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श्रावणी उपाकर्म : विद्याध्यन प्रारंभ करने का पर्व

वैदिक काल में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को श्रावणी पर्व के रुप में मनाया जाता था। इसे श्रावणी उपाकर्म भी कहा जाता है। उस काल में वेद और वैदिक साहित्य का स्वाध्याय होता था। लोग प्रतिदिन वैदिक साहित्य का पठन करते थे, लेकिन वर्षा काल में वेद पाठ किया जाता था। वेद पाठ का आयोजन विशेष रुप से किया जाता था।

सावन मास श्रावण का परिवर्तित नाम है। इस मास की वैदिक महत्ता ऋषि मुनियों के समय से प्रचलित है।विक्रमी संवत के अनुसार श्रावण पांचवा मास है। प्राचीन काल में श्रवण मास को जीवन का अभिन्न अंग समझा जाता था। कालांतर में विदेशी संस्कृति के प्रचार से जनमानस इसे भूल गया है।

उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। उपाकरण का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना। वैदिक काल में यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल था। इसके आयोजन काल के बारे में स्मृति गंथों में लिखा गया है कि – जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को उपाकर्म होता है।

रक्षाबंधन – रक्षा सूत्र बंधन

इस अध्ययन सत्र का समापन, उत्सर्जन या उत्सर्ग कहलाता था। यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है। विशेषकर यह पुण्य दिन मनुष्य के लिए बहुत महत्व रखता है।

जीवन के विज्ञान की यह एक सहज, किन्तु अति महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । जन्मदात्री माँ चाहती है कि हर अण्डा विकसित हो । इसके लिए वह उसे अपने उदर की ऊर्जा से ऊर्जित करती है, अण्डे को सेती है । माँ की छाती की गर्मी पाकर उस संकीर्ण खोल में बंद जीव पुष्ट होने लगता है । उसके अंदर उस संकीर्णता को तोड़कर विराट् प्रकृति, विराट् विश्व के साक्षात्कार का संकल्प उभरता है । उसे फिर उस सुरक्षित संकीर्ण खोल को तोड़कर बाहर निकलने में भय नहीं लगता । वह दूसरा-नया जन्म ले लेता है ।

यह प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्रक्रिया है, किन्तु पुरुषार्थसाध्य है । पोषक और पोषित; दोनों को इसके अंतर्गत प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है । इसीलिए शास्त्र कहते हैं कि- ‘मनुष्य जन्म तो सहजता से हो जाता है, किन्तु मनुष्यता विकसित करने के लिए कठोर पुरुषार्थ करना पड़ता है ।’

भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश होता था। इस दिन को विशेष रुप से विद्यारंभ दिवस के रुप में मनाया जाता था। बटूकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता था। श्रावणी पूर्णिमा को जीर्ण यज्ञोपवीत को उतार कर नवीन यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है, जिसे हम वर्तमान में भी निभाते चले आ रहे हैं।

हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बोवाई सम्पन्न हो जाती है। ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गांव के निकट आकर रहने लगते थे। जिसका लाभ ग्रामवासी उठाते थे। जिसे चातुर्मास या चौमासा करना कहते हैं।

चौमासे में ॠषि मुनि एक जगह वर्षा काल के चार महीनों तक ठहर जाते थे। आज भी यह परम्परा जारी है। इन चार महीनों में वेद अध्ययन, धर्म-उपदेश और ज्ञान चर्चा होती थी। श्रद्धालु एवं वेदाभ्यासी इनकी सेवा करते थे और ज्ञान प्राप्त करते थे। इस अवधि को “ॠषि तर्पण” कहा जाता था।

जिस दिन से वेद पारायण का उपक्रम आरम्भ होता था उसे “उपाकर्म” कहते हैं। यह वेदाध्यन श्रावण सुदी पूर्णिमा से प्रारंभ किया जाता था। इसलिए इसे “श्रावणी उपाकर्म” भी कहा जाता है।

पारस्कर के गुह्य सुत्र में लिखा है-“ अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “ (2/10/2-2) यह वेदाध्ययन का उपाकर्म श्रावणी पूर्णिमा से प्रारंभ होकर पौष मास की अमावस्या तक साढे  चार मास चलता था। पौष में इस उपाकर्म का उत्सर्जन किया जाता था।

इसी परम्परा में हिंदु संत एवं जैन मुनि वर्तमान में भी चातुर्मास का आयोजन करते हैं, भ्रमण त्याग कर चार मास एक स्थान पर ही रह कर प्रवचन और उपदेश करते हैं।

मनुस्मृति में लिखा है- 
श्रावण्यां पौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि।
युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान् विप्रोSर्ध पंचमान्।।
पुष्ये तु छंदस कुर्याद बहिरुत्सर्जनं द्विज:।
माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वार्धे प्रथमेSहनि॥

अर्थात श्रावणी और पौष्ठपदी भ्राद्रपद, पौर्णमासी तिथि से प्रारंभ करके ब्राह्मण लगनपूर्वक साढे चार मास तक छन्द वेदों का अध्ययन करे और पौष मास में अथवा माघ शुक्ल प्रतिपदा को इस उपाकर्म का उत्सर्जन करे।

इस कालावधि में प्रतिदिन वेदाध्यन किया जाता था, प्रतिदिन संध्या और अग्निहोत्र किया जाता था। नए यज्ञोपवीत को धारण करके स्वाध्याय में शिथिलता न लाने का व्रत लिया जाता था। वेद का स्वाध्याय न करने से द्विजातियां शुद्र एवं स्वाध्याय करने से शुद्र भी ब्राह्मण की कोटि में चला जाता है। इस तरह वेदादि अध्ययन एव स्वाध्याय का प्राचीनकाल में बहुत महत्व था।

श्रावणी पर्व के तीन लाभ है, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक एवं सामाजिक। आध्यात्मिक लाभ यह है कि श्रावण का अर्थ होता है जिसमें सुना जाये। अब सुना किसे जाता है। संसार में सबसे अधिक महत्वपूर्ण ईश्वरीय ज्ञान वेद है। इसलिए इस मास में वेदों को सुना जाता है। श्रावण में गर्मी के पश्चात वर्षा आरम्भ होती है। वर्षा में मनुष्य को राहत होती है। चित वातावरण के अनुकूल होने के कारण शांत हो जाता है। मन प्रसन्न हो जाता है।

वर्षा होने के कारण मनुष्य अधिक से अधिक समय अपने घर पर व्यतीत करता है। ऐसे अवसर को हमारे वैज्ञानिक सोच रखने वाले ऋषियों ने वेदों के स्वाध्याय, चिंतन, मनन एवं आचरण के लिए अनुकूल माना। इसलिए श्रावणी पर्व को प्रचलित किया। वेदों के स्वाध्याय एवं आचरण से मनुष्य अपनी आध्यात्मिक उन्नति करे। यही श्रावणी पर्व का आध्यात्मिक प्रयोजन है।

वैज्ञानिक लाभ यह है कि श्रावण में वर्षा के कारण कीट, पतंगे से लेकर वायरस, बैक्टीरिया सभी का प्रकोप होता हैं। इससे अनेक बीमारियां फैलती है। प्राचीन काल से अग्निहोत्र के माध्यम से बिमारियों को रोका जाता था। श्रावण मास में वेदों के स्वाध्याय के साथ साथ दैनिक अग्निहोत्र का विशेष प्रावधान किया जाता है। इसीलिए वेद परायण यज्ञ को इसमें सम्मिलित किया गया था।

इससे न केवल श्रुति परम्परा को जीवित रखते वाले वेद-पाठी ब्राह्मणों का संरक्षण होता है अपितु वेदों के प्रति जनमानस की रूचि में वृद्धि भी होती है। श्रावणी पर्व का वैज्ञानिक पक्ष पर्यावरण रक्षा के रूप में प्रचलित है।

सामाजिक लाभ यह है कि श्रावण मास में वर्षा के कारण सन्यासी, वानप्रस्थी आदि वन त्यागकर नगर के समीप स्थानों पर आकर वास करते है। गृहस्थ आश्रम का पालन करने वाले लोग अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए महात्माओं का सत्संग करने के लिए उनके पास जाते है।

महात्माओं के धर्मानुसार जीवन यापन, वैदिक ज्ञान, योग उन्नति एवं अनुभव गृहस्थियों को जीवन में मार्गदर्शन एवं प्रबंध में लाभदायक होता हैं। श्रवण पर्व का सामाजिक पक्ष ज्ञानी मनुष्यों द्वारा समाज को दिशा-निर्देशन एवं धर्म भावना को समृद्ध करना है।

कालांतर में यह पर्व राखी (रक्षाबंधन) के रुप में परिवर्तित हो गया। नारियाँ को दुश्मन यवनों से बहुत खतरा रहता था। वे बलात् अपहरण कर लेते थे। इससे बचने के लिए उन्होने वीरों को कलाई परे सूत्र बांध कर अपनी रक्षा का संकल्प दिलाया।

तब से यह प्रसंग चल पड़ और रक्षा बंधन का पर्व भी श्रावण सुदी पूर्णिमा को मनाया जाने लगा। राख का अर्थ ही होता है, रखना, सहेजना, रक्षित करना। कोई भी नारी किसी भी वीर को रक्षा सूत्र (राखी) भेज अपना राखी-बंध भाई बना लेती थी वह आजीवन उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझाता था।

एक किंवदन्ति के अनुसार चित्तौड़ की महारानी कर्णावती ने मुगल बादशाह हुमायूं को गुजरात के शासक से अपनी रक्षा हेतु राखी भेजी थी और बादशाह हुमायूं ने राखी का मान रखते हुए तत्काल चित्तौड़ पहुंच कर उसकी रक्षा की थी। परन्तु यह कथन मिथ्या प्रतीत होता है, क्योंकि राजपुताना का इतिहास इसे नकारता है और कहा जाता है कि हुमायूँ कर्णावती की रक्षा करने नहीं आया।

राजपूत काल से रक्षा-सूत्र के बंधन का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ और रक्षा बंधन पर्व मनाया जाने लगा। जबकि रक्षा सूत्र बांधने का काम ब्राह्मण लोग करते थे। कालांतर में उसका रुप बदल गया और रक्षा सूत्र बंधन ने रक्षा बंधन का रुप ले लिया और वह वर्तमान स्वरुप आप सभी के सामने है और सामाजिक समरस्ता का प्रतीक भी बना हुआ है।

आलेख। 

ललित शर्मा इंडोलॉजिस्ट

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