Home / अतिथि संवाद / स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्रध्यान : विशेष आलेख

स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्रध्यान : विशेष आलेख

२५ दिसम्बर को दुनियाभर में “क्रिसमस” पर्व की धूम रहती है। भारत में भी जगह-जगह क्रिसमस की शुभकामनाओं वाले पोस्टर्स, बैनर, ग्रीटिंग्स का वातावरण बनाया जाता है। किन्तु हे भारत ! क्या तुम्हें स्मरण है कि २५ दिसम्बर, हम भारतीयों के लिए क्या महत्त्व रखता है? इस बात को समझना होगा। २५ दिसम्बर भारतीय इतिहास का वह स्वर्णिम दिवस है जिसका अध्ययन, स्मरण और चिन्तन मात्र से हमारे भीतर अपने जीवन के उद्देश्य को टटोलने की प्रेरणा मिलती है। इसलिए हम भारतीयों को इस दिन के महत्त्व को जानना अति आवश्यक है।

तो घटना वर्ष १८९२ की है। अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीय के लोग अपनेआप को ‘भारतीय’ कहलाने में हीनता का अनुभव करते थे। एक ओर अंग्रेज जनसामान्य पर अत्याचार करते थे, तो दूसरी ओर ईसाई मिशनरियों के द्वारा भारत के ऋषि-मुनियों, संतों, देवी-देवताओं और सब धर्मग्रंथों को झूठा कहकर उसकी निन्दा की जाती थी। अंग्रेजों के अत्याचारों और शैक्षिक षड्यंत्रों के कारण भारतीय जनमानस अपने को ‘हिन्दू’ कहलाए जाने पर ग्लानि का अनुभव करते थे।

भारत की आत्मा ‘धर्म’ का अपमान इस तरह किया जाने लगा, कि उससे उबरना असम्भव-सा प्रतीत होने लगा। विदेशी शासन, प्रशासन, शैक्षिक और मानसिक गुलामी से ग्रस्त भारत की स्थिति आज से भी विकट थी। ऐसे में भारतीय समाज के इस आत्माग्लानि को दूर करने के लिए एक २९ वर्षीय युवा संन्यासी भारत की आत्मा को टटोलने के लिए भारत-भ्रमण के लिए निकल पड़ा। यह संन्यासी संस्कृत के साथ ही अंग्रेजी भाषा का भी ज्ञाता था।

भारतीय संस्कृति, इतिहास, धर्म, पुराण, संगीत का ज्ञाता तो था ही, वह पाश्चात्य दर्शनशास्त्र का भी प्रकाण्ड पंडित था। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न संन्यासी को पाकर भारतवर्ष धन्य हो गया। ऐसा लगता है जैसे, इतिहास उस महापुरुष की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था; भारतमाता अपने इस सुपुत्र की बाट निहार रही थी जो भारतीय समाज के स्वाभिमान को जगाकर उनमें आत्मविश्वास का अलख जगा सके। यह वही युवा संन्यासी है जिसे सारा विश्व स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानती है; जिन्होंने मात्र ३९ वर्ष की आयु में अपने ज्ञान, सामर्थ्य और कार्य योजना से सम्पूर्ण विश्व को ‘एकात्मता’ के सामूहिक चिन्तन के लिए मजबूर कर दिया।

अपने २९ वर्ष की आयु में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर स्वामी विवेकानन्द ने भारत की स्थिति को जाना। भारत-भ्रमण के दौरान वे गरीब से गरीब तथा बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं से मिले। उन्होंने देखा कि भारत में एक ओर धनवानों की टोली है, तो दूसरी ओर दुःखी, असहाय और बेबस जनता मुट्ठीभर अन्न के लिए तरस रहे हैं। विभिन्न जाति, समुदाय और मतों के बीच व्याप्त वैमनस्य को देखकर स्वामीजी का हृदय द्रवित हो गया। भारत में व्याप्त दरिद्रता, विषमता, भेदभाव तथा आत्म-ग्लानि से उनका मन पीड़ा से भर उठा।

