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छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिरों की द्वारशाखा के सिरदल में विशिष्ट शिल्पांकनों का अध्ययन

भारतवर्ष के लगभग मध्य में स्थित छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़ जिला प्रागैतिहासिक काल के भित्ति चित्रों के लिये प्रसिद्ध है जिसके प्रमाण सिंघनपुर तथा कबरा पहाड़ में मिलते हैं। पाषाण युग के बाद ताम्रयुग तथा वैदिक काल में छत्तीसगढ़ की स्थिति के बारे में कोई सूचना नहीं मिलती । ऋग्वेद में भी नर्मदा तथा विन्ध्याचल का उल्लेख नहीं है। तत्कालीन ग्रथों में अनार्य जातियों के बारे में जानकारी मिलती है। । रामायण कथा के अनुसार अयोध्या (उत्तर कोसल) के राजा दशरथ की बड़ी रानी (दक्षिण) कोसल की थी जिससे उन्हे कोसल्या कहा जाता था।

छत्तीसगढ़ में मौर्य-सातवाहन कालीन अभिलेख सरगुजा जिले में लक्ष्मणगढ़ के निकट रामगढ़ की पहाड़ी में सीता बेंगरा और जोगीमारा नामक गुफाओं में प्राप्त हुये हैं। तीसरी शती ई. में सातवाहनो के बाद वाकाटकों का राज्य था । समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में महाकान्तार का उल्लेख मिलता है जो सिहावा और बस्तर का जंगली प्रदेश था। पाँचवी शताब्दी में राजर्षितुल्यकुल नामक राजवंश भी राज्य करता था । तत्पश्चात नलों का बस्तर क्षेत्र में शासन था ।

शिवमंदिर चंदखुरी, जिला रायपुर

पाँचवीं शती के अंतिम अथवा छठवीं शताब्दी के प्रथम चरण में शरभपुरीय वंश का उदय हुआ जिनकी राजधानी सिरपुर मानी जाती है। पाण्डुकुल के नरेश सोमवंशी थे। पाण्डुवंशी शासक तीवरदेव के ताम्रपत्रों से संलग्न मुद्रा में गरूड़ की प्रतिमा मिली है। तीवरदेव का बेटा नन्नराज जो कि परम वैष्णव था। महाशिवगुप्त ई.सन् 595 के लगभग 60 वर्ष तक राज्य किया तथा धनुर्विद्या में प्रवीण होने के कारण बालार्जुन कहलाने लगा तथा परममाहेश्वर होने के कारण शिवगुप्त की राजमुद्रा पर बैठे हुये नंदी की प्रतिमा पाई जाती है। पाण्डुवंशियों को चालुक्य राजा पुलकेशी द्वितीय तथा नल शासकों द्वारा समाप्त किया जाना मानते हैं।

कोसल का पाण्डुवंश सोमवंश भी कहलाता था जो स्वयं को कोसल, कलिंग तथा उत्कल राज्य को मिलाने से त्रिकलिंगाधिपति कहलाते थे । इनकी राजमुद्रा पर पाण्डुवंशियों के विपरीत लेकिन शरभपुरियों के समान गजलक्ष्मी की प्रतिमा का उल्लेख मिलता है । लगभग 1055 ई. में उद्योतकेसरी नामक राजा जो कि 25 वर्ष तक राज्य किया उसका कल्चुरियों से युद्ध हुआ तथा इसके बाद कोसल सोमवंशियों के हाथ से सदा के लिये निकल गया था तथा उस समय त्रिपुरी के कलचुरी वंश की एक लहुरी शाखा तुम्माण में स्थापित हो चुकी थी।

तत्पश्चात रतनपुर के कलचुरी शासकों का छत्तीसगढ़ में महत्वपूर्ण स्थान था । कलचुरी शासक युवराजदेव और उसकी रानी नोहला दोनों ही शिव के परम भक्त थे । युवराज प्रथम का उत्तराधिकारी द्वितीय लक्ष्मणराज था जो 950 ई. के लगभग शासन करता था । लक्ष्मणराज का मंत्री सोमेश्वर वैष्णव धर्म को मानता था । उसके दो शिलालेख कारीतलाई से प्राप्त हुये हैं जिसमें से एक रायपुर संग्रहालय में है । लक्ष्मणराज 970 ई. तक राज्य किया । उसका बेटा द्वितीय शंकरगण़ राजा हुआ जो परम वैष्णव था । सन् 980 ई. के लगभग उसका छोटा भाई युवराजदेव द्वितीय उसका उत्तराधिकारी हुआ।

त्रिपुरी के कलचुरी राजवंश का प्रथम राजा कोकल्ल था लेकिन कुछ उत्कीर्ण लेखों के आधार पर वामराजदेव को मानते हैं। कोकल्ल का शासनकाल लगभग 850 ई.से 890 ई. तक माना जाता है। कोकल्ल का बेटा द्वितीय शंकरगण-मुग्धतुंग लगभग 890 ई. के लगभग दक्षिण कोसल की विजय यात्रा की थी और सोमवंशी राजाओं को हराकर उनसे पाली छीन ली थी। कलचुरी शासक गांगेवदेव ने अपने द्वारा चलाये गये सोने के सिक्कों के पृष्ठ भाग पर चार भुजा वाली लक्ष्मी की बैठी हुई प्रतिमा मिलती है। उसका उत्तराधिकारी उसका बेटा कर्ण हुआ। कोसल के 18 बेटे थे उसमें से ज्येष्ठ पुत्र कलिंगराज रत्नपुर का राजा हुआ । कलिंगराज का बेटा कमलराज त्रिपुरी के गांगेवदेव के समकालीन था। ई. सन 900 के लगभग तुम्माण पहली बार कलचुरी शासकों की राजधनी बना लेकिन 950ई. के लगभग सोमवंशियों ने कलचुरियों को कोसल से खदेड़ दिया । कलिंगराज ने त्रिपुरी को छोड़कर दक्षिण कोसल की विजय की और तुम्माण को ही राजधानी बनाया जो लगभग 1000ई. में थी। 1020 ई.के लगभग कलिंगराज का बेटा कमलराज तुम्माण के सिंघासन पर बैठा । 1045 ई. के लगभग कमलराज का बेटा पहला रत्नराज उत्तराधिकारी हुआ। रत्नराज ने तुम्माण में वंकेश्वर और रत्नेश्वर नामक दो प्रमुख मंदिरों के अलावा अनेक मंदिरों का निर्माण कराया तत्पश्चात उसने रत्नपुर नामक नगर बसाया तथा राजधानी तुम्माण को उठाकर रतनपुर ले गया । रत्नदेव के बाद उसका पहला बेटा पृथ्वीदेव सन् 1069 ई. में रत्नपुर के शासन पर बैठा । सन् 1095 ई. के पहले पृथ्वीदेव का बेटा जाजल्लदेव उत्तराधिकारी हुआ जो जाजल्लपुर नामक नगर बसाया था । रत्नपुर के बाद लगभग 1513 ई. में कोसगईं में राजधानी स्थापित किया तत्पश्चात रामचन्द्र ने रायपुर नगर बसाकर 1415 ई. में राजधानी स्थापित की ।

बस्तर में ग्यारहवीं शती के प्रारंभ में नागवंशी राजाओं का शासन था जो छिंदक कुल का होने से चक्रकोट के छिंदक नाग कहलाते थे। इनका शासन 1023 ई. से लेकर लगभग 14वीं शती ई. तक था । बस्तर के छिंदक नागवंशी राजा रत्नपुर के कलचुरियों के प्रतिद्वंदी थे ।

छत्तीसगढ़ राज्य के उत्तर-पश्चिमी किनारे में कवर्धा के फणिनागवंशी राजाओं का शासन था जो रत्नपुर के कल्चुरी वंश का प्रभुत्व मानते थे । इनकी वंशावली मण्डवा महल से प्राप्त शिलालेख में मिलती है जो 1349 ईस्वीं में उत्कीर्ण किया गया था । तत्कालीन राजा रामचन्द्र द्वारा शिवमंदिर के निर्माण कराने की जानकारी मिलती है । कांकेर के सोमवंश में कलचुरी राजा द्वितीय पृथ्वीदेव के साथ राजिम में प्राप्त संवत् 896 के शिलालेख में सेनापति जगपाल ने कांकेर का प्रदेश जीता था तबसे कांकेर के राजा रत्नपुर के कलचुरी वंश का प्रभुत्व मानकर कलचुरी संवत् का प्रयोग करते थे। कांकेर में वोपदेव के समय दो शाखायें थी । एक में पम्पराज तथा बाद में भानुदेव शासक हुआ ।

छत्तीसगढ़ पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। छत्तीसगढ़ में वर्तमान में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग रायपुर के द्वारा 45 तथा राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा कुल 58 स्मारक संरक्षित घोषित हैं तथा लगभग 15 स्मारक संरक्षण हेतु विचाराधीन हैं। उपरोक्त सभी स्मारकों में से वर्तमान में उपलब्ध द्वारशाखाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि अधिकांश स्मारकों के सिरदल के मध्य में गणेश का अंकन मिलता है। इसके अलावा शिवमंदिर के मध्य में शिव एवं दोनों तरफ ब्रह्मा तथा विष्णु का अंकन प्राप्त होता है। इस प्रकार कुल 118 स्मारकों में से कुछ स्मारक ध्वस्त हो चुके है जिससे उनकी द्वार शाखायें अप्राप्त हैं।

छतीसगढ़ के मंदिरों में से ज्ञात प्रमुख शैव, वैष्णव, एवं शाक्त मंदिरों में से उनके कालक्रमानुसार सर्वप्रथम शरभपुरी शासनकालीन बिलासपुर जिले के देवरानी मंदिर ताला जिला बिलासपुर के सिरदल में अंकित गजलक्ष्मी, राजिम स्थित राजीवलोचन मंदिर के प्राकार के सिरदल मे गजलक्ष्मी, सरगुजा जिले के डीपाडीह में सामत सरना मंदिर समूह में प्रमुख शिवमंदिर के सिरदल में एवं एक विलग रखा हुआ अपूर्ण सिरदल में गजलक्ष्मी , शिव मंदिर चन्दखुरी जिला रायपुर शिवमंदिर गनियारी जिला बिलासपुर, छेरकी महल जिला कबीरधाम, दन्तेश्वरी मंदिर दन्तेवाड़ा एवं दूधाधारी मंदिर रायपुर, लक्ष्मीनारायण मंदिर राजिम में गज लक्ष्मी का अंकन मिलता है।
लक्ष्मण मंदिर सिरपुर, राजीवलोचन मंदिर राजिम के प्राकार के प्रवेश द्वार में तथा दूधाधारी मंदिर के गर्भगृह के प्रवेशद्वार के सिरदल में शेषशायी विष्णु ,चन्द्रादित्य मंदिर बारसूर के सिरदल में हरिहर, इन्दल देवल मंदिर खरोद के सिरदल में उमामहेश्वर, शिव मंदिर बेलसर जिला सरगुजा के सिरदल में वरेश्वर शिव, शवरी मंदिर खरोद तथा राजीवलोचन मंदिर राजिम के गर्भगृह के सिरदल में गरुड, विष्णु मंदिर नारायणपुर जिला बलोदाबाजाऱ के मंदिर के सिरदल में वैष्णवी, शिवमंदिर गण्डई जिला राजनांदगॉंव के सिरदल में अर्द्धनारीश्वर , नारायणपुर तथा तुम्मान के सिरदल में विष्णु, सिद्धेश्वर मंदिर पलारी जिला बलोदा बाजार के सिरदल में लकुलिश एवं ब्रम्हा तथा विष्णु का अंकन हैं। अभी विगत वर्षों में महेशपुर जिला सरगुजा के कुरिया झुरकी टीले से प्राप्त द्वारशाखा के सिरदल के मध्य में सूर्य के साथ नवग्रह का अंकन प्राप्त हुआ है।

डॉ. कृष्णदेव के अनुसार देवरानी मंदिर के सिरदल में गजलक्ष्मी को विद्याधर युगल के द्वारा बगल से पूजा करते हुये बताया गया है तथा उनके मतानुसार यह मंदिर 575-600ई. में निर्मित किया गया है।

राजिम जिला रायपुर स्थित राजीवलोचन मंदिर के प्राकार के प्रवेश द्वार के सिरदल के ललाट विम्ब में आसनस्थ गज लक्ष्मी अंकित की गई है तथा दूसरी प्रतिमा इसी मंदिर के महामण्डप के एक स्तंभ पर उकेरी गई है। सिरदल के ललाट बिम्ब पर बनाई गई प्रतिमा में देवी (लक्ष्मी) पूर्ण उत्फुल्ल कमल पर एक हस्ति की प्रतिमा है जिनके सूड़ ऊपर की ओर उठे हुये हैं तथा वे अपने सूड़ में कुम्भ लिये हुये हैं। कुम्भ अधोमुख है। इस तरह दो हाथियों द्वारा देवी के जलाभिषेक किये जाने का दृष्य यहॉ अंकित किया गया है।

विगत वर्षो में शिवनाथ नदी के पुरातत्वीय सर्वेक्षण के दैरान ग्राम तरेंगा जिला बलौदा बाजार के मंदिर की भित्ति में जड़ी हुई एक आठवीं शताब्दी की गज लक्ष्मी की प्रतिमा प्रकाश में आयी है जिसका विवरण संस्कृति सरिता शिवनाथ नामक पुस्तक में लेखक द्वारा दिया गया है। यह प्रतिमा वर्तमान में कंकालिन मंदिर की भित्ति में जड़ी है जो काले, नीले, लाल, तथा सफेद रंग के पेंट से पुती हुई है। गजलक्ष्मी पद्मासन मुद्रा में विराजमान है जो द्विभुजी प्रदर्शित हैं। दांया हाथ पालथी पर रखा है तथा बांये हाथ से घट धारण किये हैं । सिरोभाग में प्रभामण्डल, कर्ण कुण्डल , स्तनहार, बाजूबंद ,तथा कंगन आभूषण हैं । लक्ष्मी के सिरोभाग में दो गज आमने सामने खड़े होकर घट से जलाभिषेक करते हुए प्रदर्शित हैं । लक्ष्मी के दोनो तरफ अर्थात गजों के नीचे दो सेविकायें अर्थात चंवरधारिणी खड़ी हुई प्रदर्शित हैं। प्रतिमा का माप 38 ग 30 ग 15 सें.मी. है तथा काल 8-9वीं शताब्दी ई. संभावित हैं। यह प्रतिमा किसी वैष्णव मंदिर के सिरदल का भाग हो सकता हैं। छत्तीसगढ़ में गज लक्ष्मी की कई प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जिनमें से कुछ मंदिरों से संलग्न तथा कुछ विलग प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं।

सरगुजा जिले के डीपाडीह स्थित सामत सरना समूह में शिवमंदिर के अवशिष्ट द्वारशाखा के सिरदल के ललाट विम्ब में पद्मासन में बैठी हुई द्विभुजी गजलक्ष्मी प्रदर्शित है जिसके दोनों हाथें में सनाल कमल पुष्प का अंकन है। इसके दोनों ओर कमल पर खड़े हुये एक-एक गज, लक्ष्मी का घटाभिषेक कर रहे हैं। सिर दल की प्रथम शाखा में लता वल्लरी एवं द्वितीय शाखा में गज लक्ष्मी के दोनों ओर 2-2 मालाधारी विद्याधर का अंकन है जिनके दोनों हाथों में गोल कटोरानुमा पात्र धारण किये हुये हैं। डॉ. वी.डी. झा के अनुसार यह गज लक्ष्मी चतुर्भुजी है तथा कमल के ऊपर पद्मासनस्थ है तथा सामान्य आभूषण युक्त है। वह ऊपरी हाथ में सनाल कमल धारण किये हुये तथा निचला हाथ खण्डित है।4 यह प्रतिमा नवीं शती ई. की है। मलवा सफाई से वर्ष 1988 में प्राप्त सिरदल की यह प्रतिमा पूर्व में दो खण्डों में विभक्त थी जिसे बाद में रसायनिक संरक्षण कार्य के दौरान लेखक द्वारा जोड़कर मूल स्थिति में लाया गया है । इसके अलावा डीपाडीह स्थित सामत सरना मंदिर परिसर में ही एक गजलक्ष्मी युक्त सिरदल प्राप्त हुआ है जिसके दोनों तरफ कीर्तिमुखों का एक पंक्ति में अंकन है।

शिवमंदिर चंदखुरी, जिला रायपुर के ललाट बिम्ब में भी सोमवंशी कालीन गज लक्ष्मी का अंकन है। इसमें लक्ष्मी पद्मासनस्थ हैं तथा दोनों तरफ से एक-एक गज सुण्ड से जलाभिषेक करते हुये प्रदर्शित किये गये हैं।

विष्णु मंदिर जॉंजगीर जिला जॉंजगीर-चॉंपा के द्वारशाखा के सिरदल के मध्य में भी चतुर्भुजी गज लक्ष्मी का अंकन है जो 12वीं शताब्दी में निर्मित मंदिर है। इसी प्रकार शिवमंदिर गनियारी जिला बिलासपुर के सिरदल में भी गज लक्ष्मी का अंकन दृष्टव्य है। इसमें लक्ष्मी पद््मासन में विराजमान है तथा दोनों ऊपरी हाथ में गज को ऊपर उठाये हुये हैं एवं निचले दोनों हाथ पालथी पर रखे हैं।

दन्तेवाड़ा मंदिर के गर्भगृह के ललाट विम्ब में भी गज लक्ष्मी का अंकन है । बस्तर ग्राम में देवी मंदिर के ललाट बिम्ब पर दोहरे पद्म पर पद्मासन मुद्रा में आसीन चतुर्भुजी देवी का अभिषेक, पद्मासन से उद्भूत कमल पुष्पों पर खडे़ हस्ति अभिषेक करते दिखाये गये हैं। देवी लक्ष्मी के ऊपरी हाथों में सनाल कमल, तथा निचला बांया हाथ अभय मुद्रा में तथा चौथा हस्त खण्डित हैं। सिरदल पर देवी प्रतिमा के दोनों तरफ पत्र पुष्पावली के अंदर सिंह, हस्ति, और हंस का अंकन मनोहारी है। यह प्रतिमा भी 11 वीं शती ई. की है।

कवर्धा जिले के ग्राम चौरा में ईट निर्मित मंदिर छेरकी महल की द्वार शाखा के सिरदल के मध्य में चतुर्भजी आसनस्थ लक्ष्मी का अंकन है। सिरदल के बायें कोने पर चतुर्भुजी गणेश बैठे हुये प्रदर्शित हैं। यह मंदिर भी कवर्धा के फणि नागवंशी शासकों के राजस्व काल में 14 वीं शती के उत्तरार्द्ध में निर्मित कराया गया होगा । रायपुर जिला मुख्यालय में दूधाधारी मठ परिसर में स्थापित रघुनाथ मंदिर की द्वारशाखा की निचली पट्टी में ललाट बिम्ब में गजलक्ष्मी का अंकन है। इस मंदिर का निर्माण राजा जेत सिंह साव के समय में 16 वीं शती ई. के मध्य में हुआ था । इसी काल के लक्ष्मीनारायण मंदिर राजिम जिला गरियाबंद के मराठा कालीन मंदिर के सिरदल में भी गज लक्ष्मी का अंकन है।

