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बस्तर की जनजातीय भाषा हल्बी के बारे में जानें

आदिवासी बहुल बस्तर अंचल में यहाँ की मूल जनजातीय भाषा गोंडी (मैदानी गोंडी, अबुझमाड़ी गोंडी) के साथ-साथ हल्बी, भतरी, दोरली, धुरवी, परजी, चँडारी, लोहारी, पनकी, कोस्टी, बस्तरी, घड़वी, पारदी, अँदकुरी, मिरगानी, ओझी, बंजारी, लमानी, पण्डई या बामनी आदि जनजातीय एवं लोक-भाषाएँ बोली जाती रही हैं।

प्राय: सभी लोक-भाषाएँ सम्बन्धित जनजातियों/जातियों की जातीय भाषा के रूप में अस्तित्व में आयीं और फिर धीरे-धीरे इनमें से कुछ जातीय सीमाओं को लाँघ कर अन्य समुदायों द्वारा भी बोली जाने लगीं। इस तरह इनका स्वरूप जनजातीय भाषा से लोक-भाषा के रूप में परिवर्तित हो गया।

अंचल में सबसे अधिक जनसंख्या गोंडी बोलने वालों की है और इसके बाद हल्बी बोलने वालों की। हल्बी की भी कई शाखाएँ हैं, जो विभिन्न समुदायों द्वारा बोली जाती हैं। इनमें जातीय विशिष्टता पायी जाती है। किन्तु इधर नगरीय परिवेश से निकटता एवं संचार-प्रसार माध्यमों के प्रभाव से अन्य लोक-भाषाओं के साथ-साथ इस लोक-भाषा पर भी संकट के घने बादल मँडराने लगे हैं।

मूलत: इन जनजातीय एवं लोक-भाषाओं को बोलने वाले परिवारों में भी अपनी इन भाषाओं के प्रति ममत्व नहीं रह गया है। लोगों के मन में अपनी मातृ-भाषा को बोलने में हीन-भावना का घर कर जाना बहुत ही भयावह और दु:खद है। ऐसे में वह दिन दूर नहीं जब इन जनजातीय एवं लोक-भाषाओं का अस्तित्व ही समाप्त हो जाये। किन्तु ऐसी बात भी नहीं कि जनजातीय एवं लोक-भाषाओं के अस्तित्व का संकट केवल अपने ही देश में आ खड़ा हुआ है।

दरअसल यह संकट विश्व के तमामतर देशों में महसूसा जा रहा है। भाषा-वैज्ञानिकों के अनुसार 2050 तक विश्व की लगभग 6000 में से आधी भाषाएँ या तो समाप्त हो जायेंगी या फिर समाप्त होती चली जा रही हैं। प्रस्तुत आलेख ऐसी ही लुप्त होती भाषाओं में से एक “हल्बी’ के संरक्षण की दिशा में किया जा रहा एक विनम्र और छोटा-सा प्रयास है। इसके बाद बस्तर की अन्य लोक-भाषाओं को भी इसी दृष्टि से प्रकाश में लाने की मंशा है। आशा है, सुधी पाठकों का यथोचित सहयोग प्राप्त होगा और यह प्रयास सफल होगा।

हल्बा जनजाति एवं उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा हल्बी के बस्तर आगमन के विषय में मतैक्य नहीं है। कुछ लोगों के अनुसार हल्बा जनजाति के लोग भोंसलों के सैनिक हुआ करते थे और इस तरह उनका आगमन महाराष्ट्र से छत्तीसगढ़ में हुआ। इन्हीं के वंशज आगे चल कर बस्तर में बस गये। किन्तु वहीं कुछेक लोगों के अनुसार हल्बा जनजाति वारंगल से भाग कर “चक्रकोट’ (बस्तर राज्य का पुराना नाम) आये राजा अन्नमदेव के साथ आयी थी, जबकि कुछ लोगों का कहना है कि यह जनजाति ओड़िसा से आयी है। हल्बी के विषय में कहा जाता है कि यह छत्तीसगढ़ी, मराठी और भतरी का मिश्रण है। इसे पूर्वी हिन्दी की बोली माना गया है।

