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जिजीविषा और तप के बीज : हरितालिका तीज

उत्सवधर्मी एवं अनूठी भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं के लिए लोकप्रसिद्ध रंग निराले है जो जीवन दर्शन भी देते है और जीने को उमंग के साथ सलीके से जीना भी सिखाते है। भारतीय संस्कृति के सावन भादो मास हरित खुशहाली के साथ त्योहारों की लड़ियाँ ले कर आते है जिनके अपने विशिष्ट रंग है। ऐसा ही भादो शुक्ल तृतीया को मनाया जाने वाला व्रतोत्सव है हरितालिका तीज।

हरितालिका दो शब्दों से बना है, हरित और आलिका! हरित का अर्थ है हरण करना और आलिका अर्थात सखी। यह पर्व भाद्रपद की शुक्ल तृतीया या तीज को मनाया जाता है, जिस कारण इसे हरितालिका तीज कहते है। इस व्रत को हरितालिका इसलिए कहा जाता है, क्योकि पार्वती की सखी उन्हें पिता के घर से हरण कर जंगल में ले गई थी।

इस व्रत का वर्णन लिंग पुराण एवं भविष्य पुराण आदि पुराणों में मिलता है। भाद्रपद के शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन, पार्वती ने अपने बालों से एक शिवलिंग बनाया और प्रार्थना की। शिव इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने पार्वती से विवाह करने का वचन दिया।

आखिरकार, पार्वती का वैरागी शिव के साथ मेल हो गया और उनके पिता के आशीर्वाद से उनका विवाह हो गया। इसलिए इस दिन को हरतालिका तीज के रूप में जाना जाता है क्योंकि पार्वती की महिला (आलिका) मित्र को शिव से विवाह करने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए देवी के लिए उसका अपहरण (हरित) करना पड़ा था।

इस दिन विवाहित महिलाएं अपने पति के दीर्घायु व स्वस्थ जीवन के लिए व कुमारिकाएं अच्छे सुयोग्य वर की प्राप्ति हेतु पूरे दिन रात निर्जल व्रत कर,बालू के शिव पार्वती बना कर प्राकृतिक फुलेरा बना के उन पर चढ़ा कर विधिवत पूजन अर्चन करती है और पूरी रात जागरण कर अगले दिन पारण करती है।

फुलहरा या फुलेरा का हरतालिका व्रत में विशेष महत्व है। इसे कुछ विशेष प्राकृतिक फूलों-पत्तियों से बनाया जाता है। फिर इससे बालू के शिव-पार्वती की पूजा की जाती है। फुलेरा या फुलहरा बनाने की कुछ प्रमुख सामग्री चाहिए जिसमें प्रकृति से स्व उत्तपन्न वनस्पति जड़ीबूटियाँ होती है। फुलहरे में कुछ विशेष प्रकार की पत्तियों और फूलों का प्रयोग होता है -चिलबिनिया, नवकंचनी, नवबेलपत्र, सागौर के फूल, हनुमंत सिंदूरी, शिल भिटई, शिवताई, वनस्तोगी, हिमरितुली, लज्जाती, बिजिरिया, धतूरा, मदार, त्तिलपत्ती, बिंजोरी, निगरी, रांग पुष्प, देवअंतु, चरबेर, झानरपत्ती, मौसत पुष्प, सात प्रकार की समी आदि सम्मिलित होती है।

यह सभी वह प्राकृतिक वनस्पतियों व जड़ी बूटियों का सम्मिश्रण होता है जो बहुत दुर्लभ औषधीय गुणों से युक्त है किंतु लोग प्रायः जिन्हें फालतू की झाड़ियां समझते है। शिवार्चन में उन्हें अर्पण करने का महत्व ही यह है कि प्रकृति में कुछ भी निरर्थक नही होता बस हमें उसके सदुपयोग का ज्ञान नही है अतः हमें प्रकृति का हर हाल में संरक्षण करना चाहिए।

इस फुलहरे को बनाने में 4-5 घंटे का समय लग जाता है। फुलहरे की लंबाई लगभग सात फुट होती है। यह प्राकृतिक फुलहरा तीजा पर बांधा जाता है। प्राकृतिक फुलहरा या फुलेरा बना कर बालू के शिवलिंग पर माताए बहने अर्पित करती है जिससे शिव प्रसन्न होते है। पुराणों में वर्णित हरतालिका व्रत में जिन प्राकृतिक फूल पत्तियों और जड़ी-बूटियों का वर्णन किया गया है, उन्हीं चीजों का उपयोग करके फुलहरा बनाया जाता है।

लिंग पुराण में हरतालिका तीज व्रत कथा का वर्णन आता है। कथा के अनुसार मां पार्वती ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय पर गंगा के तट पर अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया। इस दौरान उन्होंने अन्न का सेवन नहीं किया। कई वर्षों तक उन्होंने केवल हवा पीकर ही व्यतीत किया।

माता पार्वती की यह स्थिति देखकर उनके पिता अत्यंत दुखी थे। इसी दौरान एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती जी के विवाह का प्रस्ताव लेकर मां पार्वती के पिता के पास पहुंचे, जिसे उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। पिता ने जब मां पार्वती को उनके विवाह की बात बताई तो वह बहुत दुखी हो गईं और जोर-जोर से विलाप करने लगीं।

फिर एक सखी के पूछने पर माता ने उसे बताया कि वह यह कठोर व्रत भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कर रही हैं, जबकि उनके पिता उनका विवाह विष्णु से कराना चाहते हैं। तब सहेली की सलाह पर माता पार्वती घने वन में चली गई और वहां एक गुफा में जाकर भगवान शिव की आराधना में लीन हो गईं।

भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र में माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया। तब माता के इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और इच्छानुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया।

मान्यता है कि इस दिन जो महिलाएं विधि-विधानपूर्वक और पूर्ण निष्ठा से इस व्रत को करती हैं, वह अपने मन के अनुरूप पति को प्राप्त करती हैं। साथ ही यह पर्व दांपत्य जीवन में खुशी बरकरार रखने के उद्देश्य से भी मनाया जाता है। उत्तर भारत के कई राज्यों में इस दिन मेहंदी लगाने और झूला झूलने की प्रथा है।

इस दौरान नई दुल्हनें अपने मायके में झूला झूलती हैं और सखियों से बाते करती है। इस दिन हरी-हरी चूड़ियां, हरे वस्त्र और मेहंदी का विशेष महत्व है। मेहंदी सुहाग का प्रतीक है। इसकी शीतल तासीर प्रेम और उमंग को संतुलित करती है। इसलिए इस दिन महिलाएं मेहंदी जरूर लगाती हैं। सावन में काम की भावना बढ़ जाती है, मेंहदी इस भावना को नियंत्रित करती है।

हरियाली तीज का नियम है कि क्रोध को मन में नहीं आने दें। मेंहदी का औषधीय गुण इसमें महिलाओं की मदद करता है। सुहागन महिलाएं प्रकृति की हरियाली को अपने ऊपर ओढ़ लेती हैं। नई दुल्हनों को उनकी सास उपहार भेजकर आशीर्वाद देती है। एक बार इस व्रत को आरम्भ करने पर जीवन पर्यंत करना होता है।

हरितालिका व्रतोत्सव के मुख्य क्षेत्र केवल भारत ही नही नेपाल भी है। नेपाल में यह तीन दिन तक बहुत धूमधाम से पर्वोत्सव के साथ मनाया जाता है। भारत में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश के कुछ क्षेत्रो में प्रचलित हैं। विशेषकर छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार में इसे जोरशोर से मनाया जाता है।

राजस्थान में, पार्वती की मूर्ति को जुलूस में गायन और संगीत के साथ सड़कों पर निकाला जाता है। हरतालिका तीज मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों में भी फैल गई है। गुजरात मे इसे केवड़ा तीज कहते है और इस दिन बालू के शिवलिंग पर खासतौर पर केवड़ा चढ़ाने का महातम्य है।

वास्तव में प्रकृति की अप्रतिम हरित सुंदरता में पढ़ने वाले इस त्योहार में हमारे त्यागमयी भारतीय नारियां भी प्रकृति रुपा हो कर सोलह श्रृंगार कर सज संवर कर जीवन मे हर्षोल्लास भर देती है। तीज के बीज भारतीय मानस में ऐसे पनपते है कि तप से सदियों से शिव सायुज्य की चाहत लिए जिजीविषा के अंकुरण को प्रस्फुटित होते रहे है..होते रहेंगे..यही जीवन है।

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