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राजिम मेला : ऐतिहासिक महत्व एवं संदर्भ

ग्रामीण भारत के सामाजिक जीवन में मेला-मड़ई, संत-समागम का विशेष स्थान रहा है। स्वतंत्रता के पूर्व जब कृषि और ग्रामीण विकास नहीं हुआ था तब किसान वर्षा ऋतु में कृषि कार्य प्रारम्भ कर बसंत ऋतु के पूर्व समाप्त कर लेते थे। इस दोनों ऋतुओं के बीच के 4 माह में सभी सामाजिक, पारिवारिक और धार्मिक कार्य का सम्पादन करते थे। पर्वों में लगने वाले मेलों में ग्रामीण जनता की सर्वाधिक भागीदारी होते रही है क्योंकि इस अवसर पर उन्हें अपने परिजनों, स्वजनों और रिश्तेदारों से मिलने, विचारों का आदान-प्रदान करने के साथ-साथ साधु महत्माओं का दर्शन एवं ज्ञान लाभ भी होता है। पूर्वकाल में आवागमन के आधुनिक साधन न होने के कारण यात्रायें पैदल या बैलगाड़ी में हुआ करती थी, जिसमें अधिक दिन लगना स्वाभाविक भी है।

छत्तीसगढ़ में राजिम और सबरीनारायण का मेला प्राचीनकाल से उल्लेखनीय रहा है जो लम्बी अवधि का मकर संक्रांति से प्रारम्भ होकर फाल्गुन के रंग पंचमी तक चलता था। दोनों स्थानों के बीच दुरी कम होने के कारण अन्य प्रदेशों से आये श्रद्धालुओं, साधु-संतों और व्यापारियों के लिए सुविधाजनक भी था। राजिम शैव, वैष्णव, साक्त, जैन और बौद्ध सम्प्रदाय का संगम स्थल रहा है जिसके कारण इस स्थान के वैभव पर अत्यधिक साहित्य रचना हुई हैं और अनेक लोककथाएं अंचल में प्रचलित हैं। इस आलेख के माध्यम से उनमें से चुनिंदे महत्वपुर्ण साहित्यों के प्रसंगों पर विमर्श करेंगे।

राजीव लोचन मंदिर, राजिम

At the period of the celebrated aswamedh, a Raja named Raju Lochan reigned at Raju. The horse shamkarn having arrived there, the Raja seized him, and gave him to a celebrated Rishi named kardma who resided on the bank of Mahanadi. Satrughna who followed the horse with his army, attempting to take him from the Rishi was reduced with his army to ashes by the effect of the holyman’s curse. Ramachander on hearing the fate of satrughna, marchaed in person to avenge his fate. The Raja met him and obtained favour in his sight.

Ramachander told the Raja that there were of old two deities at Raju, Utpaleshwar Mahadev and nilkantheswar, that Seo and Krishna were ones; and he himself would henceforth take up his abode there in worship of Seo. Ramchander accordingly ordered the Raja to setup an image of his name and call it Raju Lochan and added that fame would be great and that an annual feast should be held in his hounor on the Makar Sankrant im magh . After paying his respect to kardma Rishi, recovering his horse and restoring Satrughna and army life, Ramchander returned to Ayodhya .

ऐसे ही अनेक कहानियां, जनश्रुतियां, किवदंतियां, लोककथा एवं अनुश्रुति के रूप में छत्तीसगढ़ की प्राचीन सांस्कृतिक राजधानी राजिम के सम्बन्ध में लोक में व्याप्त हैं। इन कहानियों को सर्वप्रथम संकलन कर प्रकाशित करने का श्रेय तत्कालीन छत्तीसगढ़ (रतनपुर राज्य) के ब्रिटिश अधीक्षक सर रिचर्ड जेंकिन्स को है। सर रिचर्ड जेंकिन्स ने सन 1824 को राजिम की यात्रा कर पुराणिकों, पंडों, पुजारियों से जानकारी संग्रह कर “एशियाटिक सोसाइटी” के जर्नल में प्रकाशित किया था। इनके बाद पुरातत्ववेता डॉ जे डी बेग्लर 1871 – 72 में राजिम आये और यहाँ का पुरातात्विक विवरण आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के जर्नल में प्रकाशित किये थे।

तत्पश्चात आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के डायरेक्टर जनरल सर एलेग्जेंडर कनिंघम सन 1881-82 में राजिम की यात्रा पर आये और विस्तृत रिपोर्ट जर्नल में प्रकाशित किये थे। उपरोक्त तीनों अंग्रेज अधिकारियों के प्रकाशन उपरांत पं सुंदरलाल शर्मा जी ने सन 1898 में “श्री राजीव क्षेत्र महात्मय” नामक हिंदी पद्य ग्रन्थ का संपादन किया, जो सन 1915 में प्रकाशित हुआ था। इसी वर्ष पं चंद्रकांत पाठक कृत ” श्रीमद्राजीवलोचनमहात्मय” भी प्रकाशित हुआ जो संस्कृत के श्लोकों का हिंदी टीका सहित है। सन 1972 में इतिहासकार डॉ विष्णु सिंह ठाकुर का इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति पर विस्तृत पुस्तक “राजिम ” प्रकाशित हुई थी।

