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भारतीय संस्कृति में पक्षियों का स्थान

पक्षी प्रेम और पक्षी निहारने की बहुत ही सशक्त परम्परा भारतीय समाज में प्राचीन काल से रही है। विविध पक्षियों को देवताओं के वाहन के रूप में विशेष सम्मान दिया गया है। भारतीय संस्कृति में पक्षियों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।

विष्णु का वाहन गरूड, ब्रह्मा और सरस्वती का वाहन हंस, कामदेव का तोता, कार्त्तिकेय का मयूर, लक्ष्मी का वाहन उल्लू, इन्द्र व अग्नि का अरूण कुंच जिसे हम फ्लैमिंगों के नाम से जानते हैं तथा वरूण का चकवाक जिसे शैलडक कहा जाता है।

प्राचीन वेदों में भी पक्षियों का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के मंत्र में वृक्ष पर बैठे दो सुपर्णों के रूपक से जीव और आत्मा का अंतर समझाया गया है।

अथर्ववेद के मंत्र में नवदंपत्ति को चकवा के जोड़े के समान निष्ठावान रहने का आशीष दिया गया है। यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता का तो नाम ही तित्तिर पक्षी के नाम पर है। इस प्रकार ऋग्वेद में 20, यजुर्वेद में 60 पक्षियों का विशेष उल्लेख है ।

प्यार और शुचिता के प्रतीक हंस को दाम्पत्य जीवन के लिए आदर्श कहा जाता है। जोड़े में से एक की मृत्यु हो जाने पर दूसरा अपना शेष जीवन अकेले ही गुजारता है।

भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर के मोहक पंख श्रीकृष्ण के प्रिय रहे हैं। अतिथि आगमन का सूचक और पितृ आत्मा का आश्रय माना जाने वाला कौआ एक सामाजिक पक्षी है। यदि किसी कौए की मृत्यु हो जाए तो उस दिन उसका कोई भी साथी कुछ नहीं खाता और ये सदैव समूह में ही मिल-बाँटकर खाते हैं।

रातों को जागने वाले उल्लू को घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है। वाल्मिकी रामायण में उल्लू को मूर्ख के स्थान पर चतुर कहा गया है। पक्षियों में श्रेष्ठ बुद्धिमान कहे जाने वाले गरूड़ के नाम पर ही गरूड़ पुराण है। यह श्रीराम को मेघनाथ के मोहपाश से मुक्त कराने वाला महत्वपूर्ण पात्र भी है। शिव नाम के प्रतीक नीलकंठ पक्षी को देखने मात्र से भाग्योदय हो जाता है।

अनेक जातक व पौराणिक कथाओं में कुशल पंडित माना जाने वाला तोता बहुत सुंदर और लोकप्रिय पक्षी है। वास्तुशास्त्र में तोते के चित्र का बड़ा महत्व है। शांति के प्रतीक कबूतर को प्रेम का संदेशवाहक माना गया है। दिशाओं को पहचानने के कारण राजाओं के समय में महत्वपूर्ण संदेश भेजने में भी कबूतर का उपयोग हुआ करता था।

पंचतन्त्र की कथाओं में लोकप्रिय बगुला ध्यान, धैर्य और एकाग्रता का प्रतीक है। मनुष्य की मित्र घर-घर में चहचहाने वाली गोरैया को घर में सुख-शांति का द्योतक माना गया है। जहाँ गारैया रहती है वहाँ सदैव समृद्धि होती है यह सर्वमान्य है। संगीत की प्रतीक कोयल की कूक सभी के मन को आनन्द की अनुभूति कराती है।

रामायण, महाभारत सहित अनेक पुराणों और साहित्य में भी पक्षियों के प्रति प्रेम दिखाया गया है। क्रौंच पक्षी के वध को देखकर आदिकवि वाल्मिकी ने क्रौंच पक्षी के प्रति संवेंदना और शिकारी के प्रति रोष प्रकट करते हुए लिखा-

‘मा निषाद प्रतिष्ठानम् त्वम्…!’ अर्थात हे निषाद तुम्हें समाज में प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। चातक, चकोर, पपीहा, तोता, मैना, हंस, कबूतर इत्यादि पर कई काव्य व गीत रचनाएं और कहावतें आज भी लोक साहित्य में प्रचलित हैं।

चरक संहिता, संगीत रत्नाकर और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में पक्षियों की चारित्रिक विशेषताओं का सुन्दर चित्रण किया गया है। मनुस्मृति व पाराशरस्मृति आदि में पक्षियों के शिकार का निषेध किया गया है।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी पक्षियों के संरक्षण हेतु समुचित निर्देश मिलते हैं। पक्षियों के प्रति संवेदना, प्रेम और संरक्षण की इन बातों को आज फिर से स्मरण करने की आवश्यकता है। कर्नाटक का प्राचीन मंदिर पक्षी नाम धारक है, जिसे लेपाक्षी मंदिर कहा जाता है।

हम देखते हैं कि प्रति वर्ष ग्रीष्मकाल में हजारों पक्षी भूख, प्यास और असाध्य गर्मी के कारण मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे में हम सबको मिलकर हमारी भारतीय संस्कृति की परम्परा का निर्वहन करते हुए इन सुन्दर, निरीह और भोले पक्षियों से प्रेम करते हुए उनके संरक्षण हेतु यथासंभव प्रयत्न करना ही चाहिए।

आलेख

श्री उमेश कुमार चौरसिया साहित्यकार एवं संस्कृति चिंतक, अजमेर (राजस्थान)

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