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अन्न बहन-बेटी तथा मां के प्रति सम्मान का लोकपर्व पोला

कहीं भी हो लोक जीवन का आलोक एक विशेष प्रकार की इन्द्रधनुषीय आभा को प्रदर्शित करता है। इस आभा में लोक के रीति-रिवाज और संस्कार की उज्जवलता सर्वाधिक आकृष्ट करती है। क्योंकि इसमें आडम्बर के लिए कोई स्थान नहीं होता। लोक जीवन की सरलता और सहजता ही उसे विशिष्ट बनाती है। इसलिए लोक के तीज त्यौहार सहज, सरल होते हुए भी रंग-रंगीले होते हैं। इनमें उनकी आस्था और विश्वास ही अभिव्यक्त होते हैं।

छत्तीसगढ़ राज्य में पर्वो और त्यौहारों की कमी नहीं। सभी पर्व और त्यौहार यहाँ के लोक जीवन की कहानी कहते हैं। यहाँ लोक जीवन का आराध्य श्रम है। श्रम से सराबोर कृषि कर्म की अलग ही पहचान है। यह पहचान यहाँ के लोक पर्वो में सन्निहित है। चाहे वह हरेली हो या गोवर्धन-पूजा, छेर-छेरा हो या पोला। सबमें कृषि संस्कृति के तत्व ही विद्यमान हैं।

पोला पर्व भादो मास की अमावस्या को मनाया जाता है। विभिन्न अंचलों में इसे पोला पाटन व कुशोत्पाटनी आदि नाम से भी अभिहित किया जाता है। पोला हरेली की ही तरह कृषि कर्म से प्रेरित लोकपर्व है। जिस प्रकार हरेली में कृषि औजारों की पूजा प्रतिष्ठा कर लोक अपने व अपने पशु धन के लिए स्वास्थ्य की मंगल कामना करता है। ठीक उसी प्रकार पोला भी धन-धान्य, लक्ष्मी व कृषि कर्म के सहयोगी बैलों की पूजा से संबधित है।

इस समय खेतों में अंतिम निंदाई लगभग पूरी हो जाती है। खेतों में धान के पौधे लहलहाते हैं। ये पौधे किशोरावस्था को पार कर परिपक्व होने की स्थिति में होते हैं। फसल को लोक भाषा में लक्ष्मी कहा जाता है। यह अन्नापूर्णा भी कहलाती है। लक्ष्मी का आशय समृद्धि भी है। लक्ष्मी अर्थात् अन्नपूर्णा का बालपन बेटी और प्रौढपन माँ के रूप में पूजित होता है।

धान्य लक्ष्मी जब तक खेतों में है वह बेटी है। खेत से खलिहानों और खलिहान से कोठी में आकार माँ की प्रतिष्ठा पाती है। लोक का यह मर्म वे ही जान सकतें हैं, जिन्होंने लोक जीवन का संसर्ग प्राप्त किया हो।

ऐसी लोक मान्यता है कि पोला के दिन धान की फसल ‘गभोट‘ में आती हैं अर्थात् गर्भ धारण करती है।इसलिए लोक मर्यादा के अनुरूप इस दिन खेत जाना वर्जित है। इसके पीछे कारण जो भी हो, लेकिन लोक की यही मान्यता है। लोक में मर्यादा पालन की परम्परा केवल मनुष्य के लिए ही नहीं अपितु पशु-पक्षी, पेड़-पोधे के लिए भी है। शायद यह वर्जना इसी भावना से प्रेरित हो।

इसका दूसरा आशय यह भी है इस दिन कृषक परिवार द्वारा अपनी बेटी धान्य लक्ष्मी के गर्भवती होने की स्थिति में विशेष व्यंजन बनाकर सधौरी का भोग लगाया जाता है, क्योंकि यहाँ पुत्री के गर्भवती होने पर सधौरी खिलाने की परम्परा है। अन्न भी तो बेटी ही है। जो खेतों में है और गर्भवती है।

पोला के परिदृश्य में लोक की यही भावना है। पोला मानकर लोक शायद अपनी भावना को इन शब्दों में अभिव्यक्त करता है- ‘हे माता फसल गर्भ से परिपूर्ण, अन्न ऊर्जावान, शक्तिदायक, गुणकारी, स्वादिष्ट और समृद्धिदायक हो। अन्न का विपुल उत्पादन हो।‘‘

