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देवालयों में संगीत द्वारा ईश्वरीय आराधना की परंपरा

संगीत मनुष्य की आत्मा में निवास करता है, जब भी कहीं सुगम संगीत बजता हुआ सुनाई दे जाए मन तरंगित हो उठता है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में संगीत का प्रमुख स्थान है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष नामक पुरुषार्थ चतुष्टय में इसे मोक्ष प्राप्ति का सुगम मार्ग माना जाता है। क्योंकि ओ3म् नामक ब्रह्मनाद उर्जा का ईश्वरीय स्वरुप है जो ब्रह्माण्ड को मनुष्य के साथ जोड़ता है तथा संगीत की उत्पत्ति भी इसी नाद से मानी जाती है।

विश्व की समस्त प्राचीन संस्कृतियों में धर्म एवं संगीत का गहरा स्थान रहा है। माना जाता है कि प्राचीन मानव के गीत, वाद्य तथा नृत्य धार्मिक प्रसंगों द्वारा आए। वर्तमान में भी आदिम जातियां धार्मिक पर्वों पर गीत गाने के साथ विविध वाद्यों तथा नृत्यों का प्रयोग करती पाई जाती हैं। समस्त धर्मों में समान रुप संगीत की व्यापकता पाई जाती है। प्रायः संगीत को जनमानस पर प्रभाव डालने के लिए उसे एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में स्वीकार किया गया है।

इसी धारणा के साथ संगीत भारत के प्राचीन देवालयो एवं शिवालयों के साथ संलग्न पाया जाता है। भक्तिकाल में तो भजन को ही मोक्ष का मार्ग लिया गया, संगीत से मोक्ष की प्राप्ति का सुगम मार्ग ढूंढ लिया गया। इसीलिए हम देखते हैं की प्राचीन मंदिरों, देवालयों के साथ वर्तमान में भी घंटनाद, शंखनाद एवं नगाड़ा वादन संलग्न है। जिसे आरती के समय एवं पूजा के समय बजाया जाता है।

वेणुगोपाल – भोरमदेव मंदिर – फ़ोटो – ललित शर्मा

भारत के प्राचीन मंदिरों और देवालयों की बाह्य भित्तियों पर अत्यंत अनूठी कलात्मकता के साथ मूर्तियों को उत्कीर्ण किया गया है। भारत के मंदिर देवालय हों या फिर दक्षिण कोसल में स्थापित कोई भी मंदिर, शिवालय हो, मंदिरों की भित्तियों पर गंधर्वों, नृत्यांगनाओं, वाद्यकों की मूर्तियां दृष्टिगोचर होती हैं। साथ ही सभी तरह के वाद्ययंत्रों के साथ विभिन्न भाव-भंगिमाएं तथा नृत्य मुद्राओं में नृत्यांगनाएं भी परिलक्षित होती हैं। जिससे ज्ञात होता है कि हिन्दू धर्म का नृत्य, कला, योग और संगीत से अटूट सम्बन्ध है।

हिन्दू धर्म में मान्यता है कि ध्वनि एवं प्रकाश से ब्रह्मांड की सृष्टि हुई है। ध्वनि का संबंध संगीत से है क्योंकि संगीत का आत्मा से घनिष्ट संबंध होता है। ऋषि-मुनियों ने प्रकृति से ध्वनियों को खोज कर उन्ही के आधार पर मंत्रों की संस्कृत भाषा में रचना की और ध्वनि विज्ञान के आधार पर शास्त्रों की रचना की।

प्राचीनकाल में मंदिर सामाजिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण केंद होते थे जहां ईश्वरीय उपासना के साथ विभिन्न कलाओं जैसे वास्तु कला, चित्र कला, शिल्पकला, संगीत कला एवं युद्ध कला में पारंगत कलाकारों को सम्मानित किया जाता था। कुशल कलाकारों एवं कारीगरों की अनुठी कला का प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी भारत के मंदिरों में देखने मिलता है।

धमधागढ़ – धमधा, फ़ोटो – ललित शर्मा

शिल्पकारों ने तत्कालीन समाज की सम्पूर्ण गतिविधियों के किसी भी पक्ष को अपनी कला से प्रदर्शित करने में कहीं भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। संगीत कला में नृत्य एवं वाद्य यंत्रों के शिल्प को देखकर जनमानस में संगीत के प्रति रुचि, ज्ञान और उन्नत स्वरूप का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। सभ्यता में विकास के साथ संगीत भी परिष्कृत होता गया।

ॐ स्वर से नाद की उत्पत्ति हुई। ध्वनि से स्वर, फिर राग एवं भाव उत्पन्न हुए। अतः संगीत में जो मधुर व कर्णप्रिय ध्वनि उपयोग की जाती हैं वही नाद है। स्वर, लय, ताल का संगम संगीत है। ताल में ता शब्द शिव के तांडव से और ल शब्द पार्वती के लास्य नृत्य से उत्पन्न हुआ। शिव ने सर्वप्रथम ताल शब्द का प्रयोग किया और पार्वती की शयन मुद्रा को देख कर उनके अंग-प्रत्यंग के आधार पर ही रूद्र वीणा बनाकर पंच मुख से पांच रागों की रचना की, छठवां राग पार्वती जी के मुख से उत्पन्न हुआ।

पौराणिक मान्यता है कि संगीत की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के द्वारा हुई, ब्रह्मा जी ने यह ज्ञान देवी सरस्वती को दिया। सरस्वती जी ने नारद मुनि को और इनके द्वारा स्वर्ग के गन्धर्व, किन्नरों और अप्सराओं को संगीत की शिक्षा दी गई। इसप्रकार हम देखते हैं कि भारत में संगीत परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है।

नृत्यांगना – पाली, फ़ोटो – ललित शर्मा

हिंदूओं के सभी देवी-देवताओं के पास अपने वाद्य यंत्र हैं, जैसे विष्णु भगवान के हाथ में शंख, शिव का डमरू, कृष्ण की वेणु, सरस्वती माँ और देवर्षि नारद की वीणा। इसी प्रकार नृत्य में शिव द्वारा किया गया तांडव नृत्य, जिससे उन्हें नटराज कहा गया। श्री कृष्ण का नृत्यावतार के आधार पर उन्हें नटवर एवं मुरली बजाने के कारण मुरलीधर व वेणु गोपाल भी कहा जाता है।

इंद्र स्वयं अच्छा नर्तक था, उसकी सभा में अप्सराएं एवं गन्धर्वों द्वारा गायन,वादन और नर्तन होता था। साथ ही शिव-पार्वती के नृत्य का भी वर्णन पुराणों में मिलता है। प्रथम पूज्य श्री गणेश की नृत्य करती मूर्ति भी देखने मिलती है अतः संगीत कला हिन्दू देवी -देवताओं को भी अत्यंत प्रिय माना गया है इसीलिए देवी-देवताओं की स्तुति, पूजन-अर्चन में विभिन्न वाद्य यंत्रों के साथ नृत्य एवं मंत्रोच्चारण करते हुए उन्हें प्रसन्न किया जाता था।

वेदों की ओर दृष्टिपात करें तो सामवेद में देवोस्तुति प्राप्त होती है। सामवेद में लघु, दीर्घ और प्लुत स्वरों में पाठ किया जाता है। संगीत का रूप, सामवेद के उपवेद गंधर्ववेद में दिखाई देता है। गीत, वाद्य, नृत्य अर्थात संगीत के स्वर ताल एवं राग-रागिनियों का अंकन हमें प्राचीन मंदिरों, शिवालयों में दिखाई देता है।

शंख वादक – पाली, फ़ोटो ललित शर्मा

अनेक मानवाकृतियों को विभिन्न वाद्ययंत्र लिए नृत्य करते चित्र अंकित किये गए है। जिनमे सुषिर अर्थात फूंक कर बजाए जाने वाले वाद्य यंत्र जैसे बांसुरी, शंख, तुरही, श्रृंगी लिए हुए साथ ही दुंदुभि, भेरी, मृदंग, घट, वीणा, घण्टी, डमरू, झांझ, मंजीरा, नगाड़ा, पखावज, ढोलक, मुहरी, घुंघरू आदि वाद्ययंत्रों विभिन्न नृत्य मुद्राओं एवं भाव-भंगिमाओं के साथ संगीत को जीवंत रूप से प्रदर्शित किया गया है।

पौराणिक वाद्ययंत्रों के साथ समय काल में बाहरी लोगों के भारत में आगमन का संगीतकला पर भी प्रभाव पड़ा। अतः बाद के मंदिरों की भित्ति चित्रों एवं मूर्तियों में वाद्य यंत्रों के बदले स्वरुप भी देखने मिलते है। इन्ही वाद्य यंत्रों को लिए नृत्य करते उत्कीर्ण करने के साथ ही रेखाओं का आरोह-अवरोह और लचीलापन भी इनमें निहित है, साथ ही छत्तीस रागिनियों का भी अंकन किया गया है।

भारत के प्राचीन मंदिरों में संगीत, नर्तन, वादन विषय के शिल्प उत्कीर्ण हैं, जिसे आज भी देखा जा सकता है। संगीत से आत्मा शुद्ध होती है, शारीरिक विकार दूर होते हैं यही कारण है कि मानव द्वारा शुद्ध, सरल व निर्विकार हृदय से संगीत के द्वारा ईश्वर की आराधना सहत्राब्दियों से की जाती रही है।

भांड देवल- आरंग, फ़ोटो ललित शर्मा

स्वयं को ईश्वर से जोड़ने का माध्यम संगीत ही है। अध्यात्मिकता और संगीत एक-दूसरे के पूरक हैं। इसलिये देवालयों में भजन, कीर्तन, नर्तन, वादन द्वारा स्तुति करते हुए अध्यात्मिकता का भी विकास किया जाता था ये परम्परा आज तक चली आ रही है।

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर मानी जाने वाले बहुत से प्राचीन मंदिरों, शिवालयों में संगीत द्वारा देवस्तुति की अनेकों प्रतिमाएं देखने मिलती हैं। जो यहाँ की उन्नत संगीत कला, नृत्य शैली, वाद्य यंत्रों से परिचित कराती हैं। आदिवासी समाज में एवं अन्य जातियों में भी देवी-देवताओं को प्रसन्न करने हेतु विभिन्न वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं जिनकी ध्वनियां मंत्र मुग्ध कर देती हैं।

वाद्यों के वादन के साथ पारंपरिक नृत्य करते हुए अपने देवी-देवताओं को प्रसन्न किया जाता है ताकि चारों दिशाओं में समृद्धि एवं हर्ष हो। सभी के कल्याण की कामना से नाच-गा कर उनकी स्तुति की जाती है। पाषाण हृदय को भी मोम के समान पिघलाने की शक्ति संगीत में है इसलिये धर्म, अर्थ, काम,मोक्ष को साधने के हजारों उपाय बताए गए हैं उनमें से एक संगीत भी है।

देवी देवताओं को मनाने के लिए नृत्य करते हुए युवतियां – फ़ोटो – ललित शर्मा

यह मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है तभी तो वैदिक संस्कृति में संगीत का महत्व बताया गया है तथा अद्यतन स्थिति तक पहुंचने में मानव ने परिवर्तनों के साथ संस्कारों, रीति-रिवाजों, को आत्मसात किया है परंतु उसमे निहित जीवन रस आज तक वैसा ही जीवंत है जैसा हजारों वर्ष पूर्व था। इन्हीं परम्पराओं ने ही संस्कृति को समृद्ध और गौरवशाली बनाया है।

सामवेद में संगीत को मोक्ष प्राप्ति का साधन माना है। संगीत से मन-मस्तिष्क शांत एवं शरीर स्वथ्य होता है। इसमें मन को एकाग्र करने की अद्भुत शक्ति होती है, इसी कारण संगीत को ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग माना गया है तथा संगीत मानव के जीवन में रचा बसा हुआ है जैसे प्रकृति।

आधुनिक युग की बात करें तो आज भी प्रभु कीर्तन में गायन, वादन और नर्तन का अत्यंत विकसित रूप देखने मिलता है। वैज्ञानिक तथ्य के आधार पर वाद्य यंत्रों से निकली ध्वनि तरंगों से वातावरण शुद्ध व सात्विक होता है। तनाव दुःख दूर होने पर जीवन में सकारात्मकता तथा स्फूर्ति आती है।

नृत्य गणपति – फ़ोटो ललित शर्मा

संगीत के माध्यम से स्तुति हमारी वैदिक संस्कृति एवं सभ्यता में आदिकाल से चले आ रहे हैं। भारत ऋषि मुनियों, साधु-संतों और कलाकारों की भूमि रही है। प्राचीनकाल में वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर ही सारी ललित कलाएं अवलंबित थी। उन्ही आधारों पर मंदिरों का शिल्प विधान देखने मिलता है। उनमें से एक संगीत द्वारा देवोस्तुति भी है। प्राचीन काल में संगीत कला का उपयोग ईश्वर की आराधना के लिए किया जाता था तथा यही परम्परा आज तक चली आ रही है।

आलेख

श्रीमती रेखा पाण्डेय
हिन्दी व्याख्याता , अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़

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