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भारत की ऋषि और कृषि चेतना का पर्व है होली

समस्त ब्रह्मांड की रीति – नीति का संचालन किसी एक नियत व्यवस्था के अंतर्गत होता है। भारतीय ऋषियों ने इस व्यवस्था को ‘ऋत’ कहा है। ऋत अर्थात् नैसर्गिक नियम। सूर्य, चंद्रमा, तारे, दिन-रात आदि इसी नियम द्वारा संचालित होते हैं, ऋत- वैदिक धर्म में सही प्राकृतिक व्यवस्था और संतुलन के सिद्धांत को कहते हैं । यही हमारी सनातन जीवन शैली है ।

सनातन यानी वह तत्व जो पूरे संसार और ब्रह्मांड को धार्मिक स्थिति में बनाए रखता है। यहाँ धर्म का तात्पर्य गुण और कर्तव्य से है। दिशाओं का बोध तथा षडऋतुओं का क्रम निर्धारण भी इसी ऋतधर्म से होता है। सृष्टि की लयबद्धता को बनाये रखने वाली उदय और अस्त दोनो धुरियों का संतुलन ऋत से होता है जिसे पोषण और संहार भी कहा गया है।

देवता भी इसी ऋत संविधान के अधीन होते हैं। समूची प्रकृति इसी के कारण स्वयं को सदा उत्सव रूप में पाती है। प्रकृति सदा उत्साहधर्मी होने के कारण स्वयं उत्सवों का वरण करती है। पतझड़ और बसंत इसी अंतःचलित ऋत व्यवस्था में ही पलते हैं। बसंत प्रकृति के उत्साह का द्योतक है।

फाल्गुन मास की पूर्णिमा में यह उत्साह चरम पर होता है। इसीलिए फाल्गुन मास जिसे लोकप्रचलन में फागुन का महीना भी कहते हैं, में होली अथवा रंगोत्सव का पर्व मनाया जाता है जो प्रकृति के महाआनंद का परिचायक है। फाल्गुन में प्रकृति इठलाती है, झूमती है तथा मदमस्त होकर नाचती है।

इस उल्लास मास में चलने वाली बयार खिले हुए फूलों के रस को अपनी अंजुरी में भरकर अन्य पेड़-पौधों पर आरोपित करती है मानो सब एक दूसरे को प्रकृति के रंगों से भिगोने का प्रयत्न कर रहे हों। यानी फाल्गुन में मनाया जाने वाला होलिकोत्सव (रंगोत्सव) नितांत रूप से एक नैसर्गिक (प्रकृति का) पर्व है। इसी से प्रेरणा लेकर हम सब उत्साह के साथ इस महान उत्सव की परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं।

भारतवर्ष ने कभी स्वयं से उत्सव की तिथियों का निर्धारण नहीं किया। हमने तो जो प्रकृति में उत्साह देखा उसी को उत्सव का नाम दे दिया। भारतीय उत्सव दृष्टि आदि काल से एकरस रही है। हमारे उत्सव एकात्म, सर्वस्पर्शी तथा सामूहिक हैं, यही इनका मूल आध्यात्मिक पक्ष है। हम उत्सवों के माध्यम से जटिलता से सरलता की यात्रा करते हैं तथा प्राणियों में व्याप्त परस्पर आत्मतत्व का सम्मान करते हैं।

यद्यपि राजनीतिक राग ने जयंती तिथियों अथवा चुनावी जीत को उत्सव कहा किन्तु मेरे मतानुसार जीत का सामूहिक उत्सव हो ही नहीं सकता है। जीत में तो प्रायः एक पक्ष प्रसन्न और दूसरा खिन्न होता है । भारतीय उत्सव तो सहज और सार्वजनिक होते हैं।

भारतीय मानस का मूल स्वभाव ही सहजता है, आनंदमय है। होली गीतमय है, सहज है, तरल है, सरल है। होली भारत के रंग-बिरंगे मन तथा नृत्य संगीत में रत परमआनंद की परिचायक है। फाल्गुन मास में किसान खुशहाल होता है। किसान खुशहाल तो समाज खुशहाल। इस समय किसान परिवार विभिन्न फसलों (जैसे गेहूं,चना आदि)  को भूनकर उनका होरा बनाते हैं, होरी, होरा बनाने या भूनने की एक प्रक्रिया है।

बुंदेलखंड में भूनने की क्रिया को आज भी होरी के नाम से ही जानते हैं। होरा बनने के बाद पूरा गाँव बैठकर सामूहिक होरा का भोज करता था। इस भोज में भुने हुए गेंहू चना, ज्वार, और गुड़ आदि को शामिल किया जाता है। हमारे ऋषि गीत भी गाते थे और खेती भी करते थे इसलिए होली भारत की ऋषि और कृषि चेतना का पर्व है।

होली के दिन माथे पर चंदन, रोली कुंकुम, गालों में अबीर और गुलाल लगाए विभिन्न भारतीय रागों पर झूमता जनमानस इस अद्वीतीय पर्व पर महाआनंद को प्राप्त करता है। बीते हुए ग्यारह माह में किये सभी प्रकार के श्रमसाध्य प्रयत्नों की शिथिलता अर्थात कुछ क्षण विराम का सुख है होली।

योग परंपरा की दृष्टि से देखें तो होली सुख के उस आसन की स्थिति है जिसे महर्षि पतंजलि ने “प्रयत्नशैथिल्य अनंत समापत्तिभ्यां”कहा अर्थात सभी प्रकार के प्रयत्नों की शिथिलता और आंनद में मिल जाना ही आसन है। फाल्गुन मास में (होली के समय) पेड़ – पौधे महारास में होते हैं।

स्वाभाविक रूप से इस नैसर्गिक उत्सुकता का प्रभाव जनमानस पर भी पड़ता है इसलिए होली में सभी लोग नाचते हैं, गाते हैं, झूमते हैं। व्यक्तिगत एकाकीपन को दूर कर समूह में मिल जाने का निमंत्रण है होली। होली प्रेम का परम उत्सव है, प्रेम जो सदा अकारण होता है, अनीह होता है, ठीक ब्रह्म जैसा -“ब्रह्म जो व्यापक, बिरज, अज, अकल, अनीह, अभेद।”

जनमानस में उत्सवों की धार्मिक मान्यता और व्याप्ति की दृष्टि से भारत में पर्वों को कथाओं के साथ जोड़ा गया है। होलिकोत्सव में भक्त प्रह्लाद की कथा भी कुछ ऐसी ही है। आइए हम सब होली के इस अवसर पर प्रकृति के उत्साह स्वरूप को समझें और होली के पर्व को मनाते समय निसर्ग की इस महाआनंद की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न न होने दें।

उत्साह और आनंद के साथ यह पर्व मनाएं किन्तु नैसर्गिक व्यवस्था के आलोक में। हमें विचार करना होगा मादक पदार्थों (नशा) का सेवन, डी.जे. की हृदयविदारक धमक अथवा हमारी फूहड़ता कहीं प्रकृति के महारास से निकलने वाले आनंद को नष्ट न कर दे।

नोट – लेखक रानीदुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर में संस्कृत शोध छात्र हैं।

आलेख

अभिनेष अटल

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