इन सभी ग्रंथों में राजिम के इतिहास एवं सांस्कृतिक वैभव पर अनेक तथ्यात्मक जानकारी दी गई हैं फिर भी कुछ तथ्य अभी तक अधूरे और अनुत्तरित हैं। भविष्य में शोधार्थियों द्वारा प्रामाणिक तथ्य निकाले जा सके इसलिए लोक में प्रचलित सभी कथाओं पर संक्षेप में विमर्श समीचीन है।

सर रिचर्ड जेंकिन्स के लेख का संक्षेप

एशियाटिक जर्नल में प्रकाशित लेख के पृष्ठ 502 में महानदी एवं पैरी नदी के संगम जिसे “श्रीसंगम” भी कहा जाता है, में स्थित कुलेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण राजा जगतपाल की रानी द्वारा निर्मित बताया गया है। पुराणिकों द्वारा उन्हें दी गई जानकारी के अनुसार बनारस में इस क्षेत्र के महात्मय का ग्रन्थ है जिसमें राजिम की ऐतिहासिक जानकारी है। एक पुराणिक के पिता ने बताया कि “वह मंडला से चित्रोत्पला महात्मय ग्रन्थ लाया है जो कपिल संहिता का अध्याय दो तथा उपपुराण है। इसकी रचना अवध देश में भारद्वाज ऋषि ने की थी। इस ग्रन्थ के अनुसार उत्पलेश्वर से निकलने वाली नदी, प्रेतोद्धारिणी नदी से संगम बनाकर चित्रोत्पला कहलाती है। वर्तमान में उत्पलेश्वर ही कुलेश्वर तथा महानदी एवं पैरी नदी प्रेतोद्धारिणी है।

इस कथन में त्रुटि है वास्तव में सोंढुर और पैरी के संगम को प्रेतोद्धारिणी कहा जाता है लेकिन यह सही है कि कपिल संहिता के दूसरे अध्याय में लगभग 40 श्लोकों में महानदी का महात्मय वर्णित है और इसे पितृकर्म के लिए श्रेष्ठ कहा गया है।

रिचर्ड जेंकिन्स ने आगे लिखा है कि नवागढ़ (बिन्द्रानवागढ़) के निवासी जुड़ावन सुकुल ने भविष्योत्तर पुराण का हिंदी अनुवाद किया है, जिसके अनुसार धर्मराज एवं उसके भाई ने राजिम की यात्रा की थी और श्रृंगी एवं अन्य ऋषियों ने ब्रह्मा को बताया था – “At the period of the celebrated aswamedh, a Raja named Raju Lochan reigned at Raju…….. (यह पैरा विस्तार से लिखा जा चूका है) इसका संक्षेप है – अयोध्या के राजा रामचंद्र के अश्वमेध यज्ञ का श्यामकर्ण घोड़ा राजिम पहुंचता है और उसे राजा राजू लोचन पकड़ कर महानदी तट पर निवास कर रहे कर्दम ऋषि को सौंप देते है। घोड़े की रक्षा के लिए तैनात शत्रुघ्न सेना सहित पहुंचकर ऋषि आश्रम में आक्रमण करता है और ऋषि के श्राप से सेना सहित भस्म हो जाता है। शत्रुघ्न के भस्म होने का सूचना मिलने पर रामचंद्र राजिम आते हैं और राजा राजू लोचन शरणागत होकर अभय दान प्राप्त कर लेता है। रामचंद्र राजा को अपनी प्रतिमा स्थापित करने आदेश देते हैं और कहते हैं वह लोक में राजू लोचन के नाम पर प्रसिद्द होगा। राजा को निर्देशित करते हैं कि माघ माह में मकर संक्रांति के दिन वार्षिक उत्सव आयोजित किया करे। वे ऋषि को सम्मान समर्पित कर शत्रुघ्न और सेना को पुनर्जीवित कराकर अयोध्या लौट जाते हैं |

कालांतर में मंदिर से वह प्रतिमा ग़ुम हो जाता है जो एक तेली महिला को चमत्कारी ढंग से मिलती है। वह महिला उस प्रतिमा को अपने घानी में स्थापित कर देती है। राजा जगत पाल को स्वप्न में उस प्रतिमा की जानकारी मिलती है और वह उसे प्राप्त कर मंदिर में पुनः स्थापित करता है। वही अब राजीवलोचन कहलाता है।