बहरहाल, अधिक विस्तार में न जाते हुए पाठकों की सुविधा के लिये संक्षेप में हल्बी-व्याकरण के मुख्य तत्त्वों की चर्चा करना उपयुक्त होगा। इन्हें इस तरह देखा जा सकता है :

01 : हल्बी लोक-भाषा की वर्ण माला में 10 स्वर एवं 28 व्यंजन हैं। स्वर : अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ (हिन्दी के 3 स्वर ऋ, अं, और अ: इसमें नहीं हैं।) व्यंजन : क, ख, ग, घ, च, छ, ज, झ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, स, ह (हिन्दी के  7 व्यंजन ञ, ण, श, ष, क्ष, त्र एवं ज्ञ इसमें नहीं हैं)। इसी तरह अनुस्वार का उच्चारण नहीं के बराबर है। अधिकांशत: अनुनासिक ( ँ) का उच्चारण होता है। उदाहरणार्थ : माँदर, चँदर, बाँगा, जाँगर, माँजा, माँजन आदि। अपवाद स्वरूप कुछ स्थानों पर अनुस्वार ( ं) एवं “न्’ का उच्चारण भी होता है, उदाहरणार्थ : डंका, संकनी, डंकनी, मान्तर (“मान्तर’ का उच्चारण कई लोग “माँतर’ भी करते पाये गये हैं) आदि। विसर्ग है ही नहीं। यद्यपि संयुक्ताक्षरों एवं महाप्राण वर्णों का प्रचलन नहीं रहा है, तथापि नगरीय प्रभाव के चलते अब ये भी प्रचलन में आने लगे हैं।

02 : इस लोक-भाषा में लिंग दो हैं : स्त्रीलिंग और पुÏल्लग, किन्तु अधिकांशत: स्त्रीलिंग का प्रयोग होता है। समस्त पदार्थों, पंच तत्त्वों और सूर्य, चाँद, तारों, पहाड़ों, नदी-नालों, झरनों, प्रपातों तथा पेड़-पौधों आदि सभी के लिए एक वचन में स्त्रीलिंग का ही प्रयोग होता है।  उदाहरणार्थ : “पानी बरस पड़ा’ कहना हो तो “पानी बरसुन दिली’ (पानी बरस पड़ी), “भालू खा गया’ के लिए “भालू खादली’ (भालू खा गयी), “सूर्यास्त हुआ’ के लिए “बेर बसली’ (सूरज डूबी) आदि तथापि आधुनिक प्रभाव के चलते अब यथा-स्थान पुÏल्लग प्रयोग भी प्रचलन में आने लगा है।

02 (अ) : मात्र भूतकालिक क्रिया के अन्य पुरुष, एक वचन में ही लिंग-भेद पाया जाता है, अन्यत्र नहीं। उदाहरणार्थ :

03 : इसमें संस्कृत, हिन्दी, अरबी और फ़ारसी तथा अँग्रेज़ी भाषाओं के शब्द भी तत्सम एवं तद्भव रूप में उपस्थित हैं।  जैसे : असुर, सुख, धनू, धार, मान, धारा, अरजी (अर्ज़ी), असल, नकल (नक़ल), इनाम, खजाना (ख़ज़ाना), खबर (ख़बर) आदि तथा कुछ तद्भव शब्द भी, जैसे : इरखा (ईर्ष्या), लोन (लवण), जतन (यत्न), लाज (लज्जा), आँग (अंग), आन (आनय), सित/सीत (शीत), चेत (चैतन्य), मुँड (मुण्ड) आदि।

04 : जब इ/ईकार या उ/ऊकार किसी भी शब्द के आरम्भ या मध्य में आए तो उसका स्वरूप ह्मस्व हो जाता है तथा अन्त में आने पर दीर्घ। उदाहरणार्थ :  तिन = त+इ+न,  घिन = घ+इ+न,  घिनघिना =  घ+इ+न+घ+इ+ना, पियास = प+इ+या+स,  अजिक, धिरे, भितरे, झिक, खिंडिक, हिरामनी, लाफी, धुर, खुबे, कमानी, कारी, पाटी, गेलिस : गेली, इलिस : इली, खादलिस : खादली, पिवलिस : पिवली, साँगलिस : साँगली, दिया : दिली, इया, निया, निलिस : निली, दिलिस : दिली, खाऊँ : खाउन : खाउक : खाउकलाय, देऊँ : देउन : देउक : देउकलाय, जाऊँ : जाउन : जाउक : जाउकलाय, आनूँ : आनुन : आनुक :  आनुकलाय, पिऊँ : पिउन : पिउक : पिउकलाय, नीं : निहाय/निंहाय : नर्इं, मँगलादई, फुँडा, कोटी, सिबसंकर, पिता, किरती, सपनुन, करुन, बनाउन, करूँ, झोली, पाइक, खोरिन-खोरी, रासिन-रासी, परजापती, आदी आदि। किन्तु अपवाद स्वरूप उपर्युक्त नियम के विपरीत कुछेक शब्दों के मध्य में आने वाले इ/ई का स्वरूप दीर्घ हो जाता है, उदाहरणार्थ : पीतअम्मर, पटीन्तर आदि। इस लोक-भाषा पर पूर्वी प्रभाव का परिणाम है कि इस में चाय “पी’ नहीं “खाई’ जाती है : “चाहा खादलिस (चाय खाई)?’  इस लोक-भाषा के कुछ मौलिक शब्दों की बानगी देखें :

  1. सरपटा/सरपट्टा : पूरी तरह से (एक साथ)। हुनमन गोटकी थाने सरपटा/सरपट्टा सोउन दिला (वे सभी एक ही जगह एक साथ सो गये)।
  2. लिटलिटा/लिटलिट्टा/लिटोलाटो : भरपूर। हुन रुक ने आमा लिटलिटा/लिटलिट्टा/लिटोलाटो फरू रय (उस पेड़ पर भरपूर आम फले थे)। हुन जाले लिटलिटा/लिटलिट्टा मँद पिऊ रय (उसने भरपूर मदिरा पी रखी थी)।
  3. लटलटा : भरपूर से अधिक। लटलटा मँद पिउन भाती घरे नीं इया आयँ (भरपूर मदिरा पी कर घर मत आओ, ऐं)!
  4. बुटबुटा/बुटबुट्टा : पूरी तरह से (भिगा देना)। लेकी मन हुनके हरदी ने बुटबुटा/बुटबुट्टा बनाउन दिला (लड़कियों ने उसे हल्दी से पूरी तरह भिगा दिया)।
  5. तिकतिका : सचेत होना, स्वास्थ्य-लाभ पाना। दवा-ओखद करतो के लेका तिकतिका होलो (दवाई-औषधि करने पर लड़का ठीक हो गया)।
  6. ढँगढँगा : पूरी तरह खुला, स्वादहीन। घर के कसन ढँगढँगा छाँडुन इलिस (घर को कैसे खुला छोड़ आये)? काय ढँगढँगा साग के दिलिसिस आले (क्या स्वादहीन सब्जी दी है भला)?
  7. भँगभँगा : पूरी तरह खुला, खाली। भितरे टामँडुन दखतो के अबगो भँगभँगा रय (भीतर हाथ डाल कर देखने पर केवल खुला/खाली था)।

05 : कुछेक प्रकरणों में कुछ ह्मस्व ध्वनियाँ दीर्घ ध्वनियों में भी बदलती देखी गयी हैं। उदारणार्थ : धुर (दूर), फिंद (पिंद)।

06 : क्षेत्रीय भिन्नताएँ :

06 (1) : कोंडागाँव तहसील के किबई कोकोड़ी नामक गाँव तथा इस के आसपास बोली जाने वाली हल्बी में कुछ अन्तर पाया जाता है, जो निम्न है  (1) अ :  ले की जगह लें और लू की जगह लूँ :

06 (2) :  अन्तागढ़ क्षेत्र की हल्बी में खादलू की बजाय खदलू उच्चारित होता है।

06 (3) :  नारायणपुर क्षेत्र की हल्बी में एहा, कोंडागाँव क्षेत्र में इया और इहा तथा जगदलपुर क्षेत्र में इया का उच्चारण है।

06 (4) : कोन्टा क्षेत्र की हल्बी में हुनके की बजाय हुनाके का प्रचलन है जबकि नारायणपुर क्षेत्र में तेके शब्द का। इसी तरह हुनी की जगह तेई भी प्रचलित है।

06 (5) :  जगदलपुर तहसील के मँधोता (मन्धोता), भाटपाल, पोटानार आदि क्षेत्र में कुछ शब्दों के बीच से उ वर्ण लुप्त है, उदाहरणार्थ : बनाउन की जगह बनान, खाउआत की जगह खावात, जाउआत की जगह जावात, बोहराउन की जगह बोहरान,  आदि। यह प्रवृत्ति जगदलपुर तहसील के ही खोरखोसा नामक गाँव के कुछ भतरा परिवारों में भी पायी गयी है। हल्बी के अन्यतम कवि श्री सोनसिंह पुजारी की कविता में भी “बनाउन’ की बजाय “बनान’ शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है। पंक्ति इस तरह है : “मोचो मोल के बनान दिलिस’ (“टुटलो मन’)।

06 (6) : जगदलपुर तहसील के कुछ क्षेत्र में क्रिया में एसोत प्रत्यय लगा कर अपूर्ण वर्तमान काल बनाया जाता है, जबकि सोत क्षेत्र में सोत या सत (खा+सोत/खा+सत) प्रत्यय लगाया जाता है। उदाहरणार्थ :

07 (1) :  कोंडागाँव जिले के ही कुछ भागों में हिन्दी के “नहीं’ शब्द के अर्थ में प्रयुक्त “नीं’, “नइँ’, “नर्इं’ और “नार्इं’ का एक अलग ही लघु रूप “इँ’ (और “र्इं’) भी मिलता है। उदाहरणत: “मयँ इँ जायँ’, “हुन र्इं एय’, “हामी र्इं जाऊँ’ आदि। हिन्दी का “नहीं’ शब्द भी कस्बाई प्रभाव के चलते इस क्षेत्र में यथावत् प्रयोग में आता पाया गया है। उदाहरणत: “मयँ नहीं बलुन थाकुन गेले।’

07 (2) :  कोंडागाँव जिले के कोंडागाँव (सरगीपाल पारा) में निवास-रत एक समुदाय विशेष द्वारा “जासत’ की जगह “जाहत’ और “आसत’ की जगह “आहत’ शब्द का प्रचलन भी पाया गया है।

यहाँ यह उल्लेख आवश्यक होगा कि “हल्बी’ का स्वरूप पूरे बस्तर में एक जैसा नहीं है। प्राय: उच्चारण-भिन्नता दिखलाई पड़ती है किन्तु कभी-कभी शब्दों के अर्थ ही बदल जाते हैं। “फटई’ शब्द यदि कहीं केवल कपड़े का अर्थ देता है तो कहीं मासिक धर्म के दौरान पहने जाने वाले कपड़े का। इसी तरह “लुगा’ शब्द यदि कहीं “कोई भी कपड़ा’ है तो कहीं “साड़ी’।

08 : कोंडागाँव कस्बे के एक विशेष समुदाय के कुछ लोगों द्वारा बोली जाने वाली हल्बी में “के’ शब्द का एक अतिरिक्त प्रयोग देखने में आता है। उदाहरणार्थ : आले हुनके बलाउन के आना। इस वाक्य में “के’ का कोई अर्थ नहीं है। वाक्य “के’ शब्द के बिना ही पूर्ण है किन्तु तो भी यह अटपटा प्रयोग भी प्रचलन में रहा है।

