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शक्ति का उपासना स्थल खल्लारी माता

छत्तीसगढ़ अंचल की शाक्त परम्परा में शक्ति के कई रुप हैं, रजवाड़ों एवं गाँवों में शक्ति की उपासना भिन्न भिन्न रुपों में की जाती है। ऐसी ही एक शक्ति हैं खल्लारी माता। खल्लारी में माता जी की पूजा अर्चना तो प्रतिदिन होती ही है चैत और कुआंर कि नवरात्रि में विशेष पूजा अर्चना की जाती है। माता खल्लारी माता के मंदिर में चैत नवरात्रि में नवरात्रि के साथ साथ विशाल मेला का आयोजन होता है। जहाँ पर न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि देश-विदेश के पर्यटक मेला देखने आते हैं।

ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं कि खल्लारी माता छत्तीसगढ़ की प्राचीन और मुख्य देवियों में से एक हैं। माता खल्लारी पहाड़ पर लगभग 750 फीट ऊंचाई पर विराजमान हैं। पहाड़ के नीचे की गोलाई लगभग 7-8 किलोमीटर की होगी। सम्पूर्ण पहाड़ पर खूबसूरत वृक्ष हैं। खल्लारी माता जिस गाँव में विराजमान हैं उस गांव का नाम भी खल्लारी है जो कलचुरिशासनकाल से 1409 ई से छत्तीसगढ़ का एक गढ़ हुआ करता था। खल्लारी का प्राचीन नाम खल्लावाटिका और यहाँ मृदा भित्ति दुर्ग भी था। वर्तमान में खल्लारी छत्तीसगढ़ के 90 विधानसभा क्षेत्र में से एक क्षेत्र है।

माता खल्लारी के दर्शन हेतु पहुंचने के लिए खल्लारी ग्राम के सड़क से लगभग 800 पैड़ियों के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है। ग्राम खल्लारी पहुंचने के लिए सड़क मार्ग एवं रेलमार्ग उपलब्ध हैं। सड़क मार्ग से जाने के लिए छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से जिला महासमुंद लगभग 55 किलोमीटर और महासमुंद से उड़ीसा मार्ग नेशनल हाईवे 353 में लगभग 25 किलोमीटर की दूरी में ग्राम भीमखोज है। भीमखोज से 1 किलोमीटर उत्तर की ओर ग्राम खल्लारी स्थित है और रेलमार्ग से पहुँचने के लिए रायपुर से विशाखापट्टनम मार्ग पर छोटा स्टेशन भीमखोज उतरना पड़ता है। भीमखोज में मात्र पैसेंजर ट्रेन ही रुकती है।

माता खल्लारी के खल्लारी पर्वत में वास को लेकर किवदंती है कि माता खल्लारी का प्राचीन निवास महासमुंद के समीप ग्राम बेमचा में था। जहाँ आज भी मंदिर है और पूजा अर्चना होती है। माता खल्लारी बहुत ही खूबसूरत युवती का रूप धारण कर ग्राम खल्लारी के बाज़ार भ्रमण के लिए आईं थीं। तभी बाज़ार में माता जी रूप सौंदर्य के प्रति आसक्त होकर एक बंजारा युवक उनका पीछा करने लगा, माता जी ने उसे बहुत समझाया, चेतावनी दी, वह नहीं माना। तब माता ने उस बंजारा के कलुषित विचार पर क्रोधित होकर उसे श्राप दे दिया। वह पत्थर हो गया। और माताजी भी खल्लारी के पर्वत के गुफा में निवास करने लगीं।

कालांतर में माता ने खल्लारी के जमींदार श्री गड़ाऊ गौटिया को स्वप्न दिया कि मैं जनकल्याण के लिए आपके ग्राम के पर्वत में आईं हूँ। मेरा मंदिर बनवाया जाय, जमींदार माताकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए पहाड़ी पर माता जी का मंदिर बनवाकर पूजा अर्चना कर स्थापित किये। तब माता जी ने देखा कि उनके भक्तगण जो निःशक्त और बुजुर्ग थे। जिनके मन में माता जी के दर्शन की तीव्र लालसा तो होती थी। पर वे माताजी तक आसानी से नहीं पहुंच पाते थे। तब माताजी ने जमींदार को पुनः स्वप्न देकर सम्पूर्ण वृत्तांत बताया और पुनः आदेश दिया कि मैं अपना कटार फेक रही हूं मेरा कटार जहां पर गिरेगा वहीं पर मेरा मंदिर बनाया जाय। जहाँ पर भी मेरे दर्शन से पूर्ण फल की प्राप्ति होगी। माता जी के आदेशानुसार श्री गड़ाऊ गौटिया और चंद्रभान अग्रवाल ने मिलकर खल्लारी ग्राम में भी मंदिर बनाया। जिसे राउर मंदिर कहा जाता है।

खल्लारी स्थान को लेकर पौराणिक मान्यता है कि इस स्थान का इतिहास द्वापरयुग से है। खल्लारी का प्राचीन नाम खल्लवाटिका था, जो राक्षस राज हिडिम्ब की वाटिका थी। वारणाव्रत में शिवपूजा लाक्षागृह की घटना इसी स्थान में घटी थी। पांडवों ने अपने वनवास काल के कुछ समय खल्लारी के पहाड़ियों में गुजारे हैं। दुर्योधन को जानकारी होने पर पांडवों को जलाकर मार देने के लिए लाख का महल बनवाया था। पांडवों को इसकी पूर्व जानकारी हो जाने से वे वहाँ से गुप्त सुरंग से निकलने में सफल हो गए। जो रेल स्टेशन भीमखोज है शायद यह नाम भी भीम के निवास के कारण ही पड़ा होगा। क्योंकि पहले यह नाम भीमखोह अर्थात भीम का गुफा रहा होगा। कालांतर में उच्चारण की सुविधा की दृष्टिकोण से भीमखोज हो गया।

एक कथा और है कि द्वापरयुग में इस क्षेत्र में हिडिम्ब राक्षस का राज था। सिरपुर उनकी राजधानी थी। खल्लारी में हिडिम्ब एक वाटिका बनवाया था जिसे खल्लवाटिका कहते थे। जहाँ हिडिम्ब और उसकी बहन हिडिम्बिनी घूमने आया करते थे। इस कारण खल्लारी का नाम खल्लवाटिका था। इस पर्वत पर जब पांडवों और उनकी माता जी के आगमन की खबर राक्षसराज हिडिम्ब को मिली तब वह अपनी बहन को भेजा कि जो भी मनुष्य हैं। उन्हें गुफा तक ले आइये।

हिडिम्बिनी गई तब भीम पहरेदारी कर रहे थे। बाकी लोग गुफा पर सोये थे। भीम को देखकर हिडिम्बिनी मोहित हो गई और मन ही मन भीम को अपना वर मान ली। सुंदर कन्या का रूप धारण कर उन्हें पर्वत से दूर जाने की आग्रह किया। उधर हिडिम्ब भूख से व्याकुल होकर स्वयं पांडवों तक पहुंच गया। जब पता चला कि हिडिम्बिनी भीम के प्रेम के वशीभूत हो गई है। तब क्रोधित होकर युद्ध किया और भीम के हाथों मारा गया।

हिडिम्ब के मरने के बाद हिडिम्बिनी अकेले हो गई। तब भीम की माता ने हिडिम्बिनी के भीम से प्रेम को देखकर खल्लारी माता के समीप हिडिम्बिनी का गंधर्व विवाह भीम से करवा दिया। फिर हिडिम्बिनी और भीम कुछ समय ढेलवा (झूला का स्तम्भ) डोंगर में निवास किये। जहाँ भीम हिडिम्बिनी को जो झूला झुलाता था। जिससे घटोत्कच नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

हिडिम्बिनी का एक और नाम हिरबीची कैना भी है। झूला झुलाते समय हिडिम्बिनी का पाँव ढेलवा डोंगर से महानदी के तट तक जाता था। जहां से पैर में रेत के कण ढेलवा डोंगर तक आते थे। भीम का पुत्र घटोत्कच कृष्ण के वरदान के कारण जन्म लेते ही विशालकाय शरीर धारण कर लिया। जो महाभारत के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। भीम से विवाह उपरांत हिडिम्बिनी भी राक्षसी नहीं रही। वह मानवीय हो गई और कालांतर में मानवी देवी होकर मनाली की आराध्या देवी बन गई।

माता खल्लारी की आस्था और स्थान का इतिहासकारों के अनुसार ऐतिहासिक पहलु यह है कि खल्लारी का प्राचीन नाम खल्लवाटिका था। कलचुरी वंश की लहुरी शाखा जब रायपुर में स्थापित हुई तब उनकी प्रारंभिक राजधानी खल्लारी थी। 1409 ईसवी में ब्रह्मदेव राय के काल में राजधानी खल्लारी से रायपुर स्थानांतरित हुई।

