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छत्तीसगढ़ के लोकगीतों का सामाजिक संदर्भ

लोक गीत लोक जीवन के अन्तर्मन की अतल गहराइयों से उपजी भावानुभूति है। इसलिए लोकगीतों में लोक समाज का क्रिया-व्यापार, जय-पराजय, हर्ष-विषाद उत्थान-पतन, सुख-दुख सब समाहित रहता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि “ये गीत प्रकृति के उद्गम और आर्येत्तर के वेद है।” उक्त कथन लोक गीत की महत्ता और उसकी प्राचीनता का प्रमाण है। लोकगीत आदिम गीत है क्योंकि इसमें लोक संस्कृति समाहित होती है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी वाचिक परम्परा से हस्तांतरित होती है। इसे आदिम मनुष्य का हृदयगान कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोक गीतों में लोक ही प्रतिबिम्बित होता है। लोक गीत लोक समाज के सामूहिक सृजन का प्रतिफलन है। अतः ये लोक का प्रतिनिधि करते है। हर अंचल के अपने लोक गीत होते है।

लोक गीतों की जब चर्चा होती है तो हमारी आँखों के सामने छत्तीसगढ़ के लोकगीतों की झिलमिलाती लड़ियां प्रकाशमान हो जाती है। छत्तीसगढ़ लोक गीतों का कुबेर है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त गाए जाने वाले छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में लोक मानस की स्पष्ट छवि दिखाई पड़ती है। छत्तीसगढिया लोक गीतो में करमा, ददरिया, सुवा, भोजली, पंथी, सोहर, बिहाव, खेलगीत, डंडा, फाग आदि प्रमुख है। सबकी अपनी-अपनी महत्ता है। चूंकि में सभी गीत समूह की सर्जना है। इसलिए उपरोक्त गीतों में छत्तीसगढ़ी लोक जीवन की सामाजिक सहभागिता और सद्भाव मोती की तरह दमकते हैं और फूलों की तरह गमकते है। गीतों की यह दमक और गमक विविध अवसरों पर अनुभूत होती है। आइए छत्तीसगढ़ी लोकगीतों के सामाजिक सन्दर्भों को तलाशे।

छत्तीसगढ़ का लोकजीवन कृषि संस्कृति का संपोषक है। खेती-किसानी ही उसका जीवन है, उसका धन है। खेती-किसानी केवल अपने ही बल-बूते पर नही होती इसमें समाज का भी सहयोग शामिल होता है। सामाजिकता का प्रथम गुण है सहयोग। आपसी सहयोग से आत्मीयता बढ़ती है, और जहाँ आत्मीयता होती है, वहाँ संबंध रिश्ते-नाते में तब्दील हो जाते हैं। रिश्ते नाते तो परिवार के मेरू-दंड हैं। पारिवारिकता जब विस्तार पाती है, तब वह सामाजिकता का रूप ले लेती है। हम देखते है कि गाँवों में किसी एक घर में दुःख होने पर सारा गाँव दुखी होता है, सुख होने से सुखी होता है। एक घर में बेटी बिदा होने पर सारा गाँव सुबक-सुबक कर रोता है। यह है गाँव की उजली तासीर, यह है गाँव की सामाजिकता, जहाँ सब अपने हैं, कोई गैर नही, सब मीत है, कोई बैर नही। लोकगीत इन्ही सद्भावों के साथ लोक कंठ से उपजते है और सामाजिकता के स्वर को मुखरित करते हैं।

छत्तीसगढ़ का लोक जीवन सरल और शांति प्रिय है। इसलिए इसके व्यवहार में सहयोग और सद्भाव का स्वर इसके लोकगीतों में मुखरित हुआ है। खेती किसानी के साथ-साथ सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यो, तीज-त्यौहारों में समाज के सभी वर्गो की उपस्थिति से हमारा लोक समाज परिपुष्ट होता है। बिना आपसी सामंजस्य और सहयोग के लोक एक पग भी आगे नहीं बढ़ाता। इसके बिना उसकी संस्कृति की प्रवाहमान सरिता अवरूद्ध हो जाती है। संस्कृति की प्रवाहमानता लोक गीतों से है।

छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में ‘पौनी-पसारी’ की परम्परा हैं। इसमें समाज की सभी जाति यथा लोहार, कोटवार, राऊत, नाई, बरेठ (धोबी) आदि गाँव समाज के कार्यो में अपने जातीय पेशा के अनूरूप सहयोग करते हैं। बदले में उन्हें पारिश्रमिक के तौर पर तय जेवर देते हैं, जो अन्न के रूप में होता है और राशि भी सामाजिकता की यह भावना लोकगीत के माध्यम से सोहर के बधाई रूप में प्रगटित है-

