प्रत्येक प्रांत के अपने विशिष्ट पर्व होते हैं। जिनसे उसका सांस्कृतिक संबंध होता है । खान- पान, रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार का संबंध मानवीय भाव भूमि से होता है। जिसे वह किसी न किसी रूप में व्यक्त करता है। यह व्यक्त करने का संबंध मनुुष्य के चेतन प्राणी होने से है। चेतन प्राणी होने के नाते उसमें संवेदनाएं होती हैं जिन्हें वह अपने पर्व और परंपराओं के माध्यम से अभिव्यक्ति देता है।
सुख-दुख को मनुष्य अपने भीतर कभी सम्भाल कर नहीं रख सकता क्योंकि वह अपनी भावनाओं का प्रकटीकरण करना चाहता है। चाहे वह हँसे, गाए या रोए। जिस रूप में भी हो उसे वह एक दूसरे से बाँटता है। जिसे हम त्यौहार, पर्व और परंपरा का नाम दे देते हैं । पर्वों एवं परंपराओं का अपना महत्व होता है। इन पर्वों में निहित उद्देश्यों का जब हम विश्लेषण करते हैं, तब एक नया भाव उभरकर आता है और यह हमें अहल्लादित ही नहीं करता बल्कि हमें एक नवीन दृष्टि देता है।
छत्तीसगढ़ कृषि प्रधान राज्य है, यहाँ प्रमुखतः धान की खेती होती है। यहाँ के पर्व और परंपराओं का आधार कृषि ही है। कृषि संस्कृति में अनेक भाव निहित हैं, उन्हीं भावों की अभिव्यक्ति ही पर्व हैं। जिन्हें हम छत्तीसगढ़ में तिहार कहते हैं। छत्तीसगढ़ में मनाए जाने वाले पर्वों में हरेली, पोला, दिवाली, देवउठावनी, अक्ति (अक्षय तृतीया) आदि सभी पर्वों का संबंध किसी न किसी रूप में कृषि परंपरा से जुड़ा हुआ है। इसे जानने और समझने की आवश्यकता है कि इन पर्वों को मनाने की
परंपरा कब और कैसे बनी होगी?
पोला पर्व भादों मास के अमवस्या के दिन मनाया जाता है। इस दिन को अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग तरह से मनाया जाता है। इस पर्व की शहर से लेकर गांव तक धूम रहती है। जगह-जगह बैलों की पूजा-अर्चना होती है। गांव के किसान भाई सुबह से ही बैलों को नहला-धुलाकर सजाते हैं, फिर हर घर में उनकी विधि-विधान से पूजा-अर्चना की जाती है। इसके बाद घरों में बने पकवान भी बैलों को खिलाए जाते हैं।
बैल किसानों के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। किसान बैलों को देवतुल्य मानकर उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। पहले कई गांवों में इस अवसर पर बैल दौड़ का भी आयोजन किया जाता था, लेकिन समय के साथ यह परपंरा समाप्त होने लगी है। जैसे कि मैंने कहा बैल कृषि कार्य में कितना महत्व रखते हैं, उसे कृषक ही जानता है।
आज के वैज्ञानिक (मशीन) युग में भले ही बैल का महत्व खत्म हो गया, किन्तु कालांतर में कृषि कार्य के लिए यह महत्वपूर्ण साधन रहे हैं। बैलों की पूजा करना अर्थात उनकी सुरक्षा के प्रति जागरूक होना और उनके प्रति आभार का भाव रखना है। क्योंकि बैलों के अभाव या न होने से कृषक एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता था। यह त्यौहार हमें कृतज्ञता का भाव सिखाता है। कि अपने सहयोगी या साथी के प्रति कैसे भाव प्रकट करें।
इस पर्व दूसरा पक्ष है गर्भाही। पोला को आज भी ग्रामीण इलाकों में गर्भाही तिहार (त्यौहार) के रूप में जाना जाता है या मनाया जाता है। गर्भाही अर्थात् गर्भधारण करना। भादो अमावस्या के आते-आते ऐसी मान्यता है कि धान के पौधों में पोटरी आ जाता है, दूध भर आता है। पोटरी अर्थात् पुष्ट होना।
