टॉकिज को भी इस महाविद्यालय को दान कर दिया। इस कार्य में देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद और प्रदेश के मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल का विशेष योगदान था।

इसी प्रकार बालिकाओं की शिक्षा के लिए रायपुर में सन् 1958 में ‘शासकीय दूधाधारी बजरंगदास महिला महाविद्यालय” खुलवाया और इसकी व्यवस्था के लिए मठ से 1.5 लाख रूपये नगद और पेंड्री गांव की 300 एकड़ जमीन दान में दी। मध्य प्रांत के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल की ”विद्यामंदिर योजना” के क्रियान्वयन के लिए मठ से 30० एकड़ जमीन दान में दी।

सन् 1958 में अपने गुरू के नाम पर अभनपुर में ”श्री बजरंगदास उच्चतर माध्यमिक विद्यालय” खुलवाया। इसी प्रकार अपने पिता की स्मृति में अपने पैतृक गांव पंचरूखी में एक हाई स्कूल खुलवाया। सन् 1938 में मठ में एक संस्कृत पाठशाला चलती थी जिसमें लगभग 108 विद्यार्थी पढ़ते थे जो बाद में कम होते गये, उनके रहने, खाने-पीने, कपड़ा, पुस्तकादि का खर्च मठ से देने की व्यवस्था महंत जी ने की थी।

बलौदाबाजार के विधि महाविद्यालय के संचालन के लिए मठ से छेड़िया ग्राम की 40 एकड़ भूमि दान की दी। श्री वैष्णवदास ने रायपुर में ”श्री दूधाधारी सत्संग भवन” के रूप में छत्‍तीसगढ़की जनता को धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजनों के लिए सर्व सुविधा युक्त भवन उपलब्ध कराया। उनके इस सद्कार्य के लिए म.प्र. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संघ के प्रांतीय अध्यक्ष सेठ गोविंददास ने एक ”ताम्रपत्र” देकर सम्मानित किया था।

म. प्र शासन ने .सन् 1975-76 में उन्हें ”कृषक शिरोमणि” की उपाधि प्रदान की थी। सामाजिक उत्थान में अपना सर्वस्र न्योछावर करने वाले महंत वैष्ण्वदास जी को ”अखिल भारतीय वैष्णव सम्प्रदाय के अध्यक्ष” बनने का भी सौभाग्य मिला। उन्हें 25. 11. 1995 को छत्‍तीसगढ़ की जनता ने ”राजेश्री” की उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने श्री रामसुन्दरदास को अपना शिष्य बनाकर शिवरीनारायण और दूधाधारी मठ का महंत नियुक्त किया और दिनांक 12. 11. 1995 को ब्रह्मलीन हुए।

01.10.1986 को मठ के प्रबंधन के लिए एक ”पब्लिक ट्रस्ट” का गठन किया गया था जिसके चेयरमेन ट्रस्टी राजेश्री महंत वैष्णवदासजी और श्री जे. एन. ठाकुर को सचिव बनाया गया था। इस ट्रस्ट में निम्न लिखित सदस्य मनोनित किये गये थे :-

१. श्री नरेन्द्रकुमार मिश्रा, विधायक, बलौदाबाजार
२. श्री रामसनेही अग्रवाल, अधिवक्ता, बिलासपुर
३. श्री जगदीशप्रसाद केशरवानी, अधिवक्ता, बिलासपुर
४. श्री ललित सुरजन, संपादक, देशबंधु, रायपुर
५. श्री रामविशाल शुक्ल, सरकारी अधिवक्ता, रायपुर
६. श्री भगवानसिंह ठाकुर, अधिवक्ता, रायपुर
७. श्री जे. एन. ठाकुर, पुरानी बस्ती, रायपुर, सचिव
८. श्री लक्ष्मणप्रसाद मिश्रा, बिलासपुर

राजेश्री महंत रामसुन्दरदास जी :

श्री रामसुन्दरदास जी शिवरीनारायण मठ के 15 वें और दूधाधारी मठ रायपुर के 9 वें महंत हैं। वे जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत ग्राम पिहरीद के श्री टंकेश्वर प्रसाद त्रिवेदी और श्रीमती सावित्री देवी के पुत्ररत्न के रूप में 6.6.1966 को जन्में। प्राथमिक शिक्षा उन्होंने शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय मालखरौदा से प्राप्त की और उच्च शिक्षा के लिए रायपुर के श्रीदूधाधारी संस्कृत महाविद्यालय आ गये। यहां से उन्होंने एम. ए. क्लासिक्स एवं आचार्य की उपाधि प्राप्त की। युवा, उर्जावान, ओजस्वी व्यक्तित्व के धनी राजेश्री महंत रामसुन्दरदास जी अपने गुरू स्व. राजेश्री वैष्णवदास के अधूरे कार्यो को पूरा करने, शिवरीनारायण को पर्यटक और व्यापारिक स्थल के रूप में विकसित करने के लिए कृत संकल्पित हैं।

आलेख

प्रो (डॉ) अश्विनी केसरवानी, चांपा, छत्तीसगढ़

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