छत्तीसगढ़ मे प्राप्त गज लक्ष्मी प्रतिमाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि ताला में द्विभुजी गज लक्ष्मी पद्मासन में बैठी हुई तथा उसके समानान्तर गज खड़े हुये घटाभिषेक करते हुये प्रदर्शित हैं। सामत सरना डीपाडीह के सिरदल में गजलक्ष्मी पद्मासन में बैठी हुई द्विभुजी तथा बायें हाथ में सनाल कमल पुष्प धारण की हुई हैं जैसा कि महेशपुर के कुरिया झुरकी नामक टीले से विलग प्राप्त प्रतिमा में धारण किये हैं। इसमें गज सिर के ऊपरी भाग में अंकित किये गये हैं। महेशपुर, से प्राप्त प्रतिमा में लक्ष्मी के बायें तरफ दो परिचारिका तथा तरेंगा एवं लक्ष्मीनारायण मंदिर राजिम में दोनों तरफ एक-एक परिचारिका का अंकन है जबकि डीपाडीह की प्रतिमा में नहीं है। शिव मंदिर चंदखुरी मे लक्ष्मी पद्मासन में तथा गज अगले दोनों पैर से खड़े होकर जलाभिषेक कर रहे हैं जैसा कि राजिम स्थित राजीवलोचन मंदिर के मण्डप के स्तंभ में उत्कीर्ण हैं। इसी प्रकार महेशपुर से प्राप्त एक स्तंभ में अंकित गज लक्ष्मी पद्मासन में है लेकिन दोनों तरफ में गज पिछले दोनों पैरों से खड़े होकर जलाभिषेक कर रहे हैं जिसके नीचे पूंछ उठाये हुये बंदर का अंकन भी महत्वपूर्ण है। डीपाडीह से प्राप्त एक अन्य सिरदल में केवल गज लक्ष्मी का अंकन है जिसमें दोनों तरफ सनाल पुष्पनुमा आकृति निर्मित है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ क्षेत्र में भी शुंग तथा सातवाहन काल (दूसरी शती ई.) से लेकर अ़़द्यतन लक्ष्मी प्रतिमाओं का निर्माण होता रहा है। लक्ष्मी विष्णु की आत्मा तथा शक्ति हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीन काल से लेकर आज तक हमारे प्रदेश में भी वैष्णव धर्म का प्रभाव था तथा आज भी प्रत्येक हिन्दू नागरिक दीपावली तथा अन्य शुभ अवसरों पर लक्ष्मी की पूजा अर्चना करते हैं तथा प्रमाण स्वरूप स्थापत्य कला में भी उनका उत्कीर्णन किया जाता है।

छत्तीसगढ़ में शेषशायी विष्णु की प्रतिमायें राजीवलोचन मंदिर राजिम, के प्राकार के सिरदल में, लक्ष्मण मंदिर सिरपुर एवं दूधाधारी मंदिर, रायपुर के सिरदल में भी प्राप्त हुई हैं । राजीवलोचन मंदिर राजिम, के प्राकार के सिरदल में, एवं दूधाधारी मंदिर के गर्भगृह के सिरदल में शेषशायी विष्णु तथा गज लक्ष्मी दोनो की प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। राजिम की प्रतिमा का काल 7-8 वीं शताब्दी ई. है जबकि दूघाधारी मंदिर का काल 18वीं शताब्दी ई. है। राजिम8 के प्राकार के सिरदल में अंकित शेषशायी विष्णु अनंत शैया में अपनी योग निद्रा में लीन तथा पंचनागफण युक्त हैं। विष्णु के पैरों के पीछे समीप में लक्ष्मी जी बैठी हुई प्रदर्शित है तथा चरण दबा रही हैं। विष्णु की नाभि से कमलनाल के शीर्ष पर पूर्ण उत्फुल्ल कमलासन पर ब्रह्मा को बैठे हुये दिखाया गया है । राजीवलोचन मंदिर परिसर में निर्मित वामन मंदिर जो कि दक्षिण पूर्व कोने में निर्मित है । उसके सिरदल में भी शेषशायी विष्णु का अंकन है जो परवर्ती काल में लगाया गया प्रतीत होता है।

लक्ष्मण मंदिर सिरपुर9, के सिरदल में अंकित शेषशायी विष्णु की प्रतिमा अत्यधिक घिसी हुई तथा अस्पष्ट है । मुखल्रिंगम के अनुसार सिरोभाग में पंचफण नाग तथा पैरों के समीप बैठी हुई लक्ष्मी का अंकन है । इसमें विष्णु के सर्पफण के पीछे लक्ष्मी तथा सरस्वती का अंकन है जबकि पैरों के पीछे पंचफण युक्त एक बैठी हुई प्रतिमा का अंकन है। इसमें भी विष्णु की नाभि से सनाल पद्म दल में ब्रह्मा जी का अंकन दृष्टव्य है।

