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अनमोल जैव विविधता को संजोता पर्व हलछठ

भारत के पर्व प्रकृति को संजोते हैं, जीवों को संरक्षित करते हैं। सदियों से चले आये पर्वों के रीति रिवाज को जब हम तिलांजलि दे रहे हैं तब उनकी महत्ता हमारे सामने आ रही है। हलषष्ठी एक ऐसा ही त्यौहार है जिसमें जैव विविधता, भू-जल को संरक्षित कर व्यवहारिक रूप दिया गया है। यही अनमोल जैव विविधता धरती पर मानव के रहने के लिए अत्यंत जरूरी है।

प्राचीन काल से हर बरस भाद्रपद कृष्ण पक्ष की षष्ठी पर एक त्यौहार मनाया जाता है हलषष्ठी। हरछठ ,कमरछठ,चाननछठ के नाम से मनाया जाने वाले पर्व में घर-घर भू-जल संवर्धन,जैव विविधता संरक्षण किया जाता है। पर्व के धार्मिक अनुष्ठान में उपयोग से बाहर हुई वनस्पतियों और जीवों को संरक्षित रखने की परंपरा रखी गई है।

हरछठ में उन सभी तथ्यों को समाहित किया गया है जिसके संरक्षण ,संवर्धन के लिए 20 वीं सदी में समूचा विश्व चिंतित हो उठा है। रियो -डी -जेनेरियो के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में जैव विविधता संरक्षण को परिभाषित किया गया। इस अनमोल जैव विविधता को संजोने के लिए दुनिया के कई देशों ने बायोस्फियर रिजर्व बनाएं हैं। जहां वनस्पतियों और जीवों (फना एंड फ्लोरा) को संरक्षित किया जा रहा है। जैव विविधता जितनी अनमोल है, मानव जीवन को धरती पर बनाए रखने के लिए उतनी ही जरूरी है।

हरछठ के दिन श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्मदिन मनाया जाता है, जिनका प्रमुख शस्त्र हल है। भारतीय कृषि का प्राण तत्व हल है । हरछठ में उन अनाज का उपयोग होता है जो हल चलाए बिना उत्पन्न होते हैं। महिलाएं पुत्र कामना के लिए हरछठ का पर्व पर उपवास रहती है। इस दिन का पसहर चावल जिसे नीसार, फसही भी कहते हैं इसे भोजन में लिया जाता है । इस चावल की खेती नहीं होती और यह नम स्थानों पर खुद-ब-खुद उत्पन्न होता है। साग के लिए पौधों के पत्तों को लिया जाता है जो अपने आप उत्पन्न होते हैं।

कमरछठ माता की पूजा में काशी फूल, कुश, झरबेरी, गूलर, महुआ, पलाशी टहनी उपयोग में ली जाती है। महुआ पत्ते के दोंने बनाए जाते हैं एवम मिट्टी से बनी चुकिया में सतनाजा अनाज भूनकर भरा जाता है। भुने हुए अनाज में गेहूं, चना, लाई, मक्का, जौ, बाजरा और मूंग को लिया जाता है। वनस्पतियों के साथ सूखी धूल, हरी कजरिया, होली की राख , होली की आग में भुना होरा , जौ की बालियां सम्मिलित की जाती है।

भारत की गोधन संस्कृति है जिसमें भैंस को एक तरह से त्याज्य माना गया है। भैंस का वंश भी चलता रहे इसलिए हरछठ में उसे सर्वोपरि महत्ता दी गई है । हरछठ में भैंस का दूध, दही, घी का उपयोग होता है। यह उसी भैंस का होता है जिसका पड़वा ( नर संतान) जीवित हो। भैंस के गोबर से कमरछठ माता का अंकन किया जाता है और रंगों के लिए छुही मिट्टी, गेरू और काजल का इस्तेमाल होता है।

ललईछठ पूर्वी भारत में मनाया जाता है जहां एक छोटा गड्ढा तालाब स्वरूप में बनाया जाता है। कुंवारी कन्या चंद्राषष्ठी, चानन छठ मनाती हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में सगरी खोदी जाती है जिसमें सब्बल गाड़ा जाता है। सारे भारत में मनाए जाने वाले हरछठ में मिट्टी से बनाया एक पात्र चुकिया में भोग सामग्री सतनजा अनाज भरा जाता है। सभी महिलाएं कमरछठ माता के सामने कहानी सुनती हैं। व्रत रखने वाली लड़कियां व महिलाएं महुआ या पलाश के पत्तल, दोंना में पसहर चावल खाती है सब्जियों में उन भाजियों का उपयोग होता है जो वर्षा काल में स्वमेव उत्पन्न होती हैं।

कमरछठ पर्व में काम आने वाली सारी चीजें गांव में ही उपलब्ध होती है जहां उत्पन्न होने वाले क्षेत्र जैव विविधता को संरक्षित करते हैं। गड्ढा बनाकर सगरी में पूजन होता है वहां भूजल संवर्धन होता है। पूजा सामग्री सारे देश में एक प्रकार की त्याज्य वनस्पतियों को लेकर की जाती है। पसहर चावल का महत्व भी इस दिन होता है और यह हर गांव में उत्पन्न होता है। बिना हल चलाए जो चीजें प्राकृतिक रूप से होती है उनकी वनस्पतियों के पत्तों की सब्जी का खाई जाती है। भारतीय संस्कृति का यह महान पर्व जैव विविधता संरक्षण के साथ भू-जल संवर्धन करता है।

भारत के पर्व और उनके रीति रिवाज वैज्ञानिकता दिए हुए हैं उन्हें धार्मिक अनुष्ठानों से जोड़ा गया है ताकि यह परंपरा अबाध गति से चलती रहे। भारतीय संस्कृति की यही अनूठी परंपरा रही है जहां विभिन्न जाति, संप्रदाय के लोग भी इन परंपराओं से जुड़े हुए हैं। वैश्वीकरण, उपभोक्ता संस्कृति के पक्षधर ऐसी परंपराओं को सहेजने वालों को दकियानूसी करार देते हैं यही कारण है कि परंपराओं में समाहित वैज्ञानिकता को नजरअंदाज किया जा रहा है। आज कमरछठ पर्व का मूल तत्व इसलिए ही बिखर रहा है इसके बिखरने के साथ गांव-गांव में बने अनमोल जैव विविधता संरक्षण वाले क्षेत्र भी खत्म हो रहे हैं।

श्री रविन्द्र गिन्नौरे
भाटापारा, छतीसगढ़

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