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कला परंपरा की अद्भुत धरोहर : ताला

देवरानी-जेठानी मंदिर ताला हमारे देश के गिने-चुने पुरातत्वीय धरोहरों में से एक है जो भारतीय कला परंपरा के गौरवशाली स्वर्णिम अध्याय में दुर्लभ और विलक्षण कलाकृतिकयों के लिए विख्यात है। छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण पुरातत्वीय स्थलों में ताला का नाम विगत शताब्दी के आठवें दशक से जुड़ा है तभी से यह अंतर्राष्ट्रीय कला जगत में अधिकाधिक चर्चित है।

छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला-संस्कृति की मौलिकता को स्थापित करने के साथ-साथ प्राच्य अध्येताओं के सम्मुख चुनौती करने के रूप में प्रकट ताला की कलाकृतियां रहस्य और रोमांच से परिपूर्ण है। ताला के परिवेश में मनियारी नदी का सुम्य तट, पर्यावरण विविधता और ग्रामीण संस्कृति का समाहार है। इसके भग्नावशेषों में भारतीय कला के मूलतत्व-सौंदर्य, लावण्य और रस के साथ-साथ शिल्पी की साधना और मौलिक कल्पना भी प्रस्फुटित है। छत्तीसगढ़ अंचल की अद्वितीय कलाकृतियां ताला के भग्नावशेषों में जीवित हैं जो इसके पर्यटन आकर्षण केन्द्र हैं।

रायपुर-बिलासपुर सड़क मार्ग पर सरगांव के निकट स्थित भोजपुरी ग्राम से ताला पहुंचने के लिए पक्का मार्ग है। भोजपुरी से ताला की कुल दूरी सिर्फ 5 कि.मी. है। सरगांव के निकट स्थित सलफा ग्राम से भी मनियारी नदी को पार कर आसानी से स्मारक स्थल तक पहुंचा जा सकता है। बिलासपुर से भोजपुरी ग्राम की कुल दूरी 24 कि.मी. है। इस मार्ग पर बस, टैक्सी, टैम्पो आदि वाहनों की नियमित आवाजाही बनी रहती है। हावड़ा-मुंबई रेल मार्ग पर स्थित दगौरी निकटस्थ रेलवे स्टेशन है।

ताला के दर्शनीय स्मारकों में देवरानी-जेठानी नामक दो स्मारक आसपास स्थित हैं। इनमें से देवरानी मंदिर अर्ध भग्न स्मारक है तथा जेठानी मंदिर अधिकतम ध्वस्त है। बड़े-बड़े तराशे गये शिला खंडों से निर्मित देवरानी-जेठानी मंदिर दर्शकों को सहज ही में रोमाचिंत करते हैं। मनियारी नदी के तट-बंध से बड़े-बड़े चट्टानों को काट-तराशकर दक्षिण कोसल के शरभपुरीय शासकों के काल लगभग 5वीं-6वीं सदी ईसवीं में यहां के मंदिरों का निर्माण किया गया है। भारी भरकम भित्तियां, विशाल आकार के स्तंभ, भीमकाय प्रतिमायें और कलात्मक प्रवेश द्वार देवरानी मंदिर की भव्यता के प्रमुख आकर्षण हैं। छत्तीसगढ़ के किसी भी मंदिर में ताला के समान भीमकाय पाषाण मूर्तियां और स्तंभ देखने नहीं मिलती है।

देवरानी मंदिर एक बहुत बड़े आयताकार चबूतरा पर स्थित है। अब से लगभग 35 वर्ष पहले यह जंगली वृक्ष और मलबे से ढंका हुआ था। समय-समय पर इस स्मारक पर मलबा-सफाई और उत्खनन से इसकी सीढ़ियां, मंडप और प्रवेश द्वार प्रकाश में आये है, साथ ही साथ अनेक खंडित दुर्लभ प्रतिमाएं भी मिली हैं। इस मंदिर के अधिष्ठान के अधिकांश भाग को छोटे-छोटे खंढूको से बांधकर चबूतरे से ढंका गया है जिससे इसकी नीवं, नमी और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से टस-मस न हो सके। पुरात्तवेत्ताओं ने उत्खनन से इस मंदिर के अधिष्ठान, सोपान, मंडप तथा अन्य दबी हुई मूर्तियों को प्रकाश में लाकर अनुरक्षण कार्य करवाये हैं।

देवरानी मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत कलात्मक तथा भव्य है। हमारे देश के प्राचीन काल के मंदिरों में निर्मित्त श्रेष्ठ प्रवेश द्वारों में इसकी गणना होती है। ज्यामितिय आकृतियां, पुष्पीय अलंकरण और शिव से संबंधित अनेक लीलाओं सहित विविध दृश्य इसमें रूपायित हैं। जिसमें भक्ति, योग, श्रृंगार और पारंपरिक लोकाचार समाये हुये हैं। प्रवेश द्वार के सिरदल पर भगवती लक्ष्मी का प्राकट्य और दनके अभिषेक के लिये अवतरित सरिताएं, तीर्थ और सरोवर देवाताओं सहित अभिषेक करते हुये गज निरूपित हैं।

प्रवेश द्वार के स्तंभों पर विभिन्न प्रकार के पुष्पों की माला लिपटी हुई है। द्वार पर आमने-सामने केलाश पर्वत पर विहार करते हुए उमा-महेश्वर, द्यूत-क्रीड़ा में रत शिव-पार्वती, सिंह के मुख के समान कीर्तिमुख, श्रृंगार रस के परिचायक दम्पत्ति युगल तथा अन्य पौराणिक दृश्य, दर्शकों को टकटकी बांध कर देखने के लिये विवश करती हैं। स्तंभों पर अंकित कमल, मकर घट-आमलक आदि मांगलिक अभिप्रायों में भी कला की साधना प्रदर्शित है।

देवरानी मंदिर के प्रांगण में इसी स्थल से प्राप्त एक अद्भुत प्रतिमा रखी हुई है। शिव के सदृश्य इस प्रतिमा के कुछ लक्षणों के आधार पर इसे रूद्र शिव माना गया है। यह प्रतिमा लगभग 8 फुट ऊंची और 4 फुट चौड़ी है और लगभग 8 टन वजनी है। रूद्र शिव के अंगों में अनेक प्रकार के जीव-जंतुओं का संयोजन है। सिर पर नागों की पगड़ी है। मुख पर उतरते हुये छिपकली से नाक, नेत्र अंडे से, भौह छिपकली के पिछले पैरों से और कान मयूरों से निर्मित है। ऊपरी कान मयूरों से निर्मित है। ऊपरी ओंठ तथा मूंछें मछलियां से निचला ओंठ, ठुड्डी और दाढ़ी क्रमशः केकड़े के दाढ़, पीठ की खपरी तथा पैरों से निर्मित हैं।

कंधे मकर मुख से, भुजाएं हाथी की सूंड़ से और हाथों की अंगुलियां विभिन्न सर्प-मुखों से निर्मित हैं। वक्ष तथा उदर भी मानव मुखाकृतियों से निर्मित है।जंघा सहित पैर हाथी के पैरों के सदृश्य आभासित हैं। घुटनों पर सिंह मुख रूपायित हैं। रूद्र शिव के कंधें के ऊपर दो विशाल नाग फण फैलाये हुये हैं। इसी प्रकार उनके पैरों के समीप भी नाग फण फैलाये ऊपर की ओर देख रहें हैं। इस प्रतिमा के निर्माण में शिल्पी की कल्पना, मौलिकता, दक्षता और साधना बेमिसाल है। शिव के घोर, उग्र और रौद्र स्वरूप को प्रकट करने में यह कलाकृति अद्वितीय है। इस प्रतिमा में शैव तंत्र के लक्षण समाये हुये हैं रूद्र शिव की प्रतिमा ने ताला को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की है। इस अद्भुम और विलक्षण प्रतिमा को मंदिर के सीढ़ी के समीप दायें ओर कक्ष निर्माण कर सुरक्षित स्थिति में प्रदर्शित रखी गई है।

देवरानी मंदिर की सीढ़ी के बायें ओर गणेश की विशाल आकार की प्रतिमा मंदिर की भित्ति से सटकर स्थित है। मंदिर के परिसर में रखी हुई अधिकांश प्रतिमाएं अब यहीं पर निर्मित संग्रहालय में प्रदर्शित कर रखी गई हैं। इस मंदिर को दक्षिण कोसल में शासन करने वाले शरभपुरीय शासकों के काल में लगभग 5वीं-6वीं सदी ईसवी में बनवाया गया है।