पोला के दिन छत्तीसगढ़ में नंदी अर्थात् नाँदिया पूजा की परम्परा है। नंदीं शिव का वाहन है। छत्तीसगढ़ का सम्पूर्ण लोक जीवन ‘शिव‘ से परिपूर्ण है। आदिकाल से शिव अर्थात् शंकर भगवान यहाँ बडा़देव, बूढ़ादेव, दूल्हादेव आदि के रूप में लोक पूजित हैं।

यहाँ के प्राचीन मंदिरों में ही नही,ं बल्कि प्रत्येक गाँव व टोले मुहल्लों में शिव मंदिरों की अधिकता है। अर्थात् शिव ही सर्वाधिक लोक पूज्य देव हैं। देव नहींं भोलेबाबा हैं। ठीक ‘लोक‘ की तरह भोले-भोले, सीधे-सरल, निष्कपट और निश्छल। जिसका आराध्य निश्छल होगा वह आराधक भी निश्छल होगा। इसे छत्त्सीसगढ़ का लोक जीवन प्रमाणित करता है।

जहाँ शिव है वहाँ नंदी है और जहाँ नंदी है वहाँ शिव है। नंदी आत्मा और शिव परमात्मा है। इसलिए शिवमंदिरों में नंदी (आत्मा) शिव (परमात्मा) से प्रत्यक्षीकरण के लिए ध्यानमुद्रा में अवस्थित है। यह शास्त्र का अपना अध्यात्म व दर्शन हो सकता है। पर लोक इससे भिन्न नहीं है।

उसका यह जुड़ाव उससे भी अधिक गहरा और एकनिष्ठ है। इस तथ्य को यह लोकपर्व प्रमाणित करता है। नांदिया बैल ही है, किन्तु पूजित की श्रेणी में है। बैल भी पूज्य है और वह अपने परिश्रम के आधार पर कृषि कार्य का आधार स्तम्भ है। वैज्ञानिक प्रणाली को छोड़ दें तो बैल के बिना कृषि संबंधित कार्य संभव ही नहीं।

इसलिए पोला के दिन नंदी या नांदिया के रूप में कृषक अपने बैलों की ही पूजा करता है। कुम्हार के हाथों में बने मिट्टी के नांदिया बैल के प्रति उपजी लोक की आस्था और उसके विश्वास के पीछे बैल का कृषि कार्य में सहायक होना ही प्रमुख है।

छत्तीसगढ़ में ‘गोल्लर ढ़ीलने की परम्परा है। मृत व्यक्ति की स्मृति में या अन्य विशेष अवसरों पर संपन्न परिवार द्वारा ‘गोल्लर‘ (सांड) छोड़ा जाता है। तब किशोर बछड़े को विधि विधान से उसके कमर (पुट्ठे) पर गर्म हँसिया से त्रिशूल की आकृति दागकर व उसके डील (गर्दन व पीठ के मध्य का भाग) को ‘काठा‘ से नापकर छोड़ा जाता है। यह पशु धन के उन्नत नस्ल होने की भावना से छोड़ा जाता है।

यही किशोर बछड़ा गोल्लर के रूप में मान्य होता है। वह किसी के भी खेत में चर सकता है। उसके चरनें पर कोई प्रतिबंध नहीं। इसलिए कि वह लोक में पूजित स्थान प्राप्त कर लेता है। उसे भोले बाबा कहकर भी अभिहित किया जाता है।

उसे शिव वाहन अर्थात् नंदी की संज्ञा मिल जाती है। गाँवों में कुछ लोग नांदिया बैल सजाकर विभिन्न करतब दिखाते हैं। नांदिया बैल की सजावट ही निराली होती है। पीठ पर कपड़ो की आकर्षक सजावट, सींगों में सलीकेदार मयूर पीक की कलगी, गले में घंटी और पैरों में घुंघरू उसे उत्कृष्ट और पूज्य बनाते हैं।

ढोलकी की आवाज के बीच विभिन्न करतब दिखाता नांदिया बैल लोगों की श्रद्धा का पात्र इसलिए भी बनता है कि वह शिववाहन नंदी है। लोग श्रद्धापूर्वक उसके पेट के नीचे से अपने छोटे बच्चों को लेकर सुख-समृद्धि और स्वस्थ जीवन की कामना से निकलते हैं। यहाँ भी बैल के प्रति लोक का आदर भाव ही दृष्टिगोचर होता है। श्रद्धा और आदर हो भी क्यों न, वह उसके जीवन का सहचर जो है।

नांदिया का अस्तित्व तो अकेले में ही है, लेकिन बैल का अस्तित्व तो जोड़ी में है। नांदिया बैल में कृषक का बैल ही आरोपित है। इसलिए पोला के दिन अकेले नांदिया बैल की पूजा नहीं होती, बल्कि उसकी जोड़ी भी रहती है। अर्थात् पोला में दो बैलां की पूजा का विधान है।

इस दिन छत्तीसगढ़ में व्यंजन के रूप में विशेष सामाग्री ‘ठेठरी‘ और ‘खुरमी‘ बनायी जाती है। यहाँ भी शिव के प्रति लोक की आस्था प्रतिबिम्बत होती है। ठेठरी जिसकी आकृति जलहरी (प्रतीक रूप पार्वती) और खुरमी शिवलिंग (शंकर) रूप में प्रतीत होती है। यह लोक आस्था का चरमोत्कर्ष है।

यही ठेठरी, खुरमी अर्थात् (पार्वती व शिव) को कपड़े का ‘गोना‘ बनाकर नांदिया पर चढ़ाया जाता है। नांदिया (नंदी) पर शिव पार्वती ही तो सवार होंगे न। लोक का यह रूपक, लोक का यह बिम्ब अन्यत्र शायद ही मिले। पूजा के बाद नांदिया बैलों में ‘सीली‘ पहिया लगाकर बच्चों द्वारा दौड़ाया जाता है।

इस समय बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है। नांदिया बैलों के साथ पूजित जाता-पोरा, चुल्हा-चुकिया व मिट्टी के बने बर्तनों की खेल सामाग्री से बच्चे विशेषकर लड़कियाँ ‘सगा-पहुना‘ खेलकर बालपन में ही पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारी का अभिनय करती हैं।

पोला मूलतः कृषि संस्कृति से प्रेरित पर्व है। इसलिए पोला के दिन ‘दईहान‘ में शाम को बैल-दौड़ की प्रतियोगिता होती है। किसान अपनी बैलजोड़ी को आकर्षक ढ़ंग से सजाकर प्रतियोगिता में शामिल करते हैं। दौड़ होती है और विजयी बैलजोड़ी के साथ कृषक को भी पुरस्कृत किया जाता है।

इसी दिन शाम को ही रंग-बिरंगे पोशाकों में सज-धज कर किशोरियाँ औ महिलाएँ ’पोरा’ पटकने के लिए जाती हैं। गाँव के बाहर महिलाएँ एकत्रित होकर पोरा (घड़े का लघुरूप) फोड़ती हैं, जिसमें ठेठरी व खुरमी हैं। गाँव के बाहर या चौराहे पर जैसे मेला सा लगा रहता है। वातावरण में चारों तरफ गेंड़ीहारां की गेड़ी की आवाजे गूंजती है- रोहों पो पो रोहों पो पो …….।

यह वही बाँस की गेड़ी है जिसे हरेली के दिन से बच्चे महीने भर मचमच कर गाँव में खुशी और आनंद की बौछार करते हैं। आनंद और उमंग के इस महौल में गीतों के रूप में फूट पड़ती है। महिलाओं का समूह हाथां से ताली देकर युवा नृत्य में निमग्न हो जाता है।

लोक का यह करिश्माई प्रभाव हृदय के तारों को झनझना देता है और पाँवों में बरबस ही थिरकन पैदा हो जाती है। लोक नृत्य के समूह में शामिल ये हमारी वहीं बेटियाँ हैं, ये हमारी वही मांये हैं जो तीजा मनाने मायके आयीं है या मायके जाने वाली हैं।

ये वही बेटियाँ हैं, ये वही मांये हैं, ये वही बहने हैं जिनकी गर्भवती होने की खुशी में लोक ने ‘सधौरी‘ खिलाकर संतान सुख की कामना की थी। जिसे आज हमने पोला पर्व में ‘अन्न‘ के रूप में सम्मान व प्रतिष्ठा दी है।

अन्न व बेटी-बहन तथा मां के प्रति सम्मान का यह लोकपर्व पोला लोक पर्व की पहचान का प्रतीक है। पोला छत्तीसगढ़ी लोक जीवन की सांस्कृतिक अस्मिता का पर्याय है। लोक जीवन की सुख-समृद्धि का स्वर्णिम अध्याय है। शिव स्वरूप में कृषि संस्कृति लोक का आराध्य है।

आलेख

डॉ. पीसी लाल यादव
‘साहित्य कुटीर’ गंडई पंड़रिया जिला राजनांदगांव(छ.ग.) मो. नं. 9424113122 ईमल:- pisilalyadav55@gmail.com

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