27अप्रेल नारायण लाल परमार जी की पुण्यतिथि पर विशेष आलेख
अपने भीतर एवं निहायती देहाती किस्म का बज्रमूर्ख बैठा हुआ है, जो हर किसी से अपनत्व चाहता है, जो विशुद्ध घरू वातावरण में साहित्य को जीना चाहता है, जो कभी साहित्य में रचनाकार को ढूंढता है, तो कभी उसके व्यक्तित्व में साहित्य को संभव हुआ देखना चाहता है और इस चाहत की कभी कभी किसी से पूर्ति भी हो जाती है, जैसे नारायण लाल परमार से शुरू से ही वे मेरे लिए बड़े भाई की हैसियत रखते हैं, उनसे भेंट बहुत कम हुई और पत्र व्यवहार भी कम रहा, लेकिन जितना हुआ, उतना मेरे लिए काफी मतलब रखता है । वे एक जिन्दादिल इन्सान हैं, उसके मन में बात कही सुनी जा सकती है, दुखड़ा तो विश्वसनीय से ही रोया जा सकता है, साक्ष्य बतौर उनके पत्र का एक नमूना दिये देते हैं :
6-6-2000 नारायण लाल परमार
प्रिय भाई ,
सा . नमस्कार ,
पत्र मिला । आभार । पिछले दो तीन वर्षों से बीमार चल रहा हूँ । कहीं आना जाना नहीं हो पाता । सारा समय घर पर ही गुजरता है , गुरूदेव की किताब कहाँ से छपी है । जानकारी हो तो लिखो । प्रकाशक का पता लिख भेजो । मैं अविलम्ब बुलवा लूंगा । मेरे कृतित्व व्यक्तित्व पर भी पिछले दिनों एक किताब आई है । मैं एक बची हुई प्रति गुरूदेव को भेजना चाहता हूँ । लेकिन पोस्ट आफिस तक जाना आना नहीं हो पाता चूंकि उसमें गुरुदेव का भी एक आलेख सम्मिलित है । गुरूदेव याद करते हैं , यही बहुत है । जब किसी बीमार दोस्त को कोई स्वस्थ मित्र पत्र लिखे या याद करे तो अच्छा लगता है ।
अभी पिछले दिनों आपके द्वारा सम्पादित पुस्तक पाण्डेय जी के आलेखों वाली पढ़ गया। आपकी याद भी आती रही। आपका पत्र आने पर मैने रचना को भी स्मरण दिलाया? रचना यहीं के गर्ल्स हायर सेकेन्डरी में सीनियर लेक्चरर है। पी . एच . डी . कर ली है। मेरे मकान के पीछे मकान भी बनवा लिया है। उसका एक काव्य संकलन भी आ गया है। कभी वक्त मिला तो भिजवाउँगा।
कभी – कभार पत्र अवश्य लिखो । अब कम समय शेष रह गया है ।
आपका : नारायण लाल परमार
अन्तिम पंक्ति पढ़कर मन रुआंसा हो गया। अमंगल की कल्पना मात्र से मन सिहर सिहर उठता है, प्रभु उन्हें शतायु करे।
मैने गुरुदेव काश्यप चौबे की कविता किताब ‘अभिशप्त उत्कल’ कुरियर से भेज दी, परमार जी ने उसके एवज मे जो पत्र लिखा वह मेरे लिए अमूल्य धरोहर है, आत्मचर्चा से बचना चाहिए, थोड़ी हो गयी सो हो गयी, इसीलिए इस कीमती तोहफे को प्रकाश में नहीं लाना चाहता। तुलसी की यह एक पंक्ति तो आप सबको याद होगी –
‘उपजत अनत, अनत छवि लहहिं’
परमार जी गुजराती मूल के हैं, वे कच्छ में जन्मे लेकिन उन्होंने कर्म क्षेत्र बनाया इस महाजनपद छत्तीसगढ़ को और यहाँ के सरल जन – जीवन में इस कदर घुल मिल गये कि उन्हें छत्तीसगढ़ियों से अलग पहिचानना मुश्किल है उनकी मनसा बाचा कर्मणआ आत्म स्वीकृति है एक प्रकार से छत्तीसगढ़ी अब हमर मातृभाषा होगे हे, तो छत्तीसगढ़ी में लिखे म गौरव के अनुभव होथे। यह उनका अतिशय छत्तीसगढ़ी प्रेम का अद्वैतता का परिचायक है। उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत पाडुंका में प्रायमरी स्कूल टीचर से किया। शीघ्र ही वे ग्रामीणों के बीच माखन – मिश्री से घुल – मिल गये और जब रिटायर हुए तो धमतरी के महाविद्यालय की प्रोफेसरी से परमार जी का यह चुनौती भरा जीवन – गाथा और उच्च स्तरीय सफलताएँ, आज की नयी पीढ़ी के लिए भी चुनौती हो सकती है। जो यहाँ जन्में, ठोकर खाने बाहर नहीं गए .पढ़ने लिखने के बाद बेरोजगारी को झेलते कुँठाओं के शिकार हो जाते हैं, जिनका सुनने वाला कोई नहीं, उनके लिए परमार जी आदर्श हो सकते हैं, उनका आहवान सुने :
जय यात्रा कर अरे निकर जा / सुरूज तोला अगोरे
साहित्यकारों का राजनीति में प्रवेश खतरों भरा खेल होता है। थोड़ी सी प्रसिद्धि मिली कि -गंदी राजनीति की लपेट में आ गए। जब दिशा नायक ही दिगभ्रमित हो जाय तो समाज किस गर्त में जाएगा, इसकी कल्पना आप स्वयं कर लें। आपातकाल में नामी – गरामी साहित्यकारों का पतन साहित्येतिहास का काला – अध्याय है, उससे वाग्वीरों और विशुद्ध कोटि के साहित्यकारों के बीच का फर्क एकदम साफ हो जाता है। हमारे लिए गर्व का विषय है, साहित्य और प्रसिद्धि के शिखर को छूने वाले परमार जी अपनी सुदीर्घ – साहित्य साधना से कभी भ्रष्ट नहीं हुए, उनकी निर्मल छवि आज भी ज्यों की त्यों है …
उन्होंने जब से चलना शुरू किया है पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा था। वे अतिरिक्त चेतना के भी कभी शिकार नहीं हुए, यह और भी गर्व की बात है। स्व. भगवती लाल सेन, मेहतराम साहू, चेतराम व्यास, चम्पा मोवले, डॉ. राजेन्द्र सोनी, त्रिभुवन पाण्डेय, राम प्यारे नरसिंह, डुमन लाल ध्रुव जैसे शताधिक रचनाकार यदि नारायण लाल परमार से अनुप्रेरित हुए हैं, तो इसके पीछे वजह है, उनकी साधुता उनका बड़प्पन, अपने अनुजों के प्रति अत्यधिक स्न्हेल भावना। नारायण लाल परमार के पीछे रचनाकारों की एक भरी – पुरी पीढ़ी खड़ी हुई है, जो हिन्दी और छत्तीसगढ़ी की भाषा – साहित्य और संस्कृति को निरंतर विकसित कर रही है। अपने बीच एक जिन्दादिल इन्सान को पाकर कोई भी साहित्य समाज गर्व का अनुभव कर सकता है।
नारायण लाल परमार पिछले पचास – पचपन वर्षों से हिन्दी की छोटी – बड़ी पत्र – पत्रिकाओं में लगातार छपते आ रहे हैं, कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध प्राय : सभी विधाओं में हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखते आ रहे हैं। उन्होंने प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का सृजन किया है, पाठ्यक्रमों में भी वे शामिल रहे हैं ‘प्यार की लाज’ , ‘छलना पूजा मयी’ हिन्दी उपन्यास। ‘कांवर भर धूप’, ‘रोशनी का घोषणा पत्र’ हिन्दी कविता संकलन। ‘सोन के थाली’ कहानी संग्रह। ‘सूरज नहीं मरे’ कविता संग्रह। मलवार अस दूसर एकांकी (छत्तीसगढ़ी )। उनकी उल्लेखनीय कृतियों हैं, लेकिन जो पत्र – पत्रिकाओं में रचनाएं बिखरी हुई हैं, उनसे इतनी ही किताबें और तैयार की जा सकती है। इन सब के बावजूद नारायण लाल को गीतकार के रूप में जो ख्याति मिली है, पुराने मध्यप्रदेश के शायद दूसरे गीतकार को नहीं मिली है। उन्होंने आकाशवाणी और कवि सम्मेलनों के माध्यम से भी गीत – विधा को भरपूर विकसित किया है।
