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सरगुजा के लोकनृत्य का प्रमुख पात्र “खिसरा”

रंगमंच या नाट्योत्सव भारत की प्राचीन परम्परा है, इसके साथ ही अन्य सभ्यताओं में भी नाटको एवं प्रहसनों का उल्लेख मिलता है। इनका आयोजन मनोरंजनार्थ होता था, नाटकों प्रहसनों के साथ नृत्य का प्रदर्शन हर्ष उल्लास, खुशी को व्यक्त करने के लिए उत्सव रुप में किया जाता था और अद्यतन भी होता है।

इन नाटको प्रहसनों में एक ऐसा पात्र होता है, जो गंभीर से गंभीर कथानक के बीच अगर मंच पर आ जाता है तो दर्शक उसके दर्शन करने मात्र से ही हँसने लगने हैं, बच्चे देखकर करतल ध्वनि करते हैं, यह स्वयं एवं परिवेश पर कथन कर हास्य उत्पन्न करता है, यह मंच का प्रिय पात्र होता है, इसे विदूषक, मसखरा या जोकर कहा जाता है।

नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरत मुनि ने अपने ग्रंथ में विदूषक के चरित्र एवं रंगरुप पर काफ़ी विचार किया है। अश्वघोष ने अपने नाटकों में विदूषक को स्थान दिया है, भास जैसे नाटक रचयिता ने तो वसंतक, मैत्रेय एवं संतुष्ट नामक तीन विदूषकों की रचना करके उन्हें अमर कर दिया।

हमारे छत्तीसगढ़ में भी नाटकों एवं प्रहसनों में विदूषकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जो कि प्राचीन काल से अद्यतन दिखाई देती है। इस तरह हम देखते हैं कि संस्कृत नाटकों से लेकर प्राकृत भाषा के नाटकों एवं स्थानीय बोलियों भाषाओं में प्रदर्शित किए जाने वाले नाटकों में विदूषक का पात्र दिखाई देता है।

ऐसा ही एक पात्र सरगुजा की सांस्कृतिक नृत्यों करमा, सुआ, बायर एवं शैला में भी दिखाई देता है, जिसे स्थानीय बोली में खिसरा कहा जाता है। कार्यक्रम में इसकी महती भूमिका होती है क्योंकि यह जनमानस में हास्य उत्पन्न करता है। ज्यादातर दर्शक खिसरा के तरफ़ आकर्षित होते हैं। नर्तक दलों के थिरकते कलाकारों के साथ एक नज़र खिसरा के तरफ़ भी रखतें हैं।  

खिसरा गांव के नर्तक दल में काफी लोकप्रिय होते हैं। विनोदी स्वभाव वाले व्यक्ति को चयन कर ग्रामीण अंचल के लोक कलाकार कलाप्रेमियों का खास मनोरंजन करने के लिए खिसरा बनाते हैं। भारतीय कला संस्कृति में नट लोगों का इतिहास मिलता है। राजाओं के दरबार में हंसने हंसाने वाले विशिष्ट कलाकार होते थे।

उत्सव आदि आयोजन के समय नट अपनी कला प्रदर्शन से समारोह में शामिल लोगों का मनोरंजन किया करते थे। उनके बीच भी एक पात्र जोकर हुआ करता था। वह लोगों के अन्तर्मन में झांकते हुए दर्शकों हंसाने का कार्य किया करता है।

कुछ ऐसा ही सर्कसों में भी जोकर की भूमिका होती रही थी जोकरगिरी का चलन गांवों शहरों नगरों  के सांस्कृतिक कार्यक्रम का अहम अंग हुआ करता था। आज भी वनांचल ग्रामीण अंचलों में आयोजित होने वाली सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे करमा सुआ शैला बायर ढोमकच पंडो नाचा में एक खिसरा अर्थात जोकर निश्चित रूप से होता है।

खिसरा अलग से लोगों का मनोरंजन करता है। पहले जमाने में लकड़ी के खरादे हुए या पेड़ के छाल से बने मुखौटे पहन कर कोई एक व्यक्ति खिसरा बनकर आयोजित कार्यक्रम में शामिल लोगों का दिल बहलाता था। कालांतर में मुखौटे धातु प्लास्टिक से बनने लगे जिसे चेहरे पर लगा लोग जोकर का किरदार निभाने लगे । गांवों में आम बोलचाल की भाषा में इन्हें खिसरा कहा जाता है।

जोकर तो अपने चेहरे पर रंग लगा कर भी अपनी भूमिका निभाते हैं। सर्कस के जोकर और गांव के लोक कला  के जोकर में अन्तर ज़रूर होता है परन्तु उनका मकसद लोगों का मनोरंजन करना होता है। ग्रामीणांचलों में  होने करमा, सुआ, शैला, बायर आदि पारम्परिक लोक कला में मुख्य भूमिका महिला पुरुष दोनों  की होती है परन्तु उसमें एक खिसरा अर्थात जोकर ज़रूर शामिल होता है।

खिसरा दर्शकों के मन की आंतरिक खुशी है। वनांचल क्षेत्र में होने वाले वनवासी लोक कला महोत्सवों में अक्सर खिसरा का होना जरूरी होता है। ये खिसरा किसी भी भेष-भूषा में हों सकता हैं। फटे-पुराने चिथड़ों में दाढ़ी मूंछ लम्बे बाल, रंग बिरंगा पहनावा, हाथ में डंडा, लकड़ी की कुल्हाड़ी, तलवार आदि लिए हुये दिखाई।

यह कुछ ऐसा अभिनय करत है जिससे दर्शकों में हास्य उत्पन्न हो और हँस हँस कर लोटपोट हो जाएं। दर्शक हंसने के लिए खिसरा के आने की प्रतीक्षा करते हैं। छेरछेरा, राउत नाचा, सुआ, शैला बायर नृत्य में खिसरा शामिल होते हैं। भले की मनोरंजन के साधनों में उल्लेखनीय परिवर्तन दिखाई देता है, परन्तु ग्रामीण अंचल की संस्कृति में आज भी खिसरा का महत्व बना हुआ है।

आलेख

मुन्ना पाण्डे, वरिष्ठ पत्रकार लखनपुर, सरगुजा

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