साहित्य समाज का पहरुआ होता है। चाहे वह गीत, कविता, कहानी, निबंंध, नाटक या किसी अन्य साहित्यिक विधा में क्यों न हो। वह तो युगबोध का प्रतीक होता है। कवि वर्तमान को गाता है लेकिन वह भविष्य का दृष्टा होता है। साहित्य जो भी कहता है निरपेक्ष भाव से कहता है। यह ही नहीं शताब्दियों से साहित्य का व्यापक दृष्टिकोण समाज को प्रभावित करता रहा है, समाज को अंतर्दृष्टि देता रहा है।
हम साहित्य के माध्यम से युग की चेतना को समझते हैं और युग की कमियों से परिचित होते हैं। यदि हम साहित्य को समाज को व्यापक रूप से प्रभावित करने वाला सशक्त माध्यम कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। साहित्य ही समाज में नवजागरण पैदा करता है। लोगों को प्रेरित और प्रोत्साहित करने का कार्य करता है।
यह एक ओर जहाँ सत्य के सुखद परिणामों को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर असत्य का दुखद अंत कर सीख व शिक्षा प्रदान करता है। देेश और समाज के नवनिर्माण में साहित्य की महती भूमिका होती है। साहित्य समाज को संस्कारित करने के साथ-साथ जीवन मूल्यों की भी शिक्षा देता है और समय की विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं विरोधाभासों को रेखांकित कर समाज में उर्जा का संचार करता है, जिससे राष्ट्र के विकास को गति मिलती है।
भाषा के दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ी भाषा एक संपन्न भाषा है, क्योंकि यह कई क्षेत्रीय उप भाषाओं के मिश्रण से बनी हुई है। इसका समृद्ध व्याकरण है जिससे कि हम इसकी प्राचीनता से परिचित होते हैं।
छत्तीसगढ़ी साहित्य और व्याकरण भले ही बाद में लिखा गया हो, किंतु भाषा बोलचाल के द्वारा पूर्व प्रचलित रही है। इसकी शब्दबद्धता की प्राचीनता को हम लोकोक्तियों, कहावतों, मुहावरों, पहेलियों, लोक-गीतों, लोक-कथाओं और लोक-गाथाओं के माध्यम से जान सकते हैं। वाचिक परंपरा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसकी कड़ी जुड़ी हुई है। यही कारण है कि यह भाषा आज भी जीवंत है। यही उसकी प्रासंगिकता है।
छत्तीसगढ़ी साहित्य भी काल के अनुसार अन्य भाषा-साहित्यों की तरह भाव को व्यक्त करता रहा है। चाहे वह प्रेमगाथा हो, धार्मिक प्रधान गाथा हो, पौराणिक गाथा हो या फिर आधुनिक काल के समसामयिक विषय।
जब हम छत्तीसगढ़ी काव्य में राष्ट्रीय चेतना या नवजागरण की बात कहते हैं, तब हमें स्वाधीनता आंदोलन की हलचलों के मध्य अभिव्यक्त काव्य को खंगालना पड़ता है। तत्कालीन समय में इस जनभाषा के माध्यम से उस काल का जैसा यथार्थ चित्रण हमारे पुरखे साहित्यकारों ने प्रस्तुुत किया है, वह अद्वितीय है।
लोक कवियों की रचनाओं में परिवेश के प्रति जागरूकता का प्रमाण सर्वत्र देखा जाता है। जब आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी, जब चारों तरफ स्वदेशी आंदोलन की गूंज थी। खादी को स्वाभिमान का प्रतीक माना जा रहा था, तब छत्तीसगढ़ के किसी अज्ञात लोक कवि के मुख से हठात गीत की पंक्तियाँ फूट पड़ती हैं और वह गा उठता है-
खेलत है लछिमन जती हो
राम जी धनुषधारी
सब फूल ले कते फूल भारी हो
राम जी धनुषधारी
सब फूल ले कपसा फूल भारी हो
राम जी धनुषधारी
सब लोहा ले कते लोहा भारी हो
राम जी धनुषधारी
सब लोहा ले नाँगर लोहा भारी हो
राम जी धनुषधारी
सब कपड़ा ले कते कपड़ा भारी हो
राम जी धनुषधारी
सब कपड़ा ले खादी कपड़ा भारी हो
राम जी धनुषधारी।
अज्ञात कवि अपनी भावना इस तरह प्रकट करते हैं-
डहर-डहर रेंगव मोर मयारू
झन देखव आगू-पाछू
सोझा रेंगव ,वो झपाही
तब बेठ मारहू
हँसिया के धार मारहू।
छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों में अग्रगण्य स्व. लोचन प्रसाद पाण्डेय क्रांतिकारी विचारधारा के रचनाकार थे, वे छद्म नामों से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भी लिखते थे। क्रांतिकारियों की प्रतिबन्धित पुस्तकें उनकी पेटियों में सुरक्षित रहती थीं। उन्होंने सत्यदेव परिव्राजक को सन् 1907 में निम्न कविता अमेरिका भेजी थी-
मचा दो गुल हिन्द में यह घर घर
स्वराज्य लेंगे स्वराज्य लेंगे।
पाण्डेय जी देश की तत्कालीन अवस्था से अत्यंत क्षुब्ध और दुखी रहते थे। वे परतंत्रता का एकमात्र कारण हमारी अज्ञानता को मानते थे। हिंदुस्तानी समाज को आह्वान करते हुए वे लिखते हैं, “सब स्वतंत्र हो जाओ और हक के लिए जान न्योछावर कर देश का उद्धार करो।”
हिन्दू तुरुक एक हो, कुच्छु करा बिचार गा।
दुख झन भोगा रात दिन, करा देश उद्धार गा।।
अपन भुजा के बल मं रह के, सब स्वतंत्र हो जावा गा।
हक्क न अपन जान दा सोझे, “स्वराज लेंगे” गावा गा।।
अब जो करिहा सुना तुंहर सब, धरम-करम बच जाही गा।
भारत मालामाल होय दुख-दारिद पास न आही गा।।
तत्कालीन जन-भावनाओं का जैसा चित्रण कुंज बिहारी चौबे की छत्तीसगढ़ी रचनाओं और गिरवर दास वैष्णव के ‘छत्तीसगढ़ी सुराज’ की रचनाओं में है, वह अद्भुत है। वैसा कोई अन्य कवि साध नहीं सकता। कुंज बिहारी चौबे का कृतित्व विलक्षण है। वे कहते हैं-
तैं हर ठग डारे हमला रे गोरा,
आँखी में हमर धुर्रा झोंक दिये
मुड़ म थोप दिये मोहनी,
अरे बैरी, जान तोला हितवा
गंवाएन हम दूधो – दोहनी,
अंग्रेज तैं हमला बनाए कंगला
सात समुंदर विलायत ले आ के,
हमला बना दे भिखारी जी
हमला नचाए तैं बेंदरा बरोबर,
बन गए तैंहा मदारी जी।”
वास्तव में यह रचनाकार की पीड़ा है। अंग्रेज सरकार जिस तरह देश का शोषण कर रही थी। वह एक चेतना से युक्त रचनाकार के लिए असहनीय था। और यही कारण है कि उनकी लेखनी से अंग्रेजों के प्रति आक्रोश के भाव व्यक्त हुए। तत्कालीन रचनाकारों ने अपने विचारों को कविताओं में ढालकर जन- जागरण के लिए एक नया स्वरूप दिया। गिरवर दास वैष्णव जनभावनाओं को उद्वेलित करने के लिए लिखते हैं-
मजदूर किसान अभी भारत के
एक संगठन नई करिहौ ।
थोरिक दिन मा देखत रहिहौ ,
बिन मौत के तुम मरिहौ ।।
राज करइया राजा हर तो
अब व्यापार करे लागिस ।
सब चीज ला लूटव -तीरव ,
अतके ध्यान धरे लागिस ।।
पुरुषोत्तम लाल ने जन चेतना पैदा करने के लिए ‘कांग्रेस आल्हा’ की रचना की। मातृ भूमि के वंदना करते हुए वे लिखते हैं-
हमर देस हे हमला प्यारा, करबोन कोटि कोटि परनाम।
काम करैं तन-मन-धन देके, रह जावे भारत के नाम।।
किशन लाल ढोटे ने द्वितीय विश्व युद्ध के काल में ‘लड़ाई के गीत’ की रचना कर युवकों को युद्ध में भाग लेने के लिए उत्साहित किया। जिन्होंने गुलामी की जिंदगी काटी हो, वह स्वतंत्रता और स्वराज जैसे शब्द को बेहतर ढंग से समझ सकता है। द्वारिका प्रसाद ‘विप्र’ की रचना ‘सुराज गीत’ को पढ़कर न जाने कितने छत्तीसगढ़िया नौजवानों ने प्रेरणा ली होगी। उनकी अपनी एक अलग शैली थी। उन्होंने जन-मन को उद्वेलित करने के लिए लिखा-
अब सुनिहा दीदी हमर एकठन गोठ ओ
अब आए हे घड़ी अलवर पोठ ओ
लइकन ला अब वीर बनावा
रोज सुदेसी गीत सुनावा
अब जै हिंद कहत मा उघरै
सब लइकन के ओंठ ओ।
अब सुनिहा दीदी हमर एकठन गोठ ओ।।
एक कविता में वे लिखते हैं-
अपन देश के तैं अस राजा
अपन करनी अपन देखा जा
अब पढ़-लिख के बन हुसियार
अब सुध ला अपन सम्हार
अपन बाँह के बल में संगी, थाम्ह देश के धूरा।
जन कवि कोदूराम ‘दलित’ एक प्रगतिशील धारा के वाहक थे तथा वैज्ञानिक प्रगति के प्रति आस्थावान थे । उनकी रचना में ताप और उष्मा है जो उनकी करनी और कथनी में रूपायमान होती है। वे नौजवानों को आह्वान करते हुए कहते हैं-
मांगे स्वदेश श्रमदान तोर संपदा तोर विज्ञान तोर
जब तोर पसीना आ जाही ये पुण्य भूमि हरिया जाही।
वे अपनी रचनाओं के माध्यम से स्वतंत्र भारत की परिकल्पना करते हैं। इस हेतु जनमानस में विद्रोह का बीजारोपण करते हैं-
चलो जेल सँगवारी –
बड़ सिधवा बेपारी बन के, हमर देश मा आइस
हमर-तुम्हर मा फूट डार के, राज-पाट हथियाइस
अब सब झन मन जानिन कि ये आय लुटेरा भारी
अपन देश आजाद करे बर, चलो जेल संगवारी।
कतको झिन मन चल देइन अब, आइस हमरो बारी।।
कवि प्यारेलाल गुप्त जन आंदोलन के लिए धन संचय को आवश्यक मानते हैं और इस हेतु आह्वान करते हुए कहते हैं-
माँ! ये कानन के झुमका लाके मैं दे दिहों
माँ! जम्मो जोरे रुपैया महूँ दे दिहों
माँ! कोष भारत के रक्षा के खुले हे जिहाँ
सारी बस्ती के मनखे जुरे हे जिहाँ
लहू दिए बर झगरथें जिहाँ
नोट-सोना अउ गहना बरसथे जिहाँ।
माँ! ये सोनहा कड़ा तहूँ चलके दे दिहों
जउन दुश्मन के छाती के गोली बने।
कवि हरि ठाकुर अंग्रेज सरकार के चरित्र को जनमानस के समक्ष रखते हैं और वे कहते हैं-
बनिया बन आइन अंगरेज। मेटिन धरम, नेम, परहेज।।
देस हमर सुख के सागर। बनिस पाप-दुख के गागर।।
करिन फिरंगी छल-बल-कल। फूट डार के करिन निबल।।
बढ़िन फिरंगी पाँव पसार। हमरे खा के देइन डकार।।
करिन देस के सत्यानास। भारत माता भइस उदास।।
करिन फिरंगी अत्याचार। मचिस देस में हाहाकार।।
साहित्यकार केयूर भूषण अपनी रचना के माध्यम से लोगों को प्रतीत कराते हुए कहते हैं-
रहे समुंदर के पार, करे सोरा सिंगार
धरे एटमी हथियार, करे दुनिया बिहार
जेकर मानुष के अहार, हवै सोना के बैपार
चिटिक जागव जी उन ला चीन्हव जी।
लोक के कवि दशरथ लाल निषाद जन जागरण के लिए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के जन नायक वीर नारायण सिंह के अवदान को समक्ष रखकर कहते हैं-
अपन जम्मो धन बाँट के, वीर नारायण कहै ललकार
सेवा भाव के ढोंग मढ़ा के, अंग्रेज होगिन हें मक्कार।
जागव जागव गा सबो लइकन अउ सियान ….।
स्वातंत्र्योत्तर कवियोॅ ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक क्रान्ति में आगे बढ़कर जयघोष किया है । वे ज्वलंत मुद्दों आर्थिक ढांचे का खोखलापन, राजनीतिज्ञों की कूटनीतिक चालें, गरीबी का निरन्तर बढ़ते ही जाना, स्वतन्त्रता के इतने वर्ष पश्चात् भी बंधुआ मजदूरी और बाल शोषण पर रोक न लग पाना, दहेज प्रथा जैसी कुरीति का उग्र रूप धारण करना और सरकार का इस मामले में कुछ न कर पाना, आतंकवादियों का देश में लोगों की जानों के साथ तांडव करना और सरकार का हाथ पर हाथ रखे बैठना, वैज्ञानिक उन्नति, धर्म निरपेक्षता आदि पर अपने विचार प्रकट करते हैं। कवि लाला फूलचंद श्रीवास्तव स्वतंत्रता पश्चात देश की स्थिति का आकलन करते हैं और अपनी पीड़ा को इस तरह व्यक्त करते हैं-
माँस लहू ल अंग्रेज पी दिन, हाड़ा रहिगे साँचा।
बाघ के गारा बइला बँधाये, कंस ममा घर भाँचा।।
सत अहिंसा बीज गँवाके, गोली मार गिराइन
पाप के खातिर गुड नठागे, भूत अइसन बौराइन।।
निरंतर शोषण के कारण छोटे किसान और मजदूर की हालत दयनीय हो जाती है। बेगार प्रथा ने जब मजदूरों की कमर तोड़ दी। तब लोक कवि कल्पनाओं की दुनिया से निकलकर धरातल की बात कहते हैं और उनके मुख से गीत फूट पड़ते हैं-
एती मारे हमला महाजन
ओती ले मारे साहूकार
चिन डारिन हमला अपनेच घर में
नइ ए कोनो रखवार।
प्यारेलाल गुप्त स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही थे। उनका हथियार उनकी लेखनी थी। जब देश आजाद हुआ, तब कवि के हृदय में उथल-पुथल मच गयी। खुशी के गीत को उन्होंने इस तरह गाया-
आजेच के दिन अपन गोड के बेड़ी ला कटवायेन
लहू चुसइया परदेसिन ला आजेच हम भगवायेन
आज सुग्घर प्रभाती गाबोन आज तिहार मनाबो।
जब देश स्वतंत्र हुआ तब भारतवासी आल्हादित हुए। रचनाकारों के मन में उमंगे जागीं और उन्होंने अपनी भावनाओं को अनेक बिंबों का सहारा लेकर अभिव्यक्त किया-
होगे होगे नवा बिहान, जागो जागो रे मोर भैया
अंगना मा रे गावत हे चिरइय्या।
पंछी छोड़ चलिन अपन डेरा
थोरकिन निकल आहू बेरा
चले पवन चले पुरवहिया
अंगना ना रे बोलत हे चिरइय्या।
विसंभर यादव मरहा एक लोक कवि थे। उनकी रचना की सहजता लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती थी। वे फक्कड़ अंदाज में अपनी बात कहते थे। उनकी कविताओं का मुख्य विषय अव्यवस्था का विरोध और राष्ट्रीय एकता रहा। यादव जी शासन व्यवस्था पर बहुत ही बढिया व्यंग्य करते थे।उनकी रचनाओं में देश प्रेम और सामाजिक विसंगति के भाव उभर कर आते थे।
सिधवा मन लुलवावत हावय,
अउ गिधवा मन मेड़रावत हावय ।
कुकुर मन सुंघियावत हावय,
अउ खीर गदहा मन खावत हावय ।
दुवारी मा रखवारी करथय कुसुवा मन,
अउ भीतरे-भीतर भीतरावत हावय मुसुवा मन ।
नवा-नवा कानून बनाथे कबरा मन,
अउ बड़े-बड़े पद मा हावय लबरा मन ।
समसामयिक परिदृश्य को देखकर जब रचनाकार का मन विचलित होता है, तब लेखनी की धार से उसकी भावनाएँ अभिव्यक्त होकर कागज में उतर आतीं हैं। कवि मेहत्तर राम साहू जन-मन को बेहतर ढंग से पढ़ते थे। वे कहते हैं-
सुन लो जम्मो संगी-साथी
हिम्मत ल झन हारो
भारत माता सबके माता
लेवत राहव आरो।
कर लो एक बरोबर तन-मन
ममहाही फुलवारी
थक जाही भुखमरी बिमारी
हरक जही बेकारी
हमर ये धरती सोन चिरइया
एला भुला झन पारो।
कवि बद्री विशाल यदु देशभक्ति पूर्ण सुंदर-सुंदर गीत लिखते रहे। भारत चीन युद्ध के समय उनका ओजपूर्ण गीत जन-जन को प्रभावित करता रहा। वे देशभक्ति प्रधान गीतों में परंपरागत रूप-विधान के साथ-साथ नए बिंब प्रस्तुत करते थे। उन्होंने ‘आजादी के बंदव बलिदान’ गीत में ”टूटे-फूटे पथना मा बंदनवार बुकागे नारे सुवना, घुुरवा के दिन बहुराय” जैसी पंक्ति लिखकर नव निर्माण में अति साधारण मनुष्य को भी भागीदार बना दिया। वे देश की समस्या और समस्या पैदा करने वाले लोगों की खास खबर लेते हुए लिखते हैं-
जतके बढ़ही नवजवान, ततके बढ़ही नवा निर्माण
लहू के करजा बलिदानी धरती झंडा हय विस्वासी।
पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी छत्तीसगढ़ी लोक जीवन के पारखी कवि थे। वे समसामयिक मूल्यों के रचनात्मक स्तर पर ही नहीं रोजमर्रा के जीवन से भी जूझने की कोशिश करते थे। पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी समसामयिक विषयों को लेकर अपनी बात बेबाक ढंग से कहते थे। देश की दुर्दशा देखकर वे कहते हैं-
लबरा ठगना इन राजा मन, अंधरा हो गंय के भैरा हे
कुछ के इमान के बीज के बांचिन, निमगा सिट्ठा पूरा हे।