ताला के नाम के साथ जेठानी मंदिर का नाम जुड़ा हुआ है। जेठानी मंदिर का निर्माण देवरानी मंदिर के पहले करवाया गया है। यह ध्वस्त मंदिर टीले के आकर में था जिसे उत्खनन के द्वारा प्रकाश में लाया गया है। इस मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार दक्षिण दिशा की ओर है। साथ ही साथ इसमें पूर्व और पश्चिम दिशा की ओर भी प्रवेश द्वार निर्मित है। मंदिर का के विशाल आकार दिशा के स्तंभ तथा मूर्तियां दर्शकों को अचंभित करती हैं।

लक्षणों के आधार पर यह मंदिर भी शिव मंदिर था और यहां तंत्रोक्त प्रकार से अनुष्ठान तथा साधनाएं की जाती थीं। इस मंदिर के विशाल आकार के शिल्पखंड तथा खंडित प्रतिमाएं सूर्य, विष्णु, शैवाचार्य, आचार्य तथा शिष्य आदि यहां पर निर्मित स्थानीय संग्रहालय में प्रदर्शित हैं जो दर्शनीय हैं। यहॉं से प्राप्त महत्वपूर्ण कलाकृतियां कार्तिकेय, नदी देवी, नारी प्रतिमा, शालभंजिका, भग्न पुरूष, शिव शीर्ष, अर्ध नारीश्वर आदि सुरक्षा की दृष्टि से बिलासपुर स्थित पुरातत्व संग्रहालय में प्रदर्शित रखाी हैं।

देवरानी-जेठानी मंदिर, ताला के प्राकृतिक परिवेश की गोद में मनियारी नदी के तट पर स्थित शांत, पवित्र तथा मनोरम स्थल है। पर्यटन की दृष्टि से इतिहास-पुरातत्व की सीमाओं से परे हमारे देश की संस्कृति के आधार अनेक रूपों में प्रकट है। ताला के पर्यटन में स्थानीय निवासी, भाषा, परिधान, कृषि, वनस्पति, सरिता, भौगोलिक सरंचना का प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुभव भी सम्मिलि है।पर्यटन विभाग की ओर से मनोरंजन के लिए नौका विहार यहॉं संचालित है।

स्थानीय ग्रामीणों द्वारा निर्मित राम-जानकी, राधा-कृष्ण के आधुनिक मंदिर भी यात्रियों को यहॉं आकृष्ट करते हैं। कार्तिक पूर्णिमा, माघ मेला तथा शिवरात्रि पर्वो पर ताला के स्वरूप में भक्ति, आराधना और उल्लास सर्वत्र दिखाई पड़ता है। रंग-बिरंगे परिधानों से सजधज कर दूर-दूर से ग्रामीण श्रद्धालु पर्यटक अनेक साधनों से यहां आते हैं। भक्ति-भाव से स्नान करते और श्रद्धा से भगवान शिव को पुष्प-अक्षत आदि अर्पित करते है। आराध्य को सिर नवाकर मनोती तथा दर्शन-परछन की याचना करते हैं। बिलासपुर नगर से निकट और आवागमन की सुविधा होने के कारण ताला एक मुख्य पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो रहा है।

संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के अतिरिक्त स्थानीय प्रशासन के द्वारा ताला के ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व एवं पर्यटनोन्नमुख अभिरूचि के अनुकूल और जन सुविधा की दृष्टि से पक्का मार्ग, प्रतीक्षालय, विद्युत, घाट निर्माण, उद्यान, पेयजल, प्रसाधन और आमोद-प्रमोद आदि विकासात्मक कार्यो को गति प्रदान की गई है।

सहज रोमांच और मनोरंजन के साथ-साथ पुरातत्व के झरोखे से झांकता देवरानी-जेठानी मंदिर छत्तीसगढ़ के अतीत के गौरव का साक्ष्य है। यहॉं के शिलाखण्डों के मौन-आमंत्रण में अन्तर्मन की वेदना हमें सचेत करती है-ध्रोहरों की सुरक्षा और अपनत्व की भावना विकसित करने के लिये और साथ में भविष्य की पीढ़ी को पूर्वजों के अवदान को सुरक्षित रूप में सौपने के लिए। ताला को इंतजार है आप जैसे सहृदय, आस्थावान श्रद्धालु और कला पारखी तथा प्रकृति के सौंदर्य को आत्मसात करने वाले पर्यटकों के स्मृति पटल में अपनी पहचान को परखने के लिए।      

आलेख

श्री जी.एल.रायकवार, पुराविद, रायपुर

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