शर्म आ रही है उन्हें देख कर ,
जो शर्म बेच खाए हैं।
कल ही की तो बात है,
जो वंदे मातरम नहीं गाए हैं ।
और उन पर भी,
जो बात बात में,
बाँट कर जात पात में ।
संसद के भीतर ,बे कदर
नारे बहुत लगाये हैं ।
शर्म आ रही है उन पर,
जो घटिया मानसिकता से
दूधमुँहे बच्चों से भी ,
प्रतियोगिता के नाम पर ,
भड़कीले नृत्य करवाये हैं।
शर्म आ रही है,
उस फैशन पर,
जिसमें सारा अंग,
झलकता है ।
देवियों के जिस्म से ,
मादकता छलकता है।
किसको किसको कहे यारों,
बूढ़े भी अब बौराये हैं ।
शर्म आ रही है,
उस विकास पर।
जंगलों के ,
महाविनाश पर।
सूखती नदियां, फैलते बंजर ,
दिशाहीन पसरते शहर।
आदरणीयों ने
हरियाली के नाम पर।
सिर्फ दो ठूँठ ही लगाये हैं ।
शर्म आती है उन ,
कलमों पर,
जो पता नहीं,
क्यों मुखरित हो कर।
या हरदम
विष वमन कर ।
गरीबों के आड़ में,
कंगूरों के ही गीत गाए हैं।
शर्म आती है उन्हें देखकर,
जो शर्म बेच खाये हैं।
सप्ताह के कवि