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लोक का सांस्कृतिक उत्सव: मड़ई

लोक बड़ा उदार होता है। यह उदारता उसके संस्कारों में समाहित रहती है तथा यह उदारता आचार-विचार, रहन-सहन, क्रिया-व्यवहार व तीज-त्यौहार में झलकती है। जो आगे चलकर लोक संस्कृति के रूप में अपनी विराटता को प्रकट करती है। यह विराटता लोक संस्कृतिक उत्सवों में स्पष्ट दिखाई पड़ती है।

छत्तीसगढ़ में ऐसा ही सांस्कृतिक उत्सव है मड़ई। मड़ई छत्तीसगढ़ का आनंदोत्सव है, जिसमें उत्सव आधार भूमि है यहां की कृषि संस्कृति, उल्लास प्रियता और मेल-जोल, समता- सद्भाव की परस्पर निर्भरता और विश्वास का धरातल।

मड़ई के प्रति अनुराग और आकर्षण छत्तीसगढ़ी लोक जीवन में बचपन से दिखाई पड़ता है छोटे-छोटे बच्चे राऊत नृत्य की मुद्रा में दोहा पारते (बोलते) हैं –    अरे ररे भाई रे, जाबो मड़ई रे खाबो मिठई रे ।

छत्तीसगढ़ के गाँवों में, बड़े कस्बों में मड़ई की शुरूआत गोवर्धन पूजा के बाद से प्रारंभ हो जाती हैं। जो होली तक चलती है। इस बीच छत्तीसगढ़ के धान की फसल काटकर खेतो से खलिहानों और खलिहानों से कोठी में आ जाती है। फसल आने की खुशी और अपने पसीने की बूंदों को धान के रूप में प्राप्त कर किसानों का उत्साह द्विगुणित हो जाता है । तब यही अवसर होता है, अपने मन के उल्लास और उमंग को उत्सव के रूप में परिणित कर परंपरा और प्रकृति से जुड़कर लोक को निकट से देखने और जानने समझने का ऐसा सुखद संयोग लोक में ही मिलता है।

मड़ई शब्द की व्युत्पत्ति मड़ से जान पड़ती है। मड़ का अर्थ होता है बनाना मड़ से मड़ना -जैसे गढ़ना। ये शब्द निर्माण को व्यक्त करते हैं, सृजन का संकेत करते हैं। लोक सर्जक है, संस्कृति का, प्रकृति का । इसलिए लोक पर्याय है प्रकृति का। प्रकति का पुजारी है लोक।

गोवर्धन पूजा ही इसका विशिष्ट उदाहरण है गोवर्धन पूजा। भगवान श्री कृष्ण से जुड़ी है। श्री कृष्ण लोक का प्रतिनिधित्व करते है। तभी तो वे गोकुल की गोपियों को इन्द्र की पूजा के स्थान पर गोवर्धन पहाड़ की पूजा के लिए प्रेरित करते है। वह इसलिए कि गोवर्धन पहाड़ से लोक की दैनिक आवश्यकताओं क पूर्ति होती है जब-जब लोक प्रतिष्ठित होता है तब-तब शिष्ट कुपित होता है। इन्द्र ने भी अपना कोप दिखाया और गर्जना के साथ अति वृष्टि से गोकुल को बहाने का प्रयास किया। तब श्री कृष्ण ने लोक रक्षक के रूप में गोवर्धन धारण कर गोकुल वासियों की रक्षा की। शिष्ट हार गया लोक जीत गया।

इसी खुशी में गोकुल वासियों ने पताका फ़हरा कर अपने आनंद और उल्लास को नाच-गाकर प्रकटित किया पताका लोक का था, इसलिए लोकानुरूप बना। बांस लकड़ी रस्सी और औषधीय पौधो से। आज भी मड़ई का निर्माण इन्ही प्राकृतिक संसाधनों से होती है। यहां मड़ई गोवर्धन पर्वत का ही प्रतीक है। कुछ विद्वान मड़ई को इन्द्र ध्वज तो कुछ विद्वान मातृध्वज की संज्ञा देते है। ये दोनो रूप भी लोक भावना के अनुरूप दिखाई पड़ते हैं।

