बालोद से दुर्ग मार्ग में पैरी नामक छोटा सा ग्राम है। पैरी ग्राम से लगा हुआ एक छोटा सा ग्राम है गौरेया। बालोद से आने वाली तांदुला नदी पैरी एवं गौरेया ग्राम की सीमा रेखा बनाती है। बालोद क्षेत्र अपने एतिहासिक एवं दर्शनीय स्थलों के लिये छत्तीसगढ़ में प्रसिद्ध है। बालोद में ही तांदूला नदी पर बना तांदूला जलाशय छत्तीसगढ़ में सबसे पुराना एवं बड़े बांधों में से एक है। बालोद से कुछ दुरी पर ही सियादेवी नामक प्राकृतिक एवं धामिज़्क दर्शनीय स्थल है। यहां का कपिलेश्वर मंदिर समूह तो बालोद को छत्तीसगढ़ के एतिहासिक मानचित्र में मुख्य स्थान दिलाता है।
तांदूला के तट पर बसा गौरेया ग्राम आज लोगों के मध्य एक नया नाम है। विडंबना तो यहां तक है कि आसपास के गाम्रवासी भी गौरेया नाम से अनभिज्ञ है। गौरेया का पहचान लोगों में सिर्फ़ वहां लगने वाले माघी पूर्णिमा के मेले और शिव मंदिर तक ही सीमित है।
नवीन बने शिव मंदिर और मेले के अलावा गौरेया की एक नयी पहचान लोगों के मध्य अभी भी आने को षेश है और वह पहचान इसे ना केवल बालोद अंचल वरन पुरे छत्तीसगढ़ में एक महत्वपूणज़् दर्शनीय स्थल के रूप में स्थापित करेगी।
गौरेया धाम में तांदूला के तट पर विषाल प्रांगण एक युक्त नया बना हुआ शिव मंदिर है। इस शिवमंदिर प्रांगण में पीपल, बरगद, और बेल वृक्षों की छांव में शिवमंदिर ए दुर्गा मंदिर, राममंदिर , बुद्ध मंदिर जैसे छोटे-बड़े नये बने हुये मंदिर है।
साथ ही इस प्रांगण में अनेक प्राचीन प्रतिमायें और मंदिर के ध्वंसावेष व्यवस्थित रखे हुये है। प्रांगण की चार दिवारी से सटाकर से कतारबद्ध प्रतिमायें किसी भी दर्शनार्थी का ध्यान अपनी ओर अवश्य आकर्षित करती है। 140 से अधिक की संख्या में ये प्रतिमायें बलुए प्रस्तर से बनी हुई है। इन प्रतिमाओं में लगभग 50 प्रतिमायें वीर योद्धाओं और बाकी सती स्तंभ है। हाथ में कटार एवं ढाल लिये वीर पुरूषों की प्रतिमायें उन सैनिकों या योद्धाओं की प्रतिमायें है जो युद्ध में मारे गये थे। इन प्रतिमाओं में लगभग 50 से अधिक प्रतिमायें सती स्मारक है। ये सती स्मारक उन स्त्रियों के सम्मान में बनाये गये है जिनके पति युद्ध या आक्रमण में मारे गये थे। उन विधवा महिलाओं ने अपने सतीत्व को बचाने के लिये एकमात्र उपाय अग्नि स्नान को ही प्रमुखता से चुना।
सती स्मारक एवं योद्धा प्रतिमाओं की इतनी अधिक मात्रा इस बात ही द्योतक है कि प्राचीन काल में गौरेया एक बहुत ही बड़ा सती धाम था। भारत में सती होने का लिखित साक्ष्य गुप्त राजवंश में राजा भानुगुप्त के 510 ई के एरण स्तंभ लेख से प्राप्त होता है। यहां के सती स्तंभों से यह बात तो निश्चित हो जाती है कि बालोद अंचल में भी प्राचीन समय में सती प्रथा प्रचलित रही है।
प्राचीन काल में गौरेया का अपना कोई विशेष धार्मिक महत्व अवश्य रहा होगा तभी यहां इतनी अधिक संख्या में महिलायें सती होती थी। इन सती स्तंभो की संख्या जो कि लगभग 50 से भी अधिक है।
इन सती स्तंभों में एक स्तंभ पर बनी चिड़िया के चित्र को दिखाते हुये मंदिर के मुख्य पुजारी कहते है कि इस चिड़िय़ा के कारण ही इस जगह का नाम गौरेया पड़ा। हमारे धरों के आसपास फूदकने वाली यह चिड़िय़ा गौरेया ही है। इस नाम से ही यह गांव गौरेया कहलाया।
इन सती स्तंभों एवं वीर स्तंभों के अलावा गणेश, सूर्य, खंडित भैरव और उपासकों की भी प्रतिमायें रखी हुई है। एक छोटे से कांचे के बक्से में शिव पार्वती की सुंदर एवं कलात्मक प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। मंदिर परिसर में पीछे की तरफ एक उपासक की प्रतिमा को श्रद्धालू शनि देवता के नाम से पूजा करते आ रहे है।
मंदिर के ध्वंसावषेशों के देखने पर यहां एक प्राचीन मंदिर होने का भान होता है। शिव मंदिर का सूक्ष्म अवलोकन से मुझे यह प्रमाण भी मिल गया कि यह नवीन शिव मंदिर एक ध्वस्त प्राचीन शिव मंदिर के अवषेशों पर ही निर्मित है। यह मंदिर उत्तराभिमुख है। इस मंदिर की पिछली दिवार एवं अन्य दिवारों में लगे प्रस्तर स्तंभ इसे प्राचीन शिवमंदिर होने का प्रमाण देते है। मंदिर गर्भगृह एवं मंडप में विभक्त रहा होगा। प्राचीन मंडप का एक स्तंभ अब भी मंदिर के बाहर रखा हुआ है। मंदिर के आमलक का भग्नावशेष भी बाहर रखा हुआ है।
मंदिर का गर्भगृह काफी गहराई में है। सात पैड़ियां नीचे उतरकर गर्भगृह में प्रवेश किया जाता है। गर्भगृह में जलहरी युक्त प्राचीन शिवलिंग स्थापित है जो काले प्रस्तर से निर्मित है। मंदिर के अंदर उपासकों की प्रतिमायें भी रखी हुई है। एक उपासक की खंडित प्रतिमा ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा है। इसी प्रतिमा के निचले हिस्से में चारों पंक्तियो में एक विस्तृत लेख अंकित है। यह लेख देवनागरी लिपि और संस्कृत भाषा में है। हालांकि यह लेख अस्पस्ट है। फिर भी इसकी कुछ शब्द समझ में आते है। लेख का प्रारंभ ओम नम शिवाय से हुआ है। राजपुरुष की खंडित प्रतिमा के इस लेख से यह अनुमान होता है कि इस लेख में यहां बने प्राचीन शिवमंदिर और तत्कालीन राजवंश जानकारी होगी।
इस शिव मंदिर की एक अन्य खासियत यहां के पुजारी बडे गर्व एवं जिज्ञासा से बताते है कि सावन माह में कावडियों एवं भक्तों द्वारा शिवलिंग पर जलाभिषेक से गर्भगृह में चार फीट तक जल भर जाता है और कुछ ही समय में वह जल अपने आप धरती के अंदर विलीन हो जाता है जबकि गर्भगृह का फ़र्श पक्का है। जलाभिषेक किया हुआ जल कहां जाता है यह जानने की उत्सुकता पुजारी के मुख पर दिखाई दे रही थी।
इस मंदिर के पीछे ही छोटी सी बावड़ी है। यह बावड़ी भी काफी प्राचीन है। प्राचीन काल में मंदिरों के साथ लोककल्याण के दृश्टि से छोटे तालाब या बावड़ी भी बनायी जाती रही है। स्थानीय ग्रामीणों ने बावड़ी का सौंदयीज़्करण कर रखा है। बावड़ी के चारों ओर पक्की पैड़ियां बनाई गयी है।
मंदिर के पुजारी बावड़ी से जुड़ी एक महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए बताते है कि बावड़ी की साफ-सफाई के दौरान इसमें से चांदी का एक प्राचीन सिक्का प्राप्त हुआ है। हालांकि सिक्के का फोटो उपलब्ध ना होने के कारण उसकी प्राचीनता का अंदाज लगाना संभव नहीं है।
मंदिर के अंदर पीछे की तरफ लगभग 70 साल पुरानी छतरी बनी हुई है। राजस्थान एवं महाराष्ट्र क्षेत्र में ऐसी छतरियां देखने को मिलती है। हालांकि यह छतरी ज्यादा पुरानी नहीं है किन्तु बलुआ पत्थरों से बनी होने के कारण प्राचीनता का अहसास होता है।
मंदिर परिसर हिन्दु धर्म के मंदिरों के अलावा बौद्ध धर्म का एक मंदिर भी है। मंदिर के अंदर भगवान बुद्ध की छोटी सी कांस्य प्रतिमा स्थापित है।
मंदिर के बाहर ही तांदुला नदी पर एनीकट बनाया गया है। जिसके कारण यहां एक छोटी सी झील बन गई है। आसपास हरे भरे पेड़ो एवं कुश की झाड़ियों के कारण यह स्थान मनमोहक एवं दर्शनीय है तथा प्राचीन ऐतिहासिक महत्व का स्थल है, जिस पर शोध होने पर अन्य जानकारियाँ प्राप्त होंगी, बड़ी संख्या में सती स्तंभ एवं योद्धा स्मारक प्राप्त होने का आशय यह भी है कि कभी यहाँ भयंकर युद्ध हुआ होगा।
आलेख
ओम सोनी
गीदम, दंतेवाड़ा बस्तर
छत्तीसगढ़
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