जनवादी चेतना के कवि नारायण लाल परमार के काव्य विकास के पीछे गांधी दर्शन से प्रभावित राष्ट्रीय नवजागरण का इतिहास है। उनका कार्यक्षेत्र राजनीतिक और सामाजिक चेतना के दृष्टिकोण से बहुत ही उर्वर रहा है। वे नवसृजन के मधुर गायक थे। किसानों के उत्साह बढ़ाने के लिए भी वे लिखते हैं-
कउन देश हर भूखे मरही जब किसान जागत हे।
रहही जे बइंहा के बल ते, राम राज्य ह आही
देख-देख हमर गांव ल, देवता मूड़ ठठाही।
सर्वहारा कवि भगवती लाल सेन शोषित और पीड़ित व्यक्तियों के पक्षधर हैं। वे असफल प्रजातंत्र के संबंध में कहते हैं-
हमन सोचे रहेन के बने सुग्घर मिलिस दूसर सुराज।
फेर मिलगे भोरहा मा खोर किंजरा मन ल राज।
वे सुराज के बाद की स्थिति को बेबाकी से कहते हैं-
अपन देश के अजब सुराज, भूखन-लाँघन कतको आज।
मुसुवा खातिर भरे अनाज, कंगाली बाढ़त हे आज।
छत्तीसगढ़ी कविता के क्षेत्र में मुकुंद कौशल एक ऐसा नाम है जिनकी चर्चा किए बिना छत्तीसगढ़ी स्वातंत्र्योत्तर काव्य पर बातचीत असंभव है। उन्होंंने अपने काव्य में श्रम, वैराग्य, प्रेम, श्रृंगार के अतिरिक्त अत्याचार, अनाचार, शोषण, उत्पीड़न जैसे अनेक विषयों पर कलम चला कर छत्तीसगढ़ी साहित्य को एक ऊँचाई दी है। वे समरस समाज की कल्पना करते हुए लिखते हैं-
धर ले कुदारी गा किसान
आज डिपरा ला खन के
डबरा पाट देबो रे।
मुकुंद कौशल का बिंब विधान अपने आप में अनोखा है। वे स्वतंत्रता के उल्लास को इस तरह कहते हैं-
ठोमहा भर घाम धरे आ गइस बिहान
रच-रच ले टूट गए अंधियार के मचान।
डॉ जीवन यदु बहुआयामी रचनाकार हैं। जनवादी विचारधारा से आप्लावित होने के कारण उनकी रचनाओं में जन संघर्ष की भावनाएँ उभर कर आती हैं। किशोरों को अभिप्रेरित करते हुए ‘तिरंगा’ पर वे लिखते हैं-
ये अगास ले गोठियाथे, कान लगा के सुन संगी
बीर बहादुर पुरखा मन के गुन ला सुन के, गुन संगी।
बनिन भगीरथ, तब लाये हें सरग ले ओमन गंगा ला।
कवि दानेश्वर शर्मा की कविता में राष्ट्रीय चेतना व्यक्त होती है। वे बलिदानी पुरुषों के प्रति श्रद्धा के फूल चढ़ाकर संकल्प दिवस मनाते हैं और आजादी के सूर्य के अंजोर में चारों दिशाओं में फैली आकांक्षाओं को अपनी रचनाओं में उतारते हैं। जन मन को जागृत करने के लिए वे लिखते हैं-
बिपत कसउटी जउन कसाथे, तउन चढ़य परवान
उँकरे बर सब आदर सरधा, उँकरे बर सनमान।
लक्ष्मण मस्तुरिया माटी के कवि माने जाते हैं । उनकी कविता में माटी की गंध बसती है। वे एक सफल गीतकार हुुए। शोषित उपेक्षित जन को संग चलने का आह्वान करते हुए उन्होंने लिखा हैं-
मोर संग चलव रे,
मोर संग चलव गा
ए गिरे परे हपटे मन
अउ डरे थके मनखे मन
मोर संग चलव रे
कवि रामेश्वर शर्मा अंचल के जाने-माने कवि हैं उनके गीतों में समरसता के भाव देखे जा सकते हैं, किंतु वह जागरण के गीत लिखने में पीछे नहीं है। वे लिखते हैं –
हाथ ले हाथ मिला के चल
कदम ले कदम बढ़ा के चल
लिख के गा गीत एका के
धुन मा सुल ला मिलाके चल
बलिदानी के ये भुइयां हे
माथा मा तिलक लगा के चल।
जनकवि सीताराम साहू ‘श्याम’ ने अपनी भावनाएँ इस तरह व्यक्त की है। उन्होंने जन-मन को आगाह किया कि हमें निरंतर चलना है और भरोसा करना है, तो अपने बल पर करना है।
रस्ता रेंगइया भइया हरहिंछा चल
नदिया के धारा जइसे कल-कल, छल-छल
झनकर तैं हर काकरो चिंता-फिकर
रहय तोला भरोसा अपन भुजा के बल।
डाॅ पीसी लाल यादव मूलतः प्रेम और प्रकृति के कवि हैं। किंतु वे लोक को संदेश देना नहीं भूलते। वे लिखते हैं
करम भूमि मा फल पाए बर मिहनत कर ले परथे
बिधना लकीर भर देथे, रंग खुद ल भरे ल परथे।
जाँगर बाँहा के बल मा भइया पथरा मा पानी ओगरथे
करम भूमि मा फल पाए बर मिहनत कर ले परथे।
बलदाऊ राम साहू यूँ तो बाल साहित्यकार के नाम से जाने जाते हैं, लेकिन उनकी गजलों में प्रौढ़ता है। डॉ चित्तरंजन कर कहते हैं बलदाऊ राम साहू की छत्तीसगढ़ी ग़ज़लों में समकालीन जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है जो न मिले। उनकी गजलों में प्रेम, नीति, राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति, पर्यावरण, शिक्षा, जैसे विषय अनेक रूपों में चित्रित हुए हैं। जिनमें आमजन की समस्याएँ हैं, परंतु प्रत्येक ग़ज़ल में वह सजे हैं और सब को सचेत करते हैं। सुनहरे भविष्य की आशा लेकर ग़ज़ल संग्रह ‘सुरुज नवा उगइया हे’ में कहते हैं-
दूसर के रद्दा मा चलना
सिरतो है बेकार रे भाई।
‘बरस’ हवे तुुरते रद्दा मा
रेंगे बर तइयार रे भाई।
आज के सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर उनकी चिंता है। लिखते हैं-
गोल्लर मन हर देश ल चर दिन
कर तब ले निस्तार रे भाई।
अंधवा पीसे कुकुर खावय
जग हो गे अंधियार रे भाई।
छत्तीसगढ़ी काव्य का विश्लेषण करने से ज्ञात होता है, छत्तीसगढ़ी काव्य राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत रहा है। प्रारंभ से अब तक सतत् रूप से जागरण के गीत लिखे जा रहे हैं। काल क्रम के अनुसार विषय भले ही बदले हों, लेकिन आमजन के समक्ष विषय को रखकर रचनाकार उन्हें आगाह कर रहे हैं।
संदर्भ-
1–छत्तीसगढ़ दिग्दर्शन, भाग- 2 मदन लाल गुप्ता
2-छत्तीसगढ़ी काव्य के कुछ महत्वपूर्ण कवि भाग -1- डॉ बलदेव
3-छत्तीसगढ़ी गीत (लोक कंठ का कलकल निनाद- जमुना प्रसाद कसार
4-हमर भुँइया हमर अगास-मुकुंद कौशल
5-छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य- डॉ सत्यभामा आडिल
6-छत्तीसगढ़ी लोक गीतों की भूमिका- नारायण लाल परमार
7-मैं माटी महतारी अँव-डॉ पीसी लाल यादव
8-चिरई के एका -डॉ जीवन यदु
9- सुरुज नवा उगइया हे- बलदाऊ राम साहू
10- छत्तीसगढ़ी काव्य -एक विहंगम दृष्टि -रामेश्वर शर्मा
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