विक्रम संवत नव संवत्सर विशेष आलेख
भारत व्रत, पर्व व त्योहारों का देश है। यूं तो हम हर दिन को पावन मानते हैं। महापुरुषों के निधन के दिनों पर भी हम शोक व्यक्त करने के स्थान पर उसे पुण्यतिथि के रूप में मनाते हुए कुछ नव-संकल्पों के साथ उनके बताए मार्ग पर चलने की प्रेरणा लेते हैं।
हम सदैव उत्कर्ष, प्रकाश, प्रगति, धर्म तथा विश्व-कल्याण मार्ग के अनुगामी हैं। नकारात्मकता का किसी भी भारतीय पर्व या त्योहारों में कोई स्थान है ही नहीं। नववर्ष भी तो एक नवसृजन का ही सन्देश लेकर आता है। कुछ नया होता है तभी तो उसे नया वर्ष कहते हैं। जब नया आता है तो उसका स्वागत भी तो धूमधाम से होना ही चाहिए।
इस धूमधाम का वास्तविक अर्थ क्या! नववर्ष के स्वागत के लिए कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे हर मन में सात्विक नव ऊर्जा का संचार हो। हमारे संस्कार व संस्कृति कहती है कि हम नवागंतुक का स्वागत दीप जलाकर, थाली सजाकर, आरती उतार कर करें। कुमकुम, तिलक या टीका लगाकर, स्वच्छ वस्त्र पहनकर, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से घर को सुगंधित कर शंख व मंगल ध्वनि के साथ हवन-यज्ञ, सत्संग आराधना द्वारा प्रभु का गुणगान करें।
प्रभात-फेरियां निकालें, संतों व वरिष्ठ जनों की सेवा कर, संतों, विद्वानों, कन्याओं, निराश्रितों तथा गौमाता को भोजन कराकर पुण्य लाभ कमाएं। भगवान के मन्दिर जाएं, गरीबों और रोगियों की सहायता, वृक्षारोपण, समाज में प्यार और विश्वास बढ़ाने के प्रयास तथा शिक्षा का प्रसार जैसे कार्यों का संकल्प लें।
इनके अलावा भी जीवन में उत्साह व आनंद भरने तथा आत्म-गौरव बढ़ाने सम्बन्धी अनेक अन्य प्रकार भी स्वागत व अभिवादन हेतु प्रयुक्त किए जा सकते हैं। इसके स्वागतार्थ जाम से जाम टकराने की जगह गौ-घृत के दीप से दीप जलाकर हृदय से हृदय मिलाएं। बड़ों का तिरस्कार कर नहीं अपितु उनका अनुशासन व आशीर्वाद पाकर करें नव वर्ष का स्वागत ।
विचारणीय बात यह भी है कि कोई भी पर्व या त्योहार तब तक भारतीय नहीं कहलाया जा सकता जब तक कि उसके मनाने से जीवन में नव उत्साह या आनंद का संचार ना हो। कोई शिक्षा या सन्देश न हो। उसके पीछे कोई विचार, आदर्श या | ज्ञान-विज्ञान न हो। काल गणना का प्रत्येक पल अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है।
किन्तु, भारतीय नववर्ष (विक्रमी संवत् ) का पहला दिन (यानी वर्ष प्रतिपदा) अपने आप में अनूठा है। इसे नव संवत्सर भी कहते हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए इसी दिन सूर्यदेव का एक चक्कर पूरा करती है। दिन-रात बराबर होते हैं। चन्द्रमा की चांदनी अपनी छटा बिखेरना प्रारम्भ कर देती है। ऋतुओं के राजा वसंत के आगमन के कारण प्राकृतिक सौंदर्य अपने चरम पर होता है। फागुन के रंग और फूलों की सुगंध तन-मन को प्रमुदित कर देती है।
विक्रमी संवत् की वैज्ञानिकता भी उल्लेखनीय है। पराक्रमी सम्राट विक्रमादित्य द्वारा प्रारम्भ किए जाने के कारण इसे विक्रमी संवत् के नाम से जाना जाता है। इसे ईस्वी सन से ५७ वर्ष पूर्व प्रारम्भ किया गया। इस संवत् के बाद से ही वर्ष को १२ माह का और सप्ताह को ७ दिन का माना गया।
चन्द्रमा के पृथ्वी के चारों ओर एक चक्कर लगाने को एक माह माना जाता है, जो कि वास्तव में २६ दिन का होता है। हर मास को दो भागों में बांटा जाता है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। कृष्णपक्ष में चन्द्रमा का आकार घटता है किन्तु, शुक्ल पक्ष में वह बढ़ता है।
कृष्ण पक्ष के अन्तिम दिन (अमावस्या) चन्द्रमा बिल्कुल दिखाई नहीं देता। जबकि शुक्ल पक्ष के अन्तिम दिन (पूर्णिमा) चन्दा मामा अपने पूरे यौवन पर होते हैं। आधी रात के बदले सूर्योदय से दिन बदलने की व्यवस्था, सोमवार के स्थान पर रविवार को सप्ताह का प्रथम दिवस मानना और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही वर्ष को आरम्भ करने का भी एक बड़ा वैज्ञानिक आधार है।
इंग्लैंड के ग्रीनविच नामक स्थान से तारीख बदलने की व्यवस्था रात के १२ बजे से है। सोचिए ! वह इसलिए है क्योंकि उस समय भारत में भगवान सूर्य की अगवानी हेतु प्रातः ५.३० बजे होते हैं। सप्ताह के वारों का नामकरण भी तो देखो कितना वैज्ञानिक है!
आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ करें तो हम पाते हैं कि ये सभी क्रमशः बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि हैं। पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा सहित इन्हीं अन्य छह ग्रहों पर सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया गया।
एक और बात, तिथि घटे या बढ़े किन्तु सूर्य ग्रहण सदा अमावस्या को होगा और चन्द्र ग्रहण सदा पूर्णिमा को होगा। इसमें अन्तर हो ही नहीं सकता। तीसरे वर्ष एक मास बढ़ जाने पर भी ऋतुओं का प्रभाव उन्हीं महीनों में दिखाई देता है जिनमें, सामान्य वर्षों में दिखाई पड़ता है। वसंत के फूल चैत्र – वैशाख में तथा पतझड़ माघ-फागुन में ही होती है। यानी, इस काल गणना में नक्षत्रों, ऋतुओं, महीनों व दिवसों का निर्धारण पूरी तरह प्रकृति पर आधारित है।
जिस प्रकार ईस्वी संवत् का सम्बन्ध ईसा मसीह से है, उसी प्रकार हिजरी संवत् का सम्बन्ध पैगम्बर हजरत मुहम्मद से है। किन्तु विक्रमी संवत् का आधार कोई व्यक्ति न हो कर प्रकृति और खगोलीय सिद्धान्त है। इसलिए हमारे यहाँ नववर्ष का स्वागत रात के अंधेरे में नहीं बल्कि सूरज की पहली किरण के साथ किए जाने की परम्परा है।
इतने वैज्ञानिक, खगोलीय, धार्मिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक सम्पन्नताएं तथा नवीनताएं लिए भारतीय नववर्ष की अनदेखी क्यों करें? और केवल अंग्रेजी अवैज्ञानिक मान्यताओं के आधार पर बने ईस्वी सन को कब तक ढोते रहेंगे।
वैसे भी जरा सोचिए ! घर-परिवार, व्यवसाय व समाज में कोई खुशी का अवसर हो यथा जन्म का, संस्कारों का, गृह प्रवेश का, यात्रा का, शादी-विवाह इत्यादि का, तो उसका शुभ मुहूर्त निकलवाने हम पंडितजी के पास जाते ही हैं न! पंडितजी वह मुहूर्त भी तो इसी काल गणना के आधार पर निकालते हैं, अंग्रेजी कैलेंडर से नहीं।
आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने स्वाभिमान, स्व-संस्कृति तथा स्वधर्म का पालन करते हुए नववर्ष को पूरी निष्ठापूर्वक आत्मसात कर धूमधाम से मनाएं और विश्वभर में वेदामृत का प्रकाश फैलाएं।
यदि दूसरों के त्योहारों या मान्यताओं का साथ देने भर की बात हो तो उसमें भी अपनी मर्यादाओं, संस्कारों तथा नैतिक मूल्यों को कदापि न छोड़ें। कुछ न कुछ समाजोपयोगी या जन-कल्याणकारी कार्य का शुभारम्भ अवश्य करें और रात्रि के अंधेरे के स्थान सूर्य की पहली किरण से करें उसका अभिनंदन। आखिर नव-सृजन से ही तो होना चाहिए नव-वर्ष का अभिनंदन!
(लेखक विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)
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