Home / ॠषि परम्परा / तीज त्यौहार / छत्तीसगढ़ में मैत्री का पारंपरिक त्योहार : भोजली

छत्तीसगढ़ में मैत्री का पारंपरिक त्योहार : भोजली

प्राचीनकाल से देवी देवताओं की पूजा के साथ प्रकृति की पूजा किसी न किसी रुप में की जाती है। पेड पौधे, फल फुल आदि के रूप में पूर्ण आस्था के साथ आराधना की जाती है। इसी पर आधारित ग्रामीण आंचल में भोजली बोने की परंपरा का निर्वहन पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाता है।

श्रावण मास में जब प्रकृति अपने परिधान में चारों और हरियाली बिखेरने लगती है तब कृषक अपने खेती कार्य से थोडा समय निकाल कर गांव की चौपाल में आल्हा के गीत गाने में व्यस्त हो जाते हैं इस समय अनेक लोक पर्वों का आगमन होता है और लोग इसे खुशी खुशी मनाने में व्यस्त हो जाते हैं इन्ही त्यौहारों में भोजली भी एक है, कृषक बालाएं प्रकृति देवी की आराधना करते हुए भोजली त्यौहार मनाती है

छत्तीसगढ में सावन महीने की नवमी तिथि को छोटी॑-छोटी टोकरियों में मिट्टी डालकर उनमें अन्न के दाने बोए जाते हैं। ये दाने धान, गेहूँ, जौ , कोदो , अरहर, मुंग, उडद आदि के होते हैं। ब्रज और उसके निकटवर्ती प्रान्तों में इसे “‘भुजरियाँ”” कहते हैं। कई अलग-अलग प्रदेशों में इन्हें फुलरिया, धुधिया धैंगा, जंवारा, या भोजली भी कहते हैं।

जिस प्रकार भोजली एक सप्ताह के भीतर खूब बढ़ जाती है, उसी प्रकार हमारे खेतों में फसल दिन दूनी रात चौगुनी हो जाये… कहते हुए जैसे वे भविष्यवाणी करती हैं कि इस बार फसल लहलहायेगी और वे सुरीले स्वर में लोकगीत गाती हैं।

छत्तीसगढ़ में भोजली का त्योहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ की संस्कृति एवं परम्पराओं के मूल में अध्यात्म एवं विज्ञान है । यहाँ लोकाचार भी अध्यात्म से पोषित होता है और विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही परम्पराओं की निसेनी तक पहुँचता है । यहाँ का लोक विज्ञान समृध्द है । हमारा छत्तीसगढ़ ” धान का बौटका ” है । यहाँ धान की शताधिक किस्में बोई जाती हैं । धान छत्तीसगढ़ की आत्मा है ।

अध्यात्म की भाषा में यदि हम कहें तो किसान अन्नपूर्णा मातेश्वरी का आवाहन करता है सेवा सुश्रुषा करता है और संतोष का अनुभव करता है। यह पूरी प्रक्रिया यज्ञ -विधान जैसी है उतना ही सत्य पावन और भाव-पूर्ण। इस भोजली पर्व का महत्व नवरात्रि जैसा ही है ।

भोजली : मित्रता की मिसाल

भोजली के लोकगीत है जो श्रावण शुक्‍ल नवमी से रक्षाबंधन के दुसरे दिन तक छत्तीसगढ़ के गांव गांव में गूंजते है और भोजली माई के याद में पूरे वर्ष भर गाए जाते है । छत्तीसगढ़ में बारिस के रिमझिम के साथ कुंआरी लडकियां एवं नवविवाहिताएं औरतें भोजली गाती है।

दरअसल इस समय धान की बुआई व प्रारंभिक निदाई गुडाई का काम खेतों में समाप्ति की ओर रहता है और कृषक की पुत्रियां घर में अच्‍छे बारिस एवं भरपूर भंडार फसल की कामना करते हुए फसल के प्रतीकात्‍मक रूप से भोजली का आयोजन करती हैं । भोजली को घर के किसी पवित्र स्‍थान में छायेदार जगह में स्‍थापित किया जाता है । दाने धीरे धीरे पौधे बनते बढते हैं, महिलायें उसकी पूजा करती हैं एवं जिस प्रकार देवी के सम्‍मान में देवी की वीरगाथाओं को गा कर जवांरा – जस – सेवा गीत गाया जाता है वैसे ही भोजली दाई के सम्‍मान में भोजली सेवा गीत गाये जाते हैं । सामूहिक स्‍वर में गाये जाने वाले भोजली गीत छत्‍तीसगढ की शान हैं । महिलायें भोजली दाई में पवित्र जल छिडकते हुए अपनी कामनाओं को भोजली सेवा करते हुए गाती हैं।

भादो कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को भोजली का विसर्जन किया जाता है । भोजली सेराने की यह प्रक्रिया बहुत ही सौहार्द्र पूर्ण वातावरण में अत्यन्त भाव पूर्ण ढंग से सम्पन्न होती है । मातायें-बहनें और बेटियाँ भोजली को अपने सिर पर रखकर विसर्जन के लिए धारण करती हैं और भजन मण्डली के साथ, बाजे-गाजे के साथ भाव पूर्ण स्वर में भोजली गीत गाती हुई तालाब की ओर प्रस्थान करती हैं।

संध्या 4 बजे भोजली लेकर गांव की बालिकाएं गांव के चौपाल में इकट्ठा होती हैं और बाजे गाजे के साथ वे भोजली लेकर जुलूस की शक्ल में पूरे गांव में घूमती हैं। गांव का भ्रमण करते हुए गांव के गौंटिया/ मालगुजार के घर जाते हैं जहां उसकी आरती उतारी जाती है फिर भोजली का जुलूस नदी अथवा तालाब में विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। नदी अथवा तालाब के घाट को पानी से भिगोकर धोया जाता है फिर भोजली को वहां रखकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है और तब उसका जल में विसर्जन किया जाता है। फिर भोजली को हाथ अथवा सिर में टोकनी में रख कर वापस आते समय मन्दिरों में चढ़ाते हुए घर लाती हैं।

छत्तीसगढ़ में मनाया जाने वाला भोजली का यह त्योहार मित्रता का ऐसा पर्व है जिसे जीवन भर निभाने का संकल्प लिया जाता है। इस दिन की खास बात यह है कि समवयस्क बालाये अपनी सहेलियो के कान में भोजली की बाली (खोंचकर) लगाकर ‘भोजली’ अथवा ‘गींया’ (मित्र) बदने की प्राचीन परंपरा है। जिनसे भोजली अथवा गींया बदा जाता है उसका नाम वे जीवन भर अपनी जुबान से नहीं लेते और उन्हें भोजली अथवा गींया संबोधित करके पुकारते हं। उनके माता-पिता भी उन्हें अपने बच्चों से बढ़कर मानते हैं। उन्हें हर पर्व और त्योहार में आमंत्रित कर सम्मान देते हैं।

मित्रता के इस महत्व के अलावा वे घर और गांव में अपने से बड़ों को भोजली की बाली देकर उनका आशीर्वाद लेती हैं तथा अपने से छोटों के प्रति अपना स्नेह प्रकट करती हैं। भोजली, छत्तीसगढ़ में मैत्री का ऐसा सुंदर और पारंपरिक त्योहार है, जिसे आज के युवाओं द्वारा मनाए जाने वाले फ्रेंडशिप डे के मुकाबले कई सौ गुना बेहतर कहा जा सकता है। भोजली बदकर की गई दोस्ती मरते दम तक नहीं टूटती जबकि आजकल का फ्रेंडशिप डे मात्र एक दिन के लिए मौज- मस्ती करने वाली दिखावे की दोस्ती होती है। यह परम्परा प्राचीनकाल से अद्यतन जारी है।

आलेख

पं मनोज शुक्ला
महामाया, मंदिर, रायपुर

About nohukum123

Check Also

“सनातन में नागों की उपासना का वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और जनजातीय वृतांत”

शुक्ल पक्ष, पंचमी विक्रम संवत् 2081 तद्नुसार 9 अगस्त 2024 को नागपंचमी पर सादर समर्पित …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *