प्राचीन छत्तीसगढ़ (दक्षिण कोसल) प्राचीन काल से ही राम नाम से सराबोर रहा है। छत्तीसगढ़ की जीवन दायनी नदी जिसका पुराणों में नाम चित्रोत्पला रहा है, राजिम स्थित इस नदी के संगम को छत्तीसगढ़ का प्रयागराज कहा जाता है। महानदी के किनारे स्थित सिहावा, राजिम, सिरपुर, खरौद, शिवरीनारायण, तुरतुरिया आदि स्थलों का संबंध रामायण काल के कथानकों से रहा है। इसी कारण इन स्थलों को सांस्कृतिक तीर्थ की संज्ञा दी जाती है।
महानदी के किनारे स्थित गिरौदपुरी धाम में बाबा घासीदास ने जन्म लेकर सत्य का मार्ग दिखाया और सतनाम पंथ की स्थापना की, उनके अनुयायी सतनामी कहलाए। इसी प्रकार महानदी के तट पर स्थित ‘उड़काकन‘ राम नाम को समर्पित रामनामियों का पवित्र तीर्थ हुआ। इनको रामरमिहा, रमनमिहा भी कहा जाता है।
छत्तीसगढ़ में रामनामी पंथ के उत्पत्ति के संबंध में कहा जाता है कि ये लोग हरियाणा के नारनौल से यहां आए थे।1 उस काल के शासकों के दमनात्मक रवैये से परेशान होकर ये लोग छत्तीसगढ़ जैसे शान्त प्रिय प्रान्त की ओर पलायन कर यही बस गए। आज उनके बीसवी पीढ़ी के लोग यहां जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
तात्कालीन समाज ने गुरूघासी दास बाबा के मार्गों का अनुशरण किया था परंतु कालान्तर में यह वर्ग रामनामी, सतनामी, सूर्यवंशी इत्यादि पंथों में बट गया। पूर्व काल में रामनामी लोग सतनाम पंथ को मानने वाले लोग थे। हालांकि अलग होने के बावजूद भी इनमें सांस्कृतिक साम्यता पाई जाती है। ये निराकार के उपासक माने जाते हैं। रामनामी लोग श्री राम के सगुण रूप को नकार कर उनके निर्गुण रूप के उपासक होते हैं।
जांजगीर-चांपा जिले के मालखरौद विकासखण्ड के अंतर्गत ग्राम चारपारा के श्री परसराम भारतद्वाज को रामनामी पंथ का प्रवर्तक माना जाता है। सन् 1904 में उन्होंने निराकार ब्रम्ह के प्रतीक के रूप में राम को मानकर एक जन आन्दोलन की शुरूआत की थी। 2 सर्व प्रथम परशुराम भरतद्वाज ने अपने माथे पर राम नाम अंकित कराया। रामनामी पंथ के पहचान के प्रतीक चिन्ह् –
शरीर पर लिखाई (देहालेखन)
शरीर पर रामनाम की लिखाई करवाना रामनामी पंथ का प्रमुख पहचान है। रामनामी सम्प्रदाय की उत्पत्ति के संबंध में आस्था मूलक एवं विद्रोह मूलक दोनों कारणों का भास होता है। रामनामी पंथ के अनुसार उनके पंथ के प्रथम पुरूष पररूराम के शरीर में कुष्ठ रोग हो गया था, जो कि राम की कृपा से स्वतः ही ठीक हो गया था और उनके वक्ष स्थल पर राम का नाम अंकित हो गया था।
राम की इस महिमा के फलस्वरूप ही इस पंथ के लोगों ने अपने शरीर पर राम नाम गोदवाना प्रारंभ किया था।4 ये अपना पूरा जीवन राम को समर्पित करते हुए रामभक्ति में सराबोर हो गए और राम नाम का अंकन सम्पूर्ण शरीर पर कराना प्रारंभ कर दिया ताकि मृत्यु पर्यन्त राम को कोई उनके मन से और शरीर से अलग न कर पाए।
रामनामी पंथ के लोग अपने बच्चे के जन्म के छठवे दिन जब उसकी छठी की जाती है उस दिन उसके माथे में राम राम नाम के चार अक्षर अंकित करवाते हैं। इसके पश्चात् बच्चा जब पांच वर्ष का होता है तब तथा उसके विवाह के समय भी उसके शरीर पर लिखाई कराई जाती है। शरीर पर कितना और किस अंग पर लिखना है यह स्वयं लिखने वाला या बच्चे का अभिभावक तय करता है।
सामान्यतः शरीर के किसी भी अंग पर राम राम लिखने वाले को रामनामी, माथे पर राम राम लिखने वाले को शिरोमणी, पूरे माथे पर राम नाम लिखने वाले को सर्वांग रामनामी तथा पूरे शरीर में सिर से लेकर नख तक राम नाम लिखवाने वाले को नखशिख रामनामी कहा जाता है। नखशिख रामनामी अपने जननांगों, पलकों एवं जीभ पर भी राम नाम लिखवा लेते हैं।5
रामनामी अपने शरीर पर राम नाम गोदना पद्धति से ही लिखवाते हैं पर ये राम नाम का लिखने को गोदना नहीं कहते इनका मानना है कि गोदना में चित्र बनाया जाता है न कि राम का नाम लिखा जाता है। जब राम नाम शरीर पर लिखाया जाता है, तो लिखने वाला एवं लिखवाने वाला दोनों व्यक्ति राम के भजन का गायन करते है।
इस पंथ के लोग जब गृहस्थ जीवन छोड़ कर सन्यास लेते हैं तब उन्हें त्यागी कहा जाने लगता है। इसमें दम्पत्ति साथ में त्यागी बन सकते हैं। एक त्यागी पुरूष को अपने सर, भौंहे एवं दाढ़ी के बाल को मुंडवाना पड़ता है। एक स्त्री त्यागी को अपने सारे श्रृंगार और सुहाग चिन्ह् जैसे सिन्दूर, बिन्दी, चूड़ी एवं सोने, चांदी के आभूषणों का त्याग करना होता है।
इन आभूषणों की जगह वह राम नाम का गहना पहनती है अर्थात् शरीर के जिस जगह पर श्रृंगार एवं आभूषण होता है वहां यह राम का नाम अंकित करवाती है। राम नाम को ही अपना गहना और श्रृंगार मानती है। धार्मिक विधि-विधान के तौर पर अपने पूरे शरीर पर ईश्वर का नाम अंकित करवाने वाला संभवतः यह दुनिया का एक मात्र समुदाय है।
मोर मुकुट
रामनामी पंथ में मोर के पंखों का बना मुकुट वही लोग धारण करते हैं जो निष्काम अवस्था को प्राप्त करते हैं अर्थात् ये लोग वासना का परित्याग कर देते हैं। सामान्य रामनामी इसे सामूहिक भजन के सुअवसर पर धारण करते हैं जबकि त्यागी रामनामी मोरमुकुट को हमेशा अपने सर पर धारण किए होते हैं। ये केवल सोने के समय ही अपना मुकुट सर से हटाते हैं।
इस मुकुट को रखने के लिए घर में एक विशेष स्थान होता है। इसे सफेद कपड़े में लपेट कर सुरक्षित स्थान पर रखा जाता है। युवाओं को मोर मुकुट धारण करना निषिद्ध होता है। मोर मुकुट स्त्री एवं पुरूष दोनों धारण कर सकते हैं। पहले किसी रामनामी की मृत्यु हो जाने पर उसका मोर मुकुट एवं रामनामी ओढ़नी उसके शव के साथ ही दफना दिया जाता था परन्तु यह प्रथा अब विलुप्तप्राय है। अब मोर मुकुट एवं ओढ़नी को मृत्युप्राप्त व्यक्ति के रिश्तेदारों को दे दिया जाता है।
रामनामी ओढ़नी एवं वस्त्र
रामनामी वस्त्र एवं ओढ़नी रामनामी पंथ के संतों एवं लोगों की विशेष पहचान है। इस रामनामी ओढ़नी को स्त्री एवं पुरूष दोनों धारण करते हैं। सफेद सूती वस्त्र से निर्मित यह सवा दो मीटर लम्बी, दो चादरें रामनामी संतों एवं पुरूषों की परंपरागत पोशाक है। शरीर के ऊपर ओढ़ी जाने वाली चादर ओढ़नी कहलाती है। इन ओढ़नी पर काले रंग की स्याही से अनगिनत अक्षरों में राम का नाम लिखा होता है। कपड़े पर राम का नाम लिखने का कार्य इस पंथ के लोगों द्वारा एक धार्मिक कार्य माना जाता है और राम नाम लिखते वक्त भजन गायन किया जाता है।
भजन खांब अथवा जैतखांब
प्रारंभ में रामनामी सम्प्रदाय के प्रथम पुरूष परशुराम भारद्वाज सतनामी समाज के ही थे, जब उनके द्वारा राम-राम प्रकाशित किया गया तब उन्होंने सबसे पहले जो प्रतीक अपनाया वह जैतखंब ही था परन्तु बाद में इसमें भिन्नता आ गई। सतनामियों का जैतखांब एक चबूतरे पर स्थापित लकड़ी अथवा सीमेंट से निर्मित एक स्तंभ होता है जो कि सफेद रंग से पूता होता है। जिस पर सफेद रंग की ध्वजा लगी रहती है।
जबकि रामनामी जैतखंब पर स्तंभ एवं ध्वजा पर काले रंग से अनेक राम नाम का अंकन होता है। इसे जय स्तंभ भी कहा जाता है। यहां चबूतरे पर अनेक खंबो पर काले अक्षर से राम नाम लिखा होता है। रामनामी पंथ में बड़े भजन मेले का प्रारंभ ऐसे ही जैतखंब पर कलश एवं ध्वजा चढ़ा कर किया जाता है। इस जैतखांब का विशेष महत्व है। इसी चबूतरे में बैठकर रामनामी संत भजन करते हैं, अपनी बैठक करते हैं, सामुदायिक विवाह सम्पन्न कराते हैं, यह बड़े भजन मेले का केन्द्र बिन्दु एवं नियंत्रण केन्द्र होता है।
घूंघरू
सतनामी पंथ में घूंघरू का विशेष महत्व होता है। इस पंथ के लोग अपने भजन गायन में वाद्य यंत्रों का प्रयोग न कर, घूंघरूओं का प्रयोग करते हैं। रामनामियों के द्वारा प्रयुक्त किये जाने वाले घूंघरू विशेष प्रकार के होते हैं। इन्हें विशेष प्रकार के कांसे से ढ़ालकर बनाया जाता है। रामनामी पंथ के लोग इन्हें अपने पैरों में बांधकर एक विशेष लय पर झूमते हुए और घूमते हुए भजन गायन करते हैं। बैठकर भजन करते समय वे इन्हें जमीन से टकराकर एक लयबद्ध तरीके से बजाते हैं। इस पंथ के लोग घूंघरू को सदैव अपने साथ रखते हैं।
रामनामी पंथ की पंचायत व्यवस्था
इस पंथ के लोग अपने समाज के किसी भी समस्या का निवारण बिना कोर्ट-कचहरी का सहारा लिए, अपनी पंचायत में करना पसंद करते हैं। इस पंथ की अपनी स्वयं की पंचायत होती है, जो कि सर्वमान्य संस्था होती है। इनके स्वयं के पंचायत के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत पारिवारिक झगड़ों का निवारण करना, सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक संगठनों को मजबूत बनाना एवं सामूहिक विवाह सम्पन्न कराना आदि होता है।
रामनामी पंथ का सामूहिक आयोजन मेला – रामनामी पंथ के दो प्रमुख आयोजन होते हैं – 1) रामनवमी के उपलक्ष्य में संतों का समागम, 2) त्रयोदशी तक चलने वाला तीन दिवसीय मेला। मेले के प्रथम दिन मेला स्थल पर निर्मित जयस्तंभ के ऊपर कलश चढ़ाया जाता है और रामचरित मानस की प्रति रख दी जाती है।
दूसरे दिन रामायण पाठ एवं रामनाम के भजन का आयोजन होता है तथा तीसरे दिन सामूहिक विवाह, भण्डारा स्वरूप सामूहिक भोजन का आयोजन होता है। इस मेले में लोगों के पारिवारिक विवाद एवं झगड़ो का भी फैसला किया जाता है। अगला मेला किस स्थल पर होगा इसका फैसला भी इस मेले में कर दिया जाता है। रामनामी मेला महानदी के तटवर्ती ग्रामों में एक बार महानदी के उत्तर में तो दूसरी बार महानदी के दक्षिण में आयोजित किया जाता है।
इसके पीछे की मान्यता यह है कि एक बार महानदी को पार करते समय नाव मझधार में फंस गई थी। इस नाव पर सवार सभी लोगों ने ईश्वर से मिन्नते की पर कुछ नहीं हुआ। संयोग से उस नाव पर रामनामी पंथ के प्रवर्तक श्री परशुराम भारद्वाज और उनके अनुयायी भी सवार थे। नाव पर सवार अन्य लोगों ने इन सब से भी ईश्वर से प्रार्थना करने का अनुरोध किया।
तब उन्होंने राम जी से प्रार्थना की – ‘‘यदि मझधार में फंसी नाव सकुशल नदी के किनारे लग जाएगी तो रामनामी पंथ द्वारा प्रतिवर्ष महानदी के दोनो किनारों पर रामनाम के भजन किर्तन का आयोजन किया जाएगा।‘‘ उनके इस तरह प्रार्थना करते ही नाव नदी के किनारे लग गई और लोगों के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। इस प्रकार प्रतिवर्ष नदी के किनारे रामनामियों द्वारा भजन कीर्तन का आयोजन किया जाने लगा जो कालांतर में एक मेले और सम्मेलन के रूप में परिवर्तित हो गया।6
विवाह संस्कार
रामनामी पंथ के मेले की सबसे बड़ी विशेषता पारस्परिक सहयोग एवं एकता के साथ ही सद्भाव एवं भक्ति होती है। इस मेले में विवाह संस्कार का भी बहुत महत्व है। इनके मेले के दौरान् लड़के एवं लड़की पक्ष वाले जैतखंभ के समक्ष एकत्र हो जाते हैं और उनके दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करने हेतु वर-वधु के मस्तक पर गोदना, जिसे ये सही नाम लिखना कहते हैं। उसके अनुसार राम नाम अंकित करवा दिया जाता है।
जयस्तंभ के चारों ओर वर-वधु के द्वारा सात बार फेरा लिया जाता है तथा रामचरित मानस पर वर एवं वधु पक्ष के लोग कुछ रूपये चढ़ाकर वर-वधु को वैवाहिक दक्षिणा प्रदान करते हैं।7 इस पंथ के वरिष्ठ गुरूजन शीश के ऊपर रामांकित बोंगा धारण कर, उसे मयूर पंख से सुसज्जित कर आशीर्वाद देते हैं।
अगर लड़की विवाहोपरान्त विधवा हो जाती है तो उसके मस्तक पर अंकित राम नाम को देखकर चूड़ी प्रथा द्वारा दूसरा व्यक्ति उससे विवाह कर लेता है। इस प्रकार विधवा से पुर्नविवाह करने वाले व्यक्ति को अपने समाज में भात देना (भोजन करवाना) पड़ता है।
रामनामी पंथ द्वारा मेले में सामूहिक विवाह करने की प्रथा आज की दहेज-प्रथा के विरूद्ध एक नैतिक चुनौती है। इस पंथ में किसी भी व्यक्ति द्वारा चारित्रिक अपराध सिद्ध होने पर व्यक्ति को भात देकर अर्थात् अपने समाज को भोजन करवाकर प्रायश्चित करना पड़ता है।
इस प्रकार रामनामी पंथ के लोग राम नाम के प्रति आस्थावान होते हुए किसी भी तरह के व्यसन से मुक्त होते हैं। ये विशुद्ध शाकाहारी होते हैं।8 शरीर पर रामनाम लिखवाने के पीछे इनकी ऐसी धारणा होती है कि मृत्यु उपरान्त स्वर्ग में ईश्वर इनकी पहचान कर लेंगे। इनके अनुसार शरीर पर अंकित राम नाम इनके शरीर पर राम जी का हस्ताक्षर है।
शरीर में राम नाम का अंकन इनके सौन्दर्य का साधन न होकर राम के प्रति इनके धार्मिक आस्था का द्योतक है। वर्तमान समय में अब इनकी जनसंख्या कम होती जा रही है। इस सम्प्रदाय के युवा अब आधुनिकीकरण के परिवेश में ढल चुके हैं। जिससे शरीर में राम नाम अंकित कराना इस पंथ के युवाओं को अब अच्छा नहीं लगता।
रामनामी पंथ श्रीराम के आदर्शों पर चलकर अपने समाज को एक आदर्श समाज के रूप में स्थापित करता है। जिनका अनुशरण हमारे भारत देश के प्रत्येक व्यक्ति और समाज को करना चाहिए। इस प्रकार राम के नाम पर सराबोर ये पंथ अपने राम के प्रति संपूर्ण समर्पण के कारण विश्व में अपनी अलग पहचान बनाएं हुए हैं।
आलेख
ललित शर्मा (इण्डोलॉजिस्ट)
कुमारी शुभ्रा रजक
शोधार्थी, पं रविवि, रायपुर, छत्तीसगढ़