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बस्तर के भूमकाल विद्रोह के कारण एवं गुण्डाधुर की भूमिका

सत्ता की निरंकुशता और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने में बस्तर के वनवासी कभी पीछे नहीं रहे। हल्बा (डोंगर) विद्रोह, भोपालपट्ट्नम विद्रोह, परलकोट विद्रोह, सन् 1910 का विप्लव आदि इसके दस्तावेजी प्रमाण हैं। सन् 1910 का विप्लव ही बस्तर में भूमकाल विद्रोह के नाम से प्रचारित हुआ।

भूमकाल का अर्थ भूमि में कम्पन या भूकंप से है। भूमकाल एक ऐसा आदोंलन था जिसने सम्पूर्ण बस्तर को हिलाकर रख दिया था। इस आंदोलन के पीछे अनेक कारण थे। इनमें वन नीति, अनिवार्य शिक्षा, धर्म परिवर्तन, बेगारी प्रथा, नौकरशाही आदि प्रमुख है।

काकतीय वंश के राजा भैरम देव (1852-1891) का राज्य था। भैरम देव के भाई लाल कालेन्द्र सिंह बस्तर रियासत के दीवान थे। राजा भैरम देव की दो पत्नियाँ थी, परन्तु कोई पुत्र नहीं था। उनके जीवन के उत्तरार्ध में एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। विषम परिस्थितियों को दृष्टिगत कर मात्रा छ: वर्ष की अल्पायु में ही उनके पुत्र रुद्र प्रताप को बस्तर का राजा घोषित कर दिया गया।

कालांतर में राजा रुद्र प्रताप देव तथा चाचा (दीवान लाल कालेन्द्र सिंह) के बीच किसी बात को लेकर अनबन हो गई। अंग्रेजों से मिलकर राजा रुद्र प्रताप देव ने कालेन्द्र सिंह को दीवान पद से हटा दिया तथा अंग्रेजों के कृपापात्र पंडा बैजनाथ को दीवान नियुक्त कर दिया गया।

दीवान का पद संभालने के बाद बैजनाथ पंडा ने ऐसी वन नीति बनाई थी कि बस्तर के सारे वन शासनाधीन हो गये। इससे बस्तर की आर्थिक स्वतंत्रता खत्म हो गई। वनवासियों का वन संबंधी हक छिन गया। वन में प्रवेश गैर कानूनी हो गया। इंधन (जलाऊ लकड़ी), जड़ी बूटी, कंद मूल फ़ल एवं विभिन्न वनोपज से वनवासी वंचित हो गये।

इसी बीच दीवान बैजनाथ पंडा ने एक और विवादास्पद कदम उठाते हुए बस्तर में अनिवार्य शिक्षा लागु कर दी। आम जनमानस को साक्षरता के शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करने की बजाय अनिवार्य शिक्षा का कानून जबरदस्ती लाद दिया। इस कानून को लागु करने के लिए सिपाहियों की मदद से जबरन बच्चों को निकाला जाने लगा। विरोध करने वाले अभिभावकों को कई तरह से प्रताड़ित किया जाने लगा।

बेगारी प्रथा से वनवासी तंग आ चुके थे। एक पादरी था जो वनवासियों से धर्म परिवर्तन करना चाहता था। अधिकारी जब दौरे पर आते थे, तो आवभगत में उनके मुर्गे और बकरे भी भेंट में चढ़ जाया करते थे। प्रजा अपने अधिकार के प्रति चिंतित थी और राजा अपने सिंहासन के लिए चिंतित था।

भीतर ही भीतर जनजातीय समाज में व्यवस्था के खिलाफ़ असंतोष बढ़ता ही गया और विप्लव की चिंगारी फ़ूट पड़ी। निष्कासित दीवान कालेन्द्र सिंह आदिवासियों की नाराजगी की चिंगारी को आग के रुप में भड़काने के लिए भूमकाल की कल्पना की।

ग्राम नेतानार का एक आदिवासी युवा बाहरी लोंगो से बहुत नफ़रत करता था, उसका नाम था गुंडाधुर। गुंडाधुर को विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए चुना और भविष्य की रणनीति तैयार की। गुंडाधुर युवा और अच्छा यौद्धा था। कुशल रणनीतिकार भी था।

अलग-अलग जाति समाज से नेता चुनकर राजा एवं अंग्रेजों के खिलाफ़ गुंडाधुर ने सबको एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। जाति समाज से प्रमुख सभी नेताओं ने अपने स्तर पर संगठन तैयार किया ताकि वे अलग-अलग जगह से विद्रोह का नेतृत्व कर सकें।  इन नेताओं ने ढेबरी धुर, सोनु मांझी, मुंडी कलार, मुसमी हड़मा, धानु धाकड़, बदरु, बुटलु आदि प्रमुख थे, जो गुंडाधुर के विश्वसनीय भी थे।

उलनार नामक गांव में सभी क्रांतिकारियों की बैठक आयोजित की गई तथा यहीं क्रांति का संकल्प लिया गया और “डारा मिरी” के साथ राशन लेकर निकल पड़े। लाल मिर्च बांधी आम की डाल को “डारा मिरी” कहते थे। इस डारा मिरी रणनीति से सभी गांव तक गुप्त रुप से सूचना पहुंच जाती थी और वनवासी भुमकाल में सम्मिलत होते जा रहे थे।

एक साधारण सा वनवासी युवा कुशल संगठनकर्ता के रुप में ख्याति प्राप्त कर लिया। सन 1910 में सारे संगठन सक्रिय हो गये। तीर-कमान, फ़रसा, भाला, टंगिया (कुल्हाड़ी) आदि हथियारों से सुसज्जित होकर उपद्रव करना शुरु कर दिया।

सरकारी स्कूल, जंगल नाका, पुलिस थाना आदि जलाकर नष्ट कर दिया गया। जो भी प्रताड़ित करने वाला व्यक्ति (शासकीय कर्मचारी हो या अन्य) कोई भी हो, जहां दिखा वहीं मार दिया गया। यहां तक पटवारी और शिक्षक भी नहीं बख्शे गये।

गुंडाधुर एवं उनके साथी विद्रोहियों द्वारा की जा रही उपद्रवी गतिविधियों की सूचना अंग्रेज अधिकारियों को दी गई तो अंग्रेजों सैनिक टुकड़ी के साथ कप्तान गेयर को भेजा ताकि राजा रुद्रप्रताप देव और दीवान बैजनाथ पंडा को मदद की जा सके।

सभी ने मिलकर वनवासियों को शांत करने हेतु नीतियां बनाई, 15 प्रमुख क्रांतिकारी नेता गिरफ़्तार कर लिए गये। लेकिन गुंडाधुर को अंग्रेज सैनिक नहीं पकड़ पाये। गुंडाधुर साहसी एवं कुशल रणनीतिकार है, अंग्रेजों को यह आभास हो गया था।

गेयर ने बस्तर माटी का कसम खाकर छल करने का प्रयास किया ताकि गुंडाधुर और उनके विश्वसनीय साथियों को पकड़ सके। वे अपने छल कपट में कुछ सफ़ल भी हुए। नेतानार में विद्रोहियों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी। सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया था। भारी संख्या में विद्रोही मारे गये। बहुत से विद्रोही घायल हो गये।

ढेबरी धुर के साथ मांडया मांझी आदि प्रमुख नेताओं को इमली के पेड़ पर सरेआम फ़ांसी पर लटका दिया गया लेकिन अंत तक अंग्रेज सैनिक गुंडाधुर को न मार न ही जिन्दा पकड़ सके। अंतत: इस टीप के साथ फ़ाईल बंद कर दी गई कि “गुंडाधुर कौन है और कहां रहता है, कोई बताने में समर्थ नहीं है।“ और आज तक गुंडाधुर कहानी बन गया।

संदर्भ  ग्रंथ:- बस्तर का इतिहास एवं संस्कृति, लेखक लाला जगदलपुरी। बस्तर के लोक नायक : डॉ के. के. झा।

आलेख

घनश्याम सिंह नाग
ग्राम बही गांव, कोण्डागांव

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