भारतीय लोक जीवन सदैव से ईश्वर और धर्म के प्रति आस्थावान रहा है। निराभिमान और निश्च्छल जीवन लोक की विशेषता है। फलस्वरूप उसका जीवन स्तर सीधा-सादा और निस्पृह होता है। उसकी निस्पृता और उसकी सादगी लोक धर्म की विशिष्टता है। धर्म और ईश्वर के प्रति अनुरक्ति और उसकी भक्ति लोक समुदाय के गीतों, कथाओं और गाथाओं में अभिव्यक्त हुई है। लोक की अभिव्यक्ति लोक साहित्य कहलाता है। लोक देखने में जितना अनगढ़ और अशिष्ट लगता है, वह अन्दर से उतना ही सुदंर और शिष्ट होता है। शिष्ट हो या विशिष्ट हो, वह तो लोक की बुनियाद पर ही अवलंबित है।
लोक प्रकृति का संरक्षण ही नहीं उसका संवर्धन भी करता है। वह इसलिए कि प्रकृति भी लोक के लिए ईश्वर का रूप है। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारे, वृक्ष, पर्वत, नदी, समुद्र सब में लोक ईश्वर के दर्शन करता है। प्रकृति के प्रति लोक का प्रेम और समर्पण लोक जीवन का आदर्श है। लोक के अपने देवी-देवता हैं। ये देवी-देवता लोक जीवन के आराध्य हैं। इनकी उपस्थिति व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामुदायिक कार्यो में सहज रूप में दृष्टिगोचर होती है। लोकगीत, लोककथाएं और लोक गाथाएं इन लोक देवताओं की अभ्यर्थना, प्रार्थना और गुणगान से आप्लावित हैं।
छत्तीसगढ़ का लोक मानस श्रम परिहार के लिए जहाँ लोकगीतों में नाचता गाता है। वहीं लोक कथाओं और लोकगाथाओं के माध्यम से मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा ग्रहण करता है। लोकगाथाएं लोकजीवन का महाकाव्य कहलाती है। लोक कंठ से उत्पन्न लोक गाथाएं लोक की निधि हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी वाचिका परम्परा के द्वारा ये लोक गाथाएं अवतरित होती रहती हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने लोक गाथा को बैलेड कहा है। बैलेड के संबंध में फेंक सिजविक लिखते हैं- सरल वर्णनात्मक गीत, जो लोक की संपत्ति और जिसका प्रचार मौखिक रूप से हो वह बैलेड हैं। वहीं भारतीय लोक विद्वानों का मत है कि लोक गाथा कथात्मक, छंदबद्ध गेय और लोक कंठ पर अवस्थित काव्य है, जिसका रचियता अज्ञात तथ्या वह सम्पूर्ण समाज की संपत्ति हैं।
छत्तीसगढ़ में अनेक लोकगाथाएं गायी जाती हैं। पंडवानी, चन्दैनी, ढोला-मारू, गोपी-चंदा, भरथरी, दसमत कैना आदि। इन सभी लोक गाथाओं में पंडवानी सर्वाधिक लाकप्रिय हैं। पंडवानी गायन की दो शैलियां है – 1. कापालिक और 2. वेदमती। कापालिक शैली के पंडवानी गायन में दंत कथाएं अर्थात लोक द्वारा कल्पित कथाएं गायी जाती है। जबकि वेदमति गायन की शैली में कथाएं शास्त्र सम्मत ओर वेदोक्त होती है। पंडवानी गायन में तम्बुरा और करताल मुख्य लोक वाद्य होते हैं। किन्तु अब समयगत स्वीकृत वाद्यों हारमोनियम, तबला ढोलक आदि का प्रमुख वाद्य के रूप में प्रयोग होता है। पंडवानी गायन की कापालिक शैली लगभग विलुप्त हो चुकी है। वेदमती शैली के पंडवानी गायक श्री सबल सिंह चैहान रचित महाभारत के आधार पर अपना गायन प्रस्तुत करते हैं। पंडवानी महाभारत का लोकरूप हैं। इसलिए महाभारत की कथा होते हुए भी पंडवानी में लोक लालित्य और लोक की सौंधी महक अधिक है। कथानक और पात्रों की दृष्टि से भी पंडवानी में लोक का ही प्रभा मंडल है। लोक की कल्पनाएं, लोक का विश्वास, लोक का चरित्र, लोक का औदार्य पंडवानी की प्रभुता है।