कुषि जीवन में वर्षा और पृथ्वी की बड़ी महत्ता है। वर्षा के देवता इन्द्र है, और धरती तो माता ही है। इन्द्र के लिए इन्द्रध्वज और  धरती माता के लिए मातृध्वज। दोनो के प्रति लोक का यह पूज्य भाव भी मड़ई का बोधक है। मंड़ई को यदि कृषि उत्सव कहा जाय तो गलत नही होगा। क्योंकि मड़ई का आयोजन छत्तीसगढ़ में फसल के आने के बाद ही सम्पन्न होता है।

मड़ई का निर्माण छत्तीसगढ़ में गोड़, केंवट व ढीमर जाति के लोगों द्वारा विधि-विधान से किया जाता है। मड़ई बनाने वाले को मड़ईहा कहा जाता है। मड़ई का निर्माण सुरहुन्ती (लक्ष्मी पूजा) की रात को अंतिम पहर में किया जाता है। कुछ लोग मारन वाले मड़ई में मुर्गा, बकरा, या सुअर की बलि देते है। तो सेत वाले मड़ईहा केवल नारियल चढ़ावा मड़ई निर्माण होते है।

मड़ई के लम्बा बांस लकड़ी की ठेरा पाटी , सूमा डोरी  आवश्यक होते है। मड़ई परम्परानुरूप सात पक्ती नव पक्ती बारह पक्तियां को बनाया जाता है। मड़ईया अपनी परंपरा मान्यता के अनुसार मड़ई बनाते है जो देवी देवताओं को समर्पित होते है।

इनमें प्रकार है – (1) सत्ती (2) नम्मू (3) बरइहा। सत्ती मड़ई सप्त मातृका, नम्मू मड़ई नव दुर्गा रूप व बरइहा मड़ई बारह राशि, बारह महीना आदि के लोग रूप है। मड़ई को सुमा डोरी में कंदई के पत्ते लगा कर सजाया जाता है। आजकल कागज के चमकीले तोरन के द्वारा मड़ई को सजाने की परंपरा दिखाई पड़ती है।

मड़ई के शीर्ष भाग में सिलयारी, मयूर पंख, भेमरी आदि लगाया जाता है। सिलयारी और भेमरी तो औषधीय पौधे है। कुल मिलाकर मड़ई का निर्माण व शृंगार लोकानुरूप स्वामित्वस्त उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से किया जाता है। मड़ई के साथ बैरग होता है जिसमे काले कपड़े का ध्वज लगा होता है छोटे बास में भेमरी या सिलयारी पौधा लगा भी बैरग बनाया जाता है। इस छोटी मड़ई कहा जाता है। मड़इया तुलसी चौरा के पास छप्पर के सहारे खड़ाकर मड़ई को धोती भेंटकर  मौर सौंपा जाता है। गोवर्धन पूजा के दिन शाम को गोवर्धन के कार्य में राऊत नृत्य के साथ मड़ई को शामिल किया जाता है।

गांवों में मड़ई आयोजन गाँव की सुविधानुसार या साप्ताहिक बाजार के दिन किया जाता है। अब मातर व मड़ई एक ही साथ होता है। जिसमें सुबह यादव जाति के लोगों के द्वारा मातर व शाम को मड़ई का कार्य सम्पन्न होता है। राऊत नर्तक गढ़वा बाजा के साथ दोहा पारते नाचते कूदते मड़ई को परघाते है। मड़इहा, मड़ई लेकर राऊत नर्तकों के साथ शामिल हो जाता है। नृत्य टोली ग्राम प्रमुखों को उनके घर जाता उन्हें सम्मानपूर्वक अपने साथ चलने का आग्रह करती जिसे ग्राम प्रमुख सहर्ष स्वीकार कर साथ चलते है। ग्राम्यजीवन में राऊत नर्तको द्वारा परघाना सम्मानसूचक माना जाता है।

मड़ई की जानकारी आसपास के गांवों व हाट-बाजारों में कोटवार के द्वारा मुनादी करके दी जाती है। मड़ई के समय ग्रामीणों द्वारा अपनी बेटियों को व रिश्तेदारों के निमंत्रित करने की परम्परा है। जिसमें गाँवों की चहल पहल व रौनक बढ़ जाती है। मड़ई में लोक मिलते-जुलते है, सुख-दुख को बाँटते है। आत्मीयता बढ़ती है। अपनी दैनिक उपयोग की वस्तुओं के साथ खाई-खजाना मिठाई आदि लेते है।

