Home / ॠषि परम्परा / छत्तीसगढ़ का पारम्परिक त्यौहार : जेठौनी तिहार

छत्तीसगढ़ का पारम्परिक त्यौहार : जेठौनी तिहार

जेठौनी तिहार (देवउठनी पर्व) सम्पूर्ण भारत में धूमधाम से मनाया जाता है, इस दिन को तुलसी विवाह के रुप में भी जाना जाता है। वैसे भी हमारे त्यौहारों के पार्श्व में कोई न कोई पौराणिक अथवा लोक आख्यान अवश्य होते हैं। ऐसे ही कुछ आख्यान एवं लोक मान्यताएं जेठौनी तिहार के लिए जनमानस में प्रचलित हैं।

छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में भी तुलसी व्यापक रूप से समाहित है। छत्तीसगढ़ के प्राय: हर घर में तुलसी चौरा मिलता है। जहां नित्य दीपक जलाया जाता है। मरणासन्न व्यक्ति को गंगाजल के साथ तुलसीदल खिलाया जाता है। छत्तीसगढ़ में मितान बदने की परंपरा में तुलसीदल भी बदा जाता है। जब दो मितान तुलसी दल के बंधन में बंध जाते हैं तो परस्पर भेंट के समय सीताराम तुलसीदल कहकर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं।

देवउठनी के दिन छत्तीसगढ़ में भी तुलसी और शालिग्राम पूजा की जाती है। तुलसी माता को वस्त्र और श्रृंगार सामग्री अर्पित की जाती है। चने की भाजी, तिवरा भाजी,अमरूद, कंदमूल और अन्य मौसमी फल सब्जी का भोग लगाया जाता है। गन्ना का इस दिन विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है।

मांगलिक अवसर पर भित्ति चित्र की परम्परा

गांवों में पशुधन को सोहाई बांधा जाता है। ग्राम्य देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। अहीर समुदाय की स्त्रियां किसानों के घर-घर जाकर तुलसी चौरा और धान की कोठी पर पारंपरिक चित्र बनाया करती है। जिसे हाथा देना कहते हैं। जब ग्वाले सोहाई बांधने के लिए आते हैं तब उसी हाथे पर गोबर को अपने मालिक(किसान) की मंगल कामना करते हुए असीस(आशीर्वाद) देकर थाप देते हैं और कहते हैं-

जइसे के लिए दिए मालिक,तइसे के देबो असीसे।

अन्न धन तोर कोठ भरे,जुग जीओ लाख बरीसे।।

उसके बाद इन ग्वालों को किसानों द्वारा सूपा में अन्न, द्रव्य और वस्त्रादि भेंट किया जाता है। इसको सुख धना कहा जाता है। प्राय: जेठौनी के दिन से ही अहीर समुदाय के लोग रंग बिरंगी वेशभूषा में राउत नृत्य करते हुए बाजे-गाजे के साथ मालिक जोहारने (भेंट) की शुरुआत करते हैं जो कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है। कुछ क्षेत्रों में भिन्नता भी हो सकती है। जेठौनी तक किसानों के घर में धान की नई फसल आ जाती है इसलिए वे भी गदगद रहते हैं।

राउत (अहीर) नाच

जेठौनी के दिन बांस के बने पुराने टुकना चरिहा को जलाकर आग तापते हैं। माना जाता है कि पुराना टुकना जलाने से घर की सभी परेशानियों का अंत होता है और समृद्धि आती है। देवउठनी एकादशी के बाद सभी प्रकार के मांगलिक कार्यों की शुरुआत हो जाती है। विवाह योग्य लड़के लड़कियों के लिए जीवनसाथी तलाश करने का कार्य प्रारंभ हो जाता है, जो पहले पूरे माघ महीने भर तक चला करती थी और फागुन में विवाह होता था।एक गीत में इसकी झलकी मिलती है-

कोन महिना तोर मंगनी अउ जंचनी,कोन महीना मा बिहाव मोर ललना।

मांघ महीना तोर मंगनी अउ जंचनी,फागुन मा लगिन धराय मोर ललना।

देवउठनी एकादशी के दिन भगवान चौमास के बाद जागते हैं, देव के जागने के पश्चात इसी दिन से हिन्दूओं में मांगलिक कार्य प्रारंभ होते हैं। ऐसा माना‌ जाता है और प्रकृति में उमंग उत्साह का संचार होने लगता है जो स्थान-स्थान पर आयोजित होने वाले मेले मड़ाई में दिखाई देता है।

एक पौराणिक कथानुसार एक समय में भगवान विष्णु के एक पार्षद का जन्म श्रापवश दैत्य कुल में हुआ जो जलंधर नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी समय काल में भगवान विष्णु की परम भक्त तुलसी का जन्म भी वृंदा नाम से हुआ था। प्रभु की लीला अनुसार जलंधर का विवाह वृंदा के साथ हुआ। वृंदा पतिव्रता नारी थी। जलंधर ने अपने पराक्रम से पृथ्वी सहित देवलोक पर भी अपना अधिकार कर लिया।

तुलसी एवं ग्वालिन पूजा

तब अपनी ताकत के घमंड में चूर जलंधर ने भगवान शिव की अर्द्धांगिनी पार्वती पर मोहित होकर भगवान शिव के साथ युद्ध करने का दुस्साहस करने लगा। वृंदा के पतिव्रत और सतीत्व के कारण जलंधर का वध संभव नहीं हो पा रहा था। तब देवताओं ने भगवान विष्णु के पास जाकर गुहार लगाई और उनसे वृंदा का सतीत्व भंग करने का आग्रह किया। भगवान विष्णु देवताओं के इस कार्य को करने के लिए पहले तैयार नहीं हुए पर अंततः जगत कल्याण की मंशा से मान गए।

उसके पश्चात भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धारण कर वृंदा के पूजन कक्ष में प्रवेश किया। जलंधर स्वरूप धारी भगवान विष्णु के पैरों का स्पर्श कर दिया। परपुरुष के स्पर्श से वृंदा का सतीत्व भंग हो गया और भगवान शिव ने जलंधर का वध कर दिया।

भगवान विष्णु के इस कृत्य से आहत होकर वृंदा ने उसको तत्काल पाषाण में बदल जाने का श्राप दे दिया और उनको भी पत्नी वियोग भुगतने का श्राप दिया जो त्रेता युग में रामावतार के समय फलित हुआ और पाषाण स्वरूप में विष्णु जी शालिग्राम के विग्रह रूप में परिवर्तित हो गये।

वृंदा के श्राप से लक्ष्मीजी विचलित हो गई तब उन्होंने वृंदा से श्राप वापस लेने का निवेदन किया तो उन्होंने पुनः विष्णु को उनके स्वरूप में ला दिया। इस घटना के बाद भगवान विष्णु ने वृंदा को अपने चरण कमल में स्थान देने का वचन दिया। तब वृंदा अपने पति जलंधर के शीश को लेकर सती हो गई। उसके शरीर के राख से तुलसी नाम के अतिकल्याणकारी और गुणकारी पौधे का जन्म हुआ।

पृथ्वी लोक में देवी तुलसी आठ नामों वृंदावनी, वृंदा, विश्वपूजिता, विश्वपावनी, पुष्पसारा, नंदिनी, कृष्णजीवनी और तुलसी नाम से प्रसिद्ध हुईं हैं। श्री हरि के भोग में तुलसी दल का होना अनिवार्य है,भगवान की माला और चरणों में तुलसी का होना आवश्यक है। भगवान विष्णु के किसी भी प्रकार का नैवेद्य मे तुलसी दल अवश्य मिलाया जाता है। तुलसी की वंदना करते हुए कहा जाता है-

महाप्रसाद जननी सर्व सौभाग्य वर्धिनी।

आधिव्याधि हरिर्नित्यं तुलेसित्व नमोस्तुते॥

आयुर्वेद में तुलसी के पौधे का बड़ा महत्व है।एक गुणकारी औषधि के रूप में तुलसी के सभी अंगों का प्रयोग किया जाता है।यह एक बेहतरीन एंटी-ऑक्सीडेंट, एंटी-एजिंग, एंटी-बैक्टेरियल, एंटी-सेप्टिक व एंटी-वायरल है। इसे फ्लू, बुखार, जुकाम, खांसी, मलेरिया, जोड़ों का दर्द, ब्लड प्रेशर, सिरदर्द, पायरिया, हाइपरटेंशन आदि रोगों में लाभकारी बताया गया है।

जलरंग चित्र – धनेश साहू नेवरा

आलेख

श्री रीझे यादव टेंगनाबासा(छुरा) जिला, गरियाबंद

About nohukum123

Check Also

“सनातन में नागों की उपासना का वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और जनजातीय वृतांत”

शुक्ल पक्ष, पंचमी विक्रम संवत् 2081 तद्नुसार 9 अगस्त 2024 को नागपंचमी पर सादर समर्पित …

One comment

  1. विवेक तिवारी

    अब्बड़ सुग्घर आलेख बधाई भईया
    💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *