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हिन्दू पंथों के समन्वय का प्रतीक संघाट प्रतिमाएँ

प्राचीन काल से भारतवासी धर्मानुसार आचरण करते हैं, धर्म के अनुसार चलना, धर्म के अनुसार जीवन में व्यवहार करना। इस प्राचीन हिन्दू धर्म में प्रमुख ग्रंथ चतुर्वेद हैं। कालांतर में हिन्दू धर्म में कई सम्प्रदाय हुए जिनमें वेद और पुराणों से उत्पन्न 5 तरह के संप्रदाय माने जा सकते हैं:- 1. वैष्णव, 2. शैव, 3. शाक्त, 4 स्मार्त और 5. वैदिक संप्रदाय।

वैष्णव जो विष्णु को ही परमेश्वर मानते हैं, शैव जो शिव को परमेश्वर ही मानते हैं, शाक्त जो देवी को ही परमशक्ति मानते हैं और स्मार्त जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं। अंत में वे लोग जो ब्रह्म को निराकार रूप जानकर उसे ही सर्वोपरि मानते हैं।

ज्ञात हो कि शैवों एवं वैष्णवों पंथों के आपसी वर्चस्व की लड़ाई ने हिन्दू धर्म की बहुत हानि हुई। आपसी संघर्ष में भारी रक्तपात एवं एक दूसरे के पूजा स्थलों का नुकसान पहुंचाना भी सम्मिलित था। यह अनेकेश्वरवाद की देन प्रतीत होता है। वैसे तो हमारा दर्शन कहता है कि ईश्वर एक है, परन्तु इन पंथों की आपसी की वर्चस्व की लड़ाई ने अनेक देवता उत्पन्न कर दिए।

नंदी एवं हाथी की संघाट प्रतिमा हम्पी – फ़ोटो ललित शर्मा

एकेश्वर से बहुदेववाद चल पड़ा। हजारों वर्षों तक चले झगड़े में शैव एवं वैष्णव नामक दो धाराओं में खूब रक्तपात हुआ तथा इसी के चलते शाक्त धर्म की उत्पत्ति हुई। जिसने दोनो सम्प्रदायों में समन्वय का काम किया।

जब आपस में मिलन हुआ तो वर्तमान में स्थिति यह है कि शैव, शाक्त एवं वैष्णवों में पता नहीं चलता कि कौन किस सम्प्रदाय का अनुशरणकर्ता है। कहा जाता है कि इनके समन्वय में अत्रिपुत्र दत्तात्रेय का प्रमुख स्थान है। समन्वय के रुप में ही त्रिदेव की अवधारणा की उत्पत्ति हुई।

शिवार्चना करते हुए हनुमान जी – फ़णीकेश्वर महादेव फ़िंगेश्वर – फ़ोटो ललित शर्मा

इस अवधारणा के अनुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो भगवान शिव और ब्रह्मा को माना जाता है। जहाँ ब्रह्मा को विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है वहीं शिव को संहारक माना गया है।

इसके पश्चात में इनमें समन्व्य का कार्य आदि शंकराचार्य के हाथों हुआ। जब बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के विस्तार के कारण हिन्दू धर्म का ह्रास हो रहा था। दीर्घावधि के प्रयास के पश्चात कालांतर में समन्यव ऐसा हुआ कि मंदिर निर्माण की पंचायतन शैली विकसित हुई। मूल देवता के मुख्य मन्दिर के साथ चारों कोनों में अन्य अनुषांगी देवों के मंदिर एक ही परिसर में बनने लगे। इसे पंचायतन शैली कहा गया। यह भी हम मान सकते हैं कि उत्तर एवं दक्षिण का मिलन हुआ।

शिव एवं विष्णु की संघाट प्रतिमा पाली मंदिर जिला कोरबा – फ़ोटो ललित शर्मा

आज हम देखते हैं कि शिवालयों में भित्तियों पर वैष्णव पंथ के देवताओं की उपस्थिति दिखाई देती है। शिवालयों में गर्भगृह के द्वारपट पर दशावतारों का अंकन प्रमुखता से दिखाई देता है, जिसमें विष्णु के अवतारों को स्थान दिया जाता है। वैष्णव मंदिरों में शिव परिवार के गणपति की उपस्थिति प्रमुखता से दिखाई देती है तथा कार्तिकेय एवं कीर्तिमुख भी हमें वैष्णव मंदिरों में दिखाई देते हैं। जो कालांतर में शिल्प परम्परा का आवश्यक अंग बन गए। दश दिक्पाल, सप्तमातृकाएँ महिषासुरमर्दनी की प्रतिमाएँ भी प्राचीन शिवालयों में प्रमुखता से दिखाई देती है। इसके पश्चात पुराणों और स्मृतियों के आधार पर जीवन-यापन करने वाले लोगों का संप्रदाय ‍बना जिसे स्मार्त संप्रदाय कहते हैं।

प्रतिमा शिल्प में भी संघाट प्रतिमाओं का निर्माण प्रारंभ हुआ, जिसमें त्रिदेव, हरिहर, हरिहरार्क, एवं हरिहरार्कब्रह्म की प्रतिमाएँ भी हमे मिलती हैं। छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले अंतर्गत मदकूद्वीप के उत्खनन में हम्रें स्मार्त लिंग प्राप्त होते हैं। एक चित्र ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया जिसमें गजारुढ़ विष्णु लक्ष्मी तथा नंदी सवार शिव पार्वती दिखाई दे रहे हैं।

हरिहर मिलन का सुंदर चित्रांकन

चित्रकार ने गज एवं नंदी को ऐसे चित्रित किया है कि दोनों के शीश आपस में मिले हुए हैं। ध्यान से देखने पर ही दोनो अलग दिखाई देते हैं। एक तरफ़ से गजमुख एवं दूसरी तरफ़ से नंदी मुख। यह दोनों सम्प्रदायों के मिलन के प्रतीक के रुप में देखा जा सकता है।

पंचायतन मंदिर शैली के अतिरिक्त में शिल्प में हरिहर की प्रतिमा हमें छतीसगढ़ के पाली स्थित शिवालय की भित्ति से प्राप्त होती है। राजिम फ़िंगेश्वर शिवालय फ़णीकेश्वर महादेव में भित्ति जड़ित एक प्रतिमा में हनुमान को शिवार्चना करते दिखाया गया है।

मदकूद्वीप से हमें संघाट प्रतिमा के रुप में स्मार्त लिंग प्राप्त होता है। हम्पी के विट्ठल मंदिर एवं हजारा राम मंदिर में मुझे नंदी एवं गज की संघाट प्रतिमा मिलती है। यह सब शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों के सम्मिलन के प्रतीक चिन्ह हैं। जब दोनो सम्प्रदाय एकाकार हुए तब इस दर्शाने के लिए संघाट प्रतिमाओं का निर्माण प्रारंभ हुआ।

मदकू द्वीप से उत्खन्न में प्राप्त स्मार्त लिंग – फ़ोटो ललित शर्मा

वर्तमान में हिन्दू धर्म के सभी पंथो एवं सम्प्रदायों का हमें समन्वित रुप दिखाई देता है। कुंभ में भी अब शैव एवं वैष्णव अखाड़ों के बीच संघर्ष की स्थिति दिखाई नहीं देती। अखाड़ों के बीच समन्वय के लिए अखाड़ा परिषद का भी गठन हुआ। इस तरह हिन्दू धर्म के सभी संप्रदाय वर्तमान में एक ही दिखाई देते हैं।

हिन्दू भी सभी देवताओं की पूजा आराधना एवं सम्मान करते हैं। प्रत्येक घर के पूजा गृह में सभी देवताओं के विग्रह मिल जाएंगे। हिन्दू धर्म का यह वर्तमान रुप समन्वय का दिखाई देता है जिसे हम स्मार्त संप्रदाय कहते है तथा वर्तमान में बहुसंख्यक स्मार्त संप्रदाय का ही अनुशरण करते दिखाई देते हैं।

आलेख

ललित शर्मा इण्डोलॉजिस्ट रायपुर, छत्तीसगढ़

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