लाल घर बजत हे बधाई
लाल घर सुनि के आएंव
बम्हनीन छोकरी
पोथी बोहि आवय
हमला खबर नहि दिए
लाल घर बजत बधाई…
मलनिन छोकरी
फूल धरि आवय
हमला खबर नहि दिए
लाल घर सुनि के आएंव
लाल घर बजत…
ग्वालिन छोकरी
गोरस धरि आवय
हमला खबर नहि किए
लाल घर सुनि के आएंव
लाल घर बजत…
दर्जिन छोकरी
चिरई धरि आए
हमला खबर नहि दिए
लाल घर सुनि के आएंव
लाल घर बजत…
सात सखी मिल
सोहर गाएंव
जुग-जुग जिए
तोर ललना
लाल घर सुनि के आएंव
लाल घर बजत…

नवागत शिशु के घर बधाई बज रही है। उस बधाई को सुनकर सब लाल के घर आए। पंडिताईन लड़की पोथी-पत्रा लेकर आई और बोली ‘‘हमें खबर नहीं की, फिर भी बधाई सुनकर आई हूँ। माली की लड़की फूल लेकर आई। ग्वालिन लड़की दूध लेकर आई। दर्जी की लड़की चिड़िया (रंगीन कपड़ो के खिलौने) लेकर आई और बोली ‘‘हमे खबर नहीं की । फिर भी बधाई सुनकर आई हूँ। सात सखियों ने मिलकर सोहर गाया। तुम्हारा लाल जुग-जुग जिए।

दरअसल यह गाँव की संस्कृति है, गाँव की सभ्यता है, जहाँ अपरिचित व्यक्ति से भी राम-राम कहकर लोग परिचय बढ़ाने को लालायित रहते है, ताकि आत्मीयता बढ़े और मानवता सबल हो। नगरो-महानगरो में तो लोग अपने पड़ोसी से भी अनजान रहते हैं। पर लोक ऐसा नही है। लोक अपनत्व को महत्व देता है। सुईन (दाई) जो यहाँ दलित जाति की होती है उसका भी छत्तीसगढ़ी लोक समाज में बड़ी अहयिमत है। सुईन प्रसव कार्य सम्पन्न करती है। नवजात बच्चे का नाल काटती है। ऐसे सामाजिक सन्दर्भ लोकगीत के गौरव हैः

राम जनम लिए, भगवान जनम लिए
चइत राम नवमी में राम जन्म लिए
सुईन आवय नेरूवा दिने
नेरूवा छिनउनी देबो मन के मड़वनी
चइत रामनवमी में राम जनम लिए।

‘चैत रामनवमी में भगवान राम जन्म लिया। सुईन ने आकर नेरूवा (नाल) छिना। नेंरूवा छिनने के बदले में उसकी मनोकामना पूर्ण करेंगे।’ यह लोक मानस की उदारता है, जो लोकगीतों के माध्यम में आज भी ग्रामीण जीवन में संरक्षित है।

लोकगीत संस्कृति को शब्द और स्वर प्रदान करते है। लोक परंपरा को संरक्षित और संवर्धित करते है। लोक को जानने-समझने के लिए लोकगीतों का जानना समझना जरूरी है। लोकगीत आईना है लोकजीवन का।

छत्तीसगढ़ी संस्कार गीतों में भी सामाजिकता का सुदर्शन और मनोहारी स्वरूप दिखाई पड़ता है। इसका कारण यह है कि लोकगीतो में न तो कोई भौगोलिक सीमा रेखा होती है और कंही जाति-पाँति का कलह और ना ही ऊँच-नीच का भेदभाव। लोकगीत मनुष्यता को सदृढ़ करते हैं। छत्तीसगढ़ी विवाह गीत में सामाजिक सन्दर्भ का अनूठा चित्रण- दूल्हा/दुल्हन को हल्दी चढ़ाई जा रही है और ग्रामीण महिलाओं के कंठों से गीतो की रस वर्षा हो रही है-

कहँवन हरदी, कहँवन हरदी
भाई तोरे जनामन, भई तोरे जनामन
कहँवन हरदी तुम लियेव अवतार।
मरार बारी, मरार बारी
दाई मोरे जनामन, दाई मोरे जनामन
बनिया दुकाने में लिएंव अवतार।
कहँवा रे करसा, कहँवा रे करसा
भाई तोरे जनामन, भई तोरे जनामन
कहँवा ले करसा तुम लिएव अवतार
करिया भिंभोरा, करिया भिंभोरा
दाई मोरे जनामन, दाई मोरे जनामन
कुम्हरन घर में लिएंव अवतार।
कहँवा रे पर्रा कहँवा रे पर्रा
भई तोरे जनामन, भाई तोरे जनामन
कहँवा रे पर्रा, तुम लिए अवतार।
बाँसे भिरा, बाँसे भिरा
दाई मोरे जनामन, दाई मोर जनामन
कड़रन घर मा, मैं लिए अवतार।।

हल्दी तुमने कहाँ जन्म लिया और तुम कहाँ अवतरित हुए? मरार की बाड़ी में मेरा जन्म हुआ और बनिया की दुकान में मैं अवतार लिया। कलश तुम्हारा जन्म कहाँ हुआ और कहाँ तुम अवतिरत हुए? काले बाँबी में मेरा जन्म हुआ और कुम्हार घर मैने अवतार लिया। पर्रा तुम्हारा जन्म कहाँ हुआ और किसके घर तुमने अवतार लिया? बाँस के जंगल में मैं जन्म लिया ओर कंड़रा के मैं अवतरित हुआ।

लोक गीत प्रश्नोत्तर के रूप में गाए जाते हैं। या फिर लोकगीत में प्रश्नोत्तर समाया रहता है। अक्सर यह कहा जाता है कि लोक गीत मनोरंजन के लिए होते है। लेकिन सुक्षमता से विचार किया जाय तो लोक गीतों में सामाजिक सन्दर्भ भी जुड़ा होता है। छत्तीसगढ़ी बिहावगीत की एक शैली है भड़वनी जिसमें महिलाएं बारातियों को प्रेम पगी गालियाँ गीतों के माध्यम से सुनाकर हास-परिहास करती हैं। उनका इशारा कभी समधी के लिए होता है तो कभी समधन के लिए। भड़वनी में बहुत से गीत हैं जिनका अपना सामाजिक सन्दर्भ हैं। एक ऐसा ही गीत जिसमें समधन को लक्षित किया गया है-

अइसन समधिन के लुगरा खंगे हे लुगरा खंगे हे
गे होही कोष्टा दुकान रे भाई, गे होही कोष्टा दुकाने
जय हो गे हो ही…
अइसन समधिन के पोलखा खंगे हे पोलखा खंगे हे
गे होही दरजी दुकाने रे भाई, गे होही दरजी दुकाने
जय हो गे होही…
अइसन समधिन के गाहना खंगे हे, गाहना खंगे हे
गे होही सोनरा दुकाने रे भाई, गे होही सोनरा दुकाने
सोनरा बिचारा मार भगाव, रोवत फिर घर आवे रे भाई
जय हो रोवत घर फिर आवे।
अइसन समधिन के फुंदरा खंगे हे, फुंदरा खंगे हे
गे होही पटवा दुकाने रे भाई, गे होही पटवा दुकाने
पटवा बिचारा मार भगावे, रोवत घर फिर आवे रे भाई
जय हो रोवत…

हमारी समधन ऐसी है कि उसके लिए साड़ियों की कमी है। वह कोष्टा (बुनकर) की दुकान गई तो बुनकर उसे मार भगाता है। वह रोती हुई घर वापस आ गई। हमारी समधन ऐसी है कि उसके लिए पोलखा (ब्लाउज) की कमी है। वह दर्जी दुकान गई होगी तो दर्जी ने भी उसे मार भगाया। वह रोती हुई घर वापस आ गई हमारी समधन ऐसी है कि उसके लिए गहनों की कमी है। वह सुनार की दुकान गई तो सुनार ने भी उसे मार भगाया वह रोती हुई घर आ गई। हमारी समधन को फुंदरा (फुंदनी) की कमी है। वह पटवा दुकान गई, तो पटवा ने भी उसे मार भगाया। इसलिए समधन रोती हुई वापस घर आ गई। एक भड़वनी गीत में समधन को सभी मुहल्ले, में जाने के लिए कहा गया है किन्तु ब्राम्हण मुहल्ला, तेली मुहल्ला, यादव मुहल्ला, देवांगन मुहल्ला में जाने के लिए मना किया गया है। क्योंकि उपरोक्त जाति से जुड़े हुए जवान छोकरे कामदेव की तरह रूपवान हैं। ये सभी समधन को अपने व्यवसाय में लुभा कर अपना बना लेंगें। हास-परिहास और मनोरंजन लोक गीतों की विशेषता है। यही विशेषता लोक को उर्जस्वित करती है।

लोक गीतों की उत्पत्ति का श्रेय समुदाय समाज को जाता है। कोई गीत समुदाय के माध्यम से ही स्वीकृत होकर लोकगीत की श्रेणी में आता है। मौलिक सृजित गीत लोक का कंठ हार बनकर लोकगीत का पद पा जाता है। कंठानुकंठ चलकर ही गीत वाचिक परम्परा में अपने को तिरोहित कर लेता है। लोक ने जिसे स्वीकारा वह लोक का प्यारा होकर मोर मुकुट की तरह लोक के माथे पर सुशोभित होता है। यह सब सामाजिकता का प्रभाव है।

छत्तीसगढ़ में भोजली पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। ग्रामीण बालिकाएं श्रावण शुक्ल सप्तमी को गेहूँ के दानों को विधि-विधान से उगाकर उसकी पूजा प्रार्थना करती हैं। भोजली प्रकृति से जुड़ा त्यौहार है। जो गीत गाया जाता भोजली गीत कहलाता है। हमारी सामाजिकता इस गीत में भी संदर्भित है-

देवी गंगा देवी गंगा, लहर तुरंगा
हमर भोजली दाई के भीजे आठों अंगा
ओ…ओ…देवी गंगा
कहँवा के टुकनी , कहँवा के खातू?
फंड़रा घर के टुकनी, कुम्हार आवो के खातू
ओ…ओ…देवी गंगा।

बलिकाओं से यह पूछने पर कि भोजली उगाने के लिए तुम लोगो ने बांस की टोकनी व खाद कहाँ से लाया तो उनका उत्तर है कि बाँस की टोकरी कँडरा घर से और खातू कुम्हार के आवा स्थल से लाया गाँवों में लोगों का पारस्परिक स्नेह और लगाव सामाजिकता की आधार भूमि है।

गौरा पर्व छत्तीसगढ़ का अनुष्ठानिक पर्व है। दीपावली के समय मनाया जाने वाला यह पर्व ‘शिव-पार्वती’ के विवाह का लोक आयोजन है, जिसमें समाज के सभी लोगों की सहभागिता होती है। गौरा गीत में प्रयुक्त ताल सुनने वालों के मन में उत्साह का संचार करता है। आवेश आने पर इसे ‘देवचढ़ना’ कहा जाता है। गाड़ा बाजा के माध्यम से गाँव की महिलाएं गौरा गीत गाती है। गौरा गीतो में सामाजिक सन्दर्भ दर्शनीय है-

बारे कुदुरसाखी घन अमरइया, वो घन अमरइया
जहाँ ग कुम्हार भईया केरे ल बसेरे
कुम्हरा के केहेन कुम्हार मोर भईया
करसा-कलोरी गढ़ देबे ग भईया।
गढ़त रेहेंव बिसुरी भल डारेंव
गउरा गढ़ा के लगिन करसा गे भईया
बारे कुदुरसाखी घन अमरइया वो घन अमरइया
जहाँ ग मरार भइया करे ल बसेरे
मरार के केहेव मरार मोर भइया
गढ़त रेहेंव बिसुरी भल डारेंव
गउरा गढ़ा दे मऊर-मऊरी ग भईया
बारे कुदुरसाखी घन अमरइया, वो घन अमरइया
जहाँ ग कड़रा भईया करे ल बसेरे
कंडरा के केहेंव कड़रा मोर भईया
लगिन पर्रा गढ़ि देबे ग भईया
गढ़त रेहेंव बिसुरी भल डारेंव
गउरा गढ़ा दे लगिन पर्रा ग भईया।

कुदुरसाखी की घनी अमराई के क्या कहने? जहाँ पर कुम्हार निवास करता है। वह कुम्हार मेरा भईया है। मैने कुम्हार से कहा-भैया गौरा के लगिन (विवाह लग्न) के लिए करसा -कलौरी (मंगल कलश) गढ़ देना। कुम्हार कलश गढ़ना भूल जाता है। इसलिए उसे शीघ्र कलश गढ़ने के लिए कहा है। इसी प्रकार गीत की अगली पंक्तिया में मरार से मौर व कड़रा से पर्रा गढ़ने के लिए कहा गया है। एक और गौरा गीत जिसमें बाजा बजाने वाले (गाँड़ा), बैगा, गौटिया व सभी लोगो से जाग जाने का आहवान किया गया।

गउरा जागे, मोर गउरी जागे, जागे ओ सहर के लोग
बाजा जागे, मोर बजनिया जागे, जागे गवइया लोग
बइगा जागे, मोर बइगीन जागे, जागे, ओ सहर के लोग
गऊँटिया जागे, मोर गऊँटनिन जागे, जागे ओ सहर के लोग

गौरा पर्व की तरह छत्तीसगढ़ का एक और अनुष्ठानिक पर्व है, जँवारा पर्व। जँवारा मातृशक्ति की आराधना का पर्व है चैत्र मास में रामनवमी पाख व कुंवार मास के दशहरा पाख में नवरात्रि का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व में नौ दिनों तक अखंड ज्योति जलाकर गेंहूँ के दाने बोकर (जँवारा उगाकर) शक्ति व प्रकृति की उपासना की जाती है। जन-जन के हृदय से मातृ वंदना के स्वर जस-जँवारा गीत के रूप मन को संतृप्त करता है। ग्राम के माता देवालय व मंदिरों में व्यक्तिगत व सामूहिक रूप से ज्योति कलश प्रज्वलित किए जाते है। सभी जाति के लोगो की सामुदायिक सहभागिता का यह अनुपम उदाहरण है। जस गीतो की बानगी –

सिंह साज के निकले भवानी सेवक ढूंढन जाय
सेवक मिले मैया मलिया के बेटिया
नीत उठ फूल चढ़ाय।
फूल चढ़ाय मुख मुरली बजाय
मुरली में तोर धुन गाय
सिंह साज के निकले भवानी सेवक ढूंढन जाय
सेवक मिले अहिर के बेटी नीत उठ दूध चढ़ाय
दूध चढ़ाय मुख मुरली बजाय
मुरली म तोर धुन गाय।