पुष्ट होने का अर्थ केवल सबल होना नहीं है, बल्कि धान के पौधों का गर्भधारण करना है। अर्थात् धान के पौधों के भीतर बालियों का अपरिपक्व रूप में आना है। इसे ही पोटरी आना कहते हैं। इसीलिए इस त्यौहार को गर्भाही तिहार कहते हैं। गर्भाही तिहार का छत्तीसगढ़ में बड़ा महत्व है। बल्कि इसका सुन्दर मानवीयकरण का पक्ष है।
पोला के दिन कृषक अपने खेतों में चीला चढ़ाता है। चीला चढ़ाने का भी एक विधान है। इसे हम लोक रूप में पूजा विधान की तरह देख सकते हैं। कृषक घर पर गेंहूँ का मीठा चीला बनवाता है और एक थाली में रोली, चंदन, दीप, नारियल, अगरबत्ती आदि पूजा का समान रखकर खेत में जाता है और खेत के भीतर एक किनारे में पूजा विधान कर घर से लाये हुए चीला को वहीं आदर पूर्वक मिट्टी में दबा देता है। और अभ्यर्थना करता है कि उसकी फसल अच्छी हो ।किसी तरह रोग-दोष ना आये। इसका अंतर्भाव यह भी हो सकता है। पुष्ट देह होगी तभी तो फसल भी पुष्ट होगी।
गर्भाही तिहार का भाव और प्रक्रिया ठीक उसी तरह की है, जब बेटियाँ गर्भधारण करतीं हैं , तब मायके से ‘सधौरी’ ले जाने की परंपरा है। सधौरी माने विविध प्रकार के पकवान। कहने का अभिप्राय यह है कि गर्भावस्था में कुछ खाने की अधिक इच्छा होती है, उसी साध को पूरा करने के लिए मातृ पक्ष से यह आयोजन किया जाता है। ठीक उसी प्रकार कृषकों के खेतों में धान के पौधे में पोटरी आने लगता है, तब उसे बेटी सदृश्य मानकर चीला चढ़ाते हैं, यह कृषि परंपरा का एक मानवीय स्वरूप और उदार भाव है।
इस परंपरा का विकास कब और कैसे हुआ होगा, यह कहना संभव नहीं है। लेकिन यह सत्य है कि इसके प्रति एक व्यापक और उदार सोच रही होगी। मानव मन हमेशा चिंतनशील रहा है साथ वह उत्सव धर्मी भी है। इसी उत्सव धर्मी सोच से ही विविध पर्वों का विकास हुआ होगा । यह जीवन में आई एक रसता को समाप्त करने की पहल भी है।
यह त्यौहार बच्चों के लिए भी बहुत महत्व रखता है। इस दिन को हम कृषि पर्व के रूप में तो मनाते ही हैं। पर मुझे इसमें शैव परंपरा का भी भाव दिखता है। इस दिन बैलों की पूजा के साथ-साथ मिट्टी के बैलों की पूजा और पोरा-जांता की भी पूजा की जाती है। पूजा के पश्चात मिट्टी के बैलों को लड़के और पोरा-जांता लड़कियाँ खेलती हैं।
इस मिट्टी के बैल को भगवान शिव के सवारी नंदी मान कर पूजा किया जाता है। वहीं पोरा-जांता को शिव का स्वरूप मानकर पूजा जाता है। बच्चे इस दिन गेंड़ी जुलुस भी निकालते हैं। यह गेंड़ी चढ़ने का अंतिम दिन होता है। पोला के दूसरे दिन गेंड़ी को विसर्जित कर देते हैं। इस तरह हम इस पर्व में अनेक तत्वों का समावेश पाते हैं।
इस पर्व के संबंध में एक किंवदंती है। मुगल शासन काल में बल पूर्वक धर्म परिवर्तन कराया जा रहा था। तथा हिंदू धर्म की पूजा पद्धति में रोक लगाई जा रही थी। हिंदू छुप-छुपकर अपने देवी देवताओं की पूजा अर्चना करते थे। अपने पूजा के प्रतीकों का उपयोग करते थे ताकि मुगल हस्तक्षेप न कर सके। हिंदू भक्तों ने शिव पूजा को इस प्रतीक के रूप मे लिया। इस दिन पकवान के रूप में ठेठरी और खुरमी आवश्यक रूप से बनाया जाता है। यदि हम ठेठरी और खुरमी के मूल स्वरूप को देखें तो खुमरी शिव और ठेठरी जलहरी के प्रारूप है।
पोला के इस बहुआयामी पर्व को देखें और समझें तो हम जान सकेंगे कि लोक में पर्वों का क्या महत्व है और हमारे बुजुर्गों ने कितने उदार भाव से इनकी परिकल्पना की होगी। यदि इन पर्वों का आयोजन नहीं होता तो न ही मानवीय चेतना का विकास होता और न ही समाज में समरसता का भाव पैदा होता।