आधुनिक भारतीय इतिहास में अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में 1857 में हुए पहले शस्त्र विद्रोह से मानी जाती है। इसी तरह छत्तीसगढ़ में सोनाखान के प्रजावत्सल जमींदार नारायण सिंह को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का पहला शहीद माना जाता है। वह बिंझवार जनजाति के पराक्रमी योद्धा थे। अंग्रेज सरकार के ख़िलाफ़ वीरतापूर्ण सशस्त्र संग्राम में उनकी शहादत को सम्मान देने के लिए उनके नाम के सामने ‘वीर’ लगाकर उन्हें याद किया जाता है ।
वह एक महान बलिदानी जरूर थे, लेकिन इतिहास के पन्ने पलटने पर ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पहले शहीद वो नहीं बल्कि परलकोट के हल्बा जनजाति के ज़मींदार गैंदसिंह थे, जिन्हें वीर नारायण सिंह की शहादत के 32 साल पहले 1825 में उनके ही महल के सामने अंग्रेजी सेना ने सरेआम फाँसी पर लटका दिया था।
स्वतंत्रता दिवस की 74 वीं वर्षगांठ पर आज आज हम इन दोनों महान आदिवासी शहीदों के संघर्षों और बलिदानों की संक्षिप्त चर्चा करेंगे। आज हम छत्तीसगढ़ की वर्तमान राजधानी रायपुर में ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध 162 साल पहले वर्ष 1858 में हुए सिपाही विद्रोह और उसमें अपने प्राण न्यौछावर करने वाले भारत माता के वीर सपूतों को भी याद करेंगे ।
वीर नारायण सिंह
इतिहासकारों के अनुसार वीर नारायण सिंह को देशभक्ति का जज़्बा अपने पिता रामराय से विरासत में मिला था। वर्ष 1740-41 में नागपुर के भोंसले शासन की सेना ने छत्तीसगढ़ पर आधिपत्य जमाने के बाद सोनाखान ज़मींदारी के 300 गांवों में से 288 गाँवों को अपने कब्जे में ले लिया और सोनाखान जमींदार को सिर्फ़ 12 गांव दिए।
रामराय इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहे। उनके पिता फत्ते नारायण सिंह ने भी इस अन्याय के विरुद्ध भोंसले शासन से विद्रोह किया था। वीर नारायण सिंह के पिता रामराय का वर्ष 1830 में निधन हो गया। उनके उत्तराधिकारी के रूप में 35 वर्षीय नारायण सिंह ने सोनाखान ज़मींदारी का कार्यभार संभाला।
छत्तीसगढ़ में 1856 में भयानक सूखा पड़ा था। तब 12 गाँवों के जमींदार वीर नारायण सिंह ने अकाल पीड़ित किसानों और मज़दूरों को भूख से बचाने एक सम्पन्न व्यापारी के गोदाम को खुलवाकर उसका अनाज जनता में बंटवा दिया और रायपुर स्थित अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर इलियट को बाकायदा इसकी सूचना भी दे दी। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने नारायण सिंह के प्रजा हितैषी इस कार्य को विद्रोह मानकर उन्हें 24 दिसम्बर 1856 को गिरफ़्तार कर लिया।
तब नारायणसिंह 28 अगस्त 1857 को सुरंग बनाकर रायपुर जेल से छुपकर निकल गए और सोनाखान आकर लगभग 500 किसानों और मज़दूरों को संगठित कर अपनी सेना तैयार कर ली तथा अंग्रेजों के ख़िलाफ़ संघर्ष का शंखनाद कर दिया। लेकिन ब्रिटिश फ़ौज को कड़ी टक्कर देने के बावज़ूद वह गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हे 62 साल की उम्र में 10 दिसम्बर 1857 को अंग्रेजी सेना ने रायपुर के चौराहे (वर्तमान जय स्तंभ) पर फाँसी पर लटका दिया ।
बलिदानी गैंदसिंह
निश्चित रूप से वीर नारायण सिंह की यह शहादत ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष की एक बड़ी ऐतिहासिक घटना थी, लेकिन इतिहास के भूले बिसरे अध्यायों को पढ़ने पर ज्ञात होता है वीर नारायण सिंह की इस शहादत से भी करीब 32 साल पहले छत्तीसगढ़ में अंग्रेजों के विरुद्ध पहला विद्रोह 1824 -25 में बस्तर इलाके के परलकोट में हुआ था।
हल्बा जनजाति के गैंदसिंह परलकोट के जमींदार थे। यह इलाका महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले से लगा हुआ है। वर्तमान में छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में है। गेंदसिंह की यह जमींदारी अबूझमाड़ इलाके में आती थी और परलकोट इसका मुख्यालय था। इस जमींदारी में 165 गांव शामिल थे। इनमें से 98 निर्जन गांव थे। वर्ष 1818 में नागपुर के भोंसले राजा और अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार मराठों ने छत्तीसगढ़ की सम्पूर्ण शासन व्यवस्था कम्पनी के हवाले कर दी।