रिचर्ड जेंकिन्स राजा जगतपाल के रूप में रतनपुर के कलचुरी राजा के सामंत जगपाल देव को चिन्हित करते हैं। सामंत जगपाल देव द्वारा उत्कीर्ण कराये शिलालेख के आधार पर बताते हैं कि जगपाल का महल तुरार जो अब करा गाँव कहलाता है में था। जगपाल देव का विवाह दुर्ग के राजा की पुत्री से होने उपरांत वह दुर्ग में निवास करने लगता है। जेंकिन्स ने यह भी लिखा है कि तुरार नामक स्थान की उसे जानकारी नहीं है।

डॉ जे डी बेग्लर की रिपोर्ट

डॉ जे डी बेग्लर राजिम की यात्रा करने वाले प्रथम पुरातत्ववेता थे, इन्होने सन 1871-72 में यात्रा कर आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के जर्नल में रिपोर्ट प्रकाशित किया था। राजिमलोचन मंदिर के पुजारियों ने इन्हें गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति नहीं दी थी और बाहर ही गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा की जानकारी दी थी। इन्होने राजिम को राजम लिखा है और बताया है कि पूर्वकाल में राजिम मेला 3 माह का होता था जो अब घटकर 1 माह का हो गया है। इन्होने ने अपने रिपोर्ट में लिखा है – There are numerous temples in the city, several forming a group of which the principal is known as shrine of Rajib Lochan or Ramachandra. In this temple i was told is enshrined a black stone statue representing a cross – legged seated feagure, with one hand resting on the thigh, the other held horizontally below the chest, it is known as reprentation of Rama in his form of Raja Lochan, but from it is close resemblance in buddhist statue in genaral. यह वर्णन उस बुद्ध प्रतिमा का है जो अब मंदिर प्रांगण में है और इसे राजा जगतपाल कहा जाता है।

राजीव लोचन मंदिर के मंडप में स्थापित बुद्ध प्रतिमा

डॉ बेग्लर मानते हैं कि राजम का नामकरण राजबा तेलिन के नाम पर हुआ है जो नारायण की नियमित उपासना करती थी और उसे नारायण प्रतिदिन दर्शन देते थे। 12 वर्ष पूर्ण होने पर नारायण ने उसे वरदान मांगने कहा तब राजम ने कहा – ” My lord, stay here always and let my name precede yours’ ” hence rajba telin’s name is first uttered in pronouncing the name of Rajib Lochan. डॉ बेग्लर ने राजिम के मंदिरों में शालभंजिका की मूर्तियों का विशेष रूप से उल्लेख किया है जो सामान्यतः बुद्ध मंदिरों में दिखाई देती है।

डायरेक्टर जनरल सर एलेग्जेंडर कन्निंघम की रिपोर्ट

दोनों अंग्रेज अधिकारियों के रिपोर्ट के बाद आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल सर एलेग्जेंडर कन्निंघम सन 1881-82 में राजिम की यात्रा कर अपनी रिपोर्ट प्रकाशित किये थे, जिसका सारांश निम्नानुसार है –
1 – राजीवलोचन अर्थात कमल नयन राम को सम्बोधित उपाधि है विष्णु को नहीं इसलिए यह सम्बोधन प्राचीन न होकर अर्वाचीन है तथा विष्णु को ही समर्पित है।
2 – राजीव तेलिन द्वारा काला पाषाण राजा जगतपाल को समर्पित किया गया था इसलिए दोनों के बीच हुए अनुबंध के अनुसार राजीव तेलिन के नाम पर राजीवलोचन नामकरण हुआ है।
3 – राजीव तेलिन चांदा निवासी, तेल व्यापारी विधवा थी। वह पाषाण खंड का उपयोग अपने व्यापार में तुला के भार के रूप में करती थी। राजा जगतपाल द्वारा विग्रह प्राप्ति के लिए बदले में धन / स्वर्ण का प्रस्ताव देने पर राजीव तेलिन ने “रानी की नथ” मांग ली थी तथा मंदिर के नाम के साथ अपना नाम जोड़ने का शर्त रखी थी।
4 – विग्रह को राजा को सौंपने तथा मंदिर निर्माण उपरांत राजीव तेलिन चांदा से राजिम आकर मंदिर के सामने जिस स्थान पर निवास करती है, उसी स्थान पर राजीव तेलिन का मंदिर बना हुआ है।
5 – भविष्योत्तर पुराण के महात्मय के अनुसार प्राचीनकाल में राजिम नगर कमल क्षेत्र या पद्मपुर कहलाता था जिसका भावार्थ कमल ही है। सर रिचर्ड जेंकिन्स के रिपोर्ट में वर्णित है कि ओड़िया ब्राह्मण कमल क्षेत्र और बनारस के ब्राह्मण पद्मपुर कहते हैं।
6 – रामचंद्र के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़े जाने वाले प्रसंग को अमान्य करते हुए पंडे-पुजारियों द्वारा गढ़ी गई कहानी बताया है।
7 – तीवर देव के ताम्रलेख, विलासतुंग के शिलालेख तथा जगपाल देव के शिलालेख के आधार पर मंदिरों का निर्माण 5 वीं सदी से 12 वीं सदी तक होना मान्य किया।

