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समर्पण और देशभक्ति की पर्याय : भगिनी निवेदिता

“भारतवर्ष से जिन विदेशियों ने वास्तविक रूप से प्रेम किया है, उनमें निवेदिता का स्थान सर्वोपरि है।” —अवनीन्द्रनाथ ठाकुर 

भारत भूमि और भारतीय संस्कृति के वैभवशाली स्वरुप के आकर्षण ने सदैव ही विदेशियों को प्रभावित किया और इसी कारण कुछ विदेशियों ने कर्मभूमि मानकर भारत की सेवा में पूरा जीवन समर्पित कर दिया। ऐसा ही भारतीयता के रंग में रंगा व्यक्तित्व था सिस्टर निवेदिता का, जो तन से विदेशी परन्तु मन से भारतीय थीं। इनका मूल नाम मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल था।

उत्तरी आयरलैंड में 28 अक्टूबर 1867 को जन्मी मार्गरेट के पिता का नाम सेमुअल रिचमंड नोबल तथा माता का नाम मैरी इसाबेल था। इनके पिता पादरी थे, पिता की धार्मिक अस्था एवं संस्कारों का प्रभाव इन पर पड़ा। पिता से गरीबों की सेवा करने का गुण और माता से संवेदनशीलता व मिष्ठभाषिता का गुण इन्हें विरासत में मिला।

मार्गरेट ने लंदन चर्च बोर्डिंग स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के बाद बहन के साथ हैलीफैक्स कॉलेज में अध्ययन किया। वहाँ की प्रधानाध्यापिका ने उन्हें निजी त्याग के महत्व को समझाया। इन्होंने भौतिक, कला, संगीत, साहित्य जैसे विषयों का अध्ययन किया तथा धर्म जीवन की खोज में निरंतर प्रयासरत थीं क्योंकि चर्च के प्रथागत धर्म जीवन एवं ईसाई मत के सिद्धांतो के लिए मन में कुछ संदेह थे।

मन की अशांति तब दूर हो गई जब स्वामी विवेकानन्द 1895 में व्याख्यान देने लन्दन पहुंचे। वहां उन्होंने लेडी इझाबेल मार्गेसन के घर वेदांत दर्शन की व्याख्या की। यहीं मार्गरेट की स्वामी जी से प्रथम भेंट हुई और वीर सन्यासी की धर्म व्याख्या एवं उदात्त दृष्टिकोण से अपनी शंकाओं का समाधान भी पाया और उनसे प्रभावित हो उन्होंने स्वामी जी को को मन ही मन अपना गुरु मान लिया।                                                                                स्वामी जी भी मार्गरेट की सत्यनिष्ठा, दृढ़ता और सभी मानव के प्रति उनके मन में सहानुभूति से परिचित हुए। उन्होंने अपने देश की स्त्रियों के बारे में बताते हुए कहा कि वे अशिक्षित हैं, भारत को यदि उन्नति करनी है तो साधारण जनता और नारियों की अवस्था में उन्नति करनी होगी। इसका एकमात्र उपाय है उनके बीच शिक्षा का प्रसार–प्रचार किया जाये। शिक्षित होने पर उनका आत्मविश्वास मजबूत होगा और वे स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हो जाएँगी, चूंकि मार्गरेट नोबल स्वयं एक अच्छी शिक्षिका थीं, इसलिए इस कार्य के लिए इन्हें ही योग्य समझते हुए कहा कि ‘मेरा दृढ विश्वास है कि भारत के कार्य में तुम्हारा बड़ा भारी भविष्य है।”

भारत के लिए, पुरुष की अपेक्षा नारी की, एक सिंहनी की आवश्यकता है। भारत माता अभी महीयसी नारी को जन्म नहीं दे पा रही, इसलिए दूसरी जाति से उधार लेना पड़ेगा। तुम ठीक वैसी नारी हो, जिसकी हमें आवश्यकता है।’ मारगेट नोबल इस वाक्य से धन्य हो गईं और उन्होंने भारत जाकर भारत की जनता की तन-मन-धन से नि:श्वार्थ सेवा का दृढसंकल्प कर भारत गठन के कार्य में योगदान देने 28  जनवरी 1898 को भारत पहुंची और कलकत्ता के बेलूर आश्रम में रहने लगीं।