ब्रह्मदेव राय के काल में ही श्री देवपाल नामक मोची ने1415 ईसवी में खल्लारी में विष्णु मंदिर का निर्माण कराया था। श्री देवपाल के पिता का नाम श्री शिवदास था और दादाजी का नाम श्री जासन था। वे भी बहुत यशस्वी थे। जब रतनपुर राज्य दो भागों में बंट गया तब एक कि राजधानी रतनपुर और दूसरे की राजधानी रायपुर में स्थापित हुई। दोनों राज्यों में 18-18 गढ़ थे, खल्लारी भी रायपुर राज्य का एक गढ़ था।

कलचुरीकाल में खल्लारी के अंतर्गत 84 ग्राम शासित होते थे। रायपुर के शासक ब्रह्मदेव का एक शिलालेख विक्रम संवत 1471 (19जनवरी सन 1415) खल्लारी में प्राप्त हुआ है। इस शिलालेख से ज्ञात होता है कि हैहयवंश के कलचुरि नामक शाखा में राजा सिंघण के बेटे रामचंद्र ने नागवंश के भोडिंगदेव को युद्ध में घायल किया था। रामचंद्र का पुत्र ब्रह्मदेव था। जो शिवजी का भक्त था। शिलालेख में अंकित है कि वह योद्धाओं के लिए यम के समान था। याचक के लिए कल्पवृक्ष के समान था।

इस शिलालेख के सातवें और आठवें श्लोक में खल्लवाटिका के नगरी का वर्णन है कि शुभ देवालय की स्थापना, वेदाध्ययन सुखी ब्राह्मण का वास, लक्ष्मी के विलास में धनी लोगों का वास, इत्यादि का वर्णन मिलता है। नौवें श्लोक में श्री देवपाल मोची की वंशावली एवं दसवें श्लोक में उनके द्वारा नारायण मंदिर निर्माण कराये जाने का उल्लेख मिलता है।

श्री देवपाल मोची अपने कार्य में दक्ष होने के साथ साथ बहुत ही धार्मिक व्यक्ति थे। उन्हें राजाओं ब्राह्मणों और कायस्थों का भी सहयोग मिलता था। और उन्हें कीर्तिवान व्यक्ति माना जाता था। शिलालेख में माँ भगवती की पूजा अर्चना का उल्लेख भी मिलता है। कालांतर में रायपुर और रतनपुर राज्य में मराठा शासकों का आधिपत्य हो गया। पर माता खल्लारी की आस्था मान प्रतिष्ठा ज्यों की त्यों बनी रही।

सन् 1940 ई.के पूर्व खल्लारी की पहाड़ी चढ़ने के लिए पैड़ियाँ नहीं थी और माता की मूर्ति एवं मंदिर भी नहीं था। पहाड़ी के शिखर पर एक गुफा थी। जहाँ माता की उंगली का निशान दिखाई देता था। कुछ लोग बिना पैड़ियों के ही पहाड़ पर ऐसे ही चढ़ते थे और माता की पूजा अर्चना करते थे।

1940 में तहसील महासमुंद के तहसीलदार श्री दुर्गाप्रसाद एवं श्री हरिदास मेहता ने सहयोग किया और 481 सीढ़ी का निर्माण कर ऊपर तक पहुंच सुलभ कराई और श्री दुर्गाप्रसाद ने गुफा के स्थान पर मंदिर का निर्माण कराया था। 1965-70 में ट्रस्ट के पूर्व अध्यक्ष श्री जयलाल प्रसाद चंद्राकर ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इसके पश्चात इस स्थान ने धीरे धीरे वर्तमान स्वरुप को प्राप्त किया।

पहाड़ी के नीचे खल्लारी गांव बसा हुआ है। जो काफी बड़ा गांव है। गांव में भी बहुत से प्राचीन एवं नवीन मंदिर स्थित है। जब चैत में नवरात्रि से पूर्णिमा तक खल्लारी मेला होता है। तब सम्पूर्ण गाँव दर्शनार्थियों की भीड़ से भरा होता है। कुआंर में मेला नहीं लगता केवल नवरात्रि का पर्व ही नीचें ऊपर मनाया जाता है।

चैत मेला में विभिन्न प्रकार के अत्याधुनिक झूले, सर्कस, विभिन्न लुभावने स्वचलित पुतले, मौत कुआं के हैरतअंगेज कारनामें, मिठाई, और छत्तीसगढ़ी व्यंजन चना, मुर्रा, उखरा लाई, के दुकान से सम्पूर्ण गाँव सजा रहता है। जो लगभग 20 दिनों तक चलता है। छत्तीसगढ़ के प्रमुख मेला में से एक खल्लारी मेला है।

आलेख

श्री सुनील शुक्ल
(अधिवक्ता) बागबाहरा, छत्तीसगढ़

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