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आदिमानवों द्वारा निर्मित गुहा शैलचित्र : लहूहाता बस्तर

जंगल में गुजरते हुए पहाड़ की चढ़ाई, ऊपर पठारी भाग में चौरस मैदान और चौरस मैदान के नीचे सभी ओर गहरी खाई, मैदान से खाई के बीच बेतरतीब पत्थरों की दीवार। दीवार में प्राकृतिक रुप से बने अनेक गुफानुमा स्थान। 8-10 वर्ग कि.मी. का पठारी क्षेत्र पूर्णतः वीरान किन्तु चारों ओर हरियाली ही हरियाली। किसी पर्यटन स्थल से कम नहीं है मांझीनगढ़।

इस गढ़ के पूर्व दिशा के एक गुफा में आदिमानव द्वारा निर्मित शैलचित्र है। ये शैलचित्र दुर्गम स्थान पर होने के कारण बाहरी दुनिया के लिए सर्वथा अपरिचित हैं। आज तक यहाँ कोई इतिहास का अध्येता, पुरातत्ववेत्ता, शोधकर्ता या शैलचित्रों का खोजकर्ता नहीं पहुंच सका है। अलबत्ता बस्तर पुरातत्व समिति ने यहाँ शैलचित्र होने की जानकारी समाचार पत्रों के माध्यम से लोगों को दी।

शेलचित्र

राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 30 पर तहसील मुख्यालय केशकाल नगर स्थित है। यहाँ से 22 कि.मी. दूर विश्रामपुरी तक बस से पहुंचकर ग्राम खल्लारी तक (5कि.मी.) दुपहिया वाहन से पहुंचा जा सकता है। उसके पश्चात खल्लारी से पथरीली पगडंडी पर चलने के बाद ऊपर पठार है। पठार के बाहरी हिस्सों में गहरी खाई है, तथा दीवारों पर अनेक दरहा (खोह) बने हुए हैं, जहाँ जंगली जानवरों का बसेरा है।

इस पठार के ऊपर गढ़वाली माता के नाम पर वर्ष में एक बार भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष में जातरा का आयोजन किया जाता है। जातरा की तिथि आस-पास के ग्रामीण बैठक में तय करते हैं तथा आयोजन का भार भी ग्रामीण ही चन्दा कर सामूहिक रूप से वहन करते हैं। यहाँ बकरों एवं मुर्गों की बलि दी जाती है।

शैलचित्रों में हिरण एवं पंजे के चिन्ह

सोनकुंवर देव का सोने का एक आंगा है, इन्हें सफेद कबूतर की बलि दी जाती है। बलि संध्या के समय किन्तु सूर्यास्त के पूर्व दी जाती है तथा लगभग 1कि.मी. दूर आगे जाकर पोखर के पास चट्टानों में लोग डेरा जमाये रात व्यतीत करते हैं। बलि स्थल पर तथा बलिस्थल के रास्ते पर सूर्यास्त के पश्चात जाने की सख्त मनाही है।

लोक मान्यता है कि गढ़ वाली माता के 12 दावन शेर (एक दावन में 12 शेर अर्थात 12 दावन में 144 शेर) हैं। गढ़ वाली माता के ये शेर बलि का ताजा रक्त ग्रहण करने यहाँ आते हैं तथा रक्त ग्रहण कर निर्धारित स्थान (एक खोह के पत्थर) पर खून से सने पंजे का ताजा निशान भी छोड़ जाते हैं। सुबह ग्रामीण इस स्थान पर जाते हैं, और पंजे का निशान देखने के बाद वे संतुष्ट हो जाते हैं कि हमारे द्वारा दी गई बलि मावली माता ने स्वीकार कर लिया है।

शैलचित्र

भाद्रपद माह, कृष्णपक्ष की काली रात्रि, हवा और हल्का तूफान के बीच रातभर बारिश खुले आसमान के नीचे चट्टानों पर पतली सी पालीथीन के नीचे सिर छिपाकर ग्रामीणों के साथ रात व्यतीत कर, सुबह उत्सुकता के साथ खूनी पंजे का निशान देखने निर्धारित स्थान पर पहुंचे, तो देखा कि यहां पत्थर पर निशान तो है, ताजा भी है, पर शेर के नहीं, आदमी के हाथ के पंजे के निशान है।

आस-पास का मुआयना करने पर पता चला दरअसल ये शैलचित्र हैं, जिसे आदि मानव ने हजारों वर्ष पहले बनाया है। इन शैलचित्रों में कुछ तो विकृत और नष्ट होते हा रहे हैं किन्तु कुछ चित्र आज भी ताजगी लिए हुए हैं। इसीलिए लोग इसे पूर्व मान्यता के अनुसार आज भी ताजा निशान ही समझते आ रहे हैं और इस निर्धारित स्थान को लहू हाता के नाम से जानते हैं। (पंजे के निशान को स्थानीय लोग हाता कहते हैं )

उइका द्वारा निर्मित तालाब

अंचल में प्रचलित किंवदन्ती के अनुसार पठार की दीवार में बने खोह में उइका बौने लोग रहते थे। इनके विषय में जितने मुंह उतनी बातें सुनाई देती हैं। कहते हैं ये उइका आस-पास के गांव के आदमियों को मारकर खा जाते थे और जितने आदमी मारते उसकी गिनती के लिए पंजे का निशान बना देते।

पठार के नीचे बसा ग्राम खल्लारी का मांझी नामक एक बहादुर युवक उइका आतंक से निजात दिलाने के लिए साहस बटोरकर इनको मारने के लिए दौड़ाया। मांझी के अदम्य साहस से घबराए उइका भागने लगे तथा ग्राम हातमा, बोरई होते हुए गादी माय के शरण में चले गये। तब से यह क्षेत्र उइका आतंक से मुक्त हो गया। इसी मांझी की याद में इस पठार को मांझीनगढ़ नाम दिया गया।

मांझिन गढ़ के पठार की घाटी एवं दुधावा जलाशय

शैलाश्रय के अन्दर शैलचित्र, आस-पास घनघोर जंगल पास में पोखर एवं जलश्रोत। इन सारी स्थितियों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यहाँ आदिमानव का डेरा था। पर ये शैलचित्र कितने हजार वर्ष पुराने है? मांझीनगढ़ वासतव में किसका गढ़ था? ये उइका क्या कोई आक्रान्ता थे? मांझी क्या कोई वीर सेनानी था? आदि प्रश्नों को बूझना अभी शेष है।

आलेख

श्री घनश्याम सिंह नाग ग्राम पोस्ट-बहीगाँव जिला कोण्डागाँव छ.ग.

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