यद्यपि हल्बी बस्तर की सम्पर्क भाषा रही है किन्तु इसमें आयी जातिगत विशेषताओं के कारण इसका स्वरूप अलग-अलग जातियों में अलग-अलग पाया जाता है। उदाहरण के तौर पर यहाँ चँडारी हल्बी, पनकी हल्बी, लोहारों द्वारा बोली जाने वाली हल्बी जिसे वे “फारसी गोठ’ तथा घड़वा एवं पारधी समुदाय द्वारा बोली जाने हल्बी जिसे वे “भाँसड़ी’ कहते हैं, पर दृष्टि डालना उचित होगा। उल्लेखनीय है कि घड़वा जाति के ही कुछ लोग अपनी जाति गड़वा, गडवा और घसिया भी बताते हैं (घड़वा शिल्पी राजेन्द्र बघेल, भेलवाँपदर पारा, कोंडागाँव)। राजेन्द्र बघेल के अनुसार ही छत्तीसगढ़ी परिवेश में इस जाति को कसेर और ताम्रकार के नाम से जाना जाता है। सबसे पहले लोहारों द्वारा बोली जाने वाली हल्बी (फारसी गोठ) श्री (अब स्वर्गीय) रैतूराम विश्वकर्मा (लौह शिल्पी, बन्धापारा, कोंडागाँव) के सौजन्य से :

पनका जाति व्यवसाय से बुनकर रही है। छत्तीसगढ़ी परिवेश में ये “पनिका’ कहलाते हैं। ये कबीर-पंथी हैं। पनका जाति के विषय में इसी जाति के (श्री भादूदास मानिकपुरी, बुनकर, राजा पारा, बड़े कनेरा, जिला : कोंडागाँव एवं अन्य) लोग कहते हैं कि वे छत्तीसगढ़ के दामाखेड़ा गाँव से आये हैं। इनकी हल्बी मानक हल्बी से अलग है :

बस्तर में कपड़ा बुनने का काम पनका जाति के अलावा चँडार, मिरगान, गाँडा, माहरा और कोस्टा जातियाँ भी करती रही हैं। चँडार जाति का बस्तर में आगमन ओड़िशा से हुआ है। लिमदास चँडार (बुनकर, नगरनार, जिला : बस्तर, छ.ग.) के अनुसार इन्हें ओड़िशा में “चँडरा’ भी कहा जाता है। इनकी हल्बी भी जातीय विशेषताएँ लिए हुए है और मानक हल्बी से भिन्न भी :

लोहार, पनका और चँडार जाति की ही तरह गड़वा या घड़वा समाज की भी जातीय भाषा है। इस जातीय भाषा को वे “फारसी’ कहते हैं। इसके विषय में पंचूराम सागर (घड़वा शिल्पी, अस्पताल वार्ड, कोंडागाँव) बताते हैं : हमारे समाज की कूट भाषा भी है जिसे हम “फारसी’ के नाम से जानते हैं। यह हमारी जातीय भाषा है जिसे हम गुप्त रखते हैं और जो विशेष परिस्थिति में हमें बचाने के लिये उपयोग में लायी जाती है। यह इस तरह है :

लोहार, पनका, चँडार और घड़वा समुदायों की तरह पारदी लोगों की भी अपनी अलग भाषा है। इसे ये लोग “भाँसड़ी’ कहते हैं। आसाराम मण्डावी और मेहतर राम सोड़ी के अनुसार उनके समाज के बहुत से लोग तो इस “भाँसड़ी’ को भूल गये हैं। अब तो हल्बी का ही उपयोग करने लगे हैं। हाँ, कुछेक लोग रह गये हैं जो अपनी इस मूल भाषा को आज भी जानते हैं और सहेजे हुए हैं। इस समुदाय में इस बात को ले कर बहुत रोष है कि इन्हें आदिम जनजाति के रूप में शासन द्वारा आज तक मान्यता नहीं मिली है जबकि इनका रहन-सहन, भाषा-बोली, देवी-देवता और संस्कृति पूरी तरह से गोंड जनजाति से साम्य रखती है। इस भाषा के कुछ उदाहरण निम्न हैं :

सरगीपाल  पारा, कोंडागाँव निवासी और मूर्धन्य जगार गायिका यानि  गुरुमायँ सुखदई कोर्राम मूलत: “अँदकुरी गाँडा’ समुदाय से सम्बन्ध रखती हैं और इनकी मातृ-भाषा “अँदकुरी’ रही है। किन्तु हल्बी के प्रभाव में आने के कारण इनकी मातृ-भाषा “अँदकुरी’ का स्थान हल्बी ने ले लिया है। सुखदई कोर्राम मूलत: जगार-गायिका यानी “गुरुमायँ’ हैं। “लछमी जगार’ और “तीजा जगार’ का गायन ये वर्षों से कर रही हैं। इसके साथ ही इन्हें न जाने कितनी लोक कथाएँ, लोक गीत, लोक गाथाएँ, पहेलियाँ, मुहावरे और कहावतें कंठस्थ हैं। इनका हल्बी के साथ-साथ भतरी, बस्तरी और छत्तीसगढ़ी पर भी समान अधिकार है तथापि इनकी हल्बी में कई ऐसी ध्वनियाँ हैं जो कोंडागाँव के ही अन्य भागों में बोली जाने वाली ध्वनियों से भिन्न हैं। इनमें अतिरिक्त रूप से “अनुस्वार’ एवं “अनुनासिक’ या “चन्द्रबिन्दु’ का प्रयोग तथा “व’ वर्ण का प्रयोग देखने में आता है। उदाहरण के लिये अनुस्वार के अतिरिक्त प्रयोग वाली ध्वनियाँ ये हैं,  इलें : इले, गेलें : गेले, पुजलें : पुजले, पुचलें (पोछलें) : पुचले (पोछले), पुजलेंसे : पुजलेसे, राँधलें : राँदले, खादलें : खादले, पिवलें : पिवले, जातें : जाते आदि। इसी तरह अनुनासिक या चन्द्रबिन्दु के अतिरिक्त प्रयोग वाली ध्वनियाँ ये हैं, गेलूँ : गेलू, इलूँ : इलू, बल्लूँ : बल्लू, मारतूँ : मारतू, खातूँ : खातू, पिवतूँ : पिवतू, पुजलूँ : पुजलू, पुचलूँ (पोछलूँ) : पुचलू (पोछलू), पुजलूँ : पुजलू, पुजलुँसे : पुजलुसे, राँदलूँ : राँदलू, खादलूँ : खादलू, पिवलूँ : पिवलू  आदि।

इसी तरह अतिरिक्त रूप से “व’ ध्वनि के प्रयोग के उदाहरण ये हैं :

किन्तु ऐसा भी नहीं कि उनके द्वारा प्रयोग में लायी गयीं अतिरिक्त अनुस्वार एवं अतिरिक्त अनुनासिक या चन्द्रबिन्दु वाली ध्वनियाँ और अतिरिक्त प्रयोग में लायी गयी “व’ वर्ण-युक्त ध्वनियाँ रूढ़ हों। वे इन दोनों ही तरह की ध्वनियों का यत्र-तत्र प्रयोग करती भी दिखायी पड़ती हैं।

कुछ ध्वनियाँ ऐसी हैं जिन्हें क्षेत्रीय भिन्नता के रूप में देखा जा सकता है। वे ध्वनियाँ हैं :

कुछेक ध्वन्यात्मक शब्द ये हैं : पुट् नाय, पुट् ने, पुटुक् नाय, पुटुक् ने, भुट् नाय, भुट् ने, भुटुक् नाय, भुटुक् ने, तड़ाक् नाय, तड़ाक् ने, भुटभाट्-भुटभाट्, पुटपाट्-पुटपाट्, फुट्फाट्-फुट्फाट्, लटपट्-लटपट्, लटे-पटे, पुड़ुक् नाय, पुड़ुक् ने, पिड़िक् नाय, पिड़िक् ने, चिमिक् ने, चिमिक् नाय, ढी नाय, ढिजाल नाय, ढिजाल ने, भुड़भाड़ ने, भुड़भाड़ नाय, पिचिंग्-पिचिंग्, ढुम्-ढुम्, छिर्छिर्-छिर्छिर्, छर्छर्-छर्छर्, घुम्म्-घुम्म्, हलोहाल, हलहला, हुलहुल-हुलहुल, ढिकिम्-ढिकिम्, ढिकिम्-ढाकम्, उलट-पुलट, पुटुस-पाटस, कुटुस-काटस, कचकच-कचकच (हाँसतो), खचखच-खचखच, (हाँसतो), कचकच (होतो), खिचखिच-खिचखिच (हाँसतो), चड़चड़ा, चड़चड़ा होतो, चड़चड़ा अमरातो, लोंडा (लोंढा)-पाड़ा, टम्-टम् (दुखतो)

शब्द-युग्मों की भी हल्बी में कमी नहीं हैं। ये इस तरह हैं : इरखा-कुचर (ईर्ष्या-जलन), पेज-पसेया (पसिया, पसया) (पेज और माड़), डाँड-पाट (देवी-देवता), कयरी-बयरी (ईर्ष्यालु-वैरी), ओदर-भसक, (गिरना-पड़ना), ओदर-भोसड़ (गिरना-पड़ना), अपटी-कचाड़ी (पटकना-गिराना/गिरना-पटकना), आपटी-कचाड़ी (पटकना-गिराना/गिरना-पटकना), लाट-बयरक (देवी-देवताओं के प्रतीक लम्बे और सजे हुए बाँस), दखा-दखी (आपस में एक-दूसरे को देखना), बला-बली (आपस में एक-दूसरे से बोलना, झगड़ना), हगाव-नचाव (परेशान करना), ढाका-चुटा (ढँकना-बंद करना), ढाकी-चुटी (ढँकना-बंद करना), ढापा-चुटा (ढँकना-बंद करना), ढापी-चुटी (ढँकना-बंद करना), डगडग-डगडग (एकटक देखना), रगरग-रगरग (आग में तप कर लाल होना), बटबट-बटबट (आँखें फाड़ कर देखना), हला-डुला (हिलना-डुलना) आदि।

इस लोक-भाषा में पाये जाने वाले भिन्नार्थी शब्द हैं : नँगत : अच्छा, नँगत होतो : प्रसव होना। फटई : कपड़ा (कोई भी), मासिक-धर्म के दौरान पहना जाने वाला अन्त:वस्त्र। लुगा : साड़ी, कोई भी कपड़ा, धोती, अशुद्ध कपड़ा (मासिक-धर्म के  दौरान पहना जाने वाला अन्त:वस्त्र)।

सांकेतिक या गूढ़ार्थक शब्दावली भी इस लोक-भाषा की अपनी विशेषता है। उदाहरणार्थ, तुमचो घरे फुल फुटलिसे। मय फुल पिंदुक इलेसे (आपके घर में फूल खिला है। मैं वह फूल पहनने आया हूँ। यानी आपके घर में विवाह-योग्य कन्या है, जिसका हाथ माँगने मैं आया हूँ।)। पानी पड़तो/पानी पड़तोर (रजस्वला होना)। लुगा लगातो/लुगा लगातोर (प्रथम बार रजस्वला होने पर कपड़े धोना। मूल अर्थ रजवती होना)। बर उदतो (वर का आगमन होना)। धुँगिया (धुँगया/धुँगेया) देतो/देतोर (बेटी का विवाह अमुक व्यक्ति के साथ करने के लिये वचन देना)। बेटी हारतो/हारतोर (बेटी का विवाह अमुक व्यक्ति के साथ करने के लिये वचन देना)।

प्रसंगानुसार सूक्ष्म अर्थ देने वाले स्नेह-ममता-सूचक कुछ शब्द इस तरह हैं : बाबा, बेटा, बुबा, आया, हाँडा, धनी, दोंदो आदि। वहीं कुछेक ऐसे शब्द भी हैं जो हिन्दी का अर्थ देते प्रतीत होते हैं किन्तु वस्तुत: विपरीतार्थी होते हैं। ऐसे शब्दों में निरामुँही, (निरामोही, निरामुँई या निरामुई) को रखा जा सकता है। इसका अर्थ निर्मोही लगाया जा सकता है। कारण, अर्थ तो स्पष्टत: “जिसे मोह न हो’ ही है किन्तु हल्बी-भतरी में इसका अर्थ एकदम उलटा है। यानी “वह जिसने मोहित कर रखा है’।

 

शोध आलेख

हरिहर वैष्णव

सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226

बस्तर, छत्तीसगढ़

मोबाईल नम्बर – 7697174308

hariharvaishnav1955@gmail.com

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