जैसा कि पूर्व में कहा गया, परमार जी हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के समान धर्मा रचनाकार है, हमने मयारू माटी 89 के किसी अंक में उनकी छत्तीसगढ़ी रचना पर विस्तार से लिखा है, अस्तु पिष्ट प्रेषण से बचने के लिए हम अपना विचार उनके हिन्दी गीतों पर ही यहां केन्द्रित करना चाहेगे। परमार जी के गीतों में विषय का वैविध्य तो है ही, विपुल मात्राओं में गीत लिखने की वजह से रिपीटीशन भी जादा है। लेकिन उनमें एक अविच्छिन्न प्रवाह भी है, जो उनकी रचनाओं की खास पहिचान है। वे किसी वाद के खूंटे से कभी नहीं बंध पाए, उनका स्वयं का कथन है ‘मेरी अनुभूतियां वैयक्तिक होकर भी संकुचित सीमाओं में बद्ध नहीं, वे जन से जुड़ी हुई है।’
परमार जी स्वातंत्रोत्तर युग के महत्वपूर्ण कवि में से एक हैं। उन्होंने नयी कविता आन्दोलन के दौरान मुक्त छंद में जन्मोमुखी कविता लिखी और नवगीत भी लिखे, उन्होंने इन रचनाओं को ‘लोकल कलर’ देकर एकदम ताजगी से भर दिया है। छत्तीसगढ़ के हिन्दी के प्रतिनिधि कवियों का संकलन नये स्वर में यह बात देखी जा सकती है। यही शिल्प भी काफी समृद्ध है और भाव तो उच्चस्तरीय है ही दोनों से काव्य भाषा, मुखर ही गयी है। ग़त्वर बिम्ब का अनूठा प्रयोग देखिए :-
मंद मंद डोलती / गीतों में बोलती
दीदी के दहिया बिलाने सी रात
अपने दिल खींचती / प्राणों को सींचती
पंचामृत के सुघ्घर ढोने की रात
ग्राम्य सौन्दर्य और पारिवारिक वातावरण का यह संदेदय छत्तीसगढ़ी शब्दों के सुन्दर समायोजन से हैं ‘गोहारती’ में जो एक हुमक है, लय है वह पुकारती में कहां? कांवर भर धूप की रचनाओं में भी यही लोकरंजकता है। प्रकृति सौन्दर्य के चित्रण में कवि ने सादृश्य बिम्बों की लड़ी सी पिरो दी है, कांवर भर धूप शीर्षक गीत की पंक्तियां दृष्टब्ध है : –
अक्षरों पर उग आया / मीठा सा गीत
सबकों अंजुरियों में / सुख का नवगीत
चल रहे हवा के हैं / हाथ गजब आज
चांदी के दाने हैं / सोने का सूप
भई खूब। चावल की उज्जवलता चांदी से और पके बांस की पतली सफचियों से बने सुनहले रंग के धूप की तुलना सोने से इत्ते से सजल बिम्ब में घर का वातावरण मुखर है और वह भी गीत के उगने के मुहावरे मे ढलता हुआ। यह प्रसन्न चित्त है, इसके विपरीत यह उदास छाया देखिये, अकाल से प्रभावित किसानों की आंखों में, जो सूक्ष्म प्रतीकों के चयन से और भी अधिक संवेदय हो गये हैं –
चिल्लाकर सूखे सब पत्ते थके हारे
उग आयी अनाहूत बालू की फसलें
और उसके आगे उर्ध्व सांस खींचते हुए गांव नगर ,
नारायण लाल परमार मूलतः राष्ट्रीय विचारधारा के कवि हैं। उनका दुख वैयक्तिक पीड़ा को पीछे छोड़, समूह की चेतना में तिरोहित हो चुका है। आज प्रजातांत्रिक आधार बौनी हो चुकी है, ज्ञान अभिशप्त है, संबंध बिखरे हुए हैं, अनाचारियों की उम्र लम्बी होती जा रही है, वर्तमान की विसंगतियों दुरभिसंधियों षड़यंत्रों को बेनकाब करने वाले उनके बिम्ब प्रत्यारोपण से नहीं, बल्कि स्वयं से लगते हैं, कुछेक पंक्तियां देखिये :-
पी रहे हैं धुँए सभी, है कहां शरण
जड़वत ही है जीवन / के सभी मापदण्ड
पशुता के प्रेमी / दिया भ्रमित समारोह
यह अमानवीयता के खिलाफ कवि की सार्थक कोशिश है, जो उत्तरोत्तर बलवती होती गयी है, उनका व्यंग्य काफी तेजधार है :-
नदी और पर्वत भी उगते हैं कागजी
बिक रही सभाओं में कोमल हरियाली
इस आकाश वृत्त से हमारा राष्ट्रीय पाप बढ़ चढ़कर बोलता है, उन्होंने कम शब्दों में बहुत बड़ी बातें सत्ताधारियों के खिलाफ कह दी हैं : –
सूख रहा कंठ किन्तु / बोलो अनुप्रास में
धरती पर रहो और / खेती आकाश में
शब्दों की जुगाली करते इन राजनेताओं से परमार जी को बेहद नफरत है। आज का आदमी एक दूसरे की पीठ पर दांत गड़ाने को तैयार है। शान्ति के इस उपमहाद्वीप में क्षुधा तृप्ति के लिए एक दाना भी मयस्मर नहीं है। इसीलिए निन्यानबे प्रतिशत लोग कुंठाओं के शिकार हैं, इस भूख में लोग अपनी पहिचान खो चुके हैं प्रजातंत्र के इस अधोपतन में रोशनी के घोषणा पत्र संकलन में उसकी हुंकृति स्पष्ट सुनाई देती है लगभग पूरे देश को नपुंसक बना देने वाली उस काली रात के खिलाफ जिसे आपात्काल कहा जाता है, कवि के घनघोर आपत्ति दर्ज की है और उसकी खिलाफत करने वाली ताकतों की स्पष्ट आवाज सुनी है : –
पत्थरों में गुंजता है, इस्पाती गीत
पहाड़ो में रोशन देह से / फूटती क्रांति की नदी
यह आस्थावान कवि सार्थक विद्रोह हैं। कवि की आंखो में उम्मीदों का जंगल बढ़ता ही जाता है। उसे अपने इन आंसुओं पर पूरा भरोसा है, जो बादल को आज नहीं तो कल शर्मिंदा कर देंगे। नारायण लाल परमार का देश की जनता के नाम पैगाम है :-
भीतर से आदमी / आज भी स्वतंत्र है
जूझना विरोधों से / जीवन का मंत्र है •
वास्तव में अन्याय का विरोध शोषित पीड़ित जन का जन्मसिद्ध अधिकार है, ज्यादा दिन उसका दमन चलने वाला नहीं है। लेकिन इससे भी आगे नारायण लाल परमार जीवन मूल्यों के कवि हैं, मानवीय संवेदनाओं के रोपण में उन्हें पूरा पूरा विश्वास है । वे जोड़े हुए आदर्शों के खिलाफ हैं और मनुष्य के भीतर जो आग छुपी हुई है, उसे जगाने के आकांक्षी है कवि का विश्वास यहां दुनियां के बेहतरी के लिए बड़े काम की चीज है, उनकी आकांक्षा इन शब्दों में फुट पड़ी है:-
पड़ेगा / मनुष्य को /
पौधे की तरह/ पुन : रोपना
परमार जी कुंठा, विघटन, निराशा, अविश्वास की दुनियां से उबरने और एक बड़ी दुनिया आशाओं की, मूल्यों की प्रेम और विश्वास को रचने के आकांक्षी हैं : –
नया ढंग, जीवन जीने का
इस धरती पर चलो तलाशे
नारायण लाल परमार में जितनी बौद्धिकता है उससे अधिक कहीं भावुकता है, कई प्रसंगों में मैने उनकी वह आलोकित मुख- छवि देखी है “ बोबापन ” या ” गूंगे केरी सर्करा के” आस्वाद तक उन्होंने जिस काव्य भाषा की साधना की है, उसमें प्रकृति के सहाचर्य में छन्दित मनुष्य है। जो प्रेम करना जानता है, जो दूसरे के सुख – दुख में शामिल है और साहित्य का यही सेतु तो होना चाहिए जिसे आत्म- सात् कर मन घास जैसा हरा जो जाता है।
आलेख
डॉ बलदेव
प्रस्तुति:-बसन्त राघव
पंचवटी नगर,मकान नं. 30
कृषि फार्म रोड,बोईरदादर, रायगढ़,
छत्तीसगढ़,basantsao52@gmail.com मो.नं.8319939396