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सामाजिक संदर्भ में लोक गाथा दसमत कैना

छत्तीसगढ़ के गाथा- गीत “दसमत कैना” में उड़ीसा के अन्त्यज समाज और छत्तीसगढ़ के द्विज समाज की तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थाएँ स्पष्ट रूप से देखने में आती हैं। गाथा से जुड़े सामाजिक सन्दर्भों का बिन्दुवार वर्णन निम्नानुसार है –

सामूहिकता, सहकारिता और व्यवसाय – नौ लाख ओड़िया लोगों का एक साथ धारनगर आना उनकी एकजुटता का परिचायक है। सभी तालाब खुदाई का कार्य करते थे। यह उनका पारम्परिक व्यवसाय था। वहीं राजा महानदेव का राजा होना इस बात का प्रमाण है कि उस समय ब्राम्हण जाति के लोग भी राजा हुआ करते थे।

गाथा सन्दर्भ :

छत्तिसगढ़ के दुरुग नगर जी, तइहा धार नगर कहलाय
उहें सिवाना चिक्कन चातर, चम्पक भाँटा नाम रहाय।
धार नगर के बाम्हन राजा, नाम महानदेव कहलाय
ओखर रहिन सात झन रानी, राजा तभो नँगत इतराय।
एक बेर दिन के बुड़ती मा , आइन उड़िया मन नौ लाख
चंपक भाँटा मा सकलाइन, रतिहा रहिस अँजोरी पाख।]

खानपान – ओड़िया लोगों के पास बावन लाख गदही और दस लाख सुअर थे। जाहिर है कि एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए कुदाली, राँपा और अन्य सामान को ढोने के लिए गदही का प्रयोग होता था और सुअर मांस भक्षण के लिए उपयोग में लाए जाते थे।
गाथा में एक बूढ़ी ओड़निन कहती है कि हमारे समाज में मदिरा और मांस का सेवन किया जाता है। यदि दसमत से विवाह करना चाहते हो तो मदिरा और मांस का सेवन करना पड़ेगा। अर्थात उस समय भी ब्राम्हण समाज में खानपान सात्विक होता था। ब्राम्हण समाज के लोग मदिरा और मांस का सेवन नहीं करते थे।
गाथा सन्दर्भ :

[एक ओड़निन पूछिस राजा, रखथस तँय दसमत के आस
हमर जात के परम्परा मा, मँद पीबे अउ खाबे मास ।
काम भाव मा बूड़े राजा, लोक लाज नइ करिस विचार
जात धरम के बँधना टूटिस, हौ कहिके होगे तैयार।]

भाषा – गाथा में दसमत और राजा के मध्य संवाद होते हैं। ओड़िया की भाषा उड़िया थी और राजा की भाषा छत्तीसगढ़ी थी। ऐसे में परस्पर संवाद संभव नहीं दिखाई देता। अवश्य ही एक ऐसी भी भाषा रही होगी जिसे उड़िया भाषी और छत्तीसगढ़ी भाषी भी समझ और बोल सकते रहे होंगे। ऐसी प्रकृति की भाषा लरिया भाषा है। अतः हम कह सकते हैं कि दोनों ही समाजों में द्वितीयक भाषा के रूप में बोलचाल की भाषा लरिया रही होगी।

गाथा सन्दर्भ :

पहिली गोटी मारे राजा, लागिस भइया करय दुलार
दूसर गोटी ठट्ठा लागिस, तीसर गोटी लागिस झार।
नीयत साफ नहीं हे राजा, अभी परत हँव तुँहरे पाँव
नइ चेते तौ परन धरत हँव, मार कुदारी देहूँ घाँव।]

विवाह – गाथा में दसमत अपने समाज के बाहर जाकर विवाह करने को तैयार नहीं होती । एक रानी बन कर राज करने का प्रस्ताव भी उसे स्वीकार नहीं था। यह उसकी सामाजिक रीतियों के प्रति निष्ठा का प्रमाण हैं। वहीं राजा की सात रानियाँ थीं अर्थात तब ब्राम्हण जाति के राज परिवार में बहुविवाह को मान्यता थी। राजा की सोलह रखैलें भी थीं माने राजा चाहे वह जिस भी जाति का हो, अय्याशियाँ कर सकते थे।

दण्ड की व्यवस्था – अनुशासन बनाये रखने के लिए दण्ड का प्रावधान जरूरी है। जब राजा दसमत को उसकी इच्छा के विरुद्ध पाने के लिए अपने धर्म से भी विमुख हो जाता है तब शराब पीकर बेसुध हुए राजा की चोटी को एक गदही की पूँछ से बाँधकर जमीन में घिसटने के लिए किया गया कार्य इस बात का परिचायक है कि ओड़िया समाज के लोग अपने समाज की कन्या पर बुरी नीयत रखने वाले राजा को उसी के राज्य में दण्डित कर देते हैं।

गाथा सन्दर्भ :

[अतकी मा नइ मानिन उड़िया, धर के गदही उन ले आय
राजा के चोटी गदही के पूँछी संग म दिहिन गंथाय।
सोंटा मार मार गदही ला, उन सब मिलके दिहिन भगाय
चोटी पूँछी बँधे रहिस तौ, मँदहा राजा घिरलत जाय।]