भारत की इस दयनीय परिस्थिति को दूर करने के लिए उनका मन छटपटाने लगा। अन्त में वे भारत के अन्तिम छोर कन्याकुमारी पहुँचे। देवी कन्याकुमारी के मन्दिर में माँ के चरणों से वे लिपट गए। माँ को उन्होंने शाष्टांग प्रणाम किया और भारत की व्यथा को दूर करने की प्रार्थना के साथ वे फफक-फफक कर रोने लगे।

भारत के पुनरुत्थान के लिए व्याकुल इस संन्यासी ने हिंद महासागर में छलांग लगाई और पहुँच गए उस श्रीपाद शिला पर जहाँ देवी कन्याकुमारी ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तप किया था। २५, २६ और २७ दिसम्बर, १८९२ को, तीन दिन-तीन रात बिना खाए-पिए वे ध्यानस्थ हो गए। यह ध्यान व्यक्तिगत मुक्ति या सिद्धियों की प्राप्ति के लिए नहीं था, वरन भारत के गौरवशाली अतीत, तत्कालीन दयनीय परिस्थिति और भारत के उज्जवल भविष्य के लिए किया गया तप था।

भारत के खोए हुए आत्मविश्वास और खोयी हुई आत्मश्रद्धा को पुनः प्राप्त करने की व्यापक योजना स्वामी विवेकानन्द ने इसी समय बनाई थी। यह वही राष्ट्रध्यान था जिसके प्रताप से स्वामीजी ने विश्व का मार्गदर्शन किया। स्वामी विवेकानन्द ने बाद में बताया कि उन्हें इस ध्यान के द्वारा उनके जीवन का ध्येय प्राप्त हुआ। भारत के ध्येय को अपना जीवन ध्येय बनाकर स्वामीजी ने आजीवन कार्य किया।

उन्होंने ११ सितम्बर, १८९३ को अपने केवल ०७ मिनट के छोटे-से भाषण से सम्पूर्ण विश्व का हृदय जीत लिया। पश्चिमी समाज को अपने ओजस्वी वाणी से प्रभावित करनेवाले स्वामीजी ने भारत का एक बार पुनः प्रवास किया और देशवासियों को सम्बोधित किया। भारत में दिए गए उनके व्याख्यानों को संकलित कर उसे पुस्तक रूप में रामकृष्ण मठ ने प्रकाशित किया गया।

यह पुस्तक अंग्रेजी भाषा में “कोलम्बो टू अल्मोड़ा”, हिन्दी में “भारतीय व्याख्यान” और मराठी में “भारतीय व्याख्याने” नाम से उपलब्ध है। स्वामीजी के ही भाषणों ने देश में क्रान्तिकारियों को जन्म दिया। सुभाषचन्द्र बोस हो या सावरकर, तिलक हो या महात्मा गांधी, ऐसा कोई भारतभक्त नहीं जिन्होंने स्वामीजी से प्रेरणा नहीं पायी।

२५ दिसम्बर का दिन वास्तव में प्रत्येक भारतीयों को देश-धर्म के कार्य की प्रेरणा देता है। भारत के ध्येय को अपना ध्येय बनाने का विचार देता है। आइए, स्वामी विवेकानन्द के राष्ट्रध्यान के शुभ दिन पर सम्यक संकल्प लेकर राष्ट्र पुनरुत्थान के कार्यों में अधिकाधिक सहभागिता का निश्चय करें। क्योंकि भारत के पुनरुत्थान में ही विश्व का कल्याण है।

आलेख

लखेश्वर चंद्रवंशी ‘लखेश‘, वरिष्ठ पत्रकार एवं अध्येता नागपुर

About hukum

Check Also

वनवासी युवाओं को संगठित कर सशस्त्र संघर्ष करने वाले तेलंगा खड़िया का बलिदान

23 अप्रैल 1880 : सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी तेलंगा खड़िया का बलिदान भारत पर आक्रमण चाहे सल्तनतकाल …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *