Home / सप्ताह की कविता / शर्म आ रही है उन पर : सप्ताह की कविता

शर्म आ रही है उन पर : सप्ताह की कविता

शर्म आ रही है उन्हें देख कर ,
जो शर्म बेच खाए हैं।
कल ही की तो बात है,
जो वंदे मातरम नहीं गाए हैं ।

और उन पर भी,
जो बात बात में,
बाँट कर जात पात में ।
संसद के भीतर ,बे कदर
नारे बहुत लगाये हैं ।

शर्म आ रही है उन पर,
जो घटिया मानसिकता से
दूधमुँहे बच्चों से भी ,
प्रतियोगिता के नाम पर ,
भड़कीले नृत्य करवाये हैं।

शर्म आ रही है,
उस फैशन पर,
जिसमें सारा अंग,
झलकता है ।
देवियों के जिस्म से ,
मादकता छलकता है।
किसको किसको कहे यारों,
बूढ़े भी अब बौराये हैं ।

शर्म आ रही है,
उस विकास पर।
जंगलों के ,
महाविनाश पर।
सूखती नदियां, फैलते बंजर ,
दिशाहीन पसरते शहर।
आदरणीयों ने
हरियाली के नाम पर।
सिर्फ दो ठूँठ ही लगाये हैं ।

शर्म आती है उन ,
कलमों पर,
जो पता नहीं,
क्यों मुखरित हो कर।
या हरदम
विष वमन कर ।
गरीबों के आड़ में,
कंगूरों के ही गीत गाए हैं।
शर्म आती है उन्हें देखकर,
जो शर्म बेच खाये हैं।

सप्ताह के कवि

चोवा राम वर्मा ‘बादल’
हथबंद, छत्तीसगढ़

About hukum

Check Also

कैसा कलयुग आया

भिखारी छंद में एक भिखारी की याचना कैसा कलयुग आया, घड़ा पाप का भरता। धर्म …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *