Home / पुस्तक चर्चा / छत्तीसगढ़ के लोक-देवता पर पहला उपन्यास : देवी करिया धुरवा

छत्तीसगढ़ के लोक-देवता पर पहला उपन्यास : देवी करिया धुरवा

दुनिया के अधिकांश ऐसे देशों में जहाँ गाँवों की बहुलता है और खेती बहुतायत से होती है, जहाँ नदियों, पहाड़ों और हरे -भरे वनों का प्राकृतिक सौन्दर्य है, ग्राम देवताओं और ग्राम देवियों की पूजा-अर्चना वहाँ की एक प्रमुख सांस्कृतिक विशेषता मानी जाती है। सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, अग्नि, वायु, जल और वर्षा की चमत्कारिक प्राकृतिक शक्तियों ने इन्हें भी प्राचीन काल से ही लोक-मानस में देवताओं और देवियों के रूप में प्रतिष्ठित किया। चाहे नील नदी और सहारा रेगिस्तान का देश मिस्र हो या अफ्रीकी महाद्वीप के छोटे-बड़े देश, चाहे एशिया महाद्वीप का चीन हो या भारत, सभी देशों में स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर के उनके अपने-अपने देवी-देवता होते हैं।

प्राचीन भारतीय संस्कृति में तो नदियों और पहाड़ों को और वनों को भी देवी -देवता के रूप में पूजा जाता है और मानव समाज के प्रति उनके अमूल्य और अतुलनीय योगदान के लिए उनके प्रति आभार प्रकट किया जाता है। राजतंत्र के जमाने में प्रत्येक राजवंश के स्वयं के कुल देवता और कुल-देवियाँ हुआ करती थी।

हर गाँव और ग्राम समूहों के अपने देवी -देवता 

कृषि प्रधान भारत के ग्रामीण परिवेश वाले राज्य छत्तीसगढ़ में भी लगभग हर गाँव के और ग्राम समूहों के अपने देवी -देवता हैं। छत्तीसगढ़ के लोक देवता करिया धुरवा और उनकी पत्नी करिया धुरविन यानी राजकुमारी देवी कुंअर  की जीवन गाथा इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिन्हें  महासमुंद जिले की तत्कालीन कौड़िया की ज़मींदारी रियासत में जनता के बीच और विशेष रूप से आदिवासी समाज में देवी -देवता के रूप में अपार प्रतिष्ठा मिली। आगे चलकर एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में उन्हें कौड़िया का शासक (राजा) बनाया गया। 

अर्जुनी में है करिया धुरवा का मंदिर 

उनका बहुत प्राचीन और इकलौता मंदिर राजधानी रायपुर से तक़रीबन 100 किलोमीटर और तहसील मुख्यालय पिथौरा से लगभग छह किलोमीटर पर ग्राम अर्जुनी में स्थित है। मुम्बई-कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 53 के किनारे ग्राम मुढ़ीपार से होकर अर्जुनी की दूरी सिर्फ़ दो किलोमीटर है। हर साल अगहन पूर्णिमा के मौके पर जन-सहयोग से तीन दिवसीय भव्य मेले का आयोजन किया जाता है।

अंचल के प्रसिद्ध उपन्यासकार शिवशंकर पटनायक की सशक्त लेखनी से करिया धुरवा की जीवन गाथा पहली बार उपन्यास के रूप में सामने आयी है। पिथौरा निवासी श्री पटनायक रामायण और महाभारत के पात्रों पर आधारित कई पौराणिक उपन्यासों के सिद्धहस्त लेखक हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी है, यह छत्तीसगढ़ के किसी लोक -देवता पर केन्द्रित पहला उपन्यास है। करिया धुरवा इस उपन्यास के नायक हैं, वहीं इसमें मानसाय और नोहर दस्यु जैसे अत्याचारी खलनायक भी हैं।

