भारत ही स्वामीजी का महानतम भाव था। …भारत ही उनके हृदय में धड़कता था, भारत ही उनकी धमनियों में प्रवाहित होता था, भारत ही उनका दिवा-स्वप्न था और भारत ही उनकी सनक थी। इतना ही नहीं, वे स्वयं भारत बन गए थे। वे भारत की सजीव प्रतिमूर्ति थे। वे स्वयं ही – साक्षात् भारत, उसकी आध्यात्मिकता, उसकी पवित्रता, उसकी मेधा, उसकी शक्ति, उसकी अन्तर्दृष्टि तथा उसकी नियति के प्रतीक बन गए थे।
स्वामी विवेकानन्द की एक अमेरिकी प्रशंसिका थीं – जोसेफीन मैक्लाउड। उन्होंने स्वामीजी से पूछा, “मैं आपकी किस प्रकार अच्छी तरह सहायता कर सकती हूँ?” स्वामीजी ने त्वरित और दो टूक में अपना उत्तर दिया, “भारत से प्रेम करो।” भारत और भारतवासियों की किस प्रकार सर्वांगीण उन्नति हो, कैसे वे अपने पैरों पर खड़े हों और किस प्रकार वे अपनी आध्यात्मिक विरासत के प्रति पुन: सचेत हों, यही मानो स्वामीजी के ध्यान का विषय हो गया था। उन्होंने स्वयं को एकबार ‘घनीभूत भारत’ कहा था। सचमुच वे भारत से एकरूप हो गए थे।
भगिनी निवेदिता कहती हैं, “भारत ही स्वामी जी का महानतम भाव था। …भारत ही उनके हृदय में धड़कता था, भारत ही उनकी धमनियों में प्रवाहित होता था, भारत ही उनका दिवा-स्वप्न था और भारत ही उनकी सनक थी। इतना ही नहीं, वे स्वयं भारत बन गए थे। वे भारत की सजीव प्रतिमूर्ति थे।
वे स्वयं ही – साक्षात् भारत, उसकी आध्यात्मिकता, उसकी पवित्रता, उसकी मेधा, उसकी शक्ति, उसकी अन्तर्दृष्टि तथा उसकी नियति के प्रतीक बन गए थे।” क्या सचमुच ऐसा हो सकता है? जी हाँ। यही वह निःस्वार्थ प्रेम है, जिसने पूर्वकाल में हमारे देश में शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और आधुनिक भारत में लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी जैसे महापुरुष उत्पन्न किए। ये सभी महापुरुष यदि चाहते तो स्वार्थपरता की संकीर्ण दीवारों में आबद्ध रहकर अपना भोगमय जीवन बिता सकते थे।
इनके जीवन में बल, ऐश्वर्य, संपत्ति इत्यादि सब कुछ था। किन्तु संसार के अधिकांश लोगों के समान कीड़े-मकोड़े की तरह जीना-मरना उन्हें रुचिकर न था। स्वामीजी कहते हैं, “केवल वे ही जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं, बाकी लोग तो मृतप्राय हैं।” सेवा के द्वारा चित्तशुद्धि होकर एक समय ऐसा आता है, जब व्यक्ति का हृदय अनन्त उदार हो जाता है, तब दूसरों के सुख-दुःख के साथ वह एकात्म भाव को प्राप्त होता है।
भारत और भारतवासियों के इस प्रेम के वशीभूत होकर ही स्वामी विवेकानन्द शिकागो धर्ममहासभा में जाने को प्रस्तुत हुए। इस धर्म महासभा में विभिन्न समितियों द्वारा विभिन्न चर्चाएँ हुईं । आज वे चर्चाएँ लोग भूल चुके हैं। केवल एक घटना के कारण वह धर्म महासभा आज भी लोगों के हृदय में प्रासंगिक बनी हुई है। वह घटना इसलिए ऐतिहासिक हो गई, क्योंकि भारत के एक अकिंचन युवा संन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने अपनी ओजस्विता और वाग्मिता से भारत का प्रतिनिधित्व कर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया।
हम सब भी सोचते हैं कि हमारा देश आगे बढ़े और विश्व में अग्रणी हो। हम सोचते हैं कि जब हम दूसरे देशों में जाएँ, तो लोग भारतीय समझकर हमारा सम्मान करें। यहाँ तक तो हमारी देशभक्ति ठीक ही है। किन्तु इसके लिए प्रत्येक को कंधे-से-कंधा मिलाकर चलना होगा। स्वार्थपरता की संकीर्णता से दूर होना होगा। स्वामीजी ने इसे त्याग और सेवा का मार्ग कहा है।
वे कहते हैं, “हमारी कार्यविधि बड़ी सरलता के साथ समझायी जा सकती है। वह है – बस, राष्ट्रीय जीवन को पुन: स्थापित करना। बुद्ध ने त्याग का प्रचार किया था, भारत ने सुना और इसके बावजूद छह शताब्दियों में ही वह अपनी समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया। यही रहस्य है। भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं – त्याग और सेवा। आप उसकी इन धाराओं में तीव्रता लाइए और बाकी सब अपनेआप ठीक हो जाएगा।”
१८८३ में स्वामी विवेकानन्द और जमशेदजी टाटा की जब जापान के मार्ग में अप्रत्याशित भेंट हुई, तब स्वामीजी ने उनके वहाँ आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा कि वे दियासलाई यहाँ से लेकर भारत में आयात करते हैं। स्वामीजी ने कहा कि यदि वे दियासलाई का कारखाना भारत में खोलते हैं, तो इससे भारत की सम्पत्ति भारत में ही रहेगी और अनेक लोगों को रोजगार भी प्राप्त होगा। इसके साथ ही उन्होंने जमशेदजी के साथ भारत में ऐसी व्यवस्था के बारे में चर्चा की, जहाँ विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में अनुसन्धान किया जा सके।
इसके बाद हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द ने इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ साइन्स की स्थापना के लिए जमशेदजी टाटा की सहायता भी की थी। इस सन्दर्भ में व्याख्यान देते हुए हमारे प्रधानमन्त्री माननीय नरेन्द्र मोदी जी ने कहा था, “स्वामी विवेकानन्द और जमशेदजी टाटा के बीच जो संवाद हुआ, उनके बीच जो पत्राचार हुआ है, यदि किसी ने देखा होगा, तो पता चलेगा कि उस समय भारत पराधीन था, तब स्वामीजी ने जमशेदजी टाटा जैसे व्यक्ति को कह रहे हैं कि भारत में उद्योग लगाओ, ‘मेक इन इण्डिया’ बनाओ।”
स्वामीजी चाहते थे कि भारत अपनी कला एवं लघु उद्योगों से उत्पन्न उत्पादों का विदेशों में विक्रय कर आर्थिक स्थिति में सुधार ला सकता है। विज्ञान और तकनीक के सम्बन्ध में स्वामीजी सदैव उत्सुक रहते थे। उन्होंने कहा था, “एक नवीन भारत निकल पड़े – हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुए, माली, मोची, मेहतरों के कुटीरों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से । निकल पड़े झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों से।” वर्तमान सरकार स्किल इंडिया एवं अन्य प्रकल्पों द्वारा ऐसे अनेक युवाओं को सहायता प्रदान कर रही है, जो प्रगति तो करना चाहते हैं, किन्तु आवश्यक संसाधनों से वंचित हैं।
स्वामीजी ने परिव्राजक के रूप में पूरे देश का भ्रमण किया था। भारत तथा विश्व की संस्कृति एवं सभ्यता पर उनका गहन अध्ययन था। भारत के राष्ट्रीय दोषों को उन्होंने भलीभांति अवलोकन किया था और उसका मार्ग भी ढूँढ़ निकाला था। उनके अनुसार शिक्षा ही हमारे समस्त दोषों की रामबाण दवा है। किन्तु स्वामीजी के अनुसार शिक्षा केवल कुछ पुस्तकों का पठन-पाठन मात्र न थी। वे कहते थे, “हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे चरित्र निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो और देश के युवक अपने पैरों पर खड़े हों।…
शिक्षा का विस्तार तथा ज्ञान का उन्मेष हुए बिना देश की उन्नति कैसे होगी?…परन्तु स्मरण रहे कि आम जनता और नारियों में शिक्षा का प्रसार हुए बिना उन्नति का अन्य कोई उपाय नहीं।…पुराण, इतिहास, गृहकार्य, शिल्प-कला, गृहस्थी के नियम आदि आधुनिक विज्ञान की सहायता से सिखाने होंगे और आदर्श चरित्र गठन करने के लिए उपयुक्त आचरण की भी शिक्षा देनी होगा।”
स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका इत्यादि देशों में भारत और हिन्दू धर्म की पताका फहराकर चार वर्ष बाद स्वदेश लौट रहे थे, तब उनसे किसी ने पूछा कि अब आपको भारत कैसा लगेगा? स्वामीजी ने बड़ा ही भावुक उत्तर दिया, “पाश्चात्य देशों में आने से पहले मैं भारत से केवल प्रेम ही करता था, परन्तु अब तो भारत की धूलिकण तक मेरे लिए पवित्र है, भारत की हवा तक मेरे लिए पावन है, भारत अब मेरे लिए पुण्यभूमि है, तीर्थस्थान है।”
आलेख
स्वामी मेधजानन्द,
रामकृष्ण मिशन, कोनी रोड, बिलासपुर
चलभाष : 9479039660