देव संस्कृति को मानने वाला बस्तर का जनजातीय समाज अपने सभी देव काम को जातरा कहता है। जिस भी देव काम में किसी उपज या वनोपज को जागृत कर देवताओं को अर्पण किया जाता है, उसे साड़ कहता है, इसका हिन्दी में अर्थ देवोत्सव होता है और जातरा देवताओं की सामूहिक विशेष पूजा को कहा जाता है। यह ऐसी पूजा होती है जिसे साल में एक निश्चित तिथि को अवश्य किया जाता है।
जब भी देवता सम्बधी गाँव में कोई कार्य होता है, उसे जनजातीय समाज उसके मूल नाम से पुकारता है, इससे उसके समाज के लोग समझ जाते है परन्तु अन्य समाज के लोगों को बताने के लिये उन्हे जातरा करना बताया जाता है। गाँव में कोई भी कार्य जिसे जागारानी गाँव देवती (तलुर मुत्ते) में मनाया जाता है, उन सब कार्यों को माटी तिहार कह दिया जाता है, ठीक उसी प्रकार आम लोग किसी भी देव काम को जातरा ही कहते हैं। जातरा एक समूह विशेष द्वारा देवताओं की सामूहिक विशेष पूजा को कहा जाता है जिसमें नृत्य, संगीत शामिल होता है।
जनजातीय समाज अपने देवताओं के लिये साल में एक बार आवश्यक रूप से जातरा का आयोजन करता है। इस जातरा में वह जिस देवता का जातरा मनाया जाता है, उस देवता के सभी सगे-सम्बंधी देवताओं को आमंत्रण दिया जाता है। जातरा जिस देवता का होना है उसे मंडा देव और उस मंडा के अन्तर्गत आने वाले देवता आमंत्रित होते हैं। मंडा को हल्बी में माडों और हिन्दी में मंडप कहा जाता है।
इसके अन्तर्गत मुख्य देवता के सगे, जिसमें उसके पुत्र, भाई और भाईयों के बच्चे आते हैं, इसी प्रकार गोंडी में ताडो जिसे हल्बी में खांदा-जखना और हिन्दी में लता या बेल कहा जाता है, आते हैं। इसके अन्तर्गत मुख्य देवता के पुत्रियाँ पुत्र के पुत्रियाँ और भाई के पुत्रियाँ और सभी दामाद आते हैं। इन सभी देवताओं को आमंत्रण दिया जाता है, चाहे वे जिले में हो, प्रदेश में हो या किसी अन्य प्रदेश में सबको बुलाया जाता है। आमंत्रण मिलने के बाद इन देवताओं को मानने वाले मुख्य देवता के स्थान पर आवश्यक रूप से पहुँचते है। ऐसी परम्परा आज भी है।
जातरा मनाने के पीछे जनजातीय समाज का मानना है कि वे अपने देवताओं को अपनी सेवा से प्रसन्न कर उन्हें हर्ष, उमंग से खेलाते हैं, जनजातीय समाज मानता है कि उसके देवता प्रसन्न होकर देव आंगन में जितने उत्साह, उमंग से खेलेगें, उनके गाँव में उतनी ज्यादा खुशहाली आयेगी, साल भर अच्छी उपज, वनोपज मिलेगी, किसी प्रकार की आपदा नहीं आयेगी आदि। यही कारण है कि जनजातीय समाज अपने देवी-देवताओं का साल में एक बार विशेष पूजा का आयोजन अवश्य करता है, ताकि उसके देवता उसकी सेवा से प्रसन्न होकर हर्ष और उमंग से अपने आंगन में खेले, जिससे उनके गाँव में साल भर खुशहाली रहे, किसी प्रकार का दुःख-दण्ड न होये। जातरा के आयोजन करने के पीछे जनजातीय समाज का अपने देवताओं के प्रति आस्था और सम्मान प्रकट करने का आशय तो होता ही है, साथ में उत्सव का माहौल भी बनता है और अपने बन्धु-बान्धव से मिलने से सबके मध्य समाजिक समरसता भी बनी रहती है। इससे पुरातन परम्पराओं का निर्वहन भी हो जाता है।