किंवदंतियों और कल्पनाओं का भी सहारा

लेखक ने उपन्यास को रोचक और प्रेरक बनाने के लिए जहाँ किंवदंतियों लोक -धारणाओं और कल्पनाओं का सहारा लिया है, वहीं कई प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकों का गहन अध्ययन करके भी उन्होंने कुछ तथ्यों को इसमें अपनी शैली में प्रस्तुत किया है। उपन्यास लिखने के पहले उन्होंने तथ्य -संकलन के लिए  करिया धुरवा मेला समिति के पदाधिकारियों और अंचल के अनेक प्रबुद्ध लोगों और इतिहासकारों से भी चर्चा की थी। उपन्यास के शुरुआती साढ़े छह पन्नों के वक्तव्य में लेखक ने उन सबके प्रति आभार प्रकट किया है। उपन्यासकार का  कहना है कि लोक मान्यताओं के अनुसार यह घटना 200 वर्ष पहले की है।

कोसल भूमि पर विस्तारित कथानक

यहाँ यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि तत्कालीन समय में, सैकड़ों वर्ष पहले भारत के अन्य भू भागों की तरह छत्तीसगढ़ भी अनेक छोटी -बड़ी रियासतों में बँटा हुआ था। इन रियासतों के भी अपने-अपने पूजनीय देवी-देवता हुआ करते थे। उस समय यह सम्पूर्ण विशाल भू -भाग कोसल और दक्षिण कोसल के नाम से भी जाना जाता था। उपन्यास का ताना-बाना इसी भू -भाग में रचा गया है

सिंहगढ़ के  प्रजा -वत्सल राजा प्रियभान 

उपन्यास की शुरुआत कोसल राज्य की सिंहगढ़ रियासत के प्रजा वत्सल राजा प्रियभान के आदर्श व्यक्तित्व और न्याय प्रिय तथा लोक कल्याणकारी प्रशासन के वर्णन से होती है। प्रियभान को उनके इस करुणामय व्यक्तित्व के कारण जनता ‘संत राजा ‘ के नाम से सम्बोधित करती है।

राजकुमारी का अपहरण 

रियासत में एक दिन संत राजा प्रियभान की पुत्री राजकुमारी देवी कुंअर का अपहरण हो जाता है। अपहरण की साजिश राजा के ही पालित पुत्र चन्द्रभान द्वारा रची जाती है, जो राजकुमारी को जहरीला प्रसाद खिलाकर बेहोश कर देता है और उसके तत्काल बाद महानदी की लहरों में डोंगी पर घात लगाकर बैठे नोहर नामक दस्यु के लोग उसे अगवा कर लेते हैं।

करिया धुरवा की धमाकेदार एंट्री 

तभी उस कोलाहल भरे दृश्य में करिया धुरवा की धमाकेदार एंट्री होती है और वह नदी में छलांग लगाकर पूरी ताकत से डोंगी को रोक लेता है। यह करिया धुरवा का गाँव है। बेहोश राजकुमारी को करिया के निवास में लाया जाता है। करिया के निर्देश पर उनके छोटे भाई सिंगा वनौषधियों से राजकुमारी का उपचार करता है। वह होश में आ जाती है। इसी दरम्यान  वहाँ अचानक नोहर दस्यु के तलवारधारी  लोग आ धमकते हैं।  तीनों भाई अपने अदम्य साहस से उनका मुकाबला करके उन्हें वहाँ से भगा देते हैं। करिया धुरवा राजकुमारी को सुकमत के साथ पालकी में सिंहगढ़ रवाना किया जाता है।

चिंगरोल के अत्याचारी शासक ने किया था 18 रानियों का अपहरण 

उपन्यास में  करिया धुरवा के शौर्य की दो और घटनाओं का भी वर्णन है। इनमें से एक घटना उस समय की है, जब चिंगरोल नामक जमींदारी के अत्याचारी शासक मानसाय ने अपने खुशामदी स्वभाव से कोसल महाराज के पास जाकर झूठ मूठ अपना परिचय करिया धुरवा के मित्र के रूप में दिया और महाराज का विश्वास जीतकर उनके महल में रहने लगा। मानसाय को  वशीकरण विद्या के तहत देवीधरा मंत्र की सिद्धि प्राप्त थी। एक दिन उसने कोसल नरेश के महल की 18 रानियों पर इस मंत्र का प्रयोग करके उन्हें अपने वश में कर लिया और रात्रि में अपने मित्रों के सहयोग से उन्हें लेकर भाग निकला।

