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Volunteers of the Hindu nationalist Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) take a pledge during an event at their headquarters in Nagpur, India, Thursday, June 7, 2018. The RSS, parent organization of the ruling Bharatiya Janata Party, combines religious education with self-defense exercises. (AP Photo)

भारत की सांस्कृतिक सेना के शिल्पी डॉ. हेडगेवार

परम वैभवशाली भारत माता का पाथेय है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका। पितृभू- पुण्यभूभुश्चेव सा वै हिंदू रीति स्मृता॥ इस श्लोक के अनुसार “भारत के वह सभी लोग हिंदू हैं जो इस देश को पितृभूमि-पुण्यभूमि मानते हैं” वीर दामोदर सावरकर के इस दर्शन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मूलाधार बनाकर संघ का संगठन, संस्थापना करने वाले डा। केशव बलिराम हेडगेवार जी को हम यदि पूर्ण रूप से अपनी कल्पना में पिरोने का कार्य करें तो यह कार्य तनिक दुष्कर ही होगा।

यह कार्य दुष्कर इसलिए होगा क्योंकि अधिकतर विचारक डॉ. हेडगेवार के विषय में कहते, लिखते, सोचते समय अपनी दृष्टि को संघ केद्रित कर लेते हैं । राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ” को ही उनके राष्ट्रीय शिल्प का मानक या केंद्र माना जाता है जो कि एक अधूरी, अपूर्ण व मिथ्या अवधारणा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके विशाल, महत्वाकांक्षी व विस्तृत वितान वाले “भारत एक विश्व गुरु” व “परम वैभवमयी भारत माता” के लक्ष्य का एक पाथेय भर है।

वस्तुतः हेडगेवार का समूचा जीवनचरित्र एक व्यापक एवं गहन अनुसंधान के साथ साथ सहज चिंतन व चर्चा का भी विषय है । उनके जीवन के विभिन्न गुणात्मक भाग गंभीर अध्येताओं व समाज शास्त्रियों हेतु हमेशा ही एक खोज का विषय बने रह सकते हैं । संक्षेप में यह कि लोग विचारते हैं कि संघ ही डॉ. हेडगेवार का जीवन लक्ष्य था जबकि सत्य यह है कि संघ को डॉ. साहब ने केवल अपना माध्यम बनाया था; उनका मूल लक्ष्य तो स्वर्णिम भारत, भारत माता की परम वैभव शिखर पर स्थापना व हिंदुत्व ध्वजा को विश्व भर में फहराना ही था; जो कि आज संघ का परम लक्ष्य है ।

यहां यह भी कहा जा सकता है कि डॉ. हेडगेवार ने स्वयं को तो संघ के रूप में संपूर्णतः व्यक्त कर दिया था किंतु संघ की संघटना, विचार शक्ति, योजना, कार्यशक्ति, कल्पना शक्ति, संवेदनशीलता को उन्होंने इस प्रकार शिल्प किया था कि संघ कभी भी, किसी भी काल में, किसी भी परिस्थिति में संपूर्णतः व्यक्त हो ही नहीं सकता है !

डाक्टर साहब के संघ को सदैव स्वयं अव्यक्त रहकर समाज को अभिव्यक्त करना आता है। संघ को स्वयं कुछ भी न करके सब कुछ कर देने का दिव्य अकर्ता भाव धारण करना आता है । संघ को सर्वदर्शी होकर कहीं भी न दिखने की दिव्य दृष्टि से परिपूर्ण डाक्टर साहब ने ही किया है। संघ का यही निर्लिप्त भाव डॉ. हेडगेवार जी की सबसे बड़ी सफलता नहीं बल्कि उनकी अलौकिक उपलब्धि है।