गाँव में होने वाले ऐसे आयोजन में सभी लोगों की समान भागीदारी होती है। गाँव के सभी लोग बहुत ही उत्साह से इन आयोजन में भाग लेते हैं, चाहे वह कोई भी जाति समाज का व्यक्ति हो जातरा में अवश्य भाग लेता है। सबके काम बँटे हुये होते हैं, सब अपना-अपना काम समय पर करते है, जिससे सब कुछ आसानी से पूरा हो जाता है। जैसे कुम्हार मिट्टी के बर्तन, धूपनी, दीया आदि की व्यवस्था करता है। मरार जाति के लोग पूजा के लिये फूल लाते हैं, अन्दकुरी (गांडा) जाति के लोग देव बाजा नंगाड़ा, मोहरी आदि बजाते हैं। इसी प्रकार माटी गांयता, सिरहा, पुजारी अपना-अपना काम करते हैं। परगना मांझी और देव मांझी सारे कार्यो की देख-रेख करते हैं। इस प्रकार काम करने से गाँव में होने वाले ऐसे आयोजन सम्पन्न होने में आसानी होती है, यही सामाजिकता जनजातीय गाँव की सुन्दरता है।
ऐसे सभी देव काम को जिसे जनजातीय समाज के अलावा अन्य समाज भी जातरा कहता है परन्तु भिन्न- भिन्न समय और अलग-अलग देवी-देवताओं के लिये आयोजित होने वाले इन देव कामों को जनजातीय समाज अलग-अलग नाम से पुकारता है। जनजातीय समाज साल भर में तीन तरह के जातरा का आयोजन करता है या यह कहना उचित होगा कि जातरा के तीन प्रकार होते है, जो निम्नलिखित है।
(1) हेशांग जातरा – : यह देव जातरा की शुरूआत है, जब धान की मिंजाई आदि कार्य समाप्त हो जाता है, तब यह जातरा मनाया जाता है। यह जातरा सभी गाँव में नहीं मनाते केवल उन गाँव में जहाँ देव गुड़ी जिसे राउड़ कहते है उस जगह मनाई जाती है।
(2) करसाड़ -: यह परगना के मंडा देव (मुख्य देव) के स्थान में मनाया जाता है। यह बड़ा देव काम होता है, जिसमें परगना भर के लोगों की भागीदारी होती है।
(3) जातरा -: यह जातरा केवल माता गुड़ी (देवी मंदिर) में मनाया जाता है, इसमें लेन-देन या मेला भरता है। जनजातीय गाँवों में भरने वाले मेला वस्तुतः देवियों के जातरा होते हैं।
हेशांग जातरा
इस जातरा से गाँवों में देव कामों की षुरूआत होती है। हेशांग जातरा जिन गाँवों में आयोजित की जाती है उन गाँवों को माई गाँव (मुख्य गाँव) गोंडी में बराह जागा कहा जाता है। यह गाँव मंडा देव को मानने वालों के लिये बड़ा और महत्वपूर्ण स्थान होता है। हेशांग जातरा होने के बाद ही करसाड़ और करसाड़ होने के बाद देवी जातरा या मेला-मंडई आयोजित होते है। यह मौसम चक्र परिवर्तन का जातरा है, इसको धान बीज निकालने का मुहूर्त के तौर पर मनाया जाता है। हेशांग का आयोजन सब गाँवों में नहीं किया जाता, यह केवल उन्हीं गाँव में आयोजित होता हैं, जहाँ देवताओं के मंदिर होते हैं, इन मंदिरों को राउड़ कहते हैं। राउड़ वाले गाँव को ही माई गाँव या बराह जागा कहा जाता है। यह जनजाति समाज के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान होता है। गाँव के सभी काम इसी जगह सम्पादित होते हैं और जिन गाँवों में राउड़ नहीं होता, उन गाँवों के लोग राउड़ वाले गाँव में अपने देवताओं के साथ हेंशांग मनाने के लिये आते है।
गोंडी शब्द हेशांग का अर्थ होता है धान की बाली, जब खेतों में धान पक जाता है, तब जनजाति समाज धान काटने के पहले खेतों में चरू देता है, चरू को अन्य समाज के लोग प्रायः बलि देना समझते हैं पर वास्तव में यह उन फसल रक्षक देवी-देवताओं के प्रति उपकृत होने का आयोजन है, जो उनके फसल की जंगली जानवर और अन्य तरीके से पकने तक रक्षा किये होते हैं। यह आयोजन एक दंड के लोग जिनका खेत गाँव के एक ओर होता है, इसे ही एक दंड के लोग कहा जाता है, इस प्रकार एक गाँव में तीन या चार दंड होते है। चरू के समय एक दंड के लोग अपने-अपने खेतों में रक्षक देवों की अनुमति लेकर जब पहला फसल काटते हैं, उसमें से धान की बाली को वे एक पत्ते में बाँध कर आदन वृक्ष (साजा वृक्ष) में लटका देते हैं। इसे ही पूरे आयोजन के साथ हेशांग के समय उतारा जाता है। एक दंड में जनजाति समाज के अलावा दूसरे समाज के लोग भी अपने खेत के धान इसी प्रकार धान को लटका कर रखते हैं और हेशांग में उसे उतारते है।
जनजातीय गाँवों में एक परगने में कई गाँव बराह जागा या माई गाँव (मुख्य गाँव) होते हैं। ऐसे गाँव में हेशांग मनाने के पूर्व एक बैठक आयोजित की जाती है। जिसमें हेशांग मनाने का दिन तय किया जाता है, यहाँ चावल, चन्दे की रकम भी तय की जाती है। यह बैठक आयोजन से एक सप्ताह पूर्व किया जाता है, जिससे सम्बन्धित देवताओं को आमंत्रण देने में सुविधा हो। देव निमंत्रण को पेन जोड़िंग कहा जाता है, जिसका अर्थ पेन का देवता तथा जोड़िंग का निमंत्रण होता है। इसके लिये आयोजन होने वाले गाँव से लोगों की दो-तीन टोलियाँ बना दी जाती है, जो देवता का कोई भी प्रतीक लेकर उस देवताओं से सम्बन्धित देवताओं के गाँव जाते है और तोड़ी (दुदुम्भी) बजाते है, लोग समझ जाते हैं, देवता का आमंत्रण है। ये देव निमंत्रण वाले जिस दिन गाँव में पहुँचते है, उसके दूसरे दिन हेशांग मनाया जाता है। यह बैठक होने के बाद से ही घोटुल में ढोल नाच आयोजन होता है। प्रत्येक रात्रि में घोटुल के लड़के-लड़कियाँ नाचते हैं।
हर बार ऐसा होता है कि पेन जोड़िंग वाले के साथ ही सम्बन्धित देवताओं को लेकर उनके मानने वाले पहुँच जाते हैं। आगत देवताओं को पहले से बनाये गये एक निश्चित स्थान पर उन्हें सम्मान पूर्वक विराजित किया जाता है और उनकी विधिवत पूजा की जाती है। अन्य गाँव से देवता के साथ आये हुये लोग रात्रि का भोजन पकाते हैं। भोजन करने के उपरान्त जो ढोल नाच अब-तक घोटुल में नाचा जा रहा था, वह उस देव स्थान पर होता है। गाँव के सभी महिला, पुरूष, बच्चे अपने आराध्य देवताओं का खेल देखने देव गुड़ी में जमा होते हैं। यहाँ देव नंगारा, मोहरी आदि अन्दकुरी समाज के लोगों द्वारा बजाया जा रहा होता है, और देवतागण अपनी धुन में खेलते हैं। प्रत्येक देवता का अपनी पसन्दीदा धुन होती है, जिसे पाढ़ कहा जाता है, इस पाढ़ को दक्ष मोहरी बजाने वाला या नंगारा बजाने वाला जानता है और उसके सामने खलते हुये वह देव आता है, तब वह उसके पाढ़ को बजाता है। इसी समय घोटुल के लोग ढोल बजाते आते हैं और महिलाएँ एक-दूसरे के साथ गलबहियाँ डाले गीत गाती हुई कदम से कदम मिलाकर नाचती हैं। महिलाओं द्वारा गाये जाने वाला गीत ढोल पाटा कहलाता है, इसे पेन पाटा भी कहा जाता है, जो देव आराधना गीत होता है। बहुत ही उल्लासमय वातावरण होता है, आगत देवतागण अपनी-अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, कभी नंगारा के सामने, कभी ढोल के साथ, तो कभी महिलाओं के साथ बहुत ही आनन्द के साथ देर रात तक खेलते हैं।
इस रात के दूसरे दिन हेशांग मनाया जाता है, इसके लिये गाँव के लोग जिनका खेत एक दंड में स्थित होता है, सब एक निश्चित खेत में जमा होते है। सबके सब अपने साथ शराब, अण्डा और चियाँ या चूजा (मुरगी का बच्चा) लाये रहते हैं। सबके आने के बाद उस दंड का मुखिया सभी से साजा के वृक्ष में लटका कर रखे गये धान को लाने कहता है, सब अपने अपने धान उसे लाकर देते है। वह दंड का मुखिया धान की पुड़िया को उन्हीं के सामने खोल कर देखता है और उसका परीक्षण करता है कि धान ठीक है या नहीं। इसके बाद मुखिया धान की बाली को एक के बाद एक जमीन पर जमाता है और लोग जो अण्डा, चूजा लाये हुये होते हैं, उनसे लेकर उनके धान का परीक्षण करता है कि वह धान बीज बनने के लायक है या नहीं। इसके लिये वह चूजा से जमीन पर रखे धान को टोकाता है, मतलब यह कि उसे खाने के लिये धान की कतार के पास ले जाता है, यदि चूजे ने