आज भी है वह गाँव अट्ठारहगुड़ी 

करिया धुरवा ने कोसल नरेश की इन सभी 18 रानियों के लिए जनता के सहयोग से वहाँ रहने की व्यवस्था करवाई और उनके लिए स्वयं के खर्च से अट्ठारह गुड़ियों (निवासों)  का भी निर्माण करवाया। करिया ने ग्राम प्रधान से कहा कि निवास को मंदिर कहा जाता है। इसे हम आदिवासी गुड़ी कहते हैं। करिया ने यह भी कहा कि आज से कौड़िया राज्य में स्थित यह गाँव इन निर्दोष माताओं के कारण अट्ठारहगुड़ी के नाम से जाना जाएगा।

करिया ने द्वंद्व युद्ध में किया दस्यु नोहर का अंत 

एक अन्य घटना में सम्पूर्ण कोसल प्रदेश  को दस्यु नोहर के आतंक से मुक्त करने के लिए  करिया के सुझाव पर कोसल नरेश ने द्वंद्व युद्ध का आयोजन करने का निर्णय लिया। विजयादशमी के दिन कोसल नरेश की उपस्थिति में सिंहगढ़ में हुए  द्वंद्व युद्ध में करिया ने अपने शारीरिक  और मानसिक कौशल से पाशविक शक्ति वाले दस्यु नोहर को मौत के घाट उतार दिया।

तीनों भाई बनाए गए तीन रियासतों के राजा

इसके बाद सिंहगढ़ के राजभवन में  हुई  एक पारिवारिक बैठक में सिंहगढ़ के राजा प्रियभान ने कोसल नरेश के समक्ष प्रस्ताव रखा कि करिया को कौड़िया उसके भाई कचना को बिंद्रा और सिंगा को भाठा  राज्यों का शासक (राजा) बनाने का प्रस्ताव रखा। कोसल नरेश ने तीनों को इन राज्यों का राजा घोषित करते हुए राजाज्ञा भी जारी कर दी।

तुम दोनों को मंदिर में स्थापित किया जाएगा

एक दिन जब कौड़िया महाराज करिया और रानी देवी कुंअर महल में कुछ मंत्रणा कर रहे थे ,तभी वहाँ अचानक एक साधु का आगमन हुआ। साधु ने  दोनों को क्रमशः साक्षात महा काल कालेश्वर बूढा देव और शक्ति स्वरूपा भवानी का अंश बताया और कहा कि तुम दोनों की पूजा मानव करेगा और तुम दोनों को मंदिर में देव और देवी के रूप में स्थापित किया जाएगा।

पात्रों के माध्यम से प्रेरक संदेश 

आंचलिक भाव -भूमि पर आधारित अपने इस उपन्यास में  पात्रों के माध्यम से कई ऐसे प्रेरक विचार भी पाठकों के सामने आते हैं, जिनकी प्रासंगिकता आज के समय में और भी अधिक बढ़ जाती है। इनके माध्यम से लेखक ने समाज को प्रेरणादायक संदेश देने का प्रयास किया है। जैसे-बाल्यकाल में सिंहगढ़ नरेश प्रियभान की पुत्री देवी कुंअर का अपने पिता से यह पूछना कि समाज में पुत्रवान भवः जैसा आशीष क्यों दिया जाता है, जबकि पुत्र और पुत्री, दोनों ही तो संतान हैं, या फिर गुरु के द्वारा देवी कुंअर से यह कहना कि जब हम मनुष्य अथवा मानव का उल्लेख करते हैं तो इसका आशय ही नर एवं नारी दोनों हैं,दोनों एक -दूसरे के पूरक हैं और नारी को शिक्षा अनिवार्य रूप से प्राप्त करनी चाहिए, क्योंकि इसके माध्यम से ही वह मातृकुल और सासू कुल को तार सकती है।

महिला सशक्तिकरण का प्रतीक देवी कुंअर

उपन्यास में राजकुमारी देवी कुंअर के व्यक्तित्व को  तत्कालीन समाज में महिला सशक्तिकरण के लिए काम करने वाली एक जागरूक नारी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह महिलाओं को संगठित करती है। वह घुड़सवारी, तीरंदाजी और खड्ग चालन में भी माहिर है। राज्य की महिलाओं से उसका  जीवंत सम्पर्क रहता है। वह जन -सामान्य के घरों में भी सहजता और आत्मीयता से आती जाती है, उनकी रसोई में जाकर बरा, सोंहारी, ठेठरी ,खुरमी जैसे तरह -तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बनाती है। तीज -त्यौहारों में उनके  साथ रहती है। महिलाओं को शिक्षा और संगठन शक्ति का महत्व बताती है। रूढ़ियों और अंध-विश्वासों से बचने की नसीहत देती है, संस्कारों के साथ आत्मरक्षा के लिए उन्हें तीर, बरछा और तलवार चलाना भी सिखाती है। वह मदिरापान की सामाजिक बुराई के ख़िलाफ़ भी उन्हें सचेत करती है।

युद्ध का अर्थ ही सर्वनाश 

इतना ही नहीं ,बल्कि  उपन्यास में महाराज करिया धुरवा की  छवि एक शांतिप्रिय शासक के रूप में भी उभरती है। वह अपने पड़ोसी राज्य पिपौद के राजा केवराती से  युद्ध नहीं चाहते। रानी देवी कुंअर से अपने युद्ध विरोधी शांतिप्रिय विचारों को साझा करते हुए वह कहते हैं- “द्वंद्व युद्ध के परिणाम से केवल दोनों प्रतिभागी प्रभावित हो सकते हैं, किंतु युद्ध का अर्थ  ही सर्वनाश है। एक अपराधी होता है, किंतु अंसख्य निरपराध, निर्दोष, राज्य – धर्म के नाम पर दोनों ओर से जीवन के मूल्य पर दंड प्राप्त करते हैं।

एकलव्य थे करिया धुरवा के आदर्श 

लेखक ने उपन्यास में  महाभारत के चर्चित पात्र एकलव्य का भी जिक्र किया है। वैसे एकलव्य के जीवन पर उनका एक उपन्यास अलग से भी है, लेकिन करिया धुरवा पर केन्द्रित यह  उपन्यास हमें बताता है कि वह (करिया धुरवा ) एकलव्य की जीवन गाथा से बहुत प्रभावित है। इसमें सिंहगढ़ नरेश अपनी पुत्री देवी कुंअर को बताते है कि करिया धुरवा का आदर्श नायक आदिवासी पुरखा पुरुष एकलव्य है।

छत्तीसगढ़ के लोक देवता करिया धुरवा पर आधारित इस प्रथम उपन्यास में और भी कई प्रेरक प्रसंग हैं ,जिनसे पता चलता है कि  करिया धुरवा और रानी देवी कुंअर केवल मूर्तियों के रूप में प्रणम्य नहीं हैं बल्कि मानव के रूप में उनके विचार और उनके कार्य हर किसी के लिए अनुकरणीय हैं, प्रेरणादायक हैं। लगभग 136 पृष्ठों के इस उपन्यास की प्रवाह पूर्ण भाषा पाठकों को अंत तक बांधकर रखती है।

समीक्षा

श्री स्वराज करुण,
वरिष्ठ साहित्यकार एवं ब्लॉगर रायपुर, छत्तीसगढ़

About hukum

Check Also

कितनी रामकथाएँ और कितने महाकाव्य ?

पूरी दुनिया में श्रीराम कथाओं की महिमा अपरम्पार है। भारत के सांस्कृतिक इतिहास में मर्यादा …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *