छेरछेरा त्यौहार छत्तीसगढ़ का लोक पर्व है । अंग्रेज़ी के जनवरी माह में व हिन्दी के पुष पुन्नी त्यौहार छेरछेरा को मनाया जाता है। त्यौहार के पहले घर की साफ़-सफ़ाई की जाती है। छत्तीसगढ़ में धान कटाई, मिसाई के बाद यह त्यौहार को मनाया जाता है। यह त्यौहार छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध त्यौहार है जो अन्न सुरक्षा, मेल-मिलाप का त्यौहार है। किसान धान को मिसकर सुरक्षित अपने घर में रख देता है। यह त्यौहार अन्न सुरक्षा को दर्शाता है।
इस त्यौहार के दिन, बच्चों से लेकर बड़ों तक घर-घर जाकर छेरछेरा मांगा जाता है। इसमें धान या अन्न दान किया जाता है। अमीर-गरीब सभी के घर जाकर छेरछेरा (अन्न) मांगा जाता है। यह दिन समानता का दिन होता है। इस दिन कोई अमीर-गरीब व कोई छूआ-छूत नहीं होता है। इस वाक्य को सभी घर में बोलते हैं- ‘छेरछेरा, कोठी के धान ला हेरहेरा’
पौष पूर्णिमा को गांव के लोग बाजा गाजा के साथ छेरछेरा मांगते हैं और छोटे बच्चे सुबह से झूला एवं चुरकी पकड़ कर, घर-घर जाकर छेरछेरा बोलते हैं। फिर बच्चों को धान या पैसा देकर विदा किया जाता है। छेरछेरा के दिन मांगने वाला याचक यानी ब्राह्मण के रूप में होता है, तो देने वाली महिलाएं शाकंभरी देवी के रूप में होती है।
छेरी शब्द छै+अरी से मिलकर बना है। मनुष्य के छह शत्रु होते है- काम, क्रोध, मोह, लोभ, तृष्णा और अहंकार है। बच्चे जब कहते हैं “छेरिक छेरा छेर बरतनीन छेर छेरा” तो इसका अर्थ है कि “हे बरतनीन (देवी), हम आपके द्वार में आए हैं। माई कोठी के धान को देकर हमारे दुख व दरिद्रता को दूर कीजिए।”
ऐसे शुरू हुआ छेरछेरा त्यौहार
जनश्रुति है कि एक समय धरती पर घोर अकाल पड़ा- यह अन्न, फल, फूल व औषधि नहीं उपज पाई। इससे मनुष्य के साथ जीव-जंतु भी हलाकान हो गए। सभी ओर त्राहि-त्राहि मच गई। ऋषि-मुनि व आमजन भूख से थर्रा गए। तब आदि देवी शक्ति शाकंभरी को पुकारा गया। शाकंभरी देवी प्रकट हुई और अन्न, फल, फूल व औषधि का भंडार दे गई। इससे ऋषि-मुनि समेत आमजनों की भूख व दर्द दूर हो गया। इसी की याद में छेरछेरा मनाए जाने की बात कही जाती है। ऐसे कहते है त्योहार के दिन शाकंभरी देवी हर माता में उपस्थित होती है।
छत्तीसगढ़ की दानशीलता जग जाहिर है। यहाँ के लोग स्वयं भूखे रहकर अतिथि और अभ्यागत की सेवा करते हैं। संतोष इनके इनके जीवन का प्रमुख गुण है। श्रम के साथ-साथ संतोषी स्वभाव इनका आभूषण है। इसलिए ये सहज और सरल है। ‘छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया‘‘ की उक्ति इनके इसी गुण के कारण चल पड़ी है
छेरछेरा अन्नदान का महापर्व है, जिसमें सभी लोग मालिक-मजदूर, छोटे-बडे़ सब बिना भेद भाव के परस्पर एक-दूसरे घर जाकर छेरछेरा नाचते हैं। इससे आदमी का अंहकार मिटने पर ही मनुष्य विनम्र बनता है। छेरछेरा नाचने से श्रेष्ठता या अंहकार तिरोहित हो जाता है। मांगने से विनम्रता आती है। अंहकार की भावना समाप्त हो जाती है। गाँव में छेरछेरा के दिन प्रत्येक घर में आवाज गूजँती है।
छेर छेरा गीत
छेरिक छेरा छेर बरकतीन छेरछेरा
माई कोठी के धान ल हेर हेरा।
अरन दरन कोदो दरन
जबे देबे तभे टरन।
धनी रे पुनी रे ठमक नाचे डुवा-डुवा
अंडा के घर बनाए पथरा के गुड़ी
तीर-तीर मोटियारी नाचे, माँझ म बूढ़ी।
धन रे पुनी रे ….
कारी कुकरी करकराय, पुसियारी सेय,
बुढ़िया ल पाठा मिले, मोटियारी रोय।
धनी रे पुनी रे …….
कबरी बिलई दऊड़े जाय, कुकुर पछुवाय,
बिलई ह टाँग मारय कुकुर गर्राय।
धनी रे पुनी रे ……
अन्नदान में विलम्ब होते देख बच्चे फिर गाते हैं –
छेरिक छेरा छेर बरकतीन छेरछेरा
माई कोठी के धान ल हेर हेरा
अरन-दरन कोदो दरन
जभे देबे तभे टरन।
एक बोझा राहेर काड़ी दू बोझा काँसी
पिंजरा ले सुवा बोले,मन हे उदासी।
तारा ले तारा लोहाटी तारा
जल्दी-जल्दी बिदा कारो जाबो दूसर पारा।
छेरिक छेरा छेर बरकतीन छेरछेरा, माई कोठी के धान ल हेरहेरl
पौराणिक मान्यता के अनुसार इस दिन भगवान शंकर ने माता अन्नपूर्णा से भिक्षा मांगी थी, इसलिए लोग धान के साथ साग-भाजी, फल का दान भी करते हैं। महादान और फसल उत्सव के रूप त्यौहार मनाया जाने वाला छेरछेरा तिहार हमारी समाजिक समरसता, समृद्ध दानशीलता की गौरवशाली परम्परा का संवाहक है।
छत्तीसगढ़ के किसानों में उदारता के कई आयाम दिखाई देते हैं। यहां उत्पादित फसल को समाज के जरूरतमंद लोगों, कामगारों और पशु-पक्षियों के लिए देने की परम्परा रही है। छेरछेरा का दूसरा पहलू आध्यात्मिक भी है, यह बड़े-छोटे के भेदभाव और अहंकार की भावना को समाप्त करता है, हमारी समृद्ध सभ्यता और परंपराओं से भावी पीढ़ी का परिचय कराना हम सबका दायित्व है।
आलेख
बहुत सुंदर आलेख
🙏🙏👍👌👏🌷🌷
अब्बड़ सुग्घर छेरछेरा👌👌👌👌