भारत की जीवन शैली, परम्परा, संस्कृति, इतिहास, दर्शन, साहित्य, समाजशास्त्र, प्राचीन-आधुनिक महापुरुषों के जीवन की जानकारी स्वामी जी से सुनती ताकि भारतवर्ष की सेवा की कार्य योजना बना सके। 11 मार्च 1898 को स्वामी जी ने एक सभा में कलकत्तावासियों से मार्गरेट का परिचय कराया जहाँ इन्होनें भारत के आध्यात्मिक विचारों का इंग्लैंड पर प्रभाव विषय पर अपने विचार व्यक्त किये, वहाँ उपस्थित श्रोताओं ने प्रभावित होकर सच्चे हृदय से भारत का हितैषी मान लिया।

स्वामी विवेकानन्द ने मार्गरेट नोबल को विधि के साथ ब्रह्मचारिणी व्रत की दीक्षा देकर निवेदिता (ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित) कहकर सम्बोधित किया था, तभी से वे भारतियों के बीच सिस्टर या भगिनी निवेदिता के नाम से प्रख्यात होने लगीं।

स्वामी जी ने उन्हें मानवमात्र के प्रति भगवानबुद्ध के करुणा के  पथ पर चलने की प्रेरणा दी। दीक्षा देते हुए उन्होंने कहा –‘जाओ और उस महान व्यक्ति का अनुसरण करो जिसने पांच सौ बार जन्म लेकर अपना जीवन लोक कल्याण के लिए समर्पित किया और बुद्धत्व को प्राप्त किया।’

निवेदिता ने बाग़ बाजार (कोलकाता) में रहते हुए देखा कि यहाँ की स्त्रियां संकोची, शालीन, लज्जाशील, स्वाभिमानी हैं, इन स्त्रियों से वे बहुत प्रभावित हुई। वे चाहती थीं कि ये सामाजिक रुढियों से अपने को न जकड़े रहने दें, इनमे अनेक प्रतिभाएं छिपी हैं, जिसे समाज के डर से दिल में ही दफ़न हो जाने देती हैं। ऐसे में शिक्षा का उजाला होना अति आवश्यक है।

उनका विचार था यदि भारत में नारी जागरण का बिगुल बज उठे तो नि:संदेह भारत अपनी अतीत की छबि को धूमिल नहीं पड़ने देगा। निवेदिता ने स्त्रियों में जागरूकता लाने के उद्देश्य से भारतीय परम्परा के अनुसार बसंत पंचमी के दिन कुछ महिलाओं को एकत्र कर एक महिला विद्यालय स्थापित कर राष्ट्रीय आदर्श के अनुसार नारियों की शिक्षा का कार्य प्रांरभ किया।

निवेदिता ने बाग़ बाजार के हर मुहल्ले में घूमकर छात्राओं को एकत्र कर उन्हें इतिहास, भुगोल, प्राकृतिक विज्ञान और अंग्रेजी की शिक्षा प्रदान की। पढ़ाई के साथ-साथ सिलाई-कढाई, चित्रकला, हस्तशिल्प आदि में भी दक्ष बनाया।

व्यायाम शिक्षा के साथ–साथ उनमें धर्मचेतना जाग्रत कर भारतीय संस्कृति से भी परिचित कराया। छोटी-छोटी बालिकाओं के साथ विवाहित एवं विधवा महिलाओं के लिए भी पढ़ाई-सिलाई की व्यवस्था दोपहर में की, इनकी शिक्षा के लिए कुछ शिक्षित महिलाओं को शिक्षिका के रूप में नियुक्त किया।

इनका विश्वास था कि स्वामी जी एवं श्री माँ शारदा का आशीर्वाद उनपर और उनके विद्यालय पर सर्वदा रहेगा। विद्यालय की छात्राओं से ही भविष्य में गार्गी, मैत्रेयी का आविर्भाव भारतवर्ष में होगा। भारतीय नारियों के लिए ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिसका उद्देश्य होगा मानसिक तथा आध्यात्मिक वृत्तियों में पारस्परिक सहयोगिता का विकास करना। विद्यालय का खर्च चलाने के लिए लेखन कार्य करतीं और अपनी मित्र साराबुल से मदद लेतीं थीं।

जिस छोटे विद्यालय की नींव उन्होंने रखी थी वह आज रामकृष्ण शारदा मिशन भगिनी निवेदिता बालिका विद्यालय के नाम से जाना जाता है।  शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है –‘शिक्षा का अर्थ बाहरी ज्ञान तथा शक्ति का संचय करना नहीं, अपने भीतर की शक्ति को सम्यक रूप से विकसित करने की साधना है। भारतवर्ष की शिक्षा की भित्ति है त्याग और प्रेम।’ 

स्वामी विवेकानन्द, जोसफिन मक्लोइड और साराबुल के साथ भगिनी निवेदिता ने काश्मीर समेत पुरे भारत का भ्रमण किया। रामकृष्ण मिशन के सेवा कार्य एवं समाज सेवा में पूर्ण रूपेण समर्पित थीं इसके साथ भारत की स्वतंत्रता की जोरदार समर्थक भी थीं।

अरविन्दो घोष जैसे राष्ट्रवादीयों से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध थे उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से तो राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग नहीं लिया परन्तु भारतीय युवाओं को अपने व्याख्यानों और लेखों के माध्यम से प्रेरित किया एवं राष्ट्रीय कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में भाग लिया।

भारतवर्ष के लिए निवेदिता ने जिस राष्ट्रीय झंडे की परिकल्पना की थी, उसमें दधिची की अस्थि से बना व्रज बना था। आचार्य जगदीश चन्द्र बसु ने बसु-विज्ञान-मंदिर के शीर्ष पर इस व्रज चिन्ह को स्थापित किया।                                                             

निवेदिता का विश्वास था की भारत का जागरण केवल राजनैतिक अथवा धार्मिक क्षेत्र में ही नहीं होगा, बल्कि विज्ञान, शिक्षा, साहित्य, इतिहास, शिल्प तथा सभी क्षेत्रों में होगा। भारतीय शिल्प की बड़ी समर्थक थीं। उनका मानना था कि प्राचीन राष्ट्रीय शिल्प-कला का पुनरुत्थान होने पर ही भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में जाग उठेगा। 

नि:स्वार्थता, त्याग एवं तपस्या की प्रतिमूर्ति सिस्टर निवेदिता ने गुलाम भारत में जब प्लेग जैसी महामारी फैली थी तथा भयंकर बाढ़ ने कहर ढाया था तब गाँव-गाँव घूमकर पीड़ितों की सेवा की। भारतीय परिधान साड़ी धारण कर कीचड़-गंदगी की परवाह ना करते हुए दिन-रात सेवा की। उनके उपचार हेतु हर सम्भव प्रयास किया। वे सच्ची देशभक्त और आकर्षक व्यक्तित्व की धनी थीं।

उन्होंने एक सच्ची शिष्या की तरह अपने नाम को पूर्ण समर्पण से सिद्ध कर दिया और 13 अक्टूबर 1911 को भारतवासियों में आशा का संचार कर 44 वर्ष की अल्पायु में चिरनिद्रा में लीन हो गईं। राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए ऐसा प्राणार्पण प्रयत्न अन्य किसी विदेशी के भीतर हम आज तक नहीं देख पाए। ऐसी थी भगिनी निवेदिता, जिनकी प्रेरणा आज भी भारतीय स्त्री चेतना में दिखाई देती है।

आलेख

श्रीमती रेखा पाण्डेय (लिपि) हिन्दी व्याख्याता अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़

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