ग्राम तरेंगा जिला बलोदा बाजार स्थित नवनिर्मित कंकालिन मंदिर की भित्ति में जड़ी हुई यह प्रतिमा वर्ष 2008-2009 में लेखक को शिवनाथ नदी के पुरातत्वीय सर्वेक्षण के दौरान ज्ञात हुई है। प्रतिमा का कमर से निचला भाग खण्डित है तथा रंगीन पेंट से पुती हुई है। संभवतः यह प्रतिमा मूलतः मंदिर के द्वारशाखा के सिरदल में जड़ी रही होगी जो बाद में गिरकर खण्डित हो गई है। प्रतिमा में बायें किनारे पर चतुर्भुजी शेषशायी विष्णु करवट लेटे हुए प्रदर्शित है जो अपने दायें ऊपरी हाथ को सिर से टेके हैं। प्रतिमा के सिरोभाग में सप्तफण अलंकृत हैं जो पीले रंग के पेंट से पुता है। विष्णु के दोनो निचले हाथ कलाई से खण्डित हैं। विष्णु के सिरोभाग के पीछे एक बैठी हुई मालाधारिणी एक पुरूष प्रतिमा, द्विभुजी वैष्णवी एवं गरूड़ की कर्वद्ध प्रतिमा का अंकन है। प्रतिमा का माप 127 ग 46 सें. मी. है तथा यह प्रतिमा 8-9वीं शती ई. में सोमवंशी शासकों के काल में निर्मित प्रतीत होती है ।

दूधाधारी मंदिर रायपुर से प्राप्त सिरदल में अंकित शेषशायी विष्णु शेषशैया पर लेटे हुये प्रदर्शित हैं जिनके दोनों पैर दबाते हुये लक्ष्मी आसीन हैं। विष्णु की नाभि से सनाल पद्म के ऊपर ब्रह्मा आसीन हैं तथा विष्णु के नीचे गरुण उनका भार थामें हुये प्रदर्शित हैं। विष्णु के सिर तरफ 3 देवी बैठी हुई तथा उनके पीछे दो उपासक खड़े हुये एवं पैर की तरफ बायें कोने में दो पुरुष आकृति दण्ड लिये खड़े हुये प्रदर्शित हैं। काल 16-17वीं शती ई. ।

विष्णुधर्मोत्तर में विष्णु के शेषशायी रूप को पद्मनाभ कहा गया है। पद्मपुराण में भी एैसा ही रूप वर्णित है किन्तु अन्तर केवल यह है कि जो हाथ विष्णु धर्मोत्तर, विष्णु के सिर के नीचे दिखाता है उसे पद्मपुराण केवल मस्तक तक गया हुआ बतलाता है ।

छत्तीसगढ़ में सोमवंशी काल के ईंट निर्मित मंदिरों की द्वारशाखा के सिरदल में सपक्ष गरूण का अंकन मिलता है जो शबरी मंदिर खरोद, राजीवलोचन मंदिर राजिम , ताराकृति मंदिर महेशपुर जिला सरगुजा से प्राप्त गरुण युक्त सिरदल, धमतरी से प्राप्त सिरदल जो कि महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय रायपुर में प्रदर्शित है। ये सभी मंदिर 7-8 वीं शताब्दी ई. में निर्मित प्रतीत होते हैं। सोमवंशी कालीन मंदिर के सिरदल में एक अन्य प्रकार भी मिलता है। जैसे इन्दल देवल मंदिर खरोद तथा सिद्धेश्वर मंदिर पलारी में त्रिदेव का अंकन है। इन्दल देवल मंदिर के सिरदल में मध्य में उमामहेश्वर की प्रतिमा उनके वाहनों सहित अंकित है जबकि दोनों किनारों में ब्रह्मा एवं गरुड़ासीन विष्णु प्रदर्शित हैं। इसी प्रकार शिव मंदिर हर्राटोला वेलसर जिला बलरामपुर के सिरदल में नंदी पर सवार उमामहेश्वर तथा अगल-बगल गणेश एवं कार्तिकेय का अंकन है। यह मंदिर पूर्णतया प्रस्तर निर्मित एकमात्र सोमवंशी कालीन 8वीं शताब्दी ई. का है। सि़द्धेश्वर मंदिर पलारी के सिरदल में मध्य में लकुलिश एवं दोनों किनारों में ब्रह्मा तथा विष्णु अपने वाहनों सहित प्रदर्शित हैं। सरगुजा जिले के महेशपुर ग्राम में कुरिया झुरकी नामक टीले पर रखे एक विलग सिरदल के मध्य में सूर्य तथा नवग्रह का अंकन है जो किसी सूर्य मंदिर के होने का प्रतीक है। काल 10वीं शताब्दी ई.।