मैंने प्रारंभ में ही उल्लेख किया है कि लोक के अपने-अपने देवी-देवता होते है। भारतीय जीवन शिव, राम और कृष्ण सर्वमान्य और सर्वव्यापक है। इनके शिष्ट और लोक दोनों ही रूप दिखाई पड़ते हैं। लोक की व्यापकता शिष्ट से अधिक है। इसलिए इन देवों का लोक रूप ही लोक जीवन में ज्यादा पुज्यनीय और माननीय है। शिव तो भोले कहलाते है। उनका रूप बिल्कुल लोक की तरह भोला-भाला है। राम मर्यादा पुरूषोत्तम है। लोक मर्यादा से बंधे हुए हैं। उनके चरित्र में लोक की प्रतिष्ठा और लोक का मंगलकारी बंधन है। कहीं उच्द्यृंखलता नहीं हैं। जबकि श्री कृष्ण के चरित्र में नटखटपन है। बाल लीलाओं से लेकर माखन चोरी, चीर हरण और रास रचाने तक इस चरित्र के कारण श्रीकृष्ण लोक में ज्यादा रच-बस गये। गोवर्धन उठाकर जहां श्री कृष्ण कृषकों और श्रमिकों के हित संवर्धक और पूज्यनीय हो गए, वहीं महाभारत में अर्जुन के सारथी बनकर तथा गीतोपदेश देकर अध्यात्म और जीवन दर्शन के सूत्रधार कहलाए। महाभारत में उनके दिव्य रूप और दिव्य कर्म दोनों के दर्शन होते हैं।
पंडवानी छत्तीसगढ़ का लोक महाकाव्य है। पंडवानी गायन में प्रारंभ से लेकर अंत तक श्री कृष्ण की महिमा का गान तो हुआ ही है। श्री कृष्ण महाभारत के सूत्रधार, अर्जुन के सारथी हैं, वहीं पंडवानी गायक के वे आराध्य हैं। पंडवानी की कथाओं में श्री कृष्ण का चरित्र गान तो हुआ ही है सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पंडवानी गायन का प्रारंभ श्रीकृष्ण की वंदना से होता है। यह क्रम कथा के बीच-बीच में और कथा कें अंत तक चलते रहता है – बोलो वृन्दावन बिहारी लाल की जय।
श्याम सुखदाई मोर हलधर के भाई ग
भजन बिना मुक्ति नई होय भाई ग
भजन बिना मुक्ति नई होय भाई ग
पंडवानी में पात्रों की बहुलता है। महाभारत का नायक अर्जुन है और पंडवानी का नायक भीम है। अर्जुन की अपेक्षा भीम का चरित्र पंडवानी में अधिक मुखर हुआ है। श्री कृष्ण महाभारत और पंडवानी दोनों में सूत्रधार के रूप में दिखाई पड़ते हैं। पंडवानी का प्रत्येक पात्र चाहे वह पांडव पक्ष का हो अथवा कौरव पक्ष का अपने आप में महत्वपूर्ण है। नायकत्व की दृष्टि से भी प्रसंगानुसार उनमें सारे गुण मौजुद है, पर महाभारत हो या पंडवानी सारे पात्रों में श्री कृष्ण की अलग ही छवि है वे साधारण मानव न होकर पूर्णत्तम पुरूषोत्तम भगवान हैं, नारायण के अवतार है। उनकी श्रेष्ठता महाभारत के राजसूय यज्ञ प्रसंग के भीष्म पितामह के इस कथन से सिद्ध होती है। ‘‘मैं तो भूमण्डल पर श्री कृष्ण को ही प्रथम पूजा के योग्य समझता हॅंू।’’
‘‘कृष्ण एवं हिलोकानामुत्पत्तिरपि चाप्ययः।
कृष्णस्य हिकृते विश्वमिदं भूतं चराचरम।।
एव प्रकृतिरत्मयता कर्ता चैव सनातनः ।
परश्च सर्वभूतभ्यस्तस्मात पूज्यतमो हरिः।।
पंडवानी गायन वाचिका परम्परा द्वारा सरंक्षित है। पंडवानी की कोई मूल ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। इसका गायन महाभारत के आधार पर ही किया जाता है। इसलिए कथाओं में साभ्यता है। अगर वही वैषम्यता है तो वह लोक के प्रभावी स्वरूप के कारण है श्री कृष्ण के बालचरित्रों का चूंकि महाभारत के कथानक से प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। अतः श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन नहीं मिलता। किन्तु महाभारत के परिशिष्ट भाग हरिवंश पुराण में बाल लीलाओं का वर्णन है। महाभारत में श्री कृष्ण के बाल चरित्र का वर्णन अन्य पात्रों के द्वारा यत्र-तत्र उल्लेखित है। यथा शिशुपाल द्वारा श्रीकृष्ण के हाथों पूतना, बकासूर केशी वृषासुर और कंस के मारे जाने, शकट गिराये जाने तथा गोवर्धन के उठाये जाने का निंदा के रूप में वर्णन मिलता है।
श्रीकृष्ण अजुन के सखा, मार्गदर्शक और हितसंवर्धव हैं। श्रीकृष्ण की दीन दयालुता की लोक में अनेक कथाएं मिलती है। वे कृपालु हैं। अपने भक्तों की रक्षा स्वयं करते हैं। पांडव तो श्रीकृष्ण के अत्यंत सन्निकट और प्रिय थे। दुष्ट दुशासन द्वारा अपमानित द्रोपदी के पुकारे जाने पर उन्होंने अलौकिक रूप से द्रोपदी की लाज रखी
‘‘रामे ग रामे रामे ग रामे भाई
पापी दुसासन चीर खीचन लागे भाई
दुरपती भौंरा कस घूमन लागे भाई।’’
द्रोपदी अपने पतियों और सभा में उपस्थित लोगों से किसी प्रकार की सहायता न पाकर उनकी चुप्पी देख सजल नयनों से श्रीकृष्ण को पुकारती है।
‘‘दुख हरो द्वारिका नाथ शरण मैं तेरी
बिन काज आज महाराज लाज गई मेरी’’
पांडवों की अहित कामना से दुर्योधन द्वारा भेजे गए महर्षि दुर्वासा व उनके दस हजार शिष्यों के आथित्य के समय भी श्री कृष्ण ने पांडवों की सहायता की। भगवान भास्कर से महाराज युधिष्ठिर को एक चमत्कारी बटलोही प्राप्त हुआ था। जिसमें पकाये अन्न से असंख्य अतिथियों को भोजन कराया जा सकता था। पर ऐसा तब तक ही संभव था जब तक द्रोपदी भोजन न कर लेती थी। दुर्योधन के दुष्चक्र से दुर्वासा मुनि अपने शिष्यों के साथ ऐसे समय पहचे जब द्रोपदी सबको भोजन कराकर स्वयं भोजन ग्रहण कर चंकी थी। इस विपरीत परिस्थित में भी भगवान श्री कृष्ण ने द्रोपदी द्वारा स्मरण किए जाने पर स्वयं उपस्थित होकर उस बर्तन में चिपके ‘‘भाजी’’ के एक पत्ते को मुह में डालकर संतृप्त हो गए थे।
‘‘अवो दुरपति तोर बटलोही ल लाना ओ दु दिन के खाय नहीं, मैं भूख मरत हॅव ओ अइसे कहिके कृष्ण बटलोही ल मंगइस अउ बटलोही में चटके भाजी ल मुंह में डार के जोर से डकार लिस।’’
फलस्वरूप गंगा में अधर्षण करते मुनि दुर्वासा व उनके शिष्य भी संतृप्त हो गए और पांडवों के क्रोध की आशंका से भाग निकले। श्रीकृष्ण अपने आश्रितों के सरंक्षक है और उनका यही सुदर्शन चरित्र पंडवानी में दृष्टीगोचर होता है।
श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध को टालने का प्रयास किया। लेकिन होनी को कौन रोक सकता है ? स्वयं श्री कृष्ण भी नहीं। श्री कृष्ण पांडवों की ओर से संधि का प्रस्ताव लेकर कौरव की सभा में गए, किन्तु उन्होंने दुर्योधन से पांडवों के लिए केवल ‘‘पांच गांव’’ मांगे। श्री कृष्ण की यह मांग लोक के संतोष, लोक की उदारता, शांति के प्रति समर्पण और लोक जन की सहिष्णुता का परिचायक है। अपार संपत्ति का अधिकारी होकर भी अंश मात्र में संतोष कर लेना लोक का ही कार्य हो सकता है। उन्मादी दुर्योधन ने उनके नीति पूर्ण वचनों के बदले उनसे दुव्यवहार कर अपमानित किया। तब श्री कृष्ण ने उपना दिव्य-स्वरूप प्रकट किया।
श्री कृष्ण के इस रूप को देखकर राजाओं ने मारे भय के आंखे मूंद ली। केवल आचार्य द्रोण, भीष्मपितामह, महात्मा, विदुर संजय और तपोधन ऋषि ही उस रूप को देख पाये। क्योंकि भगवान ने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। अपने उस दिव्य विग्रह को समेट भगवान श्रीकृष्ण सभा भवन से उठकर महात्मा विदुर के घर चले गए।
‘‘दुयोधन के मेवा त्यागे साग विदुर घर खायोजी’’
पंडवानी तो कृष्ण की महिमा और गुणगान से ओत-प्रोत है। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन का रथ हाँक कर, सारथी बनकर पांडवों की सहायता की। ‘‘अगा कृष्ण ह रथे हांकन लागे भाई’’
अर्जुन सरसर बान चलावय जी मोर भाई। श्री कृष्ण सत्य के संरक्षक है। आत्मगलानि से पूरित युद्ध न करने की प्रतिज्ञा ठान लेने वाले अर्जुन को प्रेरित कर जीवन की निरसारता व कर्तव्य परायणता का बोध कराया। मोहमाया से ग्रस्त पार्थ को जीवन-सत्य का संदेश दिया, जो गीतोपदेश के नाम से जाना जाता है। ‘‘तू मेरा ही चिंतन कर, मुझ से ही प्रेम कर, मेरा ही भजन पूजन कर तथा और सबका भरोसा छोड़कर मेरी ही शरण में आजा। ‘‘उनका उपरोक्त कथन भगवद् गीता का अंतिम उपदेश है। यह उपदेश केवल अर्जुन के लिए नहीं था। यह तो समस्त लोक के लिए है। लोक ही ऐसी व्यापकता, परोपकरिता है श्री कृष्ण के चरित्र और वचना में।
अर्जुन के बाणों से मर्माहत इच्छानुसार शरीर छोड़ने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की बाट जोह रहे, शर-शया पर पड़े भीष्म पितामह से धर्मोदेश का आग्रह करते हुए श्री कृष्ण ने भीष्म की प्रशंसा कर कहा-‘‘तुम्हारे शरीर छोड़कर इस लोक से जाने के साथ ही सारा ज्ञान भी यहां से विदा हो जायेगा। ‘‘उनकी यह उक्ति ज्ञान के समादर की पोषिका है। अतः पंडवानी के श्री कृष्ण संहारक के साथ-साथ शांति के अग्रदूत और ज्ञान के संवाहक हैं।’’
महाभारत युद्ध के पश्चात श्री कृष्ण को गांधरी के क्रोध का शिकार होना पड़ा। युद्धोपरांत युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वाले योद्धाओं को तिलांजली देने राजा घृतराष्ट्र, पांडव व गांधरी कुंती द्रौपदी व अन्य समस्त कुरूवंश की स्त्रियों कुरूक्षेत्र के मैदान में गए, तब गांधरी ने श्री कृष्ण को श्राप दिया कि ‘‘श्री कृष्ण तुम चाहते तो इस नर संहार को रोक सकते थे। लेकिन तुमने ऐसा नही किया। अतः जिस प्रकार कौंरवों का नाश हुआ उसी प्रकार तुम अपने स्वजनों के नाश का कारण बनोगे और तुम स्वतः अनाथ की भांति मारे जाओगे।’’ यही हुआ भी श्रीकृष्ण चाहते तो उस श्राप को नकार सकते थे। उनका अभीष्ट पूर्व हो चुका था। इसलिए वे यादवो के संहार का कारण बने और स्वयं भी व्याध के हाथों मारे गए। लोक का नियम भला टूटता कहाॅ है? लोक के आदर्श ने लोक के नियम का पालन कर जीवन मृत्यु के शाश्वत सत्य की रक्षा की। पंडवानी कथा का यह अप्रतिम उदाहरण है।
श्रीकृष्ण पंडवानी के सूत्रधार है। सृष्टा व संहारक होकर भी उन्होंने सत्य का ही पक्ष लिया, शांति के अग्रदूत बने, सामक्ष्र्यवान होकर भी गंधारी के श्राप को साधारण मानव की भांति स्वीकार कर असाधारण होने का परिचय दिया। पंडवानी का यह लोक नायक इन्ही लोकधर्मी गुणों के कारण लोक के लिए पूजनीय हो गए। पंडवानी लोकगाथा में श्री कृष्ण का चरित्र लोक के लिए प्रेरणा का अगार है। लोक की सुदीर्ध परम्परा का पोषक तथा लोक जीवन का स्पन्दन है।
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