श्रीमद्राजीवलोचनमहात्मय – पं चंद्रकांत पाठक

इस संस्कृत ग्रन्थ हिंदी टीका सहित की रचना पं चंद्रकांत पाठक ने फिंगेश्वर के तत्कालीन शासक दलगंजन शाह जी के पूर्वजों की वंशावली लिखने के लिए किया था। इसमें सतयुग में राजा रत्नाकर द्वारा राजिम में विष्णु यज्ञ किये जाने सहित अनेक पौराणिक कथाओं का वर्णन है जिसे राजिम के माहात्म्य से जोड़ा गया है। पूरे ग्रन्थ में राजिम / राजीव / राजिबा तेलिन का कोई उल्लेख नहीं है। यह ग्रन्थ सन 1915 में प्रकाशित हुआ था।

श्री राजीव क्षेत्र महात्मय – पं सुंदरलाल शर्मा

बताया जाता है कि सुंदरलाल शर्मा जी सन 1898 में पं शिवराज द्वारा रचित हिंदी पद्य संग्रह का संपादन किया था जो 1915 में प्रकाशित हुआ था। ग्रन्थ में शिव-पार्वती के संवाद के माध्यम से 6 अध्यायों में राजिम और पंचकोशी परिक्रमा के देवालयों का महात्मय वर्णित है। इसमें तेलिन का नाम राजिम उल्लेखित है, उसे महानदी में ही काला पाषाण घिसकर चिकने हुए विग्रह प्राप्त होता है। इसमें जगतपाल द्वारा निर्मित मंदिर में राजिम का नाम जोड़ा जाना उल्लेखित है। इस ग्रन्थ में कांकेर के कंडरा राजा द्वारा प्रतिमा को कांकेर ले जाने के प्रयास का वर्णन है जिसके अनुसार कंडरा राजा की नाव धमतरी के रुद्री में भंवर में फंसकर नाव के डूब जाने, प्रतिमा का नदी जल में बहकर राजिम पहुंचने तथा वही प्रतिमा राजिम तेलिन को मिलने का उल्लेख है।

राजिम – डॉ विष्णु सिंह ठाकुर

राजिम के इतिहास, पुरावैभव और कला को आलोकित करने का कार्य डॉ विष्णु सिंह ठाकुर ने “राजिम” पुस्तक में किया है। इन्होने अपनी पुस्तक में तेलिन का नाम राजिम ही स्वीकार किया है और विष्णु के विग्रह प्राप्ति के प्रसंग में पृष्ठ 6 में लिखते हैं – “जमीन से बाहर निकालने पर साधारण शिलाखंड के स्थान पर चतुर्भुज विष्णु का श्यामवर्ण श्री विग्रह निकलता है।” आगे लिखते हैं ” राजा जगतपाल को स्वप्न में मंदिर बनाने का आदेश मिला था। मंदिर निर्माण उपरांत राजिम तेलिन की प्रतिमा की ख्याति सुनकर उसकी प्रतिमा को मंदिर में प्रतिष्ठित करने का संकल्प जागृत हुआ।” आगे लिखते हैं – ” यह वचन लेकर कि भगवान के नाम के आगे उसका नाम चलेगा वह मूर्ति दे दी। उसी दिन से भगवान राजिमलोचन (राजीवलोचन) के नाम से पुकारे जाने लगे और उसका यह पवित्र धाम राजिम कहलाने लगा।” इन्होने राजीवलोचन अर्थात नीलकमल के समान नेत्र वाले अर्थात विष्णु व्याख्यायित किया है। वे पृष्ठ 62 में लिखते हैं – “राजिम लोचन देवनाम की प्रसिद्धि तथा उस देवनाम से राजिम स्थान नाम के प्रचलन से सम्बंधित मान्य अनुश्रुति का विषय “राजिम अथवा राजम” नामक तेलिन के जीवन पर आधारित कथा प्रसंग है।”

राजीव लोचन भगवान की प्रतिकृति

डॉ विष्णु सिंह ठाकुर ने सर रिचर्ड जेंकिन्स द्वारा भविष्योत्तर पुराण से सम्बंधित संकलित अनुश्रुति के राजा राजू लोचन का अनुवाद राजा राजीवनयन किया है जो इस कहानी में नया नाम है लेकिन इन्होने मकर संक्रांति पर्व पर वार्षिक उत्सव के आयोजन के अनुवाद को छोड़ दिया है। वे पृष्ठ 66 में लिखते हैं – ” इसमें संशय नहीं कि वर्तमान में राजीवलोचन के नाम से सम्बोधित की जाने वाली विष्णु प्रतिमा का समीकरण लोग राम के रूप में करते हैं, पर यह मात्र अज्ञानता का परिणाम है।” डॉ विष्णु सिंह ठाकुर ने अपनी पुस्तक में वैष्णव और शैव देवों के साथ जैन, बौद्ध और साक्त प्रतिमाओं का वर्णन किया है जो अन्य लेखकों की पुस्तकों में नहीं है |

राजिम दर्शन – श्री राजीवलोचन मंदिर ट्रस्ट समिति

श्री राजीवलोचन मंदिर ट्रस्ट समिति द्वारा श्रद्धालुओं के लिए “राजिम दर्शन” पुस्तिका प्रकाशित की है। इस पुस्तिका के अधिकांश लेख डॉ विष्णु सिंह ठाकुर की पुस्तक पर आधारित है। इस पुस्तिका में सतयुग के राजा रत्नाकर और कांकेर के कंडरा राजा का प्रसंग भी उल्लेखित है। इसमें विशेष उल्लेखनीय राजिम तेलिन की जीवनी है जिसमें लिखा गया है – कमल क्षेत्र पद्मावती पुरी में राजिम नाम की एक तेलिन रहती थी जो भगवान की अनन्य भक्त थी। कंडरा राजा के द्वारा मूर्ति ले जाने पर वह अत्यधिक दुखी थी। नित्य मूर्ति विहीन मंदिर में प्रवेश करती और अपने प्रेमाश्रु से मंदिर को तृप्त कर भगवान शंकर जी का, त्रिवेणी संगम में दर्शन करती थी। एक दिन भगवान शंकर के दर्शनार्थ जाती हुई उसके पैर के ठोकर से नीचे की सीढ़ी खिसक जाने पर उसे थोड़ा सा भाग एक चिकनी शिला दिखाई पडी। अपने हाथ से वह खुद रेत हटाई। उसे विदित हुआ कि शिला बहुत बड़ी तथा गोल और चिकनी है। यह घानी (तेल निकालने का प्राचीन यंत्र) के ऊपर रखने लायक है। ऐसा सोचकर भगवान शंकर के दर्शन करने के बाद वापस घर आकर अपने परिवार तथा अन्य लोगों को बतलाई। वह अन्य लोगों के साथ शिला को घर ले आई और ऊखल ( जिसके भारीपन और रगड़ से तेल निकलता है, यह लकड़ी का बना होता है) पर रखवा दी।”

इस पुस्तिका में जगपाल देव के शिलालेख में मंदिर को लोकार्पित किये जाने की तिथि “माघ शुक्ल अष्टमी (रथ अष्टमी) ” के दिन समिति द्वारा कोई विशेष आयोजन न किया जाना आश्चर्यजनक है क्योंकि वर्ष भर में सभी पर्वों पर आयोजन का वर्णन है।

छत्तीसगढ़ के दुर्लभ ऐतिहासिक सन्दर्भ – आचार्य रमेन्द्रनाथ मिश्र

राज्य के वरिष्ठ इतिहासकार डॉ रमेन्द्रनाथ मिश्र ने राजिम के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी इस पुस्तक में दी है। इन्होने राजिम के नामकरण से सम्बंधित नए तथ्य का उद्घाटन किया है। इनका कथन है कि श्री बालचंद्र जैन को रायपुर के किसी महाराज नामक व्यक्ति का शिलालेख प्राप्त हुआ है जिसमें उसके द्वारा राजीवनयन नामक स्थान में जगन्नाथ का एक मंदिर बनाया जाना उल्लेखित है। उस स्थान को बालचंद्र जैन द्वारा राजिम माना गया है।

आचार्य जी ने पृष्ठ 70 में लिखा है – पूर्वकाल में राजिम में सभी जातियों के लोगों का समागम होता था और सब लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ भोजन करते थे किन्तु भगवान राजीवलोचन ने वह प्रथा बंद कर देने के लिए मंदिर के मुख्य पंडा को स्वप्न में दर्शन देकर आदेश दिया क्योंकि राजिम में सभी इच्छाओं की पूर्ति हो जाने के कारण बहुत कम लोग जगन्नाथ के दर्शन के लिए पुरी की यात्रा पर जाते हैं। कहा जाता है कि तब से वह प्रथा बंद कर दी गई है।

आचार्य जी ने पृष्ठ 74 में लिखा है – ” राजीवा चांदा की रहने वाली थी वह विधवा थी और उसके पास काले रंग का पाषाण था जिसे वह बाँट की तरह उपयोग करती थी। इस पत्थर के बारे में ही जगतपाल को स्वप्न आया था और उसने इसे तेलिन से प्राप्त कर मंदिर में स्थापित किया था। बताया जाता है कि वही पत्थर आज भी भगवान राजीवलोचन प्रतिमा के पास स्थापित है।” आचार्य जी के इस कथन की पुष्टि सन 1965 में मध्यप्रदेश शासन द्वारा प्रकाशित रायपुर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर से भी होती है जिसमें वह विग्रह विष्णु प्रतिमा के पास थाली में रखा होना लिखा है।

पद्मश्री अरुण कुमार शर्मा जी का मत

राजिम में विगत कुछ वर्षों से पुरातात्विक उत्खनन का कार्य पद्मश्री अरुण कुमार शर्मा जी के मार्गदर्शन में चल रहा था। उत्खनन में अनेक ऐसे पूरा अवशेष मिले हैं जिसमें मातृकादेवी की प्रतिमा भी शामिल है। इन अवशेषों के आधार पर कहा जाता है कि राजिम की प्राचीन सभ्यता सिंधुघाटी की सभ्यता के समकालीन है और तब से अब तक महानदी की बाढ़ से 4 बार सभ्यता का विनाश और विकास हुआ है। आशा कर सकते हैं कि आगामी दिनों में अधिक साक्ष्य मिलेंगे।

इस कहानी पर लेखक की दृष्टि

राजिम पर उपलब्ध सभी साहित्यों के लेखकगण पूर्णतः या अंशतः सहमत हैं कि स्थान और देव का नामकरण एक तेलिन महिला के नाम पर हुआ है जो राजिम या चांदा निवासी थी, सधवा थी या विधवा थी। उस महिला को किसी ने राजू, राजीव, राजबा, राजिबा या राजिम नाम से सम्बोधित किया है यह संकेत करता है कि उससे सम्बंधित अनेक कहानियां प्रचलित रही होगी लेकिन किसी भी कहानी में उसके पारिवारिक जीवन पर प्रकाश नहीं पड़ा है।| राजिम लोचन मंदिर परिसर में तेलिन भक्तिन मदिर है जिसमें एक शिला स्तम्भ पर एक भद्र स्त्री और पुरुष तथा उनके दोनों बाजु में एक – एक परिचारिका का चित्र उकेरा गया है। इस स्तम्भ में तेल निकालने के परंपरागत यंत्र घानी के साथ – साथ अर्ध चंद्र और सूर्य भी उकेरा गया है।

विद्वानों का मानना है कि यह राजिम तेलिन का सती स्तम्भ है और इसी स्थान पर वह सती हुई थी लेकिन उसके साथ पद्मासन मुद्रा में बैठे भद्र पुरुष कौन है? क्या वह राजिम तेलिन का पति है? यदि वह पति है तब तो राजिम तेलिन विधवा नहीं बल्कि सधवा महिला थी। किसी विद्वान् से राजिम तेलिन को मिले विग्रह को साधारण काला पाषाण बताया है तो किसी ने घिसकर चिकने हो चुके विष्णु का विग्रह तो किसी ने चतुर्भुजी प्रतिमा बताया है जो वर्तमान में मंदिर के गर्भगृह में स्थापित हैं। कुछ ने लिखा है कि वह पाषाण खंड अभी भी गर्भ गृह में एक थाली में विष्णु प्रतिमा के पास रखा हुआ है। क्या वास्तव में अभी भी वह पाषाण विग्रह वहां रखा है? कुछ विद्वानों ने राजीवलोचन को राम के साथ विष्णु का सम्बोधन बताया है। निःसंदेह राजीवलोचन भगवान राम का ही नाम है जो विष्णु के 24 अवतारों में से एक हैं लेकिन विष्णु के सहस्त्र नामों में राजीवलोचन नहीं, सुलोचन और रविलोचन ही शामिल है अर्थात वह राम मंदिर नहीं विष्णु का ही मंदिर है। लोचन कमल को कहा जाता है जिसका सम्बन्ध विष्णु से है और विष्णु के एक अन्य अवतार माने गए बुद्ध से भी गहरा है।

राजिम मेला

बौद्ध ग्रंथों में ब्राह्मण ग्रंथों के त्रिरत्न अवतार (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) की तरह त्रिकाय वाद वर्णित है जिसमें बुद्ध के तीन कायों (रूपों) की व्याख्या है और इसके अनुसार ” साक्य मुनि गौतम बुद्ध को मानुषी, ध्यानमग्न बुद्ध को लोचन और निर्वाणी बुद्ध को वैरोचन कहा गया है।” निःसंदेह लोचन का सम्बन्ध बुद्ध, विष्णु और राम से है तथा राजिम का सम्बन्ध बुद्ध परंपरा से रहा है तभी तो मंदिर परिसर में बुद्ध की भूमिस्पर्श मुद्रा की प्रतिमा उपस्थित है और मंदिर में अनेकों शालभंजिका की मूर्तियां लगाईं गई हैं।