धान खा लिया तो यह माना जाता है कि वह धान बीज के लिये उपयुक्त है, यदि नहीं खाता तो उसे अलग कर दिया जाता है। इसके बाद उस चूजे की बलि दी जाती है, धान में कुछ बून्द खून का गिराया जाता है और उसे रावबाबा, (फसल के रक्षक देव) कौडो, (लड़के की पवित्र आत्मा) कैनांग (जल वृद्धि करने वाली देवी) के नाम से दूर फेक दिया जाता है। इसी तरह अण्डे की भी बलि दी जाती है, यह प्रक्रिया दंड के सभी किसानों के धान के साथ की जाती है। बलि देने के बाद रावबाबा, कौडो, कैनांग को धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। इन बलि दिये अण्डा और चूजे को नहीं खाया जाता। इसके बाद डंड के सभी किसानों को सब धान को मिलाकर बाँट दिया जाता है, फिर सब मिलकर अपने साथ लाये हुये शराब पीते को है।
दंड के लोग उन्हें दंड के मुखिया द्वारा दिये गये धान को अपने घर लेकर आते हैं। इस धान को कुछ परगनाओं में बाँस के ठोंडा (पोला बाँस) में रखा जाता है, कुछ जगहों पर इसे पत्ते में बाँध कर मोंगरी पाटी (घर के मुख्य मेयार) में लटकाया जाता है। नारायणपुर के पास तीन परगना हैं, जिसमें करगाल परगना के लोग इस धान को मोंगरी पाटी में बाँध कर रखते हैं, इसी प्रकार दुगाल परगना के लोग इस धान को बाँस के ठोंडा में डाल कर रखते है और बारा जोड़ियान परगना के लोग इसे ले जाकर बीज धान में मिला देते है। दंड के लोग घर में दैनिक कार्य से निवृत होकर देव गुड़ी में आते है।
देव गुड़ी में उल्लासमय वातावरण होता है, सब महिला-पुरूष, बच्चे आये हुये होते हैं। सब दंड के मुखिया अपने-अपने डंड के धान को गाँव के माटी गांयता को देते हैं, वह सबके धान को मिला देता है और फिर राउड़ के देव के साथ आगत देवताओं की विशेष पूजा करता है। धान अर्पित करता है, बलि देता है और शराब का तर्पण करता है। गाँव के लोगों की सामूहिक पूजा से देवतागण प्रसन्न होते हैं। गुड़ी में देव नंगारा, मोहरी बजती है, घोटुल के लड़कों द्वारा ढोल बजाया जाता है, महिलाएँ गीत गाते हुये नृत्य करती हैं। इस समय वहाँ उपस्थित जितने सिरहा होते हैं उन्हे देवताओं का सिर चढ़ता है, वे सब अपने धुन में खेलने लगते है। देवताओं के विग्रह आंगा और देवियों के विग्रह डोली को भी खेल खिलाया जाता है। इस समय लोग अपने आराध्य देवों को फूल की माला पहनाकर, लाली से तिलक कर सम्मान करते हैं, अपने देवताओं के सम्मान में लाये शराब को पिलाकर उनको मान देते है। देवतागण भी बड़े उत्साह से देव आंगन में खेलते हैं। आदिवासी समाज का ऐसे आयोजन करने का आशय होता है कि उसके देवता जितनी प्रसन्नता से खेलेगें, उतना ही उनके गाँव में खुशहाली आयेगी।
देव आंगन में देवताओं के आधा पहर खेलने के बाद सभी देवतागण पास ही एक पेन बंधा अर्थात देव तालाब में नहाने के लिये जाते है। यह गाँव के एक छोर में स्थित तालाब होता है, जिसमें गाँव के व्यक्तियों द्वारा किसी प्रकार का कार्य नहीं किया जाता है। यहाँ नहाने के बाद सभी देवतागण गुड़ी में लौट आते हैं, जहाँ सभी आगत देवताओं के सम्मान में बलि दी जाती है। इससे पहले जो बलि दी गई थी वह राउड़ के देवता के लिये थी, बलि देने के पश्चात देवताओं को विदाई दी जाती है। विदाई देने के बाद वे देव या उसको मानने वाले देवगुड़ी में नहीं रूकते, बलि के बध्य पशु को उस जगह से अलग ले जाकर पकाते खाते है। राउड़ में उस गाँव के लोग रात का भोजन पका कर खाते है। इस तरह सम्पन्न होता है, एक दिन का हेशांग जातरा।
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