बस्तर अंचल भी उसकी जद में आ गया, जिसमें परलकोट की जमींदारी भी शामिल थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी के अफसरों और मराठा शासन के कर्मचारियों द्वारा इलाके में कई प्रकार से जनता का शोषण किया जाता था। इस ज़ुल्म और ज़्यादती के ख़िलाफ़ गेंदसिंह ने अबूझमाड़ियों को संगठित कर विद्रोह का शंखनाद किया।
तीर -धनुष से सुसज्जित हजारों की संख्या में अबूझमाड़िया आदिवासियों ने अंग्रेज अफसरों और मराठा कर्मचारियों पर घात लगाकर हमला करना शुरू कर दिया। ये लोग 500 से 1000 की संख्या में अलग -अलग समूह में निकलते थे । महिलाएं भी इस लड़ाई में पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर शामिल होती थीं। गेंदसिंह अपनी इस जनता के साथ घोटुल में बैठकर इस छापामार स्वतंत्रता संग्राम की संघर्ष की रणनीति बनाते थे। लगभग एक साल तक यह संघर्ष चला ।
अंत में अंग्रेज प्रशासक एग्न्यू ने चांदा (महाराष्ट्र ) से अपनी फ़ौज बुलवाई। फ़ौज ने 10 जनवरी 1825 को परलकोट को चारों तरफ से घेर लिया। गेंदसिंह गिरफ़्तार कर लिए गए और 10 दिनों के भीतर 20 जनवरी 1825 को उन्हें उनके ही महल के सामने अंग्रेजी सेना ने फाँसी पर लटका दिया। गेंदसिंह शहीद हो गए।
अखिल भारतीय हल्बा महासभा द्वारा हर साल 20 जनवरी को गेंदसिंह की याद में शहीद स्मृति दिवस मनाया जाता है। हल्बा महासभा द्वारा 20 जनवरी 2014 को आयोजित शहीद स्मृति दिवस के अवसर पर एक पुस्तिका प्रकाशित की गयी थी। इसमें गैंदसिंह के नेतृत्व में 1824 -25 में हुए परलकोट संग्राम अलावा उनके पहले और बाद में बीच छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में चक्रकोट राज्य में हुई कुछ प्रमुख क्रांतिकारी घटनाओं की सूची दी गयी है।
सूची में वर्ष 1795 में भोपालपट्टनम संघर्ष, वर्ष 1825 के परलकोट विद्रोह, वर्ष 1842 से 1854 तक चले तारापुर विद्रोह, वर्ष 1842 से 1863 तक और वर्ष 1876 में हुए मुरिया जनजाति के विद्रोह, वर्ष 1859 के कोया विद्रोह और वर्ष 1910 के भूमकाल आंदोलन का भी उल्लेख है।
उत्तर बस्तर (कांकेर ) जिले में चारामा के शासकीय महाविद्यालय का नामकरण उनके सम्मान में किया गया है, वहीं नवा रायपुर स्थित छत्तीसगढ़ सरकार का अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम और महासमुंद जिले का कोडार सिंचाई जलाशय भी शहीद वीर नारायण सिंह के नाम पर है।
छत्तीसगढ़ का पहला सिपाही विद्रोह
वीर नारायण सिंह की शहादत के सिर्फ़ लगभग एक महीने के भीतर रायपुर की ब्रिटिश फ़ौजी छावनी में 18 जनवरी 1858 को मैगज़ीन लश्कर हनुमानसिंह के नेतृत्व में एक बड़ा लेकिन असफल सिपाही विद्रोह हुआ।
इसे छत्तीसगढ़ का पहला सिपाही विद्रोह माना जा सकता है, जिसमें 17 भारतीय सिपाहियों को रायपुर के वर्तमान पुलिस मैदान में 22 फरवरी 1858 को अंग्रेजों ने मृत्यु दंड दिया था। इन शहीद सिपाहियों में हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के वीर और देशभक्त योद्धा शामिल थे।
उनके नाम इस प्रकार हैं — हवलदार गाज़ी खान और गोलंदाज सिपाही अब्दुल हयात, मल्लू, शिवनारायण, पन्नालाल, मातादीन, ठाकुरसिंह, बली दुबे, अकबर हुसैन, लल्ला सिंह, बल्लू, परमानन्द, शोभाराम, दुर्गाप्रसाद, नज़र मोहम्मद, देवीदीन और शिवगोविंद।
हनुमानसिंह इस विद्रोह के नायक थे। हालांकि विद्रोह के असफल होने के बाद उन्होंने भूमिगत रहकर अंग्रेजों के विरुद्ध अपना अभियान जारी रखा। अंग्रेज हुकूमत ने उन्हें पकड़ने के लिए 500 रुपए का इनाम भी घोषित किया था, लेकिन उनको कभी पकड़ा नहीं जा सका और भूमिगत रहते हुए वह वीर गति को प्राप्त हुए। रायपुर का यह सिपाही विद्रोह भी छत्तीसगढ़ अंचल में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है।
(सन्दर्भ :
1-स्वर्गीय हरि ठाकुर की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ वर्ष 2003
2-अखिल भारतीय हल्बा आदिवासी समाज भिलाई नगर की पुस्तिका वर्ष 2014
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