यह लोक है जहाँ देवी -देवता भी अपने लिए सेवक की खोज करते हैं। माँ भवानी सिंह पर सवार होकर सेवक ढ़ूढने के लिए जाती है। सेवक के रूप में उन्हें माली की बेटी मिलती है। माली की बेटी रोज उठकर स्नान – ध्यान कर माँ के चरणों में फूल चढ़ाती है। और माँ की महिमा गाती है। इसी तरह गीत की अगली कड़ियॉं में अहिर की बेटी दूध, सुनार की बेटी नथनी, लोहार की बेटी बाना, तेली की बेटी तेल, दर्जी की बेटी ध्वज, कोष्टा (बुनकर)की बेटी चुनरी, सेठ की बेटी नारियल, बैगा की बेटी नीबू चढ़ाती है और ब्राम्हण की बेटी पूजा करती हैं। इस गीत में समाज की सभी जाति व वर्ग के लोगो का उल्लेख आया है। यह गॉंव की अपनी संस्कृति हैं, जिसमें सब एक है।

जस गीत का एक और अप्रतिम उदाहरण जिसमें आर्य और आर्येत्तर लोगों के घर देवताओं के अवतार लेने का उल्लेख मिलता है-
रन-बन रन-बन हो
तुम खेलव दुलरवा
रन-बन रन-बन हो
काखर पूत हे बाल बरम देव?
काखर पूत गोरईंया।
काखर पूत हे बन के रक्सा?
रन-बन रन-बन हो
तुम खेलव दुलरवा रन-बन रन-बन हो
ब्राम्हन पूत हे बाल बरम देव
अहिरा पूत गोरईंया
धोबिया पूत हे बन के रक्सा
रन-बन, रन-बन हो
तुम खेलव दुलरवा रन-बन, रन-बन हो।

प्रश्नोत्तर शैली के इस जसगीत में ब्रम्हा को ब्रम्हाण का पुत्र, गोरईया (लोक देवता) को अहीर का पुत्र और राक्षस को धोबी का पुत्र कहा गया है। लोक समाज में सभी जाति की अहमियत आज भी बनी हुई है। यदि कहे कि गॉंव में सभी जाति के लोग एक दूसरे पर निर्भर है, तो अतिशयोक्ति नही होगी।

छत्तीसगढ़ लोक में लोक गीतो का विविध रंगी स्वरूप हमे विभिन्न अवसरों पर देखने को मिलता है, जिसमें सुवा गीत का प्रमुख स्थान है। सुवा गीत नारी मन की सहज अभिव्यक्ति है। दीपावली के समय ग्रामीण महिलाएं मिट्टी का सुवा (तोता) बनाकर उसे टोकनी में रखती है। फिर उसमें वृत्ता कार गोल धूम-धूम कर ताली बजाकर तोते की तरह फुदक-फुदक कर मनोरम नृत्य करती है। सुवा नृत्य से जो उन्हें अन्न व राशि मिलती है, उसे गौरा विवाह में खर्च करती हैं। सुवा गीत के विषय विविध होते हैं। महिलाएं सुवा के माध्यम से अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति को अपने प्रिय तक प्रेषित करती है। सुवा गीत भी सामाजिक सन्दर्भ से पृथक नहीं है। एक सुवा गीत दृष्टव्य है-

तरि हरि ना ना मोर न नरि ना ना सुबे नंदन
सुबे नंदन बन म मोर मांदर छोलि चांच दे
बढ़ई के केहों बढ़ई मोर भईया सूबे नंदन
सूबे नंदन बन म मोर माँदर छोलि चांच दे।
सोलहा के केहों सोलहा मोर भईया सूबे नंदन
सूबे नंदन बन म मोर माँदर छा-तोपि दे।
लोहरा के केहेंव लोहरा मोर भईया सूबे नंदन
सूबे नंदन बन म, माँदर बर चुटका गढ़ि दे

उक्त सुवा गीत में नायिका द्वारा बढ़ई, सोलहा अनहद (लोक वाद्यों पर चमड़ा मढ़ने वाली जाति) तथा लोहार को भईया कहकर संबोधित किया गया है। गाँवों में आज भी अपनी जाति-परिवार से अलग अन्य जाति के लोगो के साथ रिश्तेदारी जोड़कर ददा- दाई, कका-काकी, भैया- भौजी, ममा- मामी, मौसा-मौसी, सारा-भाँटों, फुफा-फुफु, भाई-बहन का पारिवारिक और आत्मीय संबंध जोड़कर संबोधन किया जाता है। यही आत्मीय संबोधन लोक को अपने प्रेम-दुलार के आगोश में भर लेता है। यह स्नेह संबोधन लोकगीतों में सामाजिक सन्दर्भ का सुन्दर उदाहरण है।

छत्तीसगढ़ का लोक मानस श्रम का पुजारी है। दिन-रात मेहनत कर माटी से सोना उगाता है, अपने श्रम से सीचंकर फसलों को लहलहाता है। तब वह झूम कर गीत गाता है। श्रम और गीत एवं दूसरे के पूरक हैं। जहाँ श्रम है वहाँ गीतों की बरखा है और जहाँ गीतों की बरखा है वहाँ श्रम का झरना है। लोकगीतो में श्रम-गीत की बड़ी महत्ता है। ददरिया छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध लोकगीत है। दो पंक्तियों का यह गीत जीवन प्रभावी होता है। सीधे अन्तर मन में प्रवेश कर जीवन को रससिक्त कर देता है।

बटकी म बासी अउ चुटकी म नून।
मैं गावत हँव ददरिया, तै कान दे के सुन।।

ददरिया समूह में प्रश्नोत्तर रूप में गाया जाता है। खेतो की निदाई या तेदूंपत्तों की तोड़ाई के अतिरिक्त हल चलाते, दौरी हाँकते गाया जाता है। गायक /गायिका आशु कवि की तरह इसमें पंक्तियां जोड़ लेते हैं। ददरिया में सामाजिकता का बड़ा सुंदर उदाहरण-

कांदी रे लुए, लुए ल फुलकी
आगी ल अमरबे, कोठा के भुलकी।

गाँव में जो लोग आस-पड़ोस में रहते है, वे परस्पर जरूरी वस्तुओं का आदान-प्रदान करते है। पड़ोसी दीवार के मध्य कुछ खुला स्थान रखते है, जिससे वे आग, सब्जी या अन्य जरूरी चीजों को लेते-देते है। जब माचिस सुलभ नही थी, तब महिलाएं एक दूसरे के घर से कंडे में आग लाकर चुल्हा जलाती थी। अब आग के लिए भले ही न आए-जाए लेकिन सब्जी का लेना-देना तो आज भी जारी है। न कोई जाति-पाति का भेद, न छुआ छुत।

ददरिया गीत लोक प्रिय गीत है। अब यह मंचो पर भी गाया जाने लगा है। और इसकी सामाजिकता आज भी बरकरार है। कुछ अन्य उदाहरण-
नवइन टूरी खिले ल पतरी।
लोधनीन के गवन म भेजे ल कथरी।।

नाई जाति की लड़की पत्तल बनाती है। लोधी जाति की लड़की के गवन में कथरी (गुदड़ी) भेजी जाती है, जो जातीय परम्परा है। प्रेम रस में सराबोर कुछ और ददरिया की बानगी जिसका अपना सामाजिक सन्दर्भ है-
नरवा के तीर में चरे ल बोकरा।
बंसरी बजा के बलावे , राउत छोकरा
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रद्दा रेंगत हलाय कोहनी
आँखी ले ढिलागे, देवारिन मोहनी
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तिली तिलवारी, उरीद कबरी
मोला दगा म डारे, गोड़िन लबरी।

बकरी चराने वाला राऊत (यादव) बाँसुरी बजाने में प्रवीण होता है। देवार जाति की बालाएं गीत नृत्य के कुशल होती है। उनकी कला की जादूगरी और मोहनी मंत्र से लोग सम्मोहित हो जाते है। तो गोड़ जाति की बाला प्रेम के नाम पर दगा कर जाती है।

छत्तीसगढ़ में करमा गीत की बड़ी प्रसिद्धि है। करमा गीत नृत्य के साथ गाया जाता है। करमा कर्म के लिए प्रेरित करने वाला गीत है। करमा की अनेक शैलियाँ है- जैसे मंडलाही करमा, गोडवी करमा, बिलासपुरी करमा, सरगुजिहा करमा, देवार करमा आदि मंडलाही करमा का एक उदाहरण जिसमें दोस्ती नहीं तोड़ने की बात कही गई हे-
ओ हो डारा लोर गे हे रे
बैठिन हे चिरैया डारा लोर गे हे रे
ददरा के बीड़ी पत्ता टोरो नहीं जाय
बालापन के दोस्ती छोड़ो नहीं जाय
डारा लोर गे हे रे…।

देवार करमा गाने वाली देवार महिलाएं गोंदना गोदने का भी कार्य करती हैं। वे गाँव में घूम-घूम कर ग्रामीण बालाओं के अंग में गोदना गोदती है। ऐसी मान्यता है कि गोदना ही एक ऐसा आभूषण है जो मरने के बाद भी साथ जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि जो लड़कियाँ गोदना नहीं गुदवाती उन्हें यमराज के घर सब्बल से गोदा जाता है। जो भी हो; परन्तु गोदना गीत में जो वात्सल्य है, जो ममता है, वह हमारे सामाजिक सन्दर्भों को उजागर करती है। एक दीन-हीन देवारिन महिला गोदना गोदते समय गीत के माध्यम से अपना संपूर्ण प्रेम और ममत्व उंडेल देती है। बेटी का संबोधन गोदने के दर्द को हर लेता है-

तोला का गोदना ल गोदंव ओ
मोर दुलौरिन बेटी, तोला का गोदना ल गोदंव।
सबके दिए पैसा -कौड़ी मोर देवारिन के गोदना
तोला का गोदना ल गोदंव ओ
मोर दुलौरिन बेटी…।

लोक गीतों में समय के साथ कुछ परिवर्तन होते है। कुछ छुटता है, कुछ जुड़ता है, वेरियर एल्विन का कथन है कि -लोकगीत अथवा लोककथा केवल अजायबघर की वस्तु नहीं। उसमें नई पीढ़ियों के साथ-साथ नए परिवेश और नए संघर्ष जुड़ते रहते हैं। नए परिवेश में भी छत्तीसगढ़ी लोक गीत अब भी लोक के कंठो में विराजमान हैं। उसकी सामाजिकता अब भी बरकरार है। राऊत नृत्य में नर्तक नाचने से पूर्व दोहों का उच्चारण करते हैं। ये राऊत दोहे लोक परम्परा में रचे-बसे हैं। कबीर और तुलसी के दोहो की तरह हैं। इनमें जातीय गौरव और सामाजिकता का सन्देश साथ-साथ विद्यमान है। राऊत दोहा की बानगी-

अपन जात से जात नहीं पर के जात -कुजात
कतको चंदा निरमल रहिबे दिन के होवन, रात।
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भले गाँव गंडई संगी, बहुते उपजय सिलयारी
गोड़ हा मानय गौरा-गौरी, अहिरा मानय देवारी
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पड़रा कपड़ा बाम्हन संगी, करिया कपड़ा बिझवार
रंग-बिरंगे राऊत पहिरे, मनावय देवारी तिहार
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तेली जात चुपरा संगी, कुरमी जात किसान
बाम्हन जात घर-घर जा के, भिक्षा मांगे पिसान
0 0 0
आन जात का उपजे संगी, उपजे जात अहीर,
लाठी लोटय चिखल कांदो, गोरस भीजे सरीर।।

यह भी उल्लेखनीय है कि राऊत नृत्य में नर्तक सेवक होकर भी अपने पशु धन मालिकों को आशीष देता है। उसके सुखद जीवन की मंगल कामना करता है।

जइसे के मालिक लिहे-दिहे , तइसे के देबोन आशीष
रंग महल में बइठो मालिक, जुग जियो लाख-बरीस
पाने खायेन सुपारी मालिक, सुपारी के दुई फोर
रंग महल म बइठो मालिक , राम-राम लव मोर
सेवक की अपने मालिक के प्रति यह सदाशयता और मंगल कामना सामाजिकता का चरम बिंदु है।

नाचा छत्तीसगढ़ का सुप्रसिद्ध लोकनाट्य है। इसमें गाए जाने वाले गीत नाचा गीत कहलाते है। जिनमें नचौड़ी और नजरिया गीत शामिल रहते हैं। नाचा के ‘गम्मत’ सामाजिक तानों-बानों से बुना गया समाज का वास्तविक चित्रण है। नाचा समरसता का पाठ पढ़ाता है-

जात खातिर कतेक तोर गुमान रे संगी
जात खातिर कतेक तोर गुमान।
कुकुर पोसे बिलई पोसे नई गीस तोर जात,
भाई-भाई के झगड़ा म, लगगे डाँड़ भात।

नाचा में महिला पात्रों की भूमिका पुरूष कलाकार ही निभाते है। नाचा में जो मुख्य महिला पात्र होता है, उसे नजरिया कहा जाता है। वह गम्मत में केंन्द्रीय पात्रों माँ या सास की भूमिका का निर्वाह करते है। उस गीत की एक बानगी

मरार के बारी म, बेटा जइसे गोभी फूले रे,
तइसे तोर ददा ल बेटा, टोपी खुले रे।।

गाँव का जीवन मनुष्यता का पक्षधर है। वह केवल मनुष्य में ही नहीं अपितु पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों यहाँ तक की प्रकृति के कण-कण को अपनत्व देता है। उसे सब अपने लगते हैं। छत्तीसगढ़ में मितान बदने की लोक परम्परा इसी भावना से पोषित है। जहाँ मन से मन मिला विचार से विचार मिले वहाँ विधि-विधान से लोग मितान बद कर मित्रता के सूत्र में बंध जाते हैं। फिर यह आत्मीय संबंध पारिवारिक रिश्तों में बदल जाते हैं। महाप्रसाद, गजामूंग, जंवारा, गंगाजल, गंगाबारू, सोनपतली, दौनापान आदि एक दूसरे को खिलाकर या भेंट कर आबाल-वृद्ध नर-नारी मितान बन जाते हैं। मितान परम्परा हमारी सामाजिकता को सुदृढ़ करती है। छत्तीसगढ़ी लोकगीत इस मामले में बड़ा धनाड्य है। मितान परम्परा से संबंधित कुछ गीत-

मोर नंगरिया खात नई हे
रांधेव भूंज बघार के ओ गजामूंग
लाल भाजी गोंदली के डीड़।
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चंदा उवे दूज के तीज के गंगा बारू
छटके के चंदैनी चारों खूंट
गंगा बारू छटके चंदैनी चारों खूंट।
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ये नंदिया बईमान, जंवारा ल झींकत लेगे राम
ये नंदिया बईमान…..।
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मोर महाप्रसाद, सुन ले ग मोर बरवान
बाटुर परिवार म जीव होथे हलाकान।

लोक आत्मीय संबंधों की जड़ों को मजबूत करता है। सामाजिक सूत्रों को सुदृढ़ बनाता है। लोकगीत लोक साहित्य का अंग है। रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि ‘‘मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है। उसकी अपनी सत्ता का ज्ञान लोकबद्ध है। लोक के भीतर ही कविता का, किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है।’’ लोक गीत भी कला है, लोक की कला इसलिए वह मनुष्यता का परिपालन करता है।
सामाजिकता लोक का आंतरिक भाव है जो लोक व्यवहार में दिखाई पड़ता है। लोक व्यवहार में समता और सदभाव का स्थान जितना ऊॅंचा होगा वह मनुष्यता के उतने ही करीब होगा। छत्तीसगढ़ में कृषि संस्कृति के साथ ऋषि संस्कृति का प्रभाव है। कबीरदास जी व संत घासी दास जी का प्रभाव यहाँ लोकजीवन में दिखाई पड़ता है। संत गुरूघासी दास जी का संदेश मनखे-मनखे एक समान ‘अर्थात’सभी मनुष्य एक समान है। कोई ऊॅंच है, न नीच, कोई छोटा न, कोई बड़ा। पंथी गीत में यह दृष्टव्य है-

सुनो-सुनो ग मितान हिरदे म धरो धियान
बाबा के कहना मनखे-मनखे एक समान।
एके विधाता के गढ़े चारों बरन हे,
ओखरेच हाथ में जीवन-मरन हे।
काबर करथस गुमान, सब ला अपने जान
बाबा के कहना मनखे-मनखे एक समान।

लोक गीत मानव मन की अनुभूतियों को स्वर देने के साथ-साथ समाज की परम्पराओं को उद्घाटित करते हैं। लोक गीतों का विस्तार जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ता है। लोक गीत व्यक्ति के जीवन मरण से जुड़ा हुआ है। लोकगीत कृत्रिमता और अलंकार से दूर होते है। छत्तीसगढ़ी डंडा गीत का एवं उदाहरण जिसमें सामाजिकता की सुगंध तन-मन को आल्हादित करती है-

जइसे हरि जी के लाल
तरि हरि नाना भईया ना हरि ना
जइसे हरि जी के लाल
अइल पार जइस के पइल पर जइस
केंवटा के केहेंव मोर भईया के मितान
नदिया नहकोनी भईया किया लेबे आज?
आजे के दिन बहिनी रसी-बसी जइबे
राती ओढ़ावं व भवँर जाल हो लाल
दिन खवाहवं नोनी गाड़ा मछरी।

एक युवती अपने मायके जा रही है। नदी में बाढ़ आ जाती है। इसलिए वह केंवट (मल्लाह) से पार उतारने का आग्रह करती है। भैया के तुम मित्र हो। पार उतारने का क्या मूल्य लोगे? तब केंवट कहता है- ‘‘तुम मेरी भी बहन हो, आज की रात मेरे घर रूक जाओ। तुम्हें अपना जाल ओढ़ाकर गाँड़ा प्रजाति की मछली खिलाऊँगा। बहन तुम मेरे घर रूक जाओ। कल चली जाना। यह लोकगीतों का वैशिष्ट है कि हमारी सामाजिक सुदृढ़ता इसमें बार-बार ध्वनित हुई है। छत्तीसगढ़ में सामाजिकता का सबसे बड़ा उदाहरण यहाँ का छेरछेरा गीत है, जिसमें छोटे-बड़े सब मिलकर नाचते-गाते हैं, अमीर भी गरीब भी। छेरछेरा नाचने से प्राप्त अन्न और राशि को लोग सामाजिक उत्थान के कार्यो में लगाते है। ‘रामकोठी’ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। रामकोठी में प्राप्त अन्न को रखते हैं और उसे गाँव के जरूरत मंद व्यक्ति को देकर उसकी सहायता करते है। फसल आने पर उस व्यक्ति के द्वारा अन्न वापस लौटा दिया जाता है।

छेरिक छेरा छेर बरकनिन छेर छेरा
माई कोठी के धान ल हेर-हेरा
अरन-बरन कोदो दरन,
जभे देबे तभे टरन
तारा-रे तारा, लोहाटी तारा
जल्दी-जल्दी बिदा करो, जाबो दूसरा पारा।

न जाति का भेद, न आयु का भेद, न वर्ग का न अमीर-गरीब का भेद। दरअसल लोक गीतों की धारा गंगाजल की वह पवित्र धारा है, जो लोक कंठो की गंगोत्री से निकलती है और लोक जीवन को सींचती हूई लोक संस्कृति के महासागर में समाहित हो जाती है। संस्कृति-सागर की जल तरंगें फिर वाष्प बनकर बादल के रूप में बरसती है। अनंत काल से ये लोक गीत जीवन को समरस और समृद्ध कर रहे हैं। ये लोक हृदयों में उतर कर निरंतर परिवर्तित, परिमार्जित और संशोधित होते हुए खरे सोने की तरह मूल्य वान बने रहेंगे।

लोक गीत संस्कृति का गान है
मनुष्यता का स्वर्णिम बिहान है।
जिसको पीकर लोक अजर-अमर।
उस अमरता का पुण्य वरदान है।

शोध आलेख

डाॅ. पीसी लाल यादव
‘‘साहित्य कुटीर‘‘ गंडई पंड़रिया जिला राजनांदगांव (छ.ग.) मो. नं. 9424113122

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