महर्षि वाल्मीकि का जन्म शरद पूर्णिमा को हुआ था। वे भारत की उन विरली विभूतियों में से एक हैं, जिन्हें हर समाज अपना पूर्वज मानता है। ब्राह्मण समाज ऋषि पुत्र मानता है तो भील वनवासी समाज उन्हें अपना पूर्वज मानते हैं, दलित वर्ग में तो वाल्मीकि समाज की गणना होती ही है।
वहीं गुजरात और दक्षिण भारत के अनेक हिस्सों निषाद समाज बाल्मीकि जी को अपना पूर्वज मानता है तो पंजाब में एक सिख उपवर्ग है जो स्वयं को क्षत्रिय मानता है और वाल्मीकि जी का वंशज। उनका यह भी दावा है कि उनके पूर्वज प्रत्यक्ष युद्ध करते थे।
जिस प्रकार समाज में उनकी विविध मान्यता है उसी प्रकार उनके व्यक्तित्व के भी अनेक स्वरूप हैं, कहीं उन्हें महर्षि तो कहीं भगवान् वाल्मीकि कहा जाता है और कहीं संत तो कहीं महापुरुष के रूप उनकी मान्यता है। उनके जन्म और महर्षि बनने की कथाएँ भी अलग-अलग हैं।
जन्म कथायें
लगभग सभी पुराणों में किसी न किसी संदर्भ में वाल्मीकि जी का वर्णन है। कुछ पुराण कथाओं में उन्हें प्रचेता का ग्यारहवाँ पुत्र और महर्षि भृगु का भाई बताया है तो कहीँ महर्षि अंगिरा का वंशज, कहीँ उन्हे वनवासी बताया गया है और पिता का नाम सुमाली लिखा है। लेकिन सभी कथाओं में एक बात समान है कि उनका नाम रत्नाकर था और उनका पालन पोषण वनवासी भील समाज में हुआ था। वे आजीविका के लिये चाँडाल कर्म करते थे।
उन दिनों चोरी डकैती, शमशान घाट में और हिंसात्मक कार्य करके अपनी आजीविका कमाने वालों को चाँडाल कहा जाता था। एक दिन नारद निकले रत्नाकर ने रोका और लूटने का प्रयास किया। नारद जी ने कहा कि उनके पास तो वीणा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। बाल्मीकि जी ने तलाशी ली। नारद जी ने पूछा कि यह सब किस लिये करते हो?
रत्नाकर ने कहाकि “परिवार चलाने के लिये।” नारद जी ने पूछा कि “क्या परिवार जन इस पाप में भी भागीदार होंगे?” सुनकर चौंक पड़े रत्नाकर। उन्होंने घर जाकर परिवार से पूछा तो सबने पाप की सहभागिता से पल्ला झाड़ लिया।
बस हृदय परिवर्तन हो गया रत्नाकर का। उन्होंने चाँडाल कर्म छोड़कर भक्ति आरंभ की। कठोर तप किया। उन्हें ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हुआ और उनके मुँह से व्याकरण युक्त संस्कृत के पहला श्लोक प्रस्फुटित हो गया। आगे चलकर उन्हें ऋषित्व प्राप्त हुआ और महर्षि कहलाये।
“वाल्मीकि” नाम का रहस्य
वाल्मीकि नाम साधारण नहीं है। सामान्य तौर पर कहा जाता है कि कठोर तप और साधना में इतने निमग्न हो गये थे शरीर पर दीमक लग गयी थी दीमक का एक नाम वाल्मि भी कहा जाता है इसलिए उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। लेकिन यह तो लोक चर्चा है।
वस्तुतः संस्कृत व्याकरण में वाल्मीकि का अर्थ अलग है। संस्कृत में स्वर और व्यंजन की ध्वनि भी गहरे अनुसंधान के बाद निश्चित किये गये हैं “वाल्मीकि” शब्द संस्कृत की दो धातुओं से मिलकर बना है। संस्कृत में एक धातु है “वल्” जिसका अर्थ होता है केन्द्रीयभूत शक्ति। दूसरी धातु है “मक्” जिसका अर्थ आकर्षण होता है।
इन दोनों धातुओं की संधि से शब्द बना “वाल्मीकि” जिसका अर्थ होता आंतरिक शक्ति का आकर्षण। नाम के अर्थ के संदर्भ में भी वाल्मीकि जी के व्यक्तित्व को देखें। उनका अमृत्व उनके जन्म या परिवार की पृष्ठभूमि के कारण नहीं अपितु उनकी ज्ञानशक्ति के कारण है। यह ज्ञान उन्हें अपनी आंतरिक प्रज्ञा शक्ति से उत्पन्न हुआ और इसी से संसार के प्रत्येक व्यक्ति के लिये आकर्षण का केंद्र बने।
सामाजिक स्वरूप और सम्मान
महर्षि वाल्मीकि को जिस प्रकार अलग-अलग क्षेत्रों में उन्हें अलग अलग समाज से जोड़ कर देखा जाता है उसी प्रकार स्वयं को वाल्मिकी वंशज मानने वालों में उपनाम भी ऐसे हैं जो लगभग सभी वर्गों की ओर इंगित करते हैं। वाल्मीकि समाज में “चौहान” उपनाम भी होता है और “झा” भी। “झा” ब्राह्मणों में उपनाम है तो “चौहान” क्षत्रियों का।
वाल्मीकि समाज में “वर्मा” भी होते हैं और चौधरी एवं पटेल भी होते हैं। महर्षि वाल्मीकि किस समाज या समूह से संबंधित हैं, इस पर भले मतभेद हों पर यह सर्व स्वीकार्य तथ्य है कि वे संसार के आदि कवि हैं, उन्होंने अपने पुरुषार्थ, परिश्रम या तप से अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया। वे सर्व समाज में मार्गदर्शक और पूज्य हैं, भारत में सामाजिक एकत्व और समरसता के प्रतीक हैं।
उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से संपूर्ण समाज और भूभाग को एक सूत्र में पिरोया। वे सबके लिये एक आदर्श थे तभी तो दशरथ नंदन राम ने उन्हें धरती पर लेटकर साष्टांग प्रणाम किया और वन में रहने के लिये उन्ही से सुगम स्थान पूछा। माता सीता उन्ही के आश्रम में रहीं।
लवकुश को उन्ही ने शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दी। जिस प्रकार उनकी देशीय और सामाजिक व्यापकता मिलती है उससे एक बात स्पष्ट होती है कि वाल्मीकि जी सृष्टि के आरंभिक काल में समाज और राष्ट्र को एक स्वरूप में बांधने का प्रयास किया होगा। इसीलिये उनका संदर्भ सभी समाजों में और देश के सभी स्थानों में मिलते हैं।
वाल्मीकि जी का कृतित्व
महर्षि वाल्मीकि संस्कृत में काव्यविधा के जन्मदाता माने जाते हैं। यह मान्यता है कि संस्कृत की पहली काव्य रचना उन्हीं के स्वर में प्रस्फुटित हुई। भारत के लगभग सभी काव्य रचनाकारों ने अपना साहित्य सृजन करने से पहले उनकी वंदना की है। इनमें पूज्य आदि शंकराचार्य भी हैं और रामानुजार्य भी। राजाभोज भी हैं और संत तुलसीदास भी।
वैदिक काल से आधुनिक काल तक भारत में ऐसा कोई काव्य रचनाकार नहीं जिनने उनका स्मरण न किया हो। उन्होंने ऋषित्व ही नहीं देवत्व भी प्राप्त किया। वे ऋग्वेद के आठवें मंडल में एक सूक्त के ऋषि हैं। उनके द्वारा रचित वाल्मिकी रामायण भारत ही नहीं अपितु संसार भर का पहला महाकाव्य है। इसमें इस महाकाव्य में पच्चीस हजार श्लोक हैं । हर हजारवें श्लोक का आरंभ गायत्री मंत्र के प्रथम अक्षर से होता है।
उनकी रामायण रचना की दो विशेषताएं हैं। एक तो इसमें सूर्य और चन्द्र की स्थिति का सटीक उल्लेख है। इससे अनुमान है कि उन्हें अंतरिक्ष या सौर मंडल का ज्ञान था। दूसरा रामजी के वनवास काल के वर्णन में स्थानों के नाम, उनकी भौगोलिक स्थिति और मौसम का सटीक विवरण है ।
यह वर्णन केवल कल्पना से संभव नहीं हैं। स्थानों के नाम और स्थिति यथार्थ परक है इससे लगता है कि उन्होंने रामायण लिखने से पूर्व उन्होंने राम जी के वन गमन पथ की यात्रा की, और अध्ययन किया। उसी आधार पर वर्णन किया। उनके वर्णन में सामाजिक एकत्व और समरसता को जिस प्रमुखता से विवरण दिया गया है।
विशेषकर वनवासी समाज के विभिन्न समूहों और उप समूहों में एकरूपता के सूत्र में पिरोने और विभिन्न भूभाग पर निवास रत व्यक्तियों के बीच वे कोई एकत्व स्थापित करना चाहते थे। वे सही मायने में राष्ट्र जागरण और सामाजिक एकत्व के अभियान में सक्रिय रहे।
उन्होंने रामायण के अतिरिक्त भी अन्य अनेक काव्य रचनाएं भी तैयार कीं थीं। उन्होंने अपने पुरुषार्थ, परिश्रम या तप से अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया था। वे सर्व समाज के मार्गदर्शक और पूज्य हैं। वे भारत में सामाजिक एकत्व और समरसता के प्रतीक हैं।
नेपाल, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, विहार, मध्यप्रदेश महाराष्ट्र, गुजरात और छत्तीसगढ़ ही नहीं सुदूर केरल में भी वाल्मीकि जी के मंदिर हैं। नेपाल के चितवन जिले में वाल्मीकि मंदिर है तो उत्तर प्रदेश में तमसा, सोना और सप्त गंडक के संगम स्थल को उनकी जन्म स्थली और आश्रम होने की मान्यता है।
एक दावा प्रयाग से लगभाग चालीस किलोमीटर दूर झाँसी मानिकपुर रोड पर तो एक दावा चित्रकूट में होने का है। एक अन्य दावा सीतामढी के बिठूर में तो एक हरियाणा फतेहाबाद में और मध्यप्रदेश के मंडला जिले में नर्मदा संगम पर बने वाल्मीकि आश्रम को ही उनकी तपोस्थली माना जाता है। इन सभी स्थानों पर शरद पूर्णिमा को ही पूजन और भंडारे होते हैं। कहीं कहीं तो चल समारोह भी निकलते हैं।
देशभर के विभिन्न भागों में उनके आश्रम होना और विभिन्न समाज में उनकी मान्यता उनके एक वैश्विक और मानवीय स्वरूप को प्रमाणित करती है। आज के वातावरण में बढ़ती चुनौतियों के बीच संपूर्ण भारतीय समाज के समरस स्वरूप प्रमाणित करने के लिये महर्षि वाल्मीकि का जीवन चरित्र एक आदर्श है। उनके ज्ञान, उनकी वैश्विकता का पालन करके ही भारतीय समाज पुनः अपने उसी स्वरूप को प्राप्त कर सकता है जो उसका अतीत में रहा है।
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