सनातन की जड़ें बहुत गहरी हैं, ईसाईयों का तथाकथित प्रेम का संदेश एवं औरंगजेबी तलवारें भी इसे नहीं उखाड़ पाई। सदियों की नाकामी के बाद भी इनके प्रयास निरंतर जारी हैं। ऐसे में कोई व्यक्ति इनके सामने सीना तान कर चट्टान की तरह खड़ा हो जाए तो चर्चा का विषय अवश्य बनता है और इनके दम पर ही सनातन परम्परा स्थाई है ऐसे ही एक व्यक्ति से मैं आपकी भेंट करवा रहा हूँ।
असम के तिनसुकिया होकर रोइंग अरुणाचल का सफ़र लगभग पांच घंटे का है। ब्रह्मपुत्र पर दस किमी लम्बा पुल बन जाने के कारण यह दूरी जल्दी तय होने लगी वरना यहाँ पहुंचने के लिए दिन भर लग जाता था। रोइंग लोवर दिबांग वैली का जिला मुख्यालय भी है।
यहाँ के विवेकानंद केन्द्र विद्यालय में रात रुकने के बाद हम सुबह मोटरसायकिल से सुनपुरा (लोहित) जिले की ओर चल दिए। रास्ते में रोईंग से लगभग 15 किमी की दूरी पर नदी पार करने पर अनोबोली इंजनों नामक गांव आता है। इस गांव के निवासी श्री सिरती लिंगी जी ने अपने फ़ार्म हाऊस में गणेश जी का मंदिर बना रखा है।
इनकी चर्चा करना इसलिए आवश्यक है कि अरुणाचल में जिस तरह क्रिस्तानी विस्तार हो रहा है और गांव के गांव क्रिस्तानी हो गए उसके बीच सनातन धर्मी का मिलना नखलिस्तान में पानी की एक बूंद मिलने जैसा है। हम इनके संतरे फ़ार्म हाऊस में पहुंचे तब सिरती लिंगी जी पूजा पाठ में लगे थे।
अरुणाचल में सूर्योदय जल्दी हो जाता है तथा सूर्यास्त भी शाम चार बजे के लगभग। इसलिए यहां यात्रा जल्दी ही प्रारंभ करनी होती है। सिरती लिंगी जी के मंदिर में पहुंच कर गणपति भगवान के दर्शन किए और उन्होंने केले का प्रसाद दिया, तिलक किया और रक्षा सूत्र भी बांधा।
चर्चा होने पर उन्होंने बताया कि इस फ़ार्म हाऊस को उन्होंने बेच दिया था। खरीदने वाले ने जब यहाँ खुदाई प्रारंभ की तो लगभग चार फ़ुट की गणेश प्रतिमा जमीन से बाहर निकली। जब इन्हें पता चला तो जिसे जमीन बेची थी उसे लौटाने की प्रार्थना की और दुगनी कीमत में जमीन वापस खरीदी। इसके पश्चात यहाँ मंदिर बनवाया।
मंदिर बनाने के पश्चात लगभग पचीस वर्ष पूर्व सिरती लिंगी जी गणपति का पूजा विधान सीखने मुंबई गए। उन्हें पता चला था कि महाराष्ट्र में गणपति पूजा अधिक की जाती है। मुंबई जाकर वहाँ के पुजारियों से तीन महीने गणपति पूजा विधान सीखा और अध्यात्म की दीक्षा ली। इसके पश्चात यहाँ लौटकर विधि विधान से नित्य गणपति पूजा करते हैं।
सुबह चार बजे अपनी कार से फ़ार्म हाऊस पहुंचते हैं, मंदिर की धुलाई पोंछाई खुद ही करते हैं। इसके पश्चात मंत्रोच्चारण के साथ पूजा करते हैं तथा दिन भर मौन रहकर ध्यान साधना करते हैं। शाम की आरती एवं भोग लगाने के बाद चार बजे मंदिर बंद कर घर चले जाते हैं। पच्चीस वर्षों से यही इनकी नित्य की दिनचर्या है।
प्रतिमा शिल्प से उत्खनन में प्राप्त गणेश जी पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी की प्रतीत होती है। इन्होंने बताया कि जब उन्होंने मंदिर बनवाकर पूजा प्रारंभ की तो उनके रिश्तेदारों ने बहुत परेशान किया कि तुम हिन्दू हो गए हो, यह ठीक नहीं है। विभिन्न तरीकों से दबाव बनाने का प्रयास किया पर वे विचलित नहीं हुए और अपनी पूजा निरंतर जारी रखी।
इनके मंदिर में स्थानीय लोग नहीं आते, बाहर से आने वाले लोग ढूंढ कर इस स्थान में पहुंचते हैं। सिरती लिंगी जी के परिवार ने मांस मंछली, प्याज लहसून आदि तामसिक पदार्थों का सेवन छोड़ दिया और कहते हैं कि इसका सेवन करने वालों से वे बात भी नहीं करते और दूर से ही नमस्ते कर लेते हैं। शाकाहार के विषय में कहते हैं कि शेर मांस खाता है तो उसकी उम्र 30 बरस होती है और हाथी शाकाहार करता है तो उसकी उम्र 100 बरस से अधिक होती है इसलिए शाकाहार में अधिक शक्ति है।
सावन के महीने में माह भर ये मौन व्रत के साथ उपवास रखते हैं एवं शाम को सिर्फ़ फ़लादि का सेवन करते हैं। इनकी उम्र 70 वर्ष है और इनके दो बेटे इंजीनियर है, जो बाहर रहते हैं। गणपति भगवान ने इन्हें बहुत कुछ दिया, वरना ये बहुत गरीब थे। आज इनके पुत्रों का पचीस तीस लाख का पैकेज है और गणपति आराधना करते हुए समय व्यतीत हो रहा है।
लौटते हुए जब हम इनसे पुन: मिलने आए तो संझा आरती पूजा की तैयारी कर रहे थे। मंदिर में ही इन्होंने स्वच्छ जल का कुंड बना रखा है। जिसमें गंगाजल डाला हुआ एवं उसी जल का प्रयोग पीने एवं भोजन बनाने में किया जाता है। हमें भी उसी कुंड का जल पिलाया और फ़िर पूजा की तैयारी करने लग गए। हमें भी अंधकार में एक उजाले की किरण दिखाई दी और प्रणाम कर आगे बढ़ गए।
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