राजीवलोचन मंदिर की भित्ति से प्राप्त जगपाल देव के शिलालेख को पढ़ने और प्रकाशित करने वाले डॉ किलहोर्न भी मानते हैं कि वास्तव में यह शिलालेख रामचंद्र मंदिर (वर्तमान में राम-जानकी मंदिर) का है जिसे किसी ने राजीवलोचन मंदिर में लगा दिया है। यह निश्चित है कि पूर्वकाल में राजिम तेलिन के पारिवारिक जीवन से सम्बंधित कहानी की जानकारी अनुश्रुति के रूप में प्रचलित रही होगी जहाँ से कई कहानियां निकली होगी। सर रिचर्ड जेंकिन्स ने जुड़ावन सुकुल नामक विद्वान द्वारा भविष्योत्तर पुराण का हिंदी अनुवाद किया जाना लिखा लेकिन अभी तक ऐसे किसी भविष्योत्तर पुराण की सूचना नहीं है जिसमें राजिम महात्मय वर्णित हो तथा वह हिंदी अनुवाद भी किसी को नहीं मिला है जो इस कथन को संदिग्ध बना देता है। अधिकांश साहित्यकारों ने राजिम तेलिन को अज्ञानी, मुर्ख महिला बताने का प्रयास किया है जिसे भगवान के विग्रह और साधारण पत्थर में भेद की समझ नहीं था तभी तो उस विग्रह का उपयोग घानी में या तराजू के बाँट के रूप में करती है। मेरी दृष्टि में इस तपस्विनी महिला को सामाजिक न्याय नहीं मिला है। अंततः तेलिन महिला को राजिम पुकारें या राजीव स्थान और देव का नामाकरण उसी के नाम पर होना ही स्वयं सिद्ध है |

राजिम मेला तब और अब – बदलता स्वरूप

राजिम मेला की अवधि डॉ बेग्लर के रिपोर्ट के अनुसार 3 महीने का होता था जो अब भी होता है लेकिन तब मेला अखंड होता था और अब खण्डों में। इसका प्रमुख कारण आवागमन के साधन में वृद्धि और जीवन शैली है। प्राचीनकाल में तीर्थ यात्री पैदल या बैल गाड़ी का उपयोग करते थे इसलिए यात्रा पूर्ण करने में अधिक समय लगता था अब स्वचालित वाहनों और हवाई जहाज का उपयोग होने से यात्रा अवधि घट गई है। तब अक्टूबर – नवम्बर माह में फसल कट जाने के बाद किसान 4 माह विश्राम करता था इसलिए तीर्थ यात्रा के लिए पर्याप्त समय रहता था अब किसान दूसरा फसल लेता है। सन 1909 के रायपुर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर के अनुसार रायपुर के डिप्टी कमिश्नर ने राजिम मेला में लोक सेवा के लिए नगरपालिका को 200 रु का बजट स्वीकृत किया था अर्थात तब भी अखंड मेला की अवधि पर्याप्त होने का संकेत मिलता है। पूज्य स्व. जीवनलाल साव जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि 1946 में वे राजिम मेला गए थे तब संगम में कमर के आते तक अर्थात ढाई फुट से अधिक पानी भरा था लेकिन इतने वर्षों में नदी में रेत भर जाने के कारण संगम सूखा रहता है और मेला के दौरान गंगरेल बाँध से पानी छोड़ना पड़ता है।

राजिम का ओडिशा के पुरी धाम से गहरा सम्बन्ध रहा है, इन दोनों स्थानों में विष्णु मंदिर के पुनर्निर्माण का कालखंड 12 सदी ही है। कुछ साहित्यों में राजिम को मुग़लकाल में चौथा धाम होने की चर्चा मिलती है जो सत्य प्रतीत होता है क्योंकि जगद्गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा पुरी में चौथे धाम (पीठ) के स्थापना के बाद वहां आक्रमण होने लगे थे और 15 वीं सदी के उत्तरार्ध से 18 वीं सदी तक पुरी 15 से अधिक आक्रमण होने के कारण अशांत था। तब श्रद्धालु राजिम धाम को ही चौथा धाम स्वीकार कर अपनी चारों धाम की यात्रा समाप्त करते रहे होंगे।

राजिम मेला में संतवृंद

ओडिशा के कुछ ऐतिहासिक ग्रंथों में इन आक्रमणों का विवरण मिलता है जिसके अनुसार पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रथम आक्रमण राष्ट्रकूट राजा गोविंदा के सेनापति रक्तबाहु ने सन 839 में किया था। इस काल में राष्ट्रकूटों ने सम्बलपुर के आसपास राज्य स्थापित कर लिया था। उस आक्रमण से ध्वंस हुए जगन्नाथ मंदिर का पुनर्निर्माण वर्मन वंश के शासकों ने 12 सदी में कराया था। इसके लगभग 100 वर्षों बाद मुग़ल शासकों के सेनापतियों द्वारा आक्रमणों का क्रम प्रारम्भ हो जाता है।

सन 1340 में मुग़ल सेनापति इलियास सुल्तान, सन 1360 में फिरोज तुगलक ने आक्रमण किया। लगभग 150 वर्षों की शांति के बाद सन 1509 में इस्माइल गाजी और सन 1568 में कालापहाड़ ने आक्रमण कर पुरी को तहस-नहस कर दिया था जो वीभत्स आक्रमण था। सन 1592 में सुलेमान, सन 1601 में इस्माइल खान, सन 1607 में मिर्ज़ा खुर्रम तथा सन 1609 में कासिम खान ने आक्रमण किया था। केवल मुसलमान ही नहीं कुछ हिन्दू राजाओं और सेनापतियों ने भी जगन्नाथ पुरी में आक्रमण किया था, जिसमें सन 1610 में केशवदास मारु एवं अकबर बादशाह के नवरत्नों में से एक रत्न टोडरमल जो अवध का राजा था के पुत्र कल्याणमल ने सन 1611 और 1612 में दो बार आक्रमण किया था।

मुग़ल सेनापति मुकर्रम खान ने सन 1617, मिर्ज़ा अहमद बेग ने 1621, मिर्ज़ा मक्की ने सन 1641, अमीर फ़तेह और मत्वकाह खान ने सन 1647, इकराम खान और मस्तराम ने 1692, मुहम्मद तकी ने सन 1731 तथा दशरथ खान ने सन 1733 में आक्रमण कर लूटपाट किये थे। इनमें से केवल कालापहाड़ को ही जगन्नाथ मंदिर का दारु ब्रह्म (काष्ठ प्रतिमा) हाथ लगा था, जिसे वह बंगाल ले जाकर गंगा किनारे जलाकर नष्ट करने का प्रयास किया लेकिन विफल रहा था। पुरी सहित ओडिशा सन 1751 में मराठों के अधीन में आया था तब उन्होंने पुरी के मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया था। ब्रिटिश काल में सन 1881 में “अलेख पंथ” के अनुयायियों ने पुरी के मंदिरों में हमला कर लूटपाट करने का प्रयास किया था, लेकिन वे पकड़ लिए गए थे।

निःसंदेह लगभग 300 वर्षों के अशांति काल में चारोधाम के श्रद्धालुओं को राजिम में ही संतुष्टि मिली होगी। आचार्य रमेन्द्रनाथ मिश्र ने राजिम में प्रचलित सामूहिक भोज की प्रथा को बंद करने का उल्लेख किया है जो शांति स्थापित होने के बाद की घटना होगी। वर्तमान में राजिम में 3 महीना का पर्व चलता है जो मकर संक्रांति के एक दिन पूर्व पटेवा के पटेश्वर महादेव से प्रारम्भ होता है और फाल्गुन के रंग पंचमी तक चलता है।

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पूर्व राजिम मेला के दौरान कोई सरकारी आयोजन नहीं होता था किन्तु राज्य बनने के बाद “राजीवलोचन महोत्सव” प्रारम्भ हुआ था। 2004 में सरकार बदलने के बाद यह आयोजन “संत समागम” कहा जाने लगा और सरकारी खर्चे में साधु-संतों को आमंत्रित किया जाने लगा। सन 2010 में संत समागम को बदलकर “राजिम कुंभ” नाम दिया गया। इस नाम पर पुरी के शंकराचार्य जगद्गुरु निश्चलानंद सरस्वती जी की असहमति थी। उन्हें संतुष्ट करने 2014 में सरकारी आयोजन का नाम बदलकर “राजिम कुंभ कल्प” किया गया। 2019 में सरकार बदलने पर ” राजिम कुंभ कल्प ” का नाम बदलकर “माघी पुन्नी मेला” कर दिया है जो तर्कपूर्ण और न्यायोचित नहीं है क्योंकि राजिम मेला माघ पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर महाशिवरात्रि तक अखंड चलता है। वैसे भी पूर्णिमा के दिन सभी नदियों के किनारे के देवालयों में पर्व स्नान और मेला का आयोजन होता है जिसे “पुन्नी मेला” ही कहा जाता है। इस दृष्टि से विगत दो वर्षों में राजिम के सांस्कृतिक वैभव का अवनयन ही हुआ है। भगवान राजिमलोचन नीति निर्धारकों को सद्बुद्धि दे यही कामना है।

शोध आलेख

डॉ.घनाराम साहू, रायपुर छत्तीसगढ़ी संस्कृति एवं इतिहास के अध्येता

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