श्रम – ओड़िया की प्रत्येक कुदाली नौ सेर वजन की थी। उनके राँपा, गेण्डे की खाल से बने हुए थे। वे सब मिलकर चौबीस घंटे में ही तालाब खोद कर भूमिगत जल स्त्रोत को बाहर लाने में समर्थ थे। खुदाई में निकली मिट्टी को झौंहा से उठा कर उनकी महिलाएँ इसी अवधि में मेंड़ बना दिया करती थीं। अर्थात उस समाज के पुरुष और स्त्रियाँ दोनों परिश्रम कर लेते थे।

वहीं राजा महान देव जो ब्राम्हण समाज का था, मिट्टी का पहला झौहाँ उठाते ही अपने इष्ट देवों को याद करता है, दूसरा झौहाँ उठाने पर उसकी छाती फटने लगती है, तीसरा झौहाँ उठाने पर सिर, दर्द से भर जाता है और वह मिट्टी ढोने जैसे परिश्रम वाले कार्य को कर पाने में अपनेआप को असमर्थ बताता है। जबकि राजा बाहुबली हुआ करते थे। भारीभरकम कवच और शास्त्रों से लैस होकर दुश्मनों को लोहे के चने चबाने को मजबूर कर देते थे। लेकिन इस गाथा में राजा महानदेव शक्तिहीन था। इसका अर्थ यही हुआ कि भोग और विलासिता में डूबे राजा का तन खोखला हो गया था। तन ही क्या, वह तो मन से भी जर्जर हो गया था तभी एक नारी को पाने की चाह में अपने धर्म और परंपराओं से विमुख होकर मांस अउ मदिरा का सेवन कर बैठा। राजा का कार्य क्षत्रीय को ही शोभा देता है। एक ब्राम्हण, क्षत्रीय की तरह शारीरिक बल नहीं रख सकता, इसीलिए महानदेव भोग विलास में डूब कर अपने तन और मन को दुर्बल कर बैठा।

गाथा सन्दर्भ :

पहिली खेप देव ला सुमरिस, दूसर मा छाती दर्राय।
तीसर खेप मूड़ करलाइस, राजा हर होगिस बेहाल
चरिहा ला भुइयाँ मा पटकिस, टेड़गा होगे सिधवा चाल
सूरा गदहा चरा लुहूँ मँय, चिटिको नइ आही ओ लाज
किरपा करके झन दे दसमत, माटी डोहारे के काज।]

काम – काम को जीत पाना असंभव माना जाता है। बड़े बड़े देवता और ऋषि भी इसे जीत नहीं पाए थे फिर राजा महान देव की क्या हैसियत थी। उसने भी काम के सम्मुख अपने घुटने टेक दिए थे। कोई कितना भी बुद्धिमान हो, बलवान हो, वैभवशाली हो, काम वासना के आगे हार ही जाता है।

रीति रिवाजों के प्रति निष्ठा – दसमत अन्त्य समाज की थी किन्तु वह अपने समाज के रीति रिवाजों के प्रति निष्ठा रखती थी। एक साधारण सी नारी होकर भी रानी बनने के प्रस्ताव को ठुकरा देती है। वह राज महल के ऐश्वर्य और वैभव को अपने सामाजिक सुख के आगे तुच्छ समझती है। इसीलिए वह अन्त तक कन्या ही बनी रही। अपनी सामाजिक परंपराओं के सम्मान में उसने मृत्यु को वरण करना श्रेयस्कर समझा। यह दसमत के मन की दृढ़ता का प्रमाण है। राजा महानदेव की सांकेतिक मृत्यु तो उसी क्षण हो गई थी और वह ब्राम्हण ही नहीं रहा, जब उसने अपने धर्म और सामाजिक नियमों के बाहर जाकर मांस और मदिरा का सेवन कर लिया था।

जौहर और सतीप्रथा – स्वाभिमान की रक्षा करने स्वेच्छा से मृत्यु को वरण करना जौहर कहा जाता है। गाथा के अंतिम दृश्य में जब राजा दसमत को ढूँढते हुए ओड़ार बाँध पहुँचता है और उसे देखकर भावावेश में लिपट जाता है तब ओड़िया पुरुष स्वयं को अपमानित महसूस कर बाँध में जल समाधि ले लेते हैं। उनकी पत्नियाँ भी पति की मृत्यु के बाद आग में जल कर भस्म हो जाती हैं। यहाँ उस समय सतीप्रथा के चलन की पुष्टि होती है। दसमत भी स्वयं को आग के हवाले कर देती है और अंत तक कन्या ही बनी रहती है| यह घटना भी जौहर की पुष्टि करती है।

इस लोक गाथा के अंत में दसमत आग में जलकर भस्म हो जाती है और बाँध के किनारे पत्थर का रूप धारण कर लेती है ताकि मरने के बाद घाट पर लोगों के काम आ सके| राजा भी उसी पत्थर पर सिर पटक पटक कर अपने प्राण त्याग देता है और कदम्ब का वृक्ष बन कर पत्थर रूपी दसमत को धूप और पानी से बचाने के लिए छाया प्रदान करता है|

शोध आलेख

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