बच्चों में विशेष उत्साह होता है वे अपने लिए खाने-पीने की चीजे के साथ खिलौना जरूर लेते है। मड़ई के दिन आबाल वृद्ध नारी-पुरूष सबेरे चेहरों का मुस्कान दिखाई पड़ती है। यह गाँव का वार्षिक आयोजन जो है। सब एक दूसरे से हँस कर मिलते है और खुशी के मारे फूलों से खिलते है। राऊत नृत्य की शोभा आनंद दायक होती है। रंगीन पोषाक साजू, पगड़ी, पैजन, घुंघरू, फूलेता आदि से सजे-धजे राऊत नर्तकों की टोली श्री कृष्ण और उनके ग्वालबालों की टोली जैसी दिखाई पड़ती है। राऊत नृर्तक दोहा पारते है।

         वृंदावन के कूंज गलिन में , ऊॅंचे पेड़ खजूर।

         जा चढ़ि देखे नंद कन्हैया, ग्वालिन कतका दूर।।

फिर तो दोहा पारने की होड़ लग जाती है। दोहा पारते ही गड़वा बाजा के ताल पर नर्तक वीरता पूर्ण नृत्य का सबका मन मोह लेते है। मड़ई स्थल में एक निश्चित स्थान पर ग्राम प्रमुखों का स्वागत सम्मान होता है। पान बीड़ी देने की परम्परा आज भी गांवों में दिखाई पड़ती है। झूम-झूम कर नाचना व दोहा की बरसात निरन्तर जारी रहती है।

त्रेता में दूध मिले संगी, द्वापर में घी।

कलयुग में दारू मिले , घोलंड घोलंड के पी।।

राऊत नाच का यहाँ दोहा समय के सच को बता रहा है। आज शराब हमारी संस्कृति हमारी सभ्यता का पूरे मानव समाज को बर्बाद करने पर तुली है। शराब ने मड़ई को भी दुष्प्रभावित किया है। अब मड़ई का आयोजन शराब माफियाओं व ठेकेदारो द्वारा किया जाता है। जहाँ गांवों में दिन रात शराब की खुले आम बिक्री होती है। शासन और प्रशासन भी चुप है। उसे तो पैसा चाहिए। शराब की अधिकाधिक बिक्री के लिए शराब ठेकेदारों के द्वारा नाचा व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। जिसमें संस्कृति कम भौड़ापन और अश्लीलता का प्रदर्शन अधिक होता है। पश्चिमी सभ्यता व शहरी प्रभावों में बहकी युवा पीढ़ी भी ऐसे कार्यक्रम को पसंद करती है।

अब मड़ई का रूप बदला-बदला है। बदलते समय ने सबको बदल दिया है। मड़ई की शान ढेलुवा, रहचुली की जगह हवाई झूले बिजली की चकाचैंध रोशनी में जगमगाती विदेशी खान- पान और खेल-खिलौने की दुकानें शहर की मीना बजारों की याद दिलाती है। चना-मुर्रा, कांदा, उखरा की दुकानों को एगरोल, पिज्जा-बर्गर, चाट आइसक्रीम की दुकाने निगलते दिखाई पड़ती है।

बदली बदली हवा है, बदला-बदला समय है, मड़ई के पारम्परिक स्वरूप में जहाँ शांति सद्भाव और सहयोग की भावना प्रबल थी। उसे आधुनिकता व शराब के बढ़ते चलन से कड़ा खतरा है। कोई भी ऐसा मड़ई का आयोजन नहीं जहाँ शराब के कारण अशांति पैदा न होती हो।

मड़ई मड़ई रहे, ये हमारी पहचान है ,लोक संस्कृति की धरोहर हमारी शान है। भाषा संस्कृति रहेगी तो हम रहेगें वरना ये तो जीवन नहीं समझो श्मशान है।

आलेख

डाॅ. पीसी लाल यादव
‘‘साहित्य कुटीर‘‘ गंडई पंड़रिया जिला राजनांदगांव (छ.ग.) मो. नं. 9424113122

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