संघ का यही स्वरूप डाक्टर हेडगेवार जी को संघ से इतर ले जाकर एक संगठन शास्त्री ही नहीं अपितु एक ऐसे समाज शास्त्री के स्थान पर बैठाता है जिसमें समाज की दृष्टि राष्ट्र केद्रित होती है । यही कारण हैं कि आज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व इसके देवतुल्य प्रचारक और इसके कार्यकर्ता भारत देश व इसके देशज समाज हेतु अमूल्य निधि हो गए हैं। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आज सम्पूर्ण विश्व हेतु कौतुहल व जिज्ञासा के साथ साथ श्रद्धा विषय हो गया है।

विश्व के समस्त संगठन विज्ञानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इस विचित्र किंतु सत्य संगठन के अंतर्तत्व, मर्मवगुंठन-अवगुंठन को समझना चाहते हैं । किंतु, यह भी सत्य है कि संघ बड़े बड़े ज्ञानियों के समझ नहीं आता है और जब यही महाज्ञानी अपने भोलेपन व कुछ न जानने के बालपन के भाव से संघ की शाखा में जाते हैं तो संघ को सहजता से संपूर्णतः जान लेते हैं ।

डाक्टर हेडगेवार जी को इस दृष्टि से हम जादूई संगठन कर्ता कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । जो संघ को सतही तौर पर भी जानते हैं वे इस तथ्य से परिचित हैं कि डॉ. हेडगेवार रचित संघ में इसके संविधान का महत्व शून्य के जैसा है। संघ में जो लिखित संविधान है उसे केवल इसलिए अपनाया गया क्योंकि एक औपचारिक संगठन संस्थापना व कानूनी आवश्यकताओं हेतु यह आवश्यक था। डाक्टर साहब के अनुसार तो संघ का संविधान केवल एक शब्द से परिभाषित व व्यक्त होता है और वह शब्द है – “भारत माता।” व्यक्ति से बड़ा समाज, समाज से बड़ी जाति, जाति से बड़ा धर्म और धर्म से सर्वोपरि भारत माता, अर्थात राष्ट्रवाद; यही संघ का अलिखित किंतु अनिवार्य संविधान है।

डॉ. हेडगेवार जी संघ की स्थापना के पूर्व अपने विद्यार्थी जीवन में बंगाल के क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति में सक्रिय रूप से कार्यरत रहे थे । वे युवावस्था में ही उनके दिव्य अनुभवों व कार्य कलापों के चलते हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश के उपाध्यक्ष नियुक्त कर दिए गए थे। कांग्रेस में भी वे कुछ समय तक सक्रियता से दायित्व निभाते रहे थे। संघ की स्थापना के पूर्व का उनका जीवन, कार्यानुभव व संपर्क कतई ऐसे नहीं माने जा सकते थे जिनसे 1925 से लेकर आज तक के शत वर्ष के होने जा रहे संघ के किसी भी रूप की कल्पना की जा सकती हो ।

यदि प्रश्न यह है कि संघ के इस अनहद, विहंगम, विराट व आत्मा में बस जाने वाले सूक्ष्म स्वरूप की कल्पना डॉ. साहब कैसे कर पाए थे तो उत्तर यह है कि संघ केवल और केवल उनकी ईश्वरीय अंतर्चेतना का परिणाम है। तथ्यों के स्थूल व भौतिक कल्पना से चलने वाले संगठन विज्ञानी इसे समझे न समझे किंतु अपने भोले मन से चलने व कार्य करने वाला एक स्वयंसेवक आज भी संगठन में डा। हेडगेवार जी को स्वयं के सम्मुख प्रकाशपुंज के रूप में साक्षात उपस्थित पाता है।

प्रकाश पुंज के रूप में सतत उपस्थिति के इस तथ्य का अलौकिक आभास एक सामान्य स्वयंसेवक भी अपने “आद्य सरसंघचालक प्रणाम” की प्रक्रिया में बड़ी सहजता से करता रहता है जो पाठक “आद्य सरसंघचालक प्रणाम” की परंपरा को नहीं समझते हैं उन्हें इसे समझने का सहज प्रयास करना चाहिए । डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का प्रथम श्रेणी में डाक्टरी की परीक्षा को पास करना और उसके बाद चिकित्सा के पेशे से सर्वथा भिन्न समाज व राष्ट्र सेवा में आजीवन अविवाहित रहकर आकंठ डूब जाना एक गहन जिज्ञासा का विषय है।

व्यक्ति के आंतरिक व्यक्त-अव्यक्त गुणों, कथित – अकथित क्षमताओं को उभारना व उसकी कार्यशीलता का भरपूर दोहन करना वे भली भांति जानते थे। संघ की आंतरिक कार्य प्रणाली को उन्होंने इस प्रकार विकसित किया कि चाहे कोई भी व्यक्ति स्वयंसेवक बने, उसकी क्षमताओं का सौ प्रतिशत उपयोग राष्ट्र सेवा में संघ कर ही लेगा । डॉक्टर साहब ने अपने इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु कई प्रकार के नवाचार किये व नए नए प्रयोग अपनाए ।

उल्लेखनीय है कि डॉ. हेडगेवार जी ने बंगाल में हुए अपने जीवन के प्रारम्भिक सार्वजनिक अनुभवों से राष्ट्र सेवा हेतु अर्ध सैनिक संगठन की कल्पना की थी । उन्होंने 1925 की विजयादशमी के शुभ दिन आरएसएस की स्थापना के समय इसके अर्धसैनिक स्वरूप की ही कल्पना भी प्रस्तुत कर दी थी, किंतु शीघ्र ही वे सैन्य संगठन की सीमाओं को चिन्हित कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा की यात्रा की ओर तीव्रता से अग्रसर हो गए थे।

संघ की यह यात्रा अब तक अपने अटूट, अनवरत, अविभक्त स्वरूप में जारी है। संघ के स्थापना काल में अंग्रेजी का एक शब्द प्रचलित था “मिलिशिया।” संघ स्थापना के मूल में इस शब्द का ही वितान था । “मिलिशिया ” का अर्थ होता है, सिविल सोसाईटी से देश सेवा हेतु निकले हुए अवैतनिक सैनिक। इस अंग्रेजी शब्द मिलिशिया के अंतर्तत्व में डाक्टर साहब ने वीर सावरकर जी के हिंदुत्व दर्शन को स्थापित किया था जिसकी यह अविभाज्य मान्यता थी कि “भारत के वह सभी लोग हिंदू हैं जो इस देश को मातृभूमि, पितृभूमि – पुण्यभूमि मानते हैं।”

इनमें सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, बौद्ध, सिख आदि पंथों एवं धर्म विचार को मानने वाले व उनका आचरण करने वाले समस्त जन को हिंदू के व्यापक दायरे में रखा गया था। भारतीय समाज में सामाजिक समरसता की स्थापना व प्रत्येक स्तर पर अस्पृश्यता की समाप्ति इस संगठन के मूल मंत्र में स्थापित है। डॉ. साहब शिल्पित संघ आज अपने सैकड़ो समवैचारिक संगठनों व इन संगठनों के हजारों-लाखों प्रकल्पों के साथ भारत की प्रत्येक श्वांस में अपने पूर्ण स्वरूप में विद्यमान दिखता है।

यह बड़ा ही सशक्त, गर्वोक्त किंतु विनम्र तथ्य है कि इतनी विराट, व्यापक व व्यवस्थित उपस्थिति के बाद भी संघ अपने किसी मंच से अपनी इस बलवान, प्रभासाक्षी व सर्वव्यापी उपस्थिति की उद्घोषणा नही करता है किंतु शाखा जाने वाले किसी साधारण से स्वयंसेवक के माध्यम से समाज में पुर्णतः व्यक्त हो जाता है । श्री केशव ही पुण्य प्रताप है कि आज संघ सर्वोपरि होते हुए भी अपने उसी दैन्य किंतु दैवीय स्वरूप में विनयावत स्थिति में दिखता है ।

आलेख

श्री प्रवीण गुंगनानी बैतुल,
मध्य प्रदेश

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