चन्द्रादित्य मंदिर बारसूर जिला दन्तेवाड़ा के गर्भगृह के एकमात्र सिरदल में हरिहर का अंकन है जिसमें शिव दांये तरफ अपने वाहन नंदी सहित तथा वायें तरफ विष्णु के समीप लक्ष्मी बैठी हुई प्रदर्शित हैं।18

इसके अलावा छत्तीसगढ़ के मंदिरों में शिवमंदिर गण्डई19 के सिरदल में ललाटविम्ब में अर्द्धनारीश्वर, तुम्मान20 के सिरदल में नृत्यरत नटराज, फिंगेश्वर21 के सिरदल के मध्य में गणेश, दांये तरफ गज लक्ष्मी तथा बायें तरफ महिषासुरमर्दिनी का अंकन है। विष्णु मंदिर नारायणपुर22 जिला बलोदाबाजार के सिरदल कें मध्य में चतुर्भुजी वैष्णवी, दांये तरफ गणेश तथा बायें तरफ चतुर्भुजी सरस्वती का अंकन है।

इस प्रकार उपरोक्त विवरण का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ के मंदिरों के सिरदल में गजलक्ष्मी, शेषशायी विष्णु, गरुड़ासीन विष्णु, गरुड़, हरिहर, वरेश्वर शिव, उमा महेश्वर, महिषासुरमर्दिनी, सरस्वती, गणेश तथा पुष्प अलंकरणों का अंकन प्रंमुख है।

संदर्भ :-

1 देव, कृष्ण, महाकोसल स्टाइल (लगभग ई.सन् 550-750) पुरातन, अंक 9 ,पृ. 6

  1. ठाकुर ,विष्णु सिंह राजिम, 1972, पृ 123.
  2. पुरातन अंक 9 ’दुर्ग जिले के कलचुरी कालीन मंदिर, वाजपेयी संतोष कुमार, पृ. 115
  3. झा, बी.डी, ’आर्ट आफ सरगुजा’, पुरातन अंक 9, 1994, पृ. 14
  4. कला वैभव, संयुक्तांक 13-14, (2003-2004), शिव मंदिर गनियारी, वर्मा कामता प्रसाद, पृष्ठ 95.
  5. झा, बी.डी , बस्तर का मूर्तिशिल्प, 1989, पृ. 93.
  6. चन्दौल, जी के, भोरमदेव, 2001, पृष्ठ. 27.
  7. ठाकुर,विष्णु सिंह, राजिम 1972, पृष्ठ 80.
  8. दीक्षित, एम.जी., मुखलिंगम टेम्पल्स, सिरपुर एण्ड राजिम टेम्पल्स, 1960, प्लेट 41.10. यथेक्त, पृष्ठ 20.
  9. कोसल 3, अंक 3, 2010, छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला में शेषशायी विष्णु प्रतिमाओं का तुलनात्मक अघ्ययन, वर्मा, कामता प्रसाद पृष्ठ 35.
  10. कोसल 3, अंक 3, 2010, यथेक्त, पृष्ठ 36.
  11. मिश्रा इन्दुमती, पृष्ठ 253.
  12. पद्मपुराण, हेमादिव्रत खं. पृ. 222.
  13. कला वैभव, अंक 16 (2006-2007), मंदिरों की नगरी खरोदः स्थापत्य कला पर प्रकाश, वर्मा, के. पी., पृष्ठ 117.
  14. छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला, (सरगुजा जिले के विशेष संदर्भ में ), 2010, पृष्ठ
  15. विगत वर्षों में श्री जी. एल. रायकवार द्वारा उत्खनन कार्य से ज्ञात
  16. झा वी.डी, बस्तर का मूर्ति शिल्प, 1989, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 109.

आलेख

डॉ. कामता प्रसाद वर्मा,
उप संचालक (से नि) संